वेदों में अन्तरिक्ष के पर्यायों का प्रतीकवाद

 अरुणा शुक्ला

 (जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर की पी.एच.डी उपाधि हेतु स्वीकृत शोधग्रन्थ)

1994ई.

 

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Introduction

Chapter One

Chapter Two

Chapter Three

Chapter Four

Chapter Five

Chapter Six  

Chapter Seven 

Chapter Eight  

About the Author

 

प्रस्तावना

प्रस्तुत शोध-ग्रन्थ उस निघण्टु पर मूलतः आश्रित है जिसे विश्व का प्राचीनतम शब्दकोश माना जाता रहा है। इस निघण्टु में एक अन्तरिक्षनामों की सूची दी गई है। इनमें से लोक में अम्बरम्, वियत्, व्योम और आकाशम् को समान रूप से प्राय ः आकाश का वाचक माना जाता रहा है। इसी सूची में पृथिवी और भूः शब्द भी परिगणित हैं और बोलचाल की भाषा में अन्तरिक्ष उस लोक का नाम माना जाता है जो आकाश और पृथिवी के बीच स्थित कहा जाता है। इस प्रकार निघण्टु के लौकिक और वैदिक अर्थ में कुछ विरोध-सा उपस्थित हो जाता है क्योंकि लोक में अन्तरिक्ष उस लोक का नाम है जो धरती आकाश के बीच है। इसी प्रसंग में यह भी उल्लेखनीय है कि निघण्टु की सूची में आपः, पुष्करम् और समुद्र के साथ-साथ मार्गवाचक अध्वा तथा यज्ञनाम अध्वरम् भी सम्मिलित हैं। सबसे बड़ी कठिनाई तब सामने आई जब वह स्वयंभूः शब्द भी निघण्टु की अन्तरिक्ष नामावली में दृष्टिगत हुआ, जिसे लौकिक संस्कृत में परमात्मा अथवा आत्मा का बोध कराने वाला समझा जाता है। इसी प्रकार अन्तरिक्ष के पर्यायों में धन्व और सगर जैसे शब्दों का होना भी कुछ अटपटा सा लगा। इस प्रकार निघण्टु के अन्तरिक्षनामों की सूची में उल्लिखित सभी शब्दों को अन्तरिक्ष शब्द के लौकिक अर्थ में ग्रहण करने से कई उलझनें पैदा हुई । इन कठिनाइयों का समाधान न होने पर हमें यह कहने को बाध्य होना पड़ता कि हमारे प्राचीनतम वैदिककोश ( निघण्टु ) में सभी कुछ विश्वसनीय नहीं है।

ऐसी स्थिति में या तो निघण्टु की सूची को अमान्य ठहराया जाता अथवा अन्तरिक्ष के प्रचलित लौकिक अर्थ को अवैदिक कहा जाता। परन्तु ब्राह्मण-ग्रन्थों ने अन्तरिक्ष शब्द की जो व्याख्याएं यत्र-तत्र प्रस्तुत की हैं, उनके आलोक में यही प्रतीत हुआ कि वेद में इन अन्तरिक्षनामों की पृष्ठभूमि में एक अद्भुत प्रतीकवाद है। इसके आधार पर सामान्य अन्तरिक्ष शब्द का अर्थ-विस्तार करके उसकी एक ऐसी अवधारणा प्रदान कर दी गई है जिसके अन्तर्गत निघण्टु-सूची के सभी सोलह अन्तरिक्षनामों का समावेश हो जाता है। तदनुसार वैदिक मंत्रों में अन्तरिक्ष शब्द, आकाश और पृथिवी के मध्यवर्ती लोक के अर्थ में प्रयुक्त होकर भी, वेद में वर्णित "उरु अन्तरिक्ष जैसी कुछ नवीन अवधारणाओं की सहायता से, निघण्टु के सभी अन्तरिक्षनामों का बोधक एक ऐसा अद्भुत प्रतीक बन गया है जिससे जुड़कर अन्य अनेक प्रतीक भी वेद की विलक्षण प्रतीकवादी शैली का परिचय दे रहे हैं। इसी दृष्टि से इस शोध-ग्रन्थ का शीर्षक "वेद में अन्तरिक्ष के पर्यायों का प्रतीकवाद' रखा गया है।

उक्त प्रतीकवाद की खोज करते हुए पूरे वैदिक वाङ्मय का आलोडन करना आवश्यक हो गया। वैदिक मन्त्रों में जहां जहां निघण्टु के अन्तरिक्षनाम प्रयुक्त हुए हैं उन सब संदर्भो का संकलन करके देखा गया कि उन सबका क्या अर्थ हो सकता है। इस कार्य में सभी संहिताओं, ब्राह्मणों, आरण्यकों तथा उपनिषदों के अतिरिक्त निरुक्त, बृहद्देवता, पाणिनि-व्याकरण एवं यथासम्भव रामायण, महाभारत तथा पुराणों से भी सहायता लेनी पड़ी और यह बड़े हर्ष का विषय है कि हम अन्ततोगत्वा इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि निघण्टु में प्राप्त अन्तरिक्षनामों की सूची, वेद व्याख्या की दृष्टि से, बहुत महत्वपूर्ण है और इसके आधारभूत प्रतीकवाद को समझे बिना सम्बन्धित वेद-मन्त्रों को सुसंगत ढंग से नहीं समझा जा सकता।

इस प्रसंग में, हमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन ब्राह्मण-ग्रंथों से मिला। वहां हमें 'अन्तरिक्ष' शब्द की अनेक व्युत्पत्तियों का अध्ययन करने पर पता चला कि किस प्रकार 'अन्तरिक्ष' शब्द का अर्थ-विस्तार करने के लिए निर्वचन-शास्त्र का प्रयोग किया गया है। उदाहरण के लिए 'अन्तरिक्ष' शब्द का प्रयोग साधारण अर्थ में करते हुए भी उसका अर्थविस्तार करने के लिए यह कहा गया कि मूलतः जो "अन्तर्यक्ष शब्द था, वही परोक्ष रूप से अन्तरिक्ष कहा जाने लगा। अन्तर्यक्षम् का अभिधा मूलक अर्थ उस यक्ष का बोध कराता है जो सबके भीतर विराजमान है। इसी का रूपान्तर होने से वैदिक अन्तरिक्ष शब्द अपने सामान्य संकुचित अर्थ का बोध कराने के सा-साथ उस अन्तश्चेतना का भी सूचक हो गया, जिसे अन्तर्यक्ष कहा गया है और जिसकी तुलना मनुष्यव्यक्तित्व के भीतर विद्यमान उस यक्ष से भी की जा सकती है जो हिरण्ययकोश के ज्योतिर्मण्डित स्वर्ग में बैठा हुआ ब्रह्म-वेत्ताओं का वेद्य ब्रह्म कहा जा सकता है -

 

अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या,

तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वगों ज्योतिषावृतः।

तस्मिन् हिरण्यये कोशे त्र्यरे त्रिप्रतिष्ठिते,

तस्मिन् यद् यक्षं आत्मन्वत् तद् वै ब्रह्मविदो विदुः ।। अथर्व.१०.२.३१-३२

इस तथ्य को लेकर जब हम आगे बढ़े, तो हमें यह भी पता चला कि अनेक वेद मन्त्रों में अन्तरिक्ष को "उरु ॐ लोक" अथवा "उरु अन्तरिक्ष में परिणत करने के लिए प्रार्थना की गई है। इसका अर्थ यह हुआ कि जो हमारा साधारण अन्तरिक्ष आकाश ओर पृथिवी का मध्यवर्ती लोक माना जाता है उसी का एक लघु-संस्करण हमारे भीतर भी मनोमय तथा अन्नमय कोशों के बीच स्थित प्राणमय कोश के रूप में वर्तमान माना गया है जिसका विस्तार करके ही हम उस यक्ष तक पहुंच सकते हैं जो हमारे हिरण्यय कोश में विराजमान है और जिसे ब्रह्मवेत्ता लोग जानने के लिए प्रयत्नशील होते हैं। इसी प्रसंग में यह भी ज्ञात हुआ कि भूः, भुवः,स्वः, जनः, तप ः तथा सत्यम् नामक व्याहृतियां अथवा लोक हमारे भीतर हैं और आरोहण द्वारा जहां उच्चतम सत्यलोक तक पहुंचा जा सकता है वहीं उस सत्यलोक में प्राप्त शक्ति अथवा सामर्थ्य को, अवरोहण-क्रम से, नीचे लाकर अपने विचार और आचार को भी समृद्ध किया जा सकता है।

इस प्रकार हमारे अनुसंधान का कार्य अन्तरिक्षनामों अथवा उनके निर्वचनों तक सीमित न रहकर साधना के क्षेत्र में प्रवेश कर गया और हमें दर्शन, विशेषकर योग-दर्शन के क्षेत्र में भी पदार्पण करना पड़ा। इस दिशा में वैदिक मन्त्रों का आलोडन करने पर ज्ञात हुआ कि वहां१

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१.अथर्व १०.५.१-६

 

 

भी जिष्णुयोग तथा उसके अंगभूत ब्रह्मयोग, क्षत्रयोग, इन्द्रयोग, सोमयोग एवं अप्सुयोग की जहां विस्तृत चर्चा है वहीं हरियोग, छन्दसांयोग, ग्राव्णां योग तथा योगं-योगं का उल्लेख भी मिलता है और प्रत्येक योग में तवस् (बल) प्राप्त होता है। इसी प्रकरण में अन्तरिक्षनामों की सूची में सम्मिलित अध्वा और अध्वर शब्द भी उपयोगी जान पड़े। लौकिक संस्कृत में अध्वा का अर्थ मार्ग होता है परन्तु इसके वैदिक संदर्भ की परीक्षा करने पर पता चला कि महर्षि अरविन्द का यह कथन ठीक है कि वेद में "अध्वर' शब्द वस्तुतः आन्तरिक साधना का एक अध्वा मार्ग है। यह अध्वा अथवा अध्वर ही प्रकारान्तर से अन्तरिक्ष का उरुत्व-विधायक मार्ग कहा जा सकता है और इसी के द्वारा "उस ॐ लोक की प्राप्ति होती हुई कही जा सकती है।

अन्तरिक्ष की व्यापकता

इस प्रकार अन्तरिक्षनामों की खोज का केन्द्रबिन्दु वास्तव में आन्तरिक-साधना-मार्ग बन गया, जिसमें अन्तरिक्ष की व्यापकता का एक महत्वपूर्ण स्थान हो गया। उसी के साथ "उरु अन्तरिक्षम्", "उरु ऊं लोकम्' एवं 'उरु रज ः अन्तरिक्षम्" जैसी उक्तियों के साथ उक्त अध्वा तथा अध्वर की संगति बैठाते हुए यह भी स्वाभाविक प्रतीत हुआ कि यह साधना-मार्ग अन्नमयकोश से लेकर प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा आनन्दमय की ओर जाना चाहिए। इस दिशा में ब्राह्मणों और उपनिषदों से पर्याप्त संकेत मिले। शतपथब्राह्मण (४.३.४.१) के अनुसार अनः (मूल प्राण) की तुलना अन्तरिक्ष से की जाती है और तैत्तिरीय संहिता "अनोबाह्यं समे जीवनम् (तैसं.६.१.९.४) कहकर सम्पूर्ण जीवन के मूल में अनः को स्वीकार करती है। इस दृष्टि से अन्तरिक्ष को कुछ ऐसा ही व्यापक तत्व मानना पड़ता है जो प्राण की तरह ही जीवन का आधार हो। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि जैमिनीय-उपनिषद्-ब्राह्मण (२.३.३.६) ने तद् ब्रह्म इदं अन्तरिक्षम् कहकर जिस प्रकार पूर्वोक्त अन्तर्यक्षं की कल्पना का समर्थन कर दिया है उसी प्रकार काठक-संहिता १६.२ ने आत्मा अन्तरिक्षम्  की घोषणा करके और ताण्ड्यमहाब्राह्मण १५.१२.५ ने अन्तरिक्षेण इदं सर्वं पूर्णम्  कहकर यह संकेत कर दिया कि अन्तरिक्ष केवल आकाश और पृथिवी के भीतर रहने वाला ही कोई तत्व नहीं है अपितु उसकी एक विस्तृत और व्यापक अवधारणा भी है, जिसके कारण उसकी तुलना अथवा समीकरण मूल प्राण (अन ) आत्मा तथा ब्रह्म से भी सम्भव है। प्राणो वा अन्तरिक्षम्' (तैसं.५.६.८.५).अन्तरिक्षमात्मा (मैसं० ४.१३.४; काठः ।६.२१) और "तद् ब्रह्म इदमन्तरिक्षम्" (जैउ.२.३.३.६) जैसी उक्तियां इसी निष्कर्ष की पुष्टि करती हैं।

अन्तरिक्ष की यह व्यापकता उसके आप ः ' नाम से भी भलीभांति प्रकट होती है। इस प्रसंग में आपः को जलवाचक मानने से काम नहीं चलता। व्याप्त्यर्थक आप् धातु से निष्पन्न आपः शब्द जहां "प्राणाः वा आपः (तां.९.९.४; तैब्रा.३.२.५.२; जैउ.३.२.५.९) जैसे ब्राह्मण-वचनों में प्राणों का बोधक हो गया है, वहीं ओम् को भी उसी धातु से निष्पन्न करके माण्डूक्य उपनिषद् किसी स्तर पर आपः रूप प्राणों का समीकरण ओंकार के साथ करने को भी तैयार हो सकती है। इसका अर्थ है कि मनुष्य की एक ही अन्तश्चेतना है जो स्तर-भेद अथवा दृष्टि-भेद से अलग-अलग नाम ग्रहण करती है। उदाहरण के लिए, एक ही आपः नामक अन्तरिक्ष मानसिक आपः और वारुण आपः होकर संयुक्त रूप से श्रद्धा का कारण बनता है। सम्भवतः यही मनुष्यगत आपश्चन्द्राः " २ हैं जो प्रजापति प्रथम (हिरण्यगर्भ) ने उत्पन्न किए।३ यही आपश्चन्द्राः मनुष्य के भीतर ओज, सह, बल,वीर्य तथा नृम्ण नामक शक्तियों का रूप ग्रहण करते हैं जिन्हें पूर्वोक्त जिष्णयोग के लिए ब्रह्मयोग, क्षत्रयोग, इन्द्रयोग, सोमयोग तथा अप्सुयोग द्वारा पांच ढंग से एकजुट किया जाता है।४

वैदिक प्रतीकवाद

इस योग-प्रक्रिया द्वारा, उन शक्तियों की उस संयुक्त इकाई से हमारे भीतर अग्नि, इन्द्र, सोम, वरुण, मित्रावरुण, यम, पितरों और सविता का भाग कहा जाने वाला आपः का शुक और दिव्य वर्चस् हमें प्राप्त होता है।५ यही दिव्य भाग हमारे यज्ञ कर्मों में अभिव्यक्त होकर हमारे उस अहंकार-रूप अहि का वध करने में समर्थ होता है जो हमसे द्वेष करता है और जिससे हम द्वेष करते हैं (अथ.१०.५.१५) इसी को स्तरभेद पर आपः की उर्मि (वही, १६), आपः का वत्स (वही,१७) आपः का वृषभ (वही, १८), आपः का हिरण्यगर्भ (वही, १९), आपः की पृश्नि (वही, २०) और आपः के अग्न्यः ( वही, २१) भी कहा जाता है। इस प्रकार नीचे की ओर प्रवाहित होने वाला आपः का

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१.मनसा सृष्टा आपश्च वारुणश्चापो हास्मै श्रद्धां सनमन्ते ऐआ.२.१.७

२.मनुष्या वा आपश्चन्द्राः माश ७.३.१.२०

३.यश्चापश्चन्द्रा प्रथमो जजान कस्मै देवाय हविषा विधेम।

काठ १६.१४ 

४.अथर्व १०.५.१-६

५.वही, ७-१४

प्रवाह हमारे सभी अनृत, दुरित और रिप्र ( पाप ), दुष्वप्न्य तथा मल को (वही, २२-२४) दूर करता है, क्योंकि अनृतादि की उत्पत्ति और वृद्धि का मूल कारण अहंकार-रूप वृत्र ही है जो न केवल दिव्य आपः का प्रवाह रोकता है अपितु दुरित को पैदा करने वाले काम, क्रोधादि को भी जन्म देता है।

इसी प्रसंग में, एक मनोरंजक प्रकरण और जुड़ गया जिसे "विष्णु का क्रम" कहा गया है। वेद और पुराण में विष्णु के तीन "विक्रमों" का प्रायः उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार विष्णु को "त्रिविक्रम" भी कहा जाता है। परन्तु यहां विष्णुक्रम का साधारणीकरण कर दिया गया है और तदनुसार, दिव्य आपः (अन्तरिक्ष अथवा प्राण-रूप अन्तश्चेतना) के अवरोह के पश्चात् होने वाले एक आरोही चेतना-प्रवाह की "विष्णु-क्रम" संज्ञा है। यह विष्णुक्रम अन्नमय-कोशरूप पृथिवी, प्राणमयकोश-रूप अन्तरिक्ष तथा मनोमय-कोश-रूप द्यौ तक ही सीमित नहीं रहता, अपितु वह "मनस्तेजाः" हो कर चारों ओर दिशाओं में जाता है और तत्पश्चात् भिन्न-भिन्न तेज धारण कर वह आशाओं, ऋचाओं, यज्ञ, ओषधियों, आपः, कृषि एवं एकीभूत प्राण तक पहुंचता है (वही, २५-३५) और प्रत्येक स्तर से वह अहंकार-स्प वृत्र को निकालने का कार्य करता है।

कृषि का प्रतीकवाद

इसके पश्चात्, विष्णुक्रम के जो क्षेत्र बताए गए हैं उनमें कुछ ऐसे नाम हैं जो आध्यात्मिक जगत से संगति रखते नहीं प्रतीत होते। उदाहरण के लिए, कृषि को ले लीजिए, जहां से शत्रु को निष्कासित करने वाला विष्णुक्रम अन्नतेजाः " कहा गया है। इस प्रसंग की संगति कृषि शब्द के अभिधामूलक अर्थ के साथ नहीं बैठती। इसके लिए हमें उस प्रतीकवाद का सहारा लेना होगा जिसे डॉo फतहसिंह ने "मानवता को वेदों की देन ' में कृष और क्रांस' शीर्षक से कृषि, कृष्टि, कृष्टिहा आदि वैदिक शब्दों की व्याख्या करते हुए प्रतिपादित किया है। तदनुसार आध्यात्मिक जगत् में चेतना के आरोहावरोहक्रम द्वारा जो "कर्षण (उत्कर्षण-अवकर्षण) होता है उसी का बोधक वेद का "कृषि" कर्म शब्द है और उसके फलस्वरूप उपजने वाली जो रोगों अथवा अवगुणों आदि का संहार करने वाली शक्तियां होती हैं उन्हीं को उक्त विष्णक्रम के प्रसंग में 'ओषधियां " कहा जा सकता है। उत्कर्षण और अवकर्षण में वस्तुतः सत् का ग्रहण और असत् का निष्कासन अपेक्षित है। इसी के पलस्वरूप हमारे असत् से सत् की ओर जीव का उत्तरोत्तर कर्षण होता रहता है। जब जीव असत् से पूरी तरह दूर ( कृष्ट) हो जाता है तो उसकी "कृष्टि' संज्ञा होती है। इस कृष्टि को जो दिव्य बल प्राप्त होता है उसे वेद में, उक्त विद्वान् के अनुसार, "कृष्टिहा इव'" कहा गया है। "कृष्टिहा" का अभिधेयार्थ है "कृष्टिघातक या कृष्टि त्यागी"। उस बल को उत्प्रेक्षा द्वारा कृष्टिहा-सदृश कहा गया, क्योंकि इस अवस्था में जीवात्मा अपने पिता (परमात्मा) से सायुज्य प्राप्त करके मानो समाप्त हो जाता है इसी बात को उत्प्रेक्षा द्वारा कृष्टि का अन्त-सा मान लिया गया।

इसके और स्पष्टीकरण के लिए स्वयं मन्त्र और उसके संदर्भ पर एक दृष्टिपात करना समीचीन होगा। मन्त्र इस प्रकार है -

१- मानवता को वेदों की देन - प्रकाशन -वेद संस्थान,

नई दिल्ली

 

प्र कृष्टिहेव शूष एति रोरुवत् असुर्यं वर्णं निरिणीते अस्य तम्।

जहाति वव्रिं पितुरेति निष्कृतमुपप्रुतं कृणुते निर्णिजं तना ।।

अर्थात् 'शब्द करता हुआ बल (शूषः) उस जीव के आसुरी वर्ण को दूर करता है, तो वह ऐसी प्रकृष्ट गति से आता है मानो वह कृष्टिहा

(कृष्टि का वधकर्ता) हो। जीवात्मा अपने आवरक रूप (वव्रि) को त्याग देता है और पिता के प्रकटित आसन्न स्वरूप को प्राप्त होता है तथा संतान को शुद्ध करता है।

इस मन्त्र में जीव का जो पिता कहा गया है वह पूर्ववर्ती १ मन्त्र का "ब्रह्म" है जिसे व्यक्त करने के लिए एक ऐसी बलवती दक्षता (दक्षिणा शुष्मी) की सर्वत्र सृष्टि की जाती है जिसके फलस्वरूप जीव जागरूक होकर द्रोही राक्षसों से रक्षा करने में प्रवृत्त होता है और हरितवर्ण २ आत्मज्योति आन्तरिक आकाश को शुभ्रता में दुग्धरूप कर देता है। इस ब्रह्म के आविर्भूत होने से ही जीवात्मा 'असुर्य वर्ण' को दूर करके अपने आवरक रूप (वव्रि) को त्यागकर पिता के पास जाने वाला कहा जा सकता है।

कृष्टि और क्राइस्ट

अपने पिता के पास पहुंचने के बाद वह अपनी संतान (तना) को शुद्ध अथवा परिमार्जित करने वाला भी कहा गया है। डा० फतहसिंह

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१.आ दक्षिणा सृज्यते शुष्म्या सदं वेति द्रुहो रक्षसः पाति जागृविः। हरिरोपशं कृणुते नभस्पय उपस्तिरे चम्वोर्ब्रह्म निर्णिजे ।। ऋ.९.७१.१

२.तु.आत्मा हरितं हिरण्यम् (काठ.१०.४)।

के अनुसार जीवात्मा की यह संतान व्यक्तिगत इच्छाओं, विचारों.क्रियाओं आदि के रूप में होती है जिसे वह ब्रह्म-साक्षात्कार के पश्चात् निस्संदेह सर्वथा शुद्ध रखने में समर्थ होता है। इस प्रसंग में, उक्त विद्वान् ने यह संभावना भी व्यक्त की है कि वैदिक कृष्टि ही संभवतः यहूदी भाषा का क्राइस्ट शब्द है जो ईसाई धर्म के प्रवर्तक का नाम हुआ। उनके इस अनुमान का आधार यह है कि क्राइस्ट के विषय में भी निश्चित रूप से कहा जाता है कि जब उन्हें क्रॉस पर लटकाया, तो वे पुनर्जीवित होकर उसके बाद अपने पिता के पास रहने लगे जहां से वे अपनी संतान का हित-संपादन करते रहते हैं। यद्यपि वेद में "कृष्टिहा-इव" पर आश्रित एक उत्प्रेक्षा द्वारा कृष्टि ( क्राइस्ट) की आलंकारिक हत्या की ही बात कही गई है, परन्तु यह संभव है कि ऐतिहासिक ईसामसीह के विषय में भी मूलतः यह आलंकारिक वर्णन ही जुड़ा हो, जिसे कालांतर में जनसाधारण ने एक ऐतिहासिक घटना मान लिया हो।

वेद में क्रांस

इसी की पुष्टि में डाँ.फतहसिंह ने कुछ अन्य तथ्य भी वेदमन्त्रों से प्रस्तुत किए हैं। तदनुसार वेद का कृष शब्द ही पाश्चात्य भाषाओं में प्रयुक्त क्रास है। वेद मं् कृष (क्रास) पर होने वाले इन्द्र के वीरोचित कार्य (पौंस्य) की तुलना क्राइस्ट के "क्रूसीफिक्शन" से की जा सकती है। इस घटना का उल्लेख निम्नलिखित मंत्र में है-

निरग्नयो रुरुचुर्निरु सूर्यो निः सोम इन्द्रियो रसः ।

निरन्तरिक्षादधमो महामहिं कृषे तदिन्द्र पौंस्यम् ।। ऋ.८.३.२०

इसके अनुसार, अग्नियों का प्रकट हो कर प्रज्ज्वलित होना, सूर्य का पूर्णोदय,

 

सोम नामक इन्द्रिय-रस का आविर्भूत होना तथा अन्तरिक्ष से महा अहि (वृत्र) का निष्कासन - ये सब इन्द्र के उस पौंस्य की अंगभूत घटनाएं हैं जिसे उसने क्रांस पर (कृषे) संपन्न किया। इसके परिणामस्वरूप होने वाली उपलब्धियों में उक्त पूर्णोदित सूर्य है जिसे आगे के मन्त्रों (२१-२४) में वह "विश्वेषां शोभिष्ठम्" बताया गया है जो पहले आकाश में दौड़ता था, परन्त अब सन्निकट सा (उपेव) हो गया है; यही "दिव्य धनों का बोधक (रायो विवो धनम्)  "रोहित" है और यही वह 'आत्मा' हे जिसे पिता का अन्तेवासी मानकर उसकी स्थिति को ओजप्रदात्री अभिव्यक्ति तथा रोहित की वह 'तुरीय' अवस्था कहा गया है जिसे परिपक्वता को स्थिरता देने वाले 'भोज' का प्रदाता कहा जा सकता है।

इस तुरीय अवस्था को विष्णु का परम पदकहा जाता है जहां विष्णु अपने तीन पदों के पश्चात् पहुंचता है और जहां मधु का उत्स तथा "भूरिशृंगा गावः " से प्राप्त होने वाले घी-दूध की कल्पना की जा सकती है। इस मधु तथा घी-दूध को ही उक्त भोजका बोधक माना जा सकता है। इस प्रकार कृष पर संपादित इन्द्र पौंस्य की तुरीया वस्था का समीकरण त्रिविक्रम विष्णु के परमपद के साथ हो जाता है और कृषि के पूर्वोक्त प्रतीकवाद के साथ वर्णित "विष्णुक्रमका सम्बन्ध बैठाते हुए इन्द्र तथा विष्णु का निकट सम्बन्ध सिद्ध हो जाता है।

विष्णु और इन्द्र

विष्णुक्रम के इस प्रकरण में आरोहण के पश्चात् सब दिशाओं में उसका गतिशील होना उस विष्णुचक्र की याद दिलाता है जो चारों

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१.ऋ.१.१५४.५-६

 

ओर घूमता हुआ शत्रु-संहार करता है। साथ ही यह भी स्मरणीय है कि यहां भी विष्णु क्रम शत्रु-संहार के प्रसंग में ही वर्णित है। यह शत्रु वृत्र है जिस का वध सामान्यतः इन्द्र करता है, परन्तु विष्णु इन्द्रस्य युज्यः सखा“ (ऋ.१.२२.१९) है और उसने न केवल अपने तीन कदम (विक्रम) इन्द्र के ओज द्वारा (ऋ.८.१२.२७) रखे, अपितु इन्द्र के साथ, वृत्र की हत्या (ऋ.८.२०.२) में, सहयोग भी दिया। विष्णु और इन्द्र का ऐसा ही सहयोग शंबर तथा उसके साथियों के विरुद्ध भी बताया जाता है और वे दोनों (इन्द्र-विष्णु) कभी-कभी एक साथ "क्रमण" करने वाले अथवा सोमपान करने वाले भी कहे जाते हैं।१

इन दोनों वैदिक देवों के उपर्युक्त सम्बन्ध को समझने के लिए स्मरणीय है कि इन्द्र दिव्य आपः अथवा प्रकाश का ऊपर से नीचे को अवकर्षण करता है २ और इसीलिए पुराणों में तो वह वर्षा का देवता माना गया है। पर, जैसा कि ऊपर देख चुके हैं, विष्णु मूलतः पृथिवी से द्यौ तक जाते हैं और तत्पश्चात् चक्रवत् गतिशील होते हैं । अतः इन्द्र और सोम को क्रमशः अवरोहण एवं आरोहण करने वाली अन्तश्चेतनाएं कह सकते हैं । प्राणापान तथा ध्यान-व्युत्थान इसी प्रकार की द्विविध क्रियाएं होती हैं जिसके परिणामस्वरूप हम अपने भीतर के कलुषित हुए प्राणों, विचारों, भावों या दोषों को दूर करने में समर्थ होते हैं। एक योगी के अनुसार, इस आन्तरिक शुद्धि के पश्चात् ही ध्यान में प्रकाश की चक्राकार गति दिखाई पड़ती है। इसी को पूर्वोक्त विष्णुक्रम की

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१.देखिए सूर्यकान्त (मेक्डानल) ः देवशास्त्र, पृ० ८८-८९

२.वही, पृ० १२७

 

चक्रगति-रूप में कल्पित कर सकते हैं। वेद में जब इन्द्र को ओज द्वारा किसी चक्र को गति देने वाला कहा जाता है १, तो भी सम्भवतः इसी चक्र से अभिप्राय होता है।

एक दूसरे संदर्भ में, इसी द्विविध गति को उत्कर्षण तथा अपकर्षण कहा जा सकता है और इसी द्विविध "कर्षण" के प्रसंग में क्षेत्रपति से मधुमान् ऊर्मि अथवा "ऋतस्य पतयः" द्वारा सुपूत मधुश्चुत घृत", मधुमती आपः रूप ओषधियों तथा मधुमत् अन्तरिक्ष की प्राप्ति२ का योग बनता है और उसके पश्चात् जो "कर्षण" होता है वह सर्वथा सुखपूर्वक होता है जिसके परिणामस्वरूप आन्तरिक आकाश में प्रकाशरूप दुग्ध (पयः) उद्भूत हो जाता है -

शुनं वाहाः शुनं नरः शुनं कृषतु लाङ्गलम्।

शुनं वरत्रा बध्यन्तां शुनमष्ट्रामुदिङ्गय ।।

शुनासीराविमां वाचं जुषेथां यद्दिवि चक्रथुः पयः ।

तेनेमामुप सिंचतम् ।। ऋ.४.५७.४-५)

वेद में मधु सोम का एक नाम है और सोम को श्री अरविन्दादि अध्यात्मवादियों ने आध्यात्मिक आनन्द माना है। अतः उपर्युक्त मन्त्रों में, हल द्वारा भूमि-कर्षण का जो रूपक प्रस्तुत क्यिा गया है उसे प्राणों द्वारा होने वाला कर्षण, तथा "वरत्रा" के बंधन एवं "उष्ट्रा" के उत्थान को यम-नियम-संयम के अर्थ में ग्रहण किया जा सकता है। इस संयमशील कर्षण से युक्त भूमि को ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में मानते

१.ऋ.१.१३०.९.

२.ऋ.४.५७.२-३

 

हुए, डॉ० फतहसिंह सूक्त के निम्नलिखित अगले मन्त्रों में प्रयुक्त सीता को इसी अर्थ में ग्रहण करते हैं -

अर्वाची सुभगे भव सीते वन्दामहे त्वा ।

यथा नः सुभगाससि यथा नः सुफलाससि।।

इन्द्रः सीतां निगृह्णातु तां पूषानु यच्छतु ।

सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम्।। ऋ.४.५७.६-७८

यहां ऋतम्भरा प्रज्ञा-रूप सीता के सुभग और सुफला होने की प्रार्थना है और साथ ही इन्द्र तथा पूषा से उसको जोड़ा जाना यहां साभिप्राय है। पूर्वोक्त मधु अथवा सोम-रूप आनन्दरस का पान करने वाले दोनों देवों के नाम कई बार एक ही समस्तपद में प्रयुक्त१ हुए हैं, क्योंकि इन्द्र-जन्म का परिणाम अहंकार-रूप वृत्र का वध है जबकि वृत्र-वध के फलस्वरूप होने वाले आध्यात्मिक पोषण को करने वाली अन्तश्चेतना का प्रतीक पूषा देवता है। इन दोनों से युक्त ऋतम्भरा प्रज्ञा-रूप सीता जिस पयस् से पयस्वती होकर निरन्तर दोहन करती है उसे वह दुग्ध-रूप प्रकाश कह सकते हैं जिसे पहले मधुमत् अन्तरिक्ष में प्रकट होता हुआ अथवा द्यौ में उत्पन्न होकर प्रज्ञारूपा  सीता-भूमि को सिंचित करने वाला बताया जाता है।२

इसी प्रतीकवाद का एक सुस्पष्ट और पूर्णतर रूप हमें अथर्ववेद के तीसरे काण्ड के सत्रहवें सूक्त में मिलता है। वहां प्रारम्भ में ही बता दिया गया है कि जो खेती यहां अभिप्रेत है उसे करने वाले "कवयः धीराः "

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१.ऋ.१.१६२.२; ७.३५.१

२.वही, ४.५७.५; अथ.३.१७.७

 

(योगी या ज्ञानीजन) हैं (मंत्र १) जो बीजवपन करते हैं, तो विराज् शक्ति की भरी हुई बाली ( श्रुष्टि) पकती और काटी (मंत्र २) जाती है, सोमरूप सत्' को गतिशील करने वाला फल प्रयुक्त होता है (मंत्र ३) और तब उस प्रज्ञाशक्ति-रूप सीता' को इन्द्र ग्रहण करता है तथा पूषा उसकी रक्षा करता है और वह तब निरन्तर पयस्वती होकर दुग्धरूप प्रकाश को (मंत्र ४) और सुपिप्पला ओषधियों (मंत्र ५) को देती रहती है। यहां न केवल 'कवयः धीराः' से यह संकेत मिल रहा है कि प्रस्तुत कृषिकर्म लौकिक न होकर आध्यात्मिक है अपितु 'सोमसत्सरु' शब्द का प्रयोग भी उसी ओर इंगित कर रहा है। इस समस्त-पद में सोमसत् स्पष्ट बता रहा है कि यहां जिस सोम से तात्पर्य है वह कोई लौकिक पेय न होकर आनन्दरूप 'सत्' है। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यद्यपि बीजवपन का उल्लेख एक बार पहले ही हो चुका है, परन्तु जब "सोमसत्" को गतिशील करने वाला फाल" फिर चलता है, तो एक गाय और रथवाहन (अश्व) का वपन (मंत्र ३) होता है। निस्संदेह आनन्दरूप सोम के गतिशील होने पर बोए जाने वाले ये दो पदार्थ कोई हाड़-मांस के पशु नहीं हो सकते । ये दोनों वही गाय और अश्व हैं जिनसे युक्त किसी देवी प्रमति का उल्लेख२ मिलता है और जिन्हें श्री अरविन्द ३ क्रमशः प्रकाश और शक्ति का प्रतीक मानते हैं।

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१.अथ.३.१७.३

२.सं देव्या प्रमत्या वीरशुष्मया गोअग्रयाश्वावत्या रभेमहि। ऋ.१.५३.५ 

३.वेद-रहस्य , पृ० १६

 

कृषि का प्रतीकवाद और विष्णुक्रम

उपर्युक्त प्रतीकवाद की दृष्टि से विष्णुक्रम के प्रसंग में दो बातें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । उनमें से प्रथम तो यह है कि विष्णुक्रम पृथिवी और द्यौ के अन्तर्वर्ती अन्तरिक्षलोक का प्रयोग भी करता है और दूसरी बात यह है कि द्यौ के पश्चात् वह ऊपर सभी दिशाओं में चक्रवत् गति करने लगता है। प्रथम की तुलना में निम्नलिखित वेद-मन्त्र में भी द्रष्टव्य है -

पृष्ठात्पृथिव्या अहमन्तरिक्षमारुहमन्तरिक्षाद्दिवमारुहम्।

दिवो नाकस्य पृष्ठात्स्वर्ज्योतिरगामहम् ।। अथ.४.१४.३

यहां साधक पृथिवी की पीठ से आरोहण करके अन्तरिक्ष पर जाता है और वहां से द्यौ पर पहुंचता है जिसके पश्चात् वह एक चतुर्थ लोक तक जा पहुंचता है जिसे मन्त्र में स्वः ज्योतिः ' कहा गया है। श्री अरविन्द१ के अनुसार यह चोथा लोक है जिसे 'तुरीयं स्विज्जनयद् विश्वजन्यः' कहकर याद किया जाता है। यह स्वः ज्योति ही वह प्रकाश है जिसको जीतने वाली बुद्धि को "स्वर्षा धीः' तथा प्रकट करने वाले इन्द्र को "स्वर्णरः ' कहा जाता है।

इससे स्पष्ट है कि इस मन्त्र में जिसे 'स्वः ज्योति" का लोक बताया गया है वही पूर्वोक्त विष्णुक्रम के प्रसंग में वह अतिमानसिक स्तर है, जहां वह "मनस्तेजा ः" होकर चारों दिशाओं, आशाओं आदि में चक्रवत् गतिशील हो जाता है। इसका अभिप्राय है कि इस तुरीय

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१.वेद-रहस्य, पृ० २३४.२३७

अवस्था में प्रकाश की जो चक्रवत् गति होती है उसे हम ऐसा स्तर कह सकते हैं जहां पर नीचे के तीन स्तरों पर होने वाले उत्कर्षण और अपकर्षण की द्विविध गति समाप्त हो जाती है। इसीलिए वेद में इस स्थिति को कृष्ण (कर्षण रहित) कहा गया है और इस स्तर से प्रादुर्भत होने वाले शक्ति प्रवाहों की "कृष्णसीतासः आशवः ' संज्ञा होती है जो मानव होने वाले मनु के लिए ॐ को गति देने वाले (ॐ जुवः) भी कहे जाते हैं -

मुमुक्ष्वो मनवे मानवस्यते रघुद्रुवः कृष्णसीतास ऊ जुवः ।

असमना अजिरासो रघुष्यदो वातजूता उप युज्यन्त आशवः ।।.ऋ.१.१४०.४

इस प्रकार यह मन्त्र उपर्युक्त कृषि के प्रतीकवाद की सीता के रूपान्तरों को जहां सीतासः ' की संज्ञा देता है वहीं यहां प्रयुक्त 'आशवः " शब्द उन आशाओं की ओर संकेत करता हुआ प्रतीत होता है जिनमें विष्णुक्रम चतुर्थलोक की दिशाओं के पश्चात् गतिशील होता हुआ कहा जाता है। दूसरे शब्दों में विष्णुक्रम के प्रसंग में जिन्हें 'आशाएं' कहा गया है उन्हें यहां 'आशवः' कहकर सायणाचार्य के समान, सर्वतः व्यापनशील शक्ति-प्रवाहों या प्रजाओं के रूप में ग्रहण करना होगा। वे ॐ जवः' तथा 'मुमुक्षवः ' भी कहे गए हैं क्योंकि वे ही मानवरूपान्तर में मनु को ( मानवस्यते मनवे) मोक्ष दिलाने के इच्छुक भी कहे माने गए हैं।

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१.विष्णो क्रमोऽसि सपत्नहाशासंशितो वाततेजाः।

आशा अनुविक्रमेहमाशाभ्यस्तं निर्भजामो योस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः। स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ।। -अथ.१०.५.२९

 

दूसरे शब्दों में, इन्द्र तथा विष्णु के संयुक्त प्रतीक में अन्तरिक्ष की सीमित अवधारणा के साथ "उरु अन्तरिक्ष की परिकल्पना भी समाविष्ट हो जाती है। प्रथम अन्तरिक्ष आकाश और पृथिवी का मध्यवर्ती लोक है जिसे व्यष्टि में मनोमयकोश तथा अन्नमयकोश के बीच का प्राणमयकोश कह सकते हैं। इसी में सभी अनृत, दुरित और रिप्र की प्रतिमूर्ति अहंकार-रूप वृत्र रहता है जिसे इन्द्र और विष्णु अलग-अलग या मिलकर मारने अथवा निकालने वाले माने गए हैं। वृत्र के निष्कासन के पश्चात् ही सीमित अन्तरिक्ष 'उरु अन्तरिक्ष बनता है जिसे तुरीय स्तर या विष्णु का परमपद कहा जाता है जहां से विष्णु-क्रम चक्रवत् सर्वतोमुखी गति धारण करता है। इस प्रकार अन्तरिक्ष की उक्त दो अवधारणाओं में, जैसा कि शोध-प्रबन्ध के विभिन्न अध्यायों में बताया गया है, निघण्टुगत अन्तरिक्षनामों में से सभी का सुसंगत समावेश हो जाता है। इस समावेश के लिए वेद ने जो प्रतीकवादी शैली अपनाई है उसका नमूना इस प्रस्तावना में प्रस्तुत हो गया है। आगे भी इसी शैली का सहारा लेते हुए विषय-प्रतिपादन किया गया है।

 

 

आभार

परब्रह्म परमेश्वर की महती अनुकम्पा से मैं इस शोधप्रबन्ध को अन्तिम रूप देने का साहस जुटा पा रही हूँ। इसका प्रारम्भ उस समय हुआ, जब मैंने वेद-संस्थान, नई दिल्ली के शोध-निदेशक के शोध-सहायक का कार्य किया। यह प्रेरणा सदैव मुझे सम्बल प्रदान करती रही है । आदरणीया डॉ० श्रद्धा चौहान के सुयोग्य निर्देशन में, मैं इस पावन कार्य को पूरा करने में सक्षम हो सकी। पूजनीय माता-पिता का स्नेह एवं आशीर्वाद तो सदा से रहा ही है। आदरणीय श्री ब्रजेश कुमार सिंह की टंकण एवं संपादन में अत्यधिक सहभागिता रही है। इनके अतिरिक्त जिनजिन पूज्य विद्वद्जनों का इस वैदिक ईश्वरीय कार्य में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग रहा उन सभी का मैं भूयोभूयः हृदय से आभार व्यक्त करती हूं और इसी तरह भविष्य में भी सहयोग, स्नेह एवं शुभाशीर्वाद मिलता रहे, ऐसी कामना है।

भवदीया

अरुणा शुक्ला 

(शोधकर्त्री)

कृष्णजन्माष्टमी २०५१

२९ जुलाई, १९९४