वेदों में अन्तरिक्ष के पर्यायों का प्रतीकवाद

 अरुणा शुक्ला

 (जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर की पी.एच.डी उपाधि हेतु स्वीकृत शोधग्रन्थ)

1994ई.

 

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Introduction

Chapter One

Chapter Two

Chapter Three

Chapter Four

Chapter Five

Chapter Six  

Chapter Seven 

Chapter Eight  

About the Author

 

 

प्रथम अध्यायः

प्रस्तुत शोध-कार्य क्यों ?

प्रस्तुत शोध-ग्रन्थ की प्रेरणा वैदिक निघण्टु से प्राप्त हुई है । निघण्टु अन्तरिक्षनामों की सूची में सोलह वैदिक शब्दों का उल्लेख करता है। बोलचाल की भाषा में अन्तरिक्ष शब्द पृथिवी और आकाश के मध्यवर्ती स्थान का बोध कराता है । अतः जब निघण्टु अन्तरिक्षनामों में अन्तरिक्ष के अतिरिक्त पन्द्रह अन्य शब्दों को समाविष्ट करता है, तो सामान्यतः यही मान लिया जाता है कि उस सूची के सभी शब्द उसी अन्तरिक्ष के बोधक हैं जो आकाश और पृथिवी के बीच स्थित है । इसी दृष्टि से वेद के भाष्यकारों ने उन शब्दों में से अनेक शब्दों का अन्तरिक्ष अर्थ ही किया है । इन शब्दों में से अम्बर, वियत, व्योम और  सदा आकाश को लौकिक संस्कृत में आकाश का वाचक माना जाता रहा है। अतः यदि इन शब्दों का वही अर्थ है जो अन्तरिक्ष का है, तब अन्तरिक्ष और आकाश एक ही सिद्ध होते हैं । इसी तरह सूची में परिगणित पृथिवी और भूः शब्द को भी अन्तरिक्ष-बोधक मान लिया जाए तो आकाश और पृथिवी दोनों में कोई भेद नहीं रह जाएगा अथवा यह मानना होगा कि आकाश और पृथिवी के जिस मध्यवर्ती स्थान को अन्तरिक्ष कहा जाता है वह तत्त्वतः आकाश और पृथिवी के समान होते हुए भी, किसी दृष्टि-विशेष से आकाश और पृथिवी से भिन्न माना जाता है।

आकाश और पृथिवी के संदर्भ में अन्तरिक्ष शब्द की यह संगति बेठा लेने पर भी, निघण्टु के अन्तरिक्षनामों की सूची में आपः, पुष्करम्, समुद्र, अध्वा और अध्वरम् का समावेश उतना ही अटपटा है

जितना कि परब्रह्म, परमेश्वर का बोध कराने वाले स्वयंभूः शब्द का । अन्तरिक्षनामों में एक अन्य शब्द सगर भी परिगणित है । सगर के स्थान पर यदि सागर होता, तो यह भी समझ लिया जाता कि वह सूची में सम्मिलित उक्त समुद्र शब्द का पर्याय होकर आ गया होगा । सगर शब्द का सम्बन्ध सागर से जोड़ने के लिए उस पौराणिक आख्यान का भी सहारा लिया जाता है जिसके अनुसार राजा सगर के पुत्रों ने अश्वमेध के अश्व को खोजने में पृथिवी की खुदाई की जिससे समुद्र बन गया और सगरपुत्रों द्वारा निर्मित होने से उसका नाम सागर हुआ ।

निघण्टु का महत्त्व

अस्तु, अन्तरिक्षनामों में जो विविधता है उसके कारण अन्तरिक्ष शब्द के प्रचलित अर्थ पर प्रश्नचिह्न लगता प्रतीत होता है। यदि वैदिक अन्तरिक्ष शब्द को प्रचलित अर्थ में ग्रहण किया जाता है, तो इस विविधता में या तो किसी एकता की खोज करनी पड़ेगी अथवा यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हमारे प्राचीनतम वैदिक कोश में सभी कुछ विश्वसनीय नहीं है। ऐसी स्थिति में या तो निघण्टु की सूची को अप्रमाणिक माना जाएगा अथवा अन्तरिक्ष के प्रचलित अर्थ को अवैदिक कहा जाएगा। अतः अन्तरिक्ष शब्द की जहां वैदिक परिकल्पना अन्वेषणीय है वहां यह भी देखना है कि निघण्टुगत अन्तरिक्षनामों का प्रयोग वैदिक मन्त्रों में अन्तरिक्ष के प्रचलित अर्थ में हुआ है या नहीं । एक अर्थ में अधिकांश अन्तरिक्षनामों का प्रयोग नहीं हुआ है, तो पता लगाना होगा कि अन्तरिक्ष का वह कौन-सा व्यापक और विस्तृत रूप है जिसके अन्तर्गत इन सभी नामों का समावेश किया

जा सकता है ।

इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे प्राचीन भाष्यकारों ने निघण्टु को एक प्रामाणिक कोश के रूप में स्वीकार किया है । प्रायः इस ग्रन्थ को यास्ककृत माना जाता है और कहा जाता है कि इसी "समाम्नाय' पर यास्क ने अपने ग्रन्थ निरूक्त की रचना की है । यास्क के समय कौत्स जैसे लोग थे जो वेद-मन्त्रों को अर्थहीन मानने लगे थे । अतः यास्क ने इस ग्रन्थ की रचना करके चिरकाल से विस्मृत हुए वेदार्थ का पुनरुद्धार करने का प्रयास किया है। पुनः देवराज यज्वा ने निघण्टु पर अपना भाष्य लिखकर इस कार्य को आगे बढ़ाया है । यास्क के निरुक्त में, निघण्टु के सभी शब्दों की व्याख्या नहीं हो सकी है। इसीलिए कुछ परवर्ती भाष्यकारों ने न केवल यास्क के निरुक्त पर, अपितु निघण्टु की शब्द-सूचियों पर भी लेखनी चलाई है । इस दृष्टि से देवराज यज्वा का कार्य महत्वपूर्ण है । इस भाष्यकार ने निघण्टु के सभी शब्दों की व्युत्पत्ति बताई है और वैदिक मन्त्रों के उदाहरण देकर व्युत्पत्ति की पुष्टि भी की है। इसीलिए, उन्होंने अपने ग्रन्थ को निघण्टु-निर्वचन नाम दिया है ।

वररुचि का निरुक्त-समुच्चय यद्यपि निघण्टु या निरुक्त पर भाष्य नहीं है, परन्तु ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही लेखक वेद-व्याख्यान में निर्वचन के महत्त्व पर जोर देते हुए यास्क के निरुक्त को उद्धृत करता है और उस समय प्रचलित एक कहावत की ओर संकेत करता हुआ कहता है कि वह जिन ३१ प्रकार की ऋचाओं का भाष्य कर रहा है उनको समझ लेने वाला, कहावत के अनुसार, मन्त्रवेत्ता हो जाएगा। भास्करराय का वैदिक-कोष और नारायण यज्वा की टीका भी महत्त्वपूर्ण है । वहां निघण्टु के शब्दों को नानापद काण्ड और एकपद काण्ड में विभक्त किया गया। नानापद काण्ड में पुनः भवादिवर्ग, कर्मादिवर्ग और भवादिवर्ग रखे गये हैं तथा एकपद काण्ड को जहादिवर्ग और आशुशुक्षण्यादिवर्ग में विभाजित किया गया है । इस मौलिकता के होते हुए भी, निघण्टु की शब्द-सूचियों में पठित शब्दों की किसी संभावित आधारभूत एकता पर कोई स्पष्ट प्रकाश नहीं डाला गया है। डाक्टर लक्ष्मणस्वरूप द्वारा सम्पादित और प्रकाशित स्कन्द-महेश्वररचित निरुक्त टीका भी इस विषय में चुप है ।

इस विषय में वेद-भाष्यकार भी मौन ही प्रतीत होते हैं । इसका प्रमुख कारण सम्भवतः यह है कि स्कन्दस्वामी से लेकर सायणाचार्य तक प्रायः सभी भाष्यकारों ने वेद भाष्य का लक्ष्य कर्मकाण्डीय यज्ञ को बनाया, जहां वेद के अर्थ को समझने की आवश्यकता नहीं समझी जाती थी और केवल मन्त्र के उच्चारण एवं यज्ञकर्म से होने वाले फल को ही महत्व दिया जाता था। इसी ओर संकेत करते हुए यास्क ने अपने निरुक्त में वेद-मन्त्रों का अर्थ जानने की आवश्यकता पर विशेष बल दिया और मन्त्र कण्ठाग्र करने वालों की स्थाणुरयं भारहारः' कहकर निन्दा की है । सम्भवतः कर्मकाण्डीय यज्ञ का अत्यधिक प्रचार हो जाने के कारण ही मूल निघण्टु में से वैदिक शब्दों की वे सूचियाँ अलग कर ली गई जो वेद-मन्त्रों की आध्यात्मिक व्याख्या की ओर संकेत दे रही थीं । डॉ० फतहसिंह का मत है कि निरूक्त में कुछ ऐसी ही नाम-सूचियां अब भी प्राप्त होती हैं और निरुक्त के सप्तम अध्याय ५-६ में यास्क की आध्यात्मिक दृष्टि स्पष्ट है ।

निरुक्त के त्रयोदश अध्याय में ऐसा ही एक उदाहरण इस प्रकार दिया गया है -- अथात्मनो महतः प्रथमं भूतनामधेयान्यनुक्रमिष्यामः। हंसः। धर्मः। यज्ञः। वेनः। मेधः। कृमिः। भूमिः। विभुः । प्रभुः। शंभुः। राभुः। वधकर्मा। सोमः। भूतम्। भुवनम्। भविष्यत्। आपः । महत्। व्योम । यशः। महः। स्वर्णीकम्। स्मृतीकम्। स्वृतीकम्। सतीकम्।

 

सतीनम्। गहनम्। गभीरम्। गह्वरम्। कम्। अन्नम्। हविः। सद्म। सदनम्। ऋतम्। योनिः। ऋतस्य योनिः। सत्यम्। नरिम्। हविः। रयिः । सत्। पूर्णम्। सर्वम्। अक्षितम्। बर्हिः । नाम। सर्पिः। अपः। पवित्रम्। अमृतम्। इन्दुः। हेम। स्वः। सर्गाः । शम्बरम्। अम्बरम्। वियत्। व्योम्। बर्हिः। धन्व। अन्तरिक्षम्। आकाशम्। आपः। पृथिवी। भूः। स्वयम्भूः। अध्वा। पुष्करम्। सगरः। समुद्रः। तपः। तेजः। सिन्धुः । अर्णवः। नाभिः। ऊधः। वृक्षः। तत्। यत्। किम्। ब्रह्म। वरेण्यम्। हंसः। आत्मा। भवन्ति। वधन्ति। अध्वानम्। यद्वाहिष्ट्या। शरीराणि। अव्ययं च संस्कुरुते। यज्ञः। आत्मा। भवति। यदेनं तन्वते ।'

आश्चर्य की बात यह है कि यहां महान् आत्मा के जिन 'अभिधेयानि की सूची दी गई है उनमें निघण्टु के अन्तरिक्षनामों में परिगणित नामों में से अध्वर को छोड़ और सभी आ गए है । इस बात का महत्व तब और भी बढ़ जाता है जब हम ब्राह्मणग्रन्थों में आध्यात्मिक दृष्टि का पोषण करने वाले इन समीकरणों को देखते हैं--

।- अन्तरिक्षमात्मा, मै.सं.४..; जै ब्रा.२.५४; तै आ.३..|

- आत्मान्तरिक्षम्, काठ.१६.

-तद्(ब्रह्म) इदमन्तरिक्षम् -जै.उ.२...

-अयमन्तरिक्षलोको निरुक्तः सन्ननिरुक्तः। मा.श.४...१७

- प्राणो वा अन्तरिक्षम्, तै.सं.५...; जै.ब्रा • .३०७;

मा.श.७...२६

- प्राणेन सृष्टावन्तरिक्षं च वायुश्चान्तरिक्षं वा अनुचरन्त्यन्तरिक्षमनु शृण्वन्ति , ऐ.आ.२..

- वागित्यन्तरिक्षम्, जै.उ.४.११..११

- अन्तरिक्षम् वै यज्ञः; मै.सं.३..; ..                                   

- इयं पृथिवी वै वागदो (अन्तरिक्षम्) मनः।; ऐ ब्रा.५.३३

इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि यास्कीय निरुक्त और निघण्टु का लक्ष्य वेद की जिस आध्यात्मिक व्याख्या को प्रोत्साहित करना था, वह ब्राह्मणग्रन्थों द्वारा समर्थित है। जब हम यास्क द्वारा प्रदत्त निर्वचनों को देखते हैं तो स्पष्ट हो जाता है कि उन निर्वचनों का मूलाधार ब्राह्मणग्रन्थ ही हैं । इसलिए निघण्टु में प्राप्त जो अन्तरिक्षनामों तथा अन्ननामों आदि की सूचियां दी गई हैं, वे भी ब्राह्मणग्रन्थों में उपलब्ध विविध समीकरणों के आधार पर ही बनाई गई प्रतीत होती हैं । जब ब्राह्मणग्रन्थ किसी निर्वचन को देते हुए 'इति परोक्षेण परोक्षप्रिया हि देवाः प्रत्यक्षद्विषः की घोषणा करते हैं तो निस्संदेह उस प्रतीकवाद की ओर संकेत करते हैं जो वेद-मन्त्रों में व्यापक रूप से प्रयुक्त हुआ है। ब्राह्मणग्रन्थों में देव जिस परोक्ष के प्रेमी कहे गए हैं, वह वस्तुतः वेद का वह गुह्य ज्ञान है जिसकी ओर संकेत करते हुए एक याधुनिक वेदभाष्यकार, महर्षि अरविन्द१ का निम्नलिखित मत है -

"वेद का गुह्य ज्ञान ही वह बीज है जो पीछे जा कर वेदान्त के अन्दर विकसित हुआ। जिस विचार के चारों ओर शेष सब केन्द्रित हैं, वह है सत्य, प्रकाश, अमरत्व की खोज । एक सत्य है जो बाह्य सत्ता के सत्य से गम्भीरतर और उच्चतर है, एक प्रकाश है जो मानवीय समझ के प्रकाश से बृहत्तर और उच्चतर है एवं जो अन्तःप्रेरणा तथा स्वतः प्रकाशन( इलहाम) द्वारा आता है, एक अमरत्व है जिसकी तरफ आत्मा को उठना है। इसके लिए हमें अपना रास्ता निकालना है, इस सत्य और

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.वेद-रहस्य; पृ० २०-२१

अमरत्व के स्पर्श (सम्पर्क) में आने के लिए (ऋतं सपन्तः अमृतम्), सत्य में उत्पन्न होने के लिए, उसमें बढ़ने के लिए, सत्य के लोक में आत्मतः आरोहण करने और उसमें निवास करने के लिए। ऐसा करना परमेश्वर के साथ अपने को युक्त करना है और मर्त्य अवस्था से अमरत्व में पहुंच जाना है। यह वैदिक रहस्यवादियों की प्रथम और केन्द्रीय शिक्षा है।

वैदिक रहस्यवाद

वैदिक-मन्त्रों की रहस्यवादी व्याख्या के अनेक नमूने ब्राह्मणों, आरण्यकों और उपनिषदों में भी प्राप्त होते हैं। उदाहरण के लिए ऋ ४.२६-२७ को शतपथ ब्राह्मण १४...२१-२२ (बृहदारण्यक उपनिषद् १..१०) निम्नलिखित रहस्यवाद से जोड़ता है

 "प्रारम्भ में ब्रह्म ही था। वह अपने को "अहं ब्रह्मास्मि' कहता था, इसलिए वह वही हो गया। जिन देवों को यह ज्ञान प्राप्त हो गया वे निस्सन्देह वही हो गए। यह बात ऋषियों और मनुष्यों पर  भी लागू होती है। यही देखकर ऋषि वामदेव ने यह जाना कि मैं मनु था, सूर्य था। (ऋ.४.२६.) ऐसा ही आज भी होता है। जो भी यह जानता है कि मैं ब्रह्म हूँ वह 'इदं सर्वम् " हो जाता है।

वैदिक मन्त्रों की रहस्यवादी व्याख्या करने वालों ने वैदिक देवताओं और श्रौतयज्ञों की भी रहस्यवादी व्याख्या की है जो ब्राह्मणों, आरण्यकों और उपनिषदों में यत्र-तत्र दिखाई पड़ती है। उदाहरण के लिए, तैत्तिरीयसंहिता में "मित्रावरुणौ को "प्राणोदानौ' कहा गया है और मरुतः, आदित्याः तथा वसवः को भी प्राण माना गया है।

आपः भी प्राण हैं, इसलिए मस्तः को आपः भी कहा गया है। यास्क ने भी अपने निरूक्त ७.२४ में ब्राह्मणग्रन्थों की इस प्रवृत्ति को स्वीकार किया है। इसी प्रकार श्रौतयज्ञों की भी रहस्यवादी व्याख्या की गई है। इस प्रसंग में अश्वमेध के विषय में निम्नलिखित उक्तियां विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं -

-   प्रजापतिरश्वमेधः -माश ३... .।.१५

-   प्राणश्च मे अश्वमेधश्च यज्ञेन कल्पताम् तैसं.४...

-   यजमानोऽश्वमेधः -माश १३...

-   एष वाऽश्वमेधो य एष (सूर्यः) तपति -माश १०...

-   राष्ट्रं वा अश्वमेधः - माश १३...१६; तै.३...; माश १३...

- उषा वाऽस्य अश्वस्य मेध्यस्य शिरः  - बृह.उ.१..

इसी प्रकार पुरुषमेध (माश १३... ), दर्शपूर्णमास )माश ११...-), द्वादशाह (जै.३.३२० ), पंचमुख सोम (शांआ.४.); कौ उ.२.) तथा पाकयज्ञ (तै.सं.१...) आदि की व्याख्या वैदिक वाङ्मय में प्रस्तुत की गई है। वैदिकोत्तर काल में भी आत्मविदों, आत्मवादियों अथवा आत्मप्रवादों का उल्लेख करते हुए, इसी प्रकार की वेद-व्याख्या को इंगित किया जाता रहा है। उदाहरण के लिए बौधायन धर्मसूत्र संन्यास के प्रसंग में अनेक वैदिक मन्त्रों का आध्यात्मिक अर्थ भी देता है । एक स्थान पर महाभारत में यज्ञ-पशु-बलि के प्रसंग में अज का अर्थ बकरा न करके व्रीहिमय पशु या एक प्रकार का बीज किया गया है और साथ ही कहा गया है कि यज्ञ में पशु - बलि नहीं करनी

 

.बौधायन धर्मसूत्र २.१०. -१८; ..,

 

 

चाहिए। १ अश्वमेधिक पर्व में यज्ञों का प्रतीकवादी अर्थ किया गया है २ जिसके अनुसार दश इन्द्रियां ही दश होता हैं, पांच प्राण, पांच ऋत्विज हैं , इन्द्रियों के विषय आहुतियां हैं और दश अग्नियां दश देवों की प्रतीक हैं २। सांख्य-दर्शन के प्रसंग में मित्र और वरुण नामक वैदिक देवों को क्रमशः पुरुष और प्रकृति माना गया है ।

वैदिक शब्दावली के आध्यात्मिक व्याख्यान का सर्वाधिक सुस्पष्ट संकेत श्री मद्भगवद्गीता में मिलता है। वहां चतुर्थ अध्याय में यज्ञार्थकर्म की चर्चा करते हुए ब्रह्माग्नि में होने वाले यज्ञ के साथ 'ब्रह्मकर्मसमाधि का उल्लेख, आत्मसंयमयोगग्नि में सर्व इंद्रियकर्मों की आहुति तथा तपोयज्ञ, योगयज्ञ और स्वाध्याय-ज्ञानयज्ञों की ओर संकेत निस्सन्देह वैदिक यज्ञ की प्रतीकवादी व्याख्या है। इसी प्रकार,जब गीता साधिभूत, साधिदेव और साधियज्ञ ब्रह्म को एक साथ जानने (७.३०) पर बल देती है, तो ऐसा लगता है कि मानों, वैदिक मन्त्रों की पृष्ठभूमि में किसी ऐसे तत्त्वज्ञान की कल्पना निहित है जिसमें भौतिक जगत् के रहस्य के साथ-साथ वैदिक देव और वैदिक यज्ञ का रहस्य भी गुंफित हो।३ इस प्रसंग में अर्जुन का यह प्रश्न कि "इस देह में अधियज्ञ कैसे ओर कौन हैं, विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। अध्याय

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.श्रूयते हि पुरा कल्पे नृणाम् व्रीहिमयः पशुः ये नायजन्त यज्वानः पुण्यलोक परायणाः ( महाभारत १३.११५.४९) बीजैर् यज्ञेषु यष्टव्यम् इति वै वैदिकी श्रुतिः अजसंज्ञानि बीजानि छागं नोहन्तुं अर्हतः। -महाभारत १२.३३७.

.महाभारत, १४.२१.I-; २२.|-; .-; २५.- १७

.डॉ० फतहसिंह; वैदिक दर्शन

 

पन्द्रह के आरम्भ में यस्तं वेद स वेदवित्' कहकर वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः ' द्वारा वेद के एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति  की ओर संकेत है तो अध्याय नवम में विज्ञान-सहित ज्ञान के साथ राजविद्या या राजगुह्य की चर्चा निस्संदेह वेद-मन्त्रों में समवेत किसी सुनिश्चित तत्त्वज्ञान की ओर संकेत है ।

इसी तत्त्वज्ञान की ओर संकेत करते हुए यास्क ने देवतकाण्ड के प्रारम्भ में कहा "महाभाग्याद् देवताया एक आत्मा बहुधा स्तूयते। एकस्य आत्मनः अन्ये देवाः प्रत्यङ्गानि भवन्ति। " इसी को सिद्ध करने के लिए निरुक्तकार ने पुनः "एकस्तुत्यः ' नाम देकर अनेक वैदिक मन्त्रों की व्याख्या भी की है। इससे स्पष्ट है कि यास्क वेदों के विस्मृत हए तत्त्वज्ञान का पुनरुद्धार करने के लिए ही प्रयत्नशील थे। इसीलिये जिस युग में स्कन्दस्वामी, नारायण, उद्गीथ, नारायणपुत्र माधव, वेंकटमाधव, उव्वट, शौनक, भट्टभास्कर, महीधर ओर सायण जैसे भाष्यकारों ने वेद मन्त्रों का यज्ञपरक अर्थ किया है, वहां कुछ ऐसे भाष्यकार भी हुए जिन्होंने वेद का आध्यात्मिक अर्थ देने का भी प्रयास किया है। इनमें आनन्द तीर्थ और आत्मानन्द प्रमुख हैं । आनन्द तीर्थ का दूसरा नाम माधवाचार्य है । वे द्वैतवादी वेदान्ती माधव-सम्प्रदाय के संस्थापक थे। उन्होंने अपने ऋग्भाष्य में इस मत का प्रतिपादन किया है कि पुरुष-सूक्त का नारायण पुरुष ही सभी वेदों का एकमात्र प्रतिपाद्य है। आत्मानन्द ने ऋग्वेद के अस्यवामीय सूक्त (१.१६४) पर भाष्य लिखते हुए स्कन्द, भास्कर आदि भाष्यकारों की यज्ञपरक और भौतिक व्याख्या करने तथा मन्त्रों के रहस्यवादी अर्थ की उपेक्षा करने के लिए निन्दा की है। आत्मानन्द ने स्वयं अद्वैत वेदान्त का प्रतिपादक भाष्य किया है जिसे वे विष्णुधर्मोत्तरपुराण पर आधारित मानते हैं ।

 

इस प्रकार वेद-मन्त्रों के आध्यात्मिक व्याख्यान की जो उपेक्षा हुई, उस पर कोई आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि आध्यात्मिकता-प्रेमी समाज में सम्भवतः सदा ही कम होते आए हैं। समाज का अधिकांश भाग भौतिक सुख-समृद्धि का उपासक होने से धर्म के उसी पक्ष की ओर अधिक आकर्षित होता है जो उसे ऐहिक समृद्धि यश एवं कीर्ति दिलाने में सहायक हो। इस उद्देश्य की पूर्ति करने के कारण सर्वत्र और सर्वकाल में कर्मकाण्ड ही लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने में अधिक समर्थ होता है। तन्त्र-मन्त्र और अभिचार की ओर दौड़ने वाले जन-सामान्य सदा ही रहे हैं। इसलिए यदि यजपरक वेदार्थ की महिमा यज्ञ-प्रचार के कारण अधिक गौरव पा गई तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं होगा कि वेद-मन्त्रों का तात्पर्य सदा से इसी प्रकार भौतिकता-प्रधान रहा है। सच तो यह है कि जिन विद्वानों ने याज्ञिक अर्थ किया है वे भी वेद-मन्त्रों के आध्यात्मिक अर्थ से सर्वथा अनभिज्ञ नहीं थे, परन्तु व्यापक मांग को देखते हुए और अपनी निजी परिस्थितियों को ध्यान में रखकर उन्हें यजपरक अर्थ ही करना पड़ा।

उदाहरण के लिए आचार्य सायण के ही भाष्य को ले लीजिए, जिन्होंने सर्वाधिक सुविस्तृत, सम्पन्न तथा विद्वत्तापूर्ण भाष्य हमें प्रदान किया है। ऋ १.१६४ का आध्यात्मिक भाष्य करते हुए, वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि इसी प्रकार अध्यात्मपरक व्याख्या आगे भी की जा सकती है,परन्तु वे ऐसा नहीं कर रहे हैं तो उसके दो कारण हैं । पहला कारण है स्वरसत्व का अभाव और दूसरा है ग्रन्धविस्तरभय- एवमुत्तरत्रापि अध्यात्मपरतया योजयितुं शक्यम् । तथापि स्वरसत्वाभावात् ग्रन्थविस्तरभयाच्च न लिख्यते। इसी प्रकार ऋ.४.५८.३ का भाष्य करते हुए उनका कथन है कि यद्यपि सूक्त के जो अग्नि , सूर्य,आपः,गौ ओर घृत-रूप में पांच देवता स्वीकार किए गए हैं उनमें से प्रत्येक के अनुसार इस मन्त्र का अर्थ क्यिा जाना चाहिए । परन्तु वे केवल यज्ञात्मक अग्नि और सूर्य को लक्ष्य करके ही अर्थ कर रहे हैं क्योंकि कर्मकाण्ड की दृष्टि से इतना ही अपेक्षित है। जैसा कि प्रस्तुत शोध-ग्रन्थ में आगे बताया गया है, उक्त पांचों देवता वस्तुतः एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति की ही पुष्टि करने वाले हैं। पर पांच प्रकार से इसका पृथक्-पृथक् अर्थ करके और फिर उन सबका समन्वय दिखलाने पर भाष्य का आकार कितना बढ़ जाता, इसका केवल अनुमान ही किया जा सकता है ।

आधुनिक भाष्यकार

आचार्य सायण आदि याज्ञिक भाष्यकारों की कठिनाई इस बात से और अधिक बढ़ जाती है कि उस समय छापेखाने नहीं थे और अग्वेद जैसे महान आकार वाले ग्रन्थों पर बृहदाकार भाष्य लिखना और लोकप्रिय बनाना लगभग असम्भव ही था। परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं कि इस प्रकार की कठिनाइयों के कारण वेद-विद्या के सत्य से मानव-जाति को वंचित रखा जाए । सौभाग्य से हमारे इस वैज्ञानिक युग में सभी प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध हो जाने से वेद-मन्त्रों के मूल अर्थ को खोज निकालना और उसे मानव-जाति के कल्याण के लिए प्रयोग में लाना अधिक कठिन नहीं होना चाहिए। इसलिए पिछले सौ साल में देशी और विदेशी विद्वानों ने वेदाध्ययन के लिए जो रूचि दिखाई है, वह स्वागत-योग्य है,यद्यपि अधिकांश विद्वानों ने या तो सायण की याज्ञिक व्याख्या को अपनाया है अथवा सायण की निन्दा करते हुए और तुलनात्मक भाषा-विज्ञान आदि का अनुसरण करके अपना निजी अर्थ देने का प्रयास किया है ।

आधुनिक वैदिक विद्वानों में ऐसे कई हुए हैं जिन्होंने लगभग अपना पूरा जीवन ही वेदाध्ययन में लगा दिया । मैक्समूलर, मेक्डोनल, ग्रिफिथ, ओल्डेनबर्ग, ग्रासमैन, गेल्डनेर, हिलेब्राँ, ए०बी० की कीथ, राँथ, विन्टरनित्स.पिशेल आदि अनेक विदेशी विद्वानों ने इस दिशा में जो कार्य किया है उसकी प्रायः प्रशंसा की गई है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इनका परिश्रम और लगन अत्यन्त स्तुत्य है, परन्तु वे वैदिक मन्त्रों के मूल भाव तक पहुंचने में कहाँ तक सफल हुए, इस विषय में मैक्समूलर का कहना है कि, "जिन लोगों ने वेद पर काम नहीं किया उनको यह समझाना बहुत कठिन है कि कभी कभी ऐसा होता है कि हम लगभग प्रत्येक शब्द जानते होते हैं, फिर भी मन्त्र की सुसंबद्ध विचारशृंखला हाथ नहीं लगती। डॉ० आनन्द कुमार स्वामी अपने 'न्यू एप्रोच टु वेदाज़' के प्रारंभ में ही वैदिक ग्रन्थों के आधुनिक अनुवादों के विषय में कहते हैं -- 'यह अनुवाद तुलनात्मक भाषा-विज्ञान की दृष्टि से कितने ही विद्वत्तापूर्ण क्यों न हों, परन्तु वे न केवल पाठकों के लिए अबोधगम्य होते हैं, अपितु कभी कभी तो स्वयं अनुवादक स्वीकार करते हैं कि वह अनुवाद स्वयं उनके लिए भी अबोधगम्य है ।"

 इसका मूल कारण, इस विद्वान् के अनुसार, यह है कि ये अनुवादक लोग वेद के तत्त्वज्ञान से सर्वथा अनभिज्ञ हैं । एम० विन्टनित्स कहते हैं कि इन अनुवादकों की असफलता का कारण प्रायः यह होता है कि वे केवल उन मन्त्रों का अनुवाद करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाते, जिनको वे अच्छी तरह समझ चुके है, बल्कि वे यह सोचते हैं कि उन्हें प्रत्येक मन्त्र का अनुवाद करना चाहिए, यहां तक कि ऐसे मन्त्रों का भी जिनकी अभी तक ठीक तरह से व्याख्या नहीं की गई है।

 

इसके अतिरिक्त, शब्दशः अनुवाद करने के प्रयास का परिणाम भी कभी कभी अत्यन्त हास्यास्पद सिद्ध होता है। सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ० रामगोपाल ने ओल्डेनबर्ग के एक ऐसे ही प्रयास का उदाहरण देते हुए लिखा है, "विवाह पूर्व होने वाली एक क्रिया का जो वर्णन शांखायन गृह्यसूत्र १..६ में प्राप्त है उसके अनुसार आचार्य वधू के शिर पर जल से पूर्ण एक घड़ा रखकर उसे आशीर्वाद देते हुए कहता है -- "प्रजां त्वयि दधामि, पशुं त्वयि दधामि। - इस आशीष का ओल्डेनबर्ग अनुवाद करते हैं --मैं तुझमें प्रजा रखता हूँ, मैं तुझमें पशु रखता हूँ ।" यह अनुवाद न केवल सरासर बेहूदा है, अपितु भ्रामक भी है। वास्तव में अनुवाद होना चाहिए था कि, "मैं तुझे प्रजा प्रदान करता हूँ, मैं तुझे पशु-धन प्रदान करता हूं । वेदों के अनुवाद के विषय में श्री अरविन्द का कथन है, 'ऋग्वेद के सूक्तों जैसी कविता का (जो अपने रूपकों और अलंकारों में समृद्ध है कोई भी अनुवाद ऐसा तो होना ही चाहिये जिसमें उसकी काव्य-शक्ति की कुछ प्रतिध्वनि तो मिलना ही चाहिए......ऋषियों की शैली और उनके स्वाभाविक लेखन के भाव तक कुछ सीमा तक पहुंचने के लिए अनुवादक को सतत ही वेद के केन्द्रभत वचन को किंचित् सरल रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न करना होता है। अनुवादक की एक दूसरी बड़ी कठिनाई वेद में सर्वत्र श्लिष्टार्थक भाषा का प्रयोग है जिसके अनुसार एक ही शब्द द्वारा प्रतीक और प्रतीक से अभिप्रेत वस्तु समझी जाती है। गो शब्द प्रकाश-किरण और गाय का, अश्व शब्द आध्यात्मिक शक्ति और घोडे का एक साथ बोध कराता है। उदाहरण के लिए, ऋग्वेद के "सं देव्या प्रमत्या वीरशुष्मया गोअग्रया अश्वावत्या गमेमहि । (ऋ.१.५३.) को ले लीजिए। यहां देवी प्रमति के लिए प्रयुक्त विशेषणों वीरशुष्मा, गोअग्रा और अश्वावती में वीर, गो और अश्व को यदि सामान्य अर्थ में लिया जाए तो एक ऐसी प्रमति की कल्पना करनी होगी जिसमें वीर का बल हो, गाय उस के आगे हो और साथ ही वह अश्व से युक्त हो। ऐसी प्रमति की कल्पना कितनी हास्यास्पद होगी । इस प्रमति के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिए हमें निस्संदेह वीर, गो तथा अश्व शब्दों को प्रतीक के रूप में लेकर सम्बन्धित मन्त्र की व्याख्या करनी पड़ेगी, केवल शाब्दिक अनुवाद से काम नहीं चलेगा ।

आधुनिक विद्वानों ने प्रायः वेदों को समझने के लिए ऐतिहासिक दृष्टिकोण को अपनाया है। इस विषय में इंट्रोडक्शन टु हिन्दू डाक्ट्रिंस' में सुप्रसिद्ध मनीषी रेनेंग्वेनाँ का कहना है कि "वेदों में मानव जाति की सार्वभौम और समान परम्परा प्राप्त होती है । अतः वहां विचारों अथवा कल्पनाओं के ऐतिहासिक विकास को देखना मूर्खता है क्योंकि परम्परा की विशेषता ही यह है कि उसमें कोई बदलाव नहीं आता । इस विषय में वे वेद के 'मनु' शब्द का उदाहरण देते हैं । उनका मत है कि मनु और उससे सम्बन्धित जो जल-प्लावन की कथा है उसका जो रूप वैदिक वाङ्मय में पाया जाता है उसे भूगोल और इतिहास से सम्बन्धित एक घटना के रूप में समझना बहुत बड़ी भूल होगी । उनके विचार में मनु उस आदि मानव का प्रतीक हे जो जन-जन के भीतर आदिकाल से लेकर अब तक निरन्तर विद्यमान है। उसे एक ऐतिहासिक व्यक्ति मान लेने पर उसके वास्तविक अभिधेयार्थ को प्राप्त करना सर्वथा असम्भव है ।

इसी प्रकार के विकासवाद का सिद्धान्त आधुनिक विद्वान् वैदिक भाषा के विषय में भी लागू करते हैं । इस प्रसंग में, डा० फतहसिंह ने अपने भावी वेद भाष्य के संदर्भ सूत्र में और अन्यत्र भी, इस बात पर बल दिया है कि वेद की भाषा वैदिक तत्त्वज्ञान को अभिव्यक्ति देने के लिए विशेष रूप से गढ़ी हुई कृत्रिम भाषा है । उनके मतानुसार वैदिक तत्त्वज्ञान की ऐसी अनेक बातें हैं जिनको व्यक्त करने के लिए लौकिक संस्कृत भाषा सक्षम नहीं थी । इसलिए उसमें लेट् लकार जैसे कई नए प्रावधान करने पड़े । वे कहते हैं कि मनुष्य- व्यक्तित्व के वेद में जो मर्त्य ओर अमर्त्य स्तर माने गए हैं उनसे सम्बन्धित दिव्यशक्तियों को क्रमशः देवासः ओर देवाः कहा गया है । इसीलिए कभी-कभी ये दोनों ही रूप एक ही मन्त्र में साथ-साथ प्रयुक्त होते है । इसलिए इन दो रूपों के आधार पर वैदिक भाषा के दो कालों की कल्पना करना ठीक नहीं है। इसी तरह वे हिरण्यम् और हिरण्यय शब्दों को मानव-व्यक्तित्व के दो भिन्न भिन्न आन्तरिक स्तरों की ज्योति के बोधक मानते हैं, न कि भाषा-विकास के दो स्तरों का।

शोध-ग्रन्थ में अपनाई गई दृष्टि

विद्वानों के उपर्युक्त मतों को उद्धृत करने का एकमात्र  प्रयोजन यह बतलाना है कि प्रस्तुत शोधग्रन्थ में जिस विषय का विवेचन हो रहा है उसके लिए एक विशेष दृष्टि को क्यों अपनाना पड़ रहा है। यह दृष्टि कोई नई नहीं है, क्योंकि, जैसा कि यास्कीय निरुक्त के पूर्वोक्त लम्बे उद्धरण से स्पष्ट है, निघण्टु के अन्तरिक्षनामों में से लगभग सभी नाम महान् आत्मा के अभिधेय बताए गए हैं । इसके अतिरिक्त ब्राह्मण ग्रन्धों के समीकरणों द्वारा यह भी दर्शाने का प्रयास पहले ही किया जा चुका है कि निघण्टु द्वारा प्रस्तुत अन्तरिक्षनामों की सूची वेदव्याख्या-पद्धति के प्राचीनतम रूप का अंग है। हमें अब यह देखना है कि वह पद्धति स्वयं वेद-मन्त्रों से भी प्रमाणित होती है या

नहीं । इस निमित्त निघण्टु का प्रत्येक अन्तरिक्षनाम वैदिक वाङ्मय में जहां जहां प्रयुक्त हुआ है वहां वहां से सम्बन्धित सामग्री को संकलित करके मुख्यतः वेद-मन्त्रों के आधार पर ही उसका अर्थ निधारित करने का प्रयास किया गया है ।

ऐसा करने से न केवल विभिन्न अन्तरिक्षनामों का अभीष्ट अर्थ प्राप्त हुआ है अपितु उन सभी नामों में सामंजस्य स्थापित करके निघण्टु और निरुक्त की उपयोगिता को भी उद्घाटित किया गया है। सोलह अन्तरिक्षनामों के विस्तृत विवेचन द्वारा यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि ये शब्द मनुष्य की अन्तरिक्ष नामक अन्तश्चेतना के ही विविध पक्षों की ओर संकेत कर रहे हैं । बाह्यजगत की वस्तुओं का वर्णन जिस ज्ञेयपरक भाषा के रूढ शब्दों द्वारा क्यिा जाता है वे आन्तरिक जगत के तत्त्वों का वर्णन करने में समर्थ नहीं हैं। इसीलिए अन्तश्चेतना के उसी अज्ञेयपरक प्रतीकवादी भाषा का प्रयोग करना पड़ता है जो किसी भी अनिर्वचनीय वस्तु का वर्णन करने के लिए की जाती है । प्रायः इस भाषा की विशेषता "नेति नेति द्वारा व्यक्त की जाती है । दूसरे शब्दों में किसी भी आंतरिक तत्त्व के लिए अनेक तरह से वर्णन करना पड़ता है और इसलिए उसको अनेक नाम देने पड़ते हैं । जहां बाह्य जगत् की वस्तुएं देश-काल की दृष्टि से अपेक्षाकृत निश्चित और स्थिर कही जा सकती हैं, वहां अन्तश्चेतना इतनी परिवर्तनशील और विविधतामयी है कि उसे केवल एक नाम देना अथवा सदा के लिए एक ही वर्णन को पर्याप्त समझना सम्भव नहीं है ।

इस तथ्य की ओर ध्यान न देने के कारण ही यास्क अथवा ब्राह्मणान्थों में प्राप्त शब्द-निर्वचनों को न केवल पाश्चात्य विद्वानों ने, अपितु डा० सिद्धेश्वर वर्मा जैसे प्रकाण्ड भारतीय विद्वानों ने भी अवैज्ञानिक तथा वेदार्थ में अनुपयोगी माना है। उनका कहना है कि एक शब्द का एक निर्वचन ही हो सकता है । अतः वे इन्द्र और अग्नि जैसे शब्दों की अनेक व्युत्पत्तियों को निरर्थक वाग्विलास अथवा पाण्डित्य-प्रदर्शन ही मानते हैं । कई विद्वानों ने तो इस प्रकार के निर्वचनों को सर्वथा मूर्खतापूर्ण अथवा अर्थहीन तक कह डाला है । १९५२ में सर्वप्रथम प्रकाशित वैदिक एटिमालोजी" नामक ग्रन्थ ही एकमात्र कृति है जिसने वैदिक वाङ्मय में प्राप्त सभी निर्वचनों को संकलित करके उनकी वैज्ञानिकता और उपयोगिता बतलाने का प्रयास किया है तथा बतलाया है कि अज्ञेयपरक भाषा ज्ञेयपरक भाषा के बंधनों में नहीं जकडी जा सकती ।

वैदिक भाषा की अज्ञेयपरकता सम्भवतः यास्क से पूर्व ही विस्मृत हो चुकी थी । इसीलिये , वेद-व्याख्या के निमित्त ब्राह्मणग्रन्थों में जो विभिन्न उपाय किए गए उनके आधार पर ऐतिहासिक, याज्ञिक, नैरुक्त और नैदान सम्प्रदायों की कल्पना कर ली गई, यद्यपि मूलतः वे सभी एक प्राचीनतम वेद-व्याख्या-पद्धति के हो अंगभूत रहे प्रतीत होते हैं । उदाहरण के लिए, निरूक्त में उल्लिखित ऐतिहासिक मत को ले लीजिए । क्या यह मत इतिहास की उस परिकल्पना पर आधारित नहीं कहा जा सकता जिसकी परिभाषा रामायण और महाभारत के प्रसंग में इस प्रकार की गई है --

धर्मार्थकाममोक्षाणामुपदेशप्रतिपत्तये ।

पुरावृत्तं कथायुक्तं इतिहासमित्याचक्षते।।

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से सम्बन्धित उपदेशों को देने के लिए ही पुरुरवा-उर्वशी अथवा जल-प्लावन जैसे आख्यानयुक्त पुरावृत्तों को पुराणों

में रोचक एवं विस्तृत रूप दे कर इतिहास कह दिया गया ।

वास्तव में इतिहास अथवा आख्यान कहकर विभिन्न वैदिक सूक्तों की व्याख्या करने की एक शैली सम्भवतः चिरकाल से रही है। आवश्यक नहीं कि इन इतिहासों या आख्यानों में किसी देश-काल में घटित घटनाओं का समावेश हो । ऐसे ही एक त्रित-विषयक इतिहास का उल्लेख आगे 'धन्व' पर विचार करते हुए किया गया है । डा० रामगोपाल ने अपनी पुस्तक   १ में विशेष रूप से इसकी परीक्षा की है और वे इस निर्णय पर पहुंचे हैं कि वेद में त्रित निस्सन्देह एक देवता है, कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं । अपने इस निष्कर्ष के समर्थन में मैक्डोनल और कीथ के मत को भी उद्धृत किया है । इसी प्रसंग में, उन्होंने यह भी मत व्यक्त किया है कि इस प्रकार के जो अन्य इतिहास वेद में माने जाते हैं उनका आधार सम्बन्धित मन्त्रों में निहित रूपकों की नासमझी अथवा गलत व्याख्या है । २

इस सम्बन्ध में, एक अन्य इतिहास का उल्लेख करना भी आवश्यक है, क्योंकि इसको लेकर आधुनिक लेखकों ने भी 'दाशराज्ञ युद्ध' के नाम से वेदों में इसको उस काल की एक महत्त्वपूर्ण घटना माना है । अभी कुछ वर्ष पूर्व वेद-संस्थान, दिल्ली की एक गोष्ठी के अपने लिखित अध्यक्षीय भाषण में वसिष्ठ पर बोलते हुए डा० फतहसिंह ने स्पष्ट क्यिा है कि जिस सुदास राजा से उक्त युद्ध जुड़ा हुआ माना जाता है वह कोई ऐतिहासिक पुरुष नहीं हो सकता । उन्होंने अनेक वैदिक मन्त्रों को उद्धृत करते हुए स्पष्ट किया है कि "सुदास् ' का अर्थ "सु का दाता

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.देखिए, डा० रामगोपालः दी हिस्ट्री एण्ड प्रिंसिपल्स आव

वैदिक इंटरप्रिटेशन, पृ० ५१-५९

.वही, पृ० ५९

 

अथवा वितरक है । इसीलिए ऋग्वेद में दो स्थानों पर 'सुदास्तराय' शब्द भी प्रयुक्त करके यह कामना की गई है कि सु का बेहतर दाता अथवा वितरक होने के लिए मुझे अमुक आध्यात्मिक धन की प्राप्ति हो जाए। इतना ही नहीं, सुदास के तथाकथित युद्ध में भाग लेने वाले राजाओं अथवा कबीलों के नामों को उन्होंने दो प्रकार के प्राणों का बोधक बताया है और साथ ही अनेक स्थलों पर सुदास् शब्द को "सु-दाता अथवा सु-वितरक के रूप में ही प्रयुक्त बताते हुए, सुदास् शब्द से सम्बन्धित रूपक की व्याख्या की है ।

शोध-ग्रन्थ की उपादेयता

इस विवेचन से स्पष्ट है कि यह शोध-प्रबन्ध जिस दृष्टि से अन्तरिक्षनामों की व्याख्या यहां प्रस्तुत करता है वह न तो नई है और न योग्य विद्वानों के लिए अमान्य ही हो सकती है। साथ ही वेद-व्याख्या के क्षेत्र में, इस शोध-प्रबन्ध की निम्नलिखित उपलब्धियां कही जा सकती हैं

- वेद की मनोवैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक व्याख्या को आगे बढ़ाने वाला यह एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है, क्योंकि इसका निष्कर्ष है कि निघण्टु के अन्तरिक्षनामों की सूची में जो शब्द परिगणित हैं वे वेद के पारिभाषिक शब्द हैं और उनके द्वारा मनुष्य की अन्तश्चेतना के विविध पक्षों के विकास का वह मार्ग बताया गया

जिसे अध्वा अथवा अध्वर नाम दिया गया है ।

- इस मीमांसा के द्वारा निघण्टु के अन्तरिक्षनामों के बीच सामंजस्य स्थापित करते हुए, यह दर्शाया गया है कि निघण्टु की इस सूची का एक तर्कसंगत आधार है और उसको उजागर करने वाले वैदिक प्रतीक्वाद का एक नया आयाम प्रकाश में आता है।

- कई शब्दों के साथ जुड़े हुए आख्यानों की व्याख्या से जहां सम्बन्धित वेद-मन्त्रों को स्पष्ट किया गया है वहीं यह भी संकेत दिया गया है कि ये आख्यान केवल वैदिक रूपक अथवा प्रतीकवाद को समझाने के लिए रचे गए हैं ।

-वैदिक प्रतीकवाद की एक सोदाहरण व्याख्या के रूप में यह शोध-ग्रन्थ वेद-विद्या को स्पष्ट करने के लिए उस प्रयास को और आगे बढ़ाता है जिसे यास्क ने प्रारम्भ किया था और जिसके पुनरुद्धार के लिए स्वामी दयानन्द, श्री अरविन्द,पण्डित मधुसुदन ओझा, डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल और डॉ.फतहसिंह ने इस युग में प्रयत्न किया है ।