वेदों में अन्तरिक्ष के पर्यायों का प्रतीकवाद

 अरुणा शुक्ला

 (जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर की पी.एच.डी उपाधि हेतु स्वीकृत शोधग्रन्थ)

1994ई.

 

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Introduction

Chapter One

Chapter Two

Chapter Three

Chapter Four

Chapter Five

Chapter Six  

Chapter Seven 

Chapter Eight  

About the Author

 

द्वितीय अध्याय

अंतरिक्ष का अर्थ विस्तार

अंतरिक्ष का अर्थ

सगर नामक अंतरिक्ष 

सगर का पौराणिक आख्यान

अंतरिक्ष के दो ध्रुव - अग्नि और आपः

आध्यात्मिक प्रतीकवाद - उरु अंतरिक्ष

द्वितीय अध्याय

अन्तरिक्ष का अर्थ - विस्तार

लौकिक संस्कृत में, अन्तरिक्ष शब्द से सामान्यतः वही लोक अभिप्रेत होता है जो धरती और आकाश के बीच स्थित है, परन्तु निघण्टु में अन्तरिक्ष के जो सोलह नाम गिनाए गए हैं उनमें धरती और आकाश का बोध कराने वाले शब्द भी हैं । इसके अतिरिक्त इस नामावली का स्वयंभूः शब्द प्रायः आत्मा या परमात्मा के लिए प्रयुक्त हुआ करता है। इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि यास्क द्वारा रचित "निरुक्तम् ' नामक निघण्टु -भाष्य के १३वें अध्याय में महान् आत्मा के 'भूतनामधेयानि कहकर जो एक लम्बी नामावली दी गई है उसमें १५ नाम तो ज्यों के त्यों वही हैं जो निघण्टु के अन्तरिक्षनामानि में हैं, जबकि सोलहवें अध्वर के स्थान पर वे चार नाम धर्म,यज्ञ,वेन, मेघ माने जा सकते हैं जो अध्वर के साथ निघण्टु के यज्ञनामानि में परिगणित हैं । तो क्या १६ अन्तरिक्षनामों को आत्मा के नाम माना जाय ?

अन्तरिक्ष का अर्थ-विस्तार

इस प्रश्न का एक उत्तर जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण के इन शब्दों में देखा जा सकता है १-

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१.जैउ २.५.६

 

 

 “स यो ह पुरुषो य एवायम् अन्तरिक्ष आकाश एष स पुरुष......अथो यद् अस्मिन् सर्वस्मिन् अन्तर् ईक्षते तस्माद् अन्तरिक्षम्। अथो यद् इदं सर्वं युते तस्माद् वायुः। अथो यद् इदं सर्व वाति तस्माद् वातः। इसका तात्पर्य है कि अन्तरिक्ष "अन्तः + इक्ष्" से निष्पन्न एक यौगिक शब्द है जिससे पुरुष (आत्मा) अभिप्रेत है। इसी प्रकार "वा + यु से निष्पन्न वायु तथा 'वा' धातु से निष्पन्न वात शब्द भी उसी पुरुष के वाचक हैं । तो क्यों न इसी प्रकार सभी अन्तरिक्षनामों को उनके यौगिक अर्थ में ग्रहण करके उन्हें पुरुष वाचक माना जाए ?

 

इस सुझाव के विरुद्ध यह कहा जाएगा कि निघण्टु के अन्तरिक्षनामों में समाविष्ट 'आपः' शब्द उदक-वाचक होने से पुरुष-वाचक नहीं हो सकता । परन्तु पूर्वोक्त 'महान् आत्मा के भूतनामधेयानि" में भी ४२ ऐसे शब्द हैं जो निघण्टु के उदकनामानि में भी परिगणित हैं। साथ ही यह भी उल्लेखनीय है कि इन नामों में ऋतम्, सत्यम्, अमृतम्, इन्दुः, स्वः तथा पूर्णम् के साथ शम्बर भी है । इसका स्पष्ट संकेत यही हो सकता है कि निघण्टु के उदकनामानि का उदक भी केवल सामान्यकूपादि में प्राप्त होने वाले जल का वाचक नहीं, अपितु उसका भी अर्थ-विस्तार हुआ है ।

 इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि अन्तरिक्षनामानि में समाविष्ट 'आपः' शब्द व्याप्त्यर्धक 'आप्' (आप्लृ ५.१५) धातु से निष्पन्न होने से उक्त पुरुष-वाचक अन्तरिक्ष के व्यापनशील स्वरूप का बोधक हो सकता है । एक ही शब्द की विभिन्न व्युत्पत्तियों द्वारा किसी शब्द - विशेष का अर्थ-विस्तार करने की प्रणाली वेद में किस प्रकार एक सुपरिचित शैली है, इस बात का सर्वोत्तम प्रमाण

 

हमें "दि वैदिक एटिमालाँजी' ग्रन्य से प्राप्त होता है जिसमें वैदिक वाङ्मय के सभी निर्वचनों को एकत्र कर उनकी वैज्ञानिकता और उपयोगिता पर प्रकाश डाला गया है। १ उदाहरण के लिए हम अन्तः + यक्षम्" से निष्पन्न अन्तर्यक्षम् शब्द को ले सकते हैं जिसे परोक्षवादी दृष्टि से अन्तरिक्षम् कहा जाने लगा (जैउ १.६.१.४ )। निस्संदेह यह अन्तर्यक्षम् (अन्तरिक्षम् ) उस यज्ञ की याद दिलाता है जो जन-जन के हिरण्यकोशगत ज्योतिर्मण्डित स्वर्ग में आत्मन्वत् यक्ष होकर विराजमान है और जिसे ब्रह्मवेत्ताओं का वेद्य ब्रह्म माना जाता है (अथर्व.१०.२.३२ )।

दूसरे शब्दों में, अन्तर्यक्षम् से रूपान्तरित हुआ अन्तरिक्षम् उस व्यापक चेतना का बोधक हे जो सबके भीतर विद्यमान२ है और जिसको यक्ष ब्रहम भी कह सकते हैं । शतपथब्राहमण के अनुसार, वह ब्रह्म परार्द्ध में गया......वह रूप और नाम द्वारा वापिस आया। ब्रह्म के ये दोनों 'महती अभ्वे' कहे गए; यही ब्रह्म के 'महती यक्षे' हैं । यहां उसके परार्द्ध-गमन का अभिप्राय यह है कि अपरार्द्ध में ब्रह्म का जो रूप है उससे परे एक और अत्यन्त अव्यक्त स्वरूप भी है जो "रूप' तथा 'नाम' होकर द्विविध व्यक्त हो रहा है । बहिर्मुखी गति में वह "रूप" है और अन्तर्मुखी गति में वही 'नाम' हे । "नामरूपे" ही उसके "महती यक्षे" कहे गए । यह यक्ष ब्रह्म अद्वैत अन्तरिक्ष का द्वैतपरक

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१.यह ग्रंथ डॉ० फतहसिंह द्वारा सर्वप्रथम १९५२ में संस्कृति सदन,

कोटा से प्रकाशित हुआ था। उसके पश्चात् चौखम्बा प्रतिष्ठानम्, दिल्ली से पुनर्मुद्रित।

२.अन्तरेव वा इदमिति तदन्तरिक्षस्यान्तरिक्षत्वम् तां १५.१२.५

३.शब्रा.११.२.३.४-५

 

रूप है। इस यक्ष का अध्यक्ष वह अद्वैत ब्रह्म है जिसे परार्द्ध में गया हुआ कहा गया । इसी को लक्ष्य करके, डॉ० फतहसिंह के अनुसार ऋग्वेद के निम्नलिखित दो मन्त्र रचे गए हैं -

वैश्वानरं कवयो यज्ञियासोऽग्निं देवा अजनयन्नजुर्यम् ।

नक्षत्रं प्रत्नम् अमिनत् चरिष्णु यक्षस्याध्यक्षं तविषं बृहन्तम्।।

वैश्वानरं विश्वहा दीदिवांसं मन्त्रैरग्निं कविमच्छा वदामः ।

यो महिम्ना परिबभूव उर्वी उतावस्तादुत देवः परस्तात् ।। - ऋ.१०.८८.१३-१४

उक्त विद्वान् के अनुसार इन दो मन्त्रों में से प्रथम में "यक्षस्याध्यक्षं' को अव्यक्त अद्वैत रूप में एक "तविषं बृहन्तम्" कहकर उसी के व्यक्त रूप को नक्षत्रं प्रत्नं चरिष्णु' कहकर उस अन्तरिक्ष को हिंसित करने का विनोदपूर्ण आरोप है,जबकि दूसरे में उस आरोप का उत्तर देते हुए कहा गया है कि हम तो जो भी कहते हैं उसे वैश्वानर अग्नि के प्रति कहते हैं, परन्तु वह देव (यक्षस्याध्यक्ष) स्वयं ही अपनी महिमा द्वारा अवस्तात्' तथा 'परस्तात्" दृष्टि से 'उर्वीद्वय " में परिणत हो गया। ये उर्वीद्वय पूर्वोक्त 'महती यक्षे" हैं जिन्हें उर्वी१ और महती नामधारी द्यावापृथिवी भी कह सकते हैं ।२ जिस प्रकार उक्त उर्वी' और 'महती" का मूल कोई ब्रह्म या यक्ष नामक अन्तरिक्ष है उसी प्रकार द्यावापृथिवी को अन्तरिक्ष नामक ऊधस् के दो स्तन कहा जाता है

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.         उर्वी सद्मनी बृहती ऋतेन हुवे देवानामवसा जनित्री.। ऋ.१.१ ८५.६

उर्वी पृथ्वी बहुले दूरेअन्ते उप ब्रुवे नमसा यज्ञे अस्मिन्  । ऋ.१.१८५.७.

२.तु.उरुव्यचसा महिनी असश्चता पिता माता च भुवनानि रक्षतः - ऋ.१०.१६०.२

 ते नो गृणाने महिनी महि श्रवः क्षत्रं द्यावापृथिवी धासथो बृहत् ।

.ऋ.१.१६०.५

 

 

ऊधर्वा अन्तरिक्षम् (द्यावापृथिव्यो) । स्तनो अभितः। अनेन (पृथिवीरूपेण) वा एष देवेभ्यो दुग्धे अमुना (द्युलोकरूपेण) प्रजाभ्यः तां २४.I.६)

इसी तरह कर्मकाण्ड में प्रयुक्त "उखा" नामक पात्र उक्त अन्तरिक्ष का प्रतीक है और द्यावापृथिवी उसके अंगभूत दो स्तन हैं ।

इसका अर्थ है कि जिस प्रकार अन्तरिक्ष के अर्थ का विस्तार हुआ है उसी प्रकार द्यावापृथिवी के अर्थ का भी विस्तार हुआ है । यह स्वाभाविक है, क्योंकि द्यावापृथिवी वैदिक वाङ्मय में भी उसी अन्तश्चेतना युग्म के प्रतीक हैं जिसके पूर्वोक्त दो "महती यक्षे" कहे गये हैं । इसी दृष्टि से द्यावापृथिवी को प्राणोदानौ' कहा जाता है२ और उनके लिए धृषणे, पुरंधी, स्वधे तथा अदिती जैसे युग्मों का प्रयोग होता है जो किसी न किसी चेतना-शक्ति के द्योतक  प्रतीत होते हैं । इनमें से धृषणा को स्पष्टतः विद्या (तैसं.५.१.७.२; काठ १९.७) कहा गया है। पुरंधी शरीर-रूप पुर को धारण करने वाली तथा स्वधा स्व को धारण करने वाली चेतना है, जबकि द्विवचन अदिती अखण्डचेतनाबोधक अदिति के ही द्विविध (अदिति दित) आयामों का द्योतक प्रतीत होता है। यही क्यों, जब ब्राह्मण-ग्रंथ द्यावापृथिवी को प्रजापति (माश ५.१.५.२६) कहते हैं, तो निस्संदेह उसी पूर्वोक्त देव की याद आती है जो परस्तात् और अवस्तात् भेद से दो उर्वियों (द्यावापृथिवी) में परिणत होता है ।

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१.अन्तरिक्षं वा उखा इमौ लोकौ स्तनौ मै.३.१.७

२.इमे हि द्यावापृथिवी प्राणोदानौ मा श.४.३.१.२२; १४.२.२.३६

 

मनुष्य- व्यक्तित्व को जब 'आयु' कहा जाता है तो वह उसी प्रकार अपनी अवस्तात अथवा बहिर्मुख गति करने वाली चेतना की दृष्टि से सर्वायु' कहलाता है, जबकि परस्तात् अथवा अन्तर्मुख गति करने वाली चेतना की दृष्टि से वही "विश्वायु' संज्ञा ग्रहण करता है ।१ अन्तरिक्ष नामक चेतना के ही ये दो आयाम हैं। अन्तश्चेतना को सर्वायु और विश्वायु रूप में द्विविध गति के परिप्रेक्ष्य में माना जाना इन दो शब्दों तक ही सीमित नहीं, अपितु सर्वेदेवाः तथा विश्वेदेवाः का भेद भी इसी आधार पर क्यिा गया है ।२ इसी दृष्टि से, अन्तर्मुखी गति करने वाले प्राणों को विश्वेदेवाः  के रूप में तथा उनकी शक्तियों को विश्व-पत्नियों के रूप में कल्पित किया गया और उसी प्रकार बहिर्मुखी गति करने वाले प्राणों को सर्वेदेवाः तथा उनकी शक्तियों को सर्वपत्नियां कहा गया।३ विश्वजन्मा प्राण और सर्वजन्मा प्राण तथा दोनों की क्रमशः विश्वचेष्टा तथा सर्वचेष्टा की कल्पना के पीछे भी वही विश्व ओर सर्व का भेद निहित है । प्रवेशार्थक विश् ओर प्रसारार्थक, "सृ' धातु से क्रमशः निष्पन्न विश्व ओर सर्व को चेतना के जिन दो भिन्न आयामों का सूचक मान लिया गया, उसी को लक्ष्य करके विश्वतः का अर्थ हो गया भीतर की ओर से और सर्वतः का भाव हुआ 'बाहर की ओर से" जैसा कि प्रस्तुत मंत्र से स्पष्ट है -

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१.तु.आयुर्मे पाहि विश्वायुर्मे पाहि सर्वायुर्मे पाहि तै.४.४.७.२

.         शान्तिर्विश्वे मे देवाः शान्तिः सर्वे मे देवाः शौ.१९.९.१४ः

विश्वे मे देवाः शर्म यच्छन्तु, सर्वे मे देवाः शर्म यच्छन्तु। शौ.१९.९.१२

३.शौ११.६.१९-२०

 

 

 

या पुरस्ताद् युज्यते या च पश्चात् ।

या विश्वतः युज्यते या च सर्वतः ।। -शौ.१०.८.१०

अन्तर्मुखी गति को परस्तात् कहकर जहां उस चेतना के पर' आयाम (द्यावा) की कल्पना की जाती है वहीं बहिर्मुखी गति को अवस्तात् कह कर उसके 'अवर' आयाम (पृथिवी) को कल्पित किया जाता है -

नि तद्दधिषेऽवरं परं च यस्मिन्नाविथावसा दुरोणे ।

आ मातरा स्थापयसे जिगत्नु अत इनोषि कर्वरा पुरूणि।। ऋ.१०.१ २०.७

इस मन्त्र में दोनों को जिगत्नू' मातरा कहकर जहां द्यावापृथिवी के गतिशील निमार्तृ-रूप को स्वीकार किया गया है, वहीं 'अतः' का प्रयोग करके यह संकेत भी दे दिया गया है कि इन दोनों को स्थापित करके ही इन्द्र मनुष्यदेह-रूप गृह (दुरोणे) में नानारूपात्मक क्रियाकलाप (कर्वरा पुरूणि) का स्वामी होता है ।

इन नानारूपात्मक क्रिया-कलाप के संदर्भ में ही निरुक्त में वर्णित उन अनेक नामों को कल्पना हुई है जिन्हें "आत्मनो महतः नामधेयानि" कहा गया है। जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है, इन नामधों में निघण्टु के सभी अन्तरिक्षनामानि के अतिरिक्त आत्मा और ब्रह्म शब्द भी हैं । इनमें वह ऊधस् शब्द भी है जिसे ऊपर अन्तरिक्ष कहा जा चुका है और जिसके अंगभूत स्तनों के रूप में द्यावापृथिवी को माना गया है । दूसरे शब्दों में, यह सब वेद की प्रतीकवादी शैली का एक नमूना है जिसके द्वारा जन-जन में स्थित अन्तरिक्ष नामक अन्तश्चेतना के रूप में ब्रह्म की शक्ति को ही यहां 'महान् आत्मा' कहा गया है

 

अतः सगर नामक रौद्र अनीक (काण्व.५.८.५) का भी उल्लेख मिलता है और यदि रौद्र भाव को उस विष का वाचक मानें जिस अर्थ में 'गर' शब्द को लौकिक संस्कृत में लिया गया है, तो सगर सुमेक' की तुलना उस अहिर्बुध्न्य से कर सकते हैं जो अहि होने से विष को धारण करते हुए भी वैदिक देवों में गिना जाता है ।१ तदनुसार, मैत्रायणी संहिता का यह वचन विशेष रूप से द्रष्टव्य है - "सगरोऽसि विश्ववेदा, ऋतधामासि स्वर्ज्योतिरसि, समुद्रोऽसि विश्वव्यचा, अजोऽसि एकपादः अहिरसि बुध्न्यः कव्योऽसि कव्यवाहनो रौद्रेणानीकेन पाहि मा अग्ने, पिप्रहि मा, नमस्ते अस्तु मा मा हिंसीः२ इसका तात्पर्य है कि सगर नामक अन्तरिक्ष- चेतना वही अग्नि है जो रुद्र तथा अहिर्बुध्न्य - रूप में शत्रुसंहारक गर (विष) को छिपाए हुए है, तो वही अपने स्वर्ज्योति, समुद्र, ऋतधाम और कव्यवाहन- रूप में अपनी पालक शक्ति का प्रदर्शन कर रहा है । एक मन्त्र में जब अग्नि को, महत् रूप (वर्ष) के बुध्न से, समर्थ ज्ञानिजन (सूरयः ) बाहर लाते, कहे गए हैं ३, तो उसके तीन आयामों का इस प्रकार वर्णन किया गया है४-

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१.सूर्यकान्त; देवशास्त्र, पृ० १७४-१७५

२.मै १.२.१ २.

३.निर्यदीं बुध्नान्महिषस्य वर्पस, ईशानासः शवसा क्रन्त सूरयः ।

ऋ.१.१४१.३

४.पृक्षो वपुः पितुमान्नित्य आ शये, द्वितीयमा सप्तशिवास मातृषु।

तृतीयमस्य वृषभस्य दोहसे, दशप्रमतिं जनयंत योषणः ।।

ऋ.१.१४१.२

 

 

1-      पितुमान् वपुः जहां नित्य अग्नि सुषुप्त है (प्रथम रूप) है।

२-सप्त शिवा माताओं (सप्त व्याहृतियों) में स्थित द्वितीय रूप ।

३- दश प्रमतियों (ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों ) में तृतीय रूप।

इन तीनों स्तरों पर अज्ञानान्धकार रूप "गर' की थोड़ी बहुत छाया भी जब तक रहती है तब तक इन स्तरों की चेतना को "सगरा' नामक रात्रि कहा जाता है।१ यही सगर नामक अग्नि अथवा रात्रि उस सगर अन्तरिक्ष का क्षेत्र २ है जिसमें अहंकारजन्य प्रजाओं की भरमार होती है। इसके रहते इन्द्र की विजय नहीं हो सकती, क्योंकि अहंकार-रूप अहि अथवा वृत्र का जब तक यहां राज्य है तब तक तज्जन्य गर (विष) रहेगा ही ।

वृत्र-वध करने वाली इन्द्र-विजय के लिए सगर के ही बुध्न से दिव्य प्राण-रूप आपः की धाराएं चाहिए। यह तभी सम्भव होगा जब हमारी गिराएं (गॄ विज्ञाने से निष्पन्न)  कही जाने वाली विज्ञान शक्तियां अपने प्रजनन कार्य की प्रखरता को छोड़कर (अनिशित सर्गा) सगर के बुध्न से आपः (दिव्य प्राणों) को प्रेरित करें जिससे इन्द्र की शक्ति प्रदीप्त हो और वह अपनी शक्तियों द्वारा द्यावापृथिवी नामक चेतना-युग्म को वैसे ही स्तंभित कर दें जैसे रथ की धुरी (अक्ष) रथचक्रों को स्तंभित करती है। ३ बुध्न से आने वाले ये दिव्य आपः ही वे अभीष्ट "अप्य ' हैं जिनके द्वारा अहंकार-रूप अहि देवत्व ग्रहण करके अहिर्बुध्न्य हो जाता है और जिससे युक्त रोदसी-युग्म का भी कष्ट निवारण हो जाता है।४ अहिर्बुध्न्य के आविर्भाव का अर्थ है अहि (वृत्र)

 

.सगरा रात्रिः माश.१.७.२.२६

२.प्रजाभिः सगरः काठ.३५.१५

३.इन्द्राय गिरो अनिशितसर्गा अपः प्रेरयं सगरस्य बुध्नात्।

यो अक्षेणेव चक्रिया शचीभिर्विष्वक् तस्तम्भ पृथिवीमुतद्याम।। ऋ.१०.८९.४

४.तु.नू रोदसी अहिना बुध्न्येन स्तुवीत देवी अप्येभिरिष्टेः।

समुद्रं न संचरणे सनिष्यवो घर्मस्वरसो नद्यो अप व्रन।। ऋ.४.५५.६

 

 

से होने वाली हिंसा का अभाव। अतः अहिर्बुध्न्य से प्रार्थना है कि वह हमें हिंसक को पुनः समर्पित न करे १ तथा अर्चनीय दिव्य आपः द्वारा हमें अभीष्ट रयि प्रदान २ करे। जब भी दुरित, अनृत और पाप से मुक्ति के लिए याचना की जाती है, तो अहिर्बुध्न्य से विशेष प्रार्थना होती है कि वह हमारी पुकार को सुने।३ हिंसा से बचाने वाला, यज्ञ सफल करने वाला और शम् प्रदान करने वाले देव अहिर्बुध्न्य हैं । ४ एक सूक्त में अनेक देवों का नामोल्लेख करते हए सब देवों के बुध्नों (मूलों) में विराजमान होने को अहिर्बुध्न्य से प्रार्थना की गई है

सचा यत् सादि एषाम् अहिर्बुध्नेषु बुध्न्यः। ऋ.१०.९३.५

इस विवेचन से स्पष्ट है कि सगर नामक अन्तरिक्ष उस अन्तश्चेतना का नाम है जो अहंकारजन्य काम-क्रोधादि के गर (विष) से युक्त है। इसी को 'सगरा' रात्रि भी कहा गया है । इसका अन्त तभी होगा जब बुध्न से दिव्य आपः अथवा नदियां प्रवाहित होने लगेंगी। इन आपः रूप जल से रहित चेतना को ही धन्व कहा गया है। अतः अहिर्बुध्न्य से सब देवों के बुध्नों में विराजमान होने तथा अश्विनौ एवं मित्रावरुणौ से उस महाधन (आपः) को देने की प्रार्थना होती है जो दुरितों को ऐसे अतिक्रान्त करते हैं जैसे जल धन्व(मरुभूमि) को। इस प्रकार धन्व अथवा दुरित-ग्रस्त व्यक्तित्व में ''आपः'' लाने

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१.मा नोऽहिर्बुध्न्यो रिषे धात् ऋ.५.४१.१६

२.ऋ.६.४९.१४

३.उ नोऽहिर्बुध्न्य शृणोतु ऋ.६.५०.१४; ७.३८.५; १०.६४.४; १०.६६.११; १०.९२.१२

४.ऋ.७.३४.१७; ३५.१३

५.महः स रायः एषतेऽति धन्वेव दुरिता ऋ.१०.९३.६

 

का अर्थ है सगर (अहि) को अहिर्बुध्न्य में परिणत करना । इसी को प्रकारान्तर से वृत्र-वध द्वारा आपः की मुक्ति कहा जाता है।

सगर का पौराणिक आख्यान

पौराणिक आख्यान में, वेद का वृत्रघ्न इन्द्र एक सगरविरोधी के रूप में चित्रित किया गया है । आख्यान इस प्रकार है। सगर एक राजा है जिसके साठ हजार पुत्र हैं । राजा अश्वमेध यज्ञ करना चाहता है। उसके पुत्र अश्व लेकर जाते हैं, तो एक रात इन्द्र घोड़े को चुरा लेता है और उसे ले जाकर पाताल लोक में कपिलमुनि के आश्रम में बांध देता है। सगर-पुत्रों को नारद से पता चलता है कि अश्व पाताल लोक में है, तो सगर-पुत्र पृथिवी को खोद खोद कर पाताल जाने का प्रयत्न करते हैं । इसके फलस्वरूप जो पृथिवी में बृहदाकार गड्ढे बन गए वही सगरजन्य होने से "सागर' कहे गए। जब सगर-पुत्र पाताल लोक में पहुंचे, तो उन्होंने कपिलमुनि को अश्व-चोर समझकर उन पर प्रहार करना प्रारंभ किया। इससे मुनि के तप में विघ्न पड़ा और उन्होंने जब क्रोध करके सगर-पुत्रों की ओर देखा, तो वे सब भस्म हो गए ।

भस्म होने के पश्चात् वे सब प्रेत होकर सभी प्रजाओं को त्रस्त करने लगे । इनको प्रेत-योनि से मुक्त कराके स्वर्ग भजने के लिए सगर की कई पीढ़ियों तक स्वर्ग से गंगा नदी को लाने के लिए तप किया जाता रहा । अन्त में सगर-वंशी भगीरथ को सपलता मिली। शिवजी की जटाओं से गंगा ब्रह्मा जी के कमण्डल में आई और वहां से वह देवसरिता तीनों लोकों में गई। पाताल में गंगा-जल के स्पर्श से सगर-पुत्रों का प्रेतयोनि से छुटकारा हो गया और वे स्वर्ग पहुंच गए।

 

 

 

गंगा नदी को भगीरथ लाए, अतः उसका नाम भागीरथी हुआ। आज तक इस कथा को ऐतिहासिक घटना मानकर पौराणिक पण्डित इसको सुनाते हैं, परन्तु यदि इसके वैदिक आधार को देखा जाए, तो स्पष्ट हो जाएगा कि यह रोचक आख्यान बीज-रूप में सगरबुध्न से प्रेरित किए जाने वाले आपः में विद्यमान है ।

अन्तरिक्ष के दो ध्रुव

दूसरे शब्दों में, अन्तरिक्ष नामक चेतना के दो ध्रुव माने गए हैं । एक सगर अग्नि अहि है और दूसरा अहिर्बुध्न्य। सगर अहि होते हुए भी उसके बुध्न में आपः ' नामक अन्तरिक्ष विद्यमान रहता है । इसी आपः को शिव की जटाओं में निहित गंगा के रूप में कल्पित किया गया है । जिस प्रकार पौराणिक आख्यान में गंगा को अवतीर्ण करने के लिए घोर और लम्बे तप की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार वेद-मन्त्र में सगर के बुध्न से आपः को बाहर लाने के लिए ऐसी गिराओं १की आवश्यकता हुई जो संकल्पविकल्पात्मक मानस-सर्ग को क्षीण कर देती है ! जिस अहंकार-रूप अहि के क्रोधादिजन्य गर (विष) के कारण चेतना सगर' अन्तरिक्ष बनती है वह 'रजसः बुध्नं को आवृत करके सोता रहता है २ जिसके कारण आपः नामक अंतरिक्षचेतना का मार्ग अवरुद्ध रहता है और उसके अभाव में चेतना को धन्व ( मरुभूमि) अन्तरिक्ष कहा जाता है। इस धन्व-रूप अन्तरिक्ष-चेतना को आर्द्र

करने वाले आपः (चेतनाधाराएं) तभी प्रवाहित होते हैं जब इन्द्र वृत्र-वध करता है ३। पौराणिक आख्यान में इसी बात को गंगावतरण ।.

१.ऋ.१०.८९.४

२.ऋ.१.५२.६

३.ऋ.४.१ ७.१ -२

 

द्वारा सगर-पुत्रों का उद्धार कहा जाता है।

जिस बुध्न को आवृत करके अहंकार-रूप अहि (वृत्र) सोता है वह वस्तुतः सभी दिव्य-संपदा का मूल तथा सभी वसुओं का संगम है और उपयोगिता में सत्यधर्मा सविता अथवा इन्द्र के समान कहा जाता है।१ इस बुध्न से आत्मा-रूप अग्नि के उस उच्चतर दीप्त-रूप का संबंध है जो गतिशील आपः नामक अन्तरिक्ष से युक्त है और जो बुध्न का परिमार्जन करने वाला कवि अथवा देव-विस्तार की केन्द्रभूत "धी' कहा जाता है।२ आत्मा-रूप अग्नि का विस्तृत तेज उस बुध्न को पर्यावृत करके देदीप्यमान कर देता (ऋ.१.९५.९) है और धन्व नामक अन्तरिक्ष चेतना को गमनशील प्रवाह (आपः) से ओत-प्रोत कर देता है। ३ अतः बुध्न को सायणाचार्य अन्तरिक्ष के अर्थ में ग्रहण करते हैं। वह वस्तुतः अन्तरिक्ष-चेतना का वह ध्रुव है जिसे धन्व ( मरुभूमि ) से विपरीत समुद्र नामक अन्तरिक्ष माना गया है ।

धन्व नामक अन्तरिक्ष-चेतना से युक्त मनुष्य- व्यक्तित्व को भोगपरायण भुज्यु के रूप में कल्पित किया गया है जिसे प्रायः अश्विनौ समुद्र में डूबने से बचाते हुए कहे जाते हैं । परन्तु एक मन्त्र में भुज्यु की रक्षा जहां की जाती है उसे समुद्र का रूपान्तर धन्व अथवा "आर्द्र" का "पार' (ऋ.१.११६.४८) कहकर अन्तरिक्ष नामक चेतना के दोनों ध्रुवों को मानों एक ही सिक्के के दो पहलू मानकर दोनों का पारस्परिक सम्बन्ध बतलाया गया है । इसका अभिप्राय है कि अन्तरिक्ष नामक अन्तश्चेतना अपने आपः (दिव्याः प्राणाः) रूप की सघनता एवं

|.२.३.

.         ऋ.१०.१३९.३.

.         ऋ.१.९५.८

.         ऋ.।.९५.१०

 

विरलता के परिप्रेक्ष्य में ही समुद्र और धन्व नाम ग्रहण करती है और इस प्रकार अन्तरिक्ष-चेतना के अन्तर्गत प्रतीयमान विरोधाभास की व्याख्या हो जाती है ।

अग्नि और आपः

ऐसा ही एक अन्य विरोधाभास उस समय देखने में आया जब अग्नि को सगर, समुद्र आदि कहा गया था, क्योंकि लोक में अग्नि और आपः (जल) परस्पर विरोधी हैं । परन्तु जब हम देखते हैं कि अग्नि अन्तश्चेतना का ही द्योतक है और इस दृष्टि से उसे वैसे ही प्राण कहा जाता है१ जैसे आपः २ को, तो कोई विरोधाभास नहीं रहता । इस दृष्टि से, जिस सगर का समीकरण ऊपर अग्नि के साथ हो चुका है उसके विषय में ऋग्वेद का यह मन्त्र सर्वथा सार्थक हो जाता है जिसमें सगर के बुध्न से आपः के प्रेरित होने की बात कही गई है। समुद्र में वडवाग्नि का निवास होना अधवा ऋ.१०.५१ में अग्नि का यज्ञ से पलायन करके इधर उधर छिपते हुए आपः में प्रविष्ट (ऋ.१०.५१.३)होना पाया जाता है और उसे 'अपाम् घृतम् ( ऋ.१०.५१.८)में रहने के लिए प्रेरित किया जाता है ।

यदि इस व्याख्या को स्वीकार करें तो जिस सगर अन्तरिक्ष के तले (बुध्न) से पूर्वोक्त मन्त्र में आपः को प्रेरित किया जाता है उस

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१.एष अग्निः उ वा इमाः प्रजाः प्राणो भूत्वा बिभर्ति। माश.१.४.२.२

 तदग्निर्वै   प्राणः जैउ.४.११.१.११;

एते प्राण्य एव अग्नयः माश २.२.२.१८

२.प्राणाः वा आपः तां.९.९.४; तै.३.२.५.२; जैउ.३.२.५.९

 

अन्तरिक्ष को एक प्रकाश का महा सिंधु मानना पड़ेगा और आपः को क्रमशः प्रकाश-धाराएं कहना होगा । वेदोक्त "हिरण्यवर्णाः आपः'' १ और चन्द्रा आपः' जैसी उक्तियां भी इसकी पुष्टि करती हॆ । ब्राह्मण-ग्रन्थों के अनुसार प्राण-शक्तियों को हो वेद में आपः कहा गया है २। अतः जिन शक्तियों द्वारा मन्त्र में इन्द्र को द्यौ तथा पृथिवी का स्तम्भन करने वाला कहा गया है वे शक्तियां यही आपः नामक प्राण-शक्तियां कही जा सकती हैं । आपः नामक प्राण-शक्तियों की सृष्टि मन द्वारा होती है और वही वरुण देव कहे गए हैं। वही व्यक्ति में श्रद्धा को उद्भूत करते हैं । ये आपः मूलतः उस ओम् में प्रतिष्ठित हैं जिसे "सत्यमक्षरम्' कहा जाता है ।४ मन द्वारा उद्भूत ये आपः व्यक्ति के सभी प्राणों और आत्मा में प्रतिष्ठित हो जाते हैं । शतपथब्राह्मण तो इन आपः को ही धर्म मानता है ६ क्योंकि वे ही व्यक्ति को धारण करते हैं ।

आपः के विषय में जो उपर्युक्त विवेचन हुआ उससे ध्वनित होता है कि वैदिक 'सगर' की पृष्ठभूमि में कोई आध्यात्मिक दृष्टि है। पौराणिक आख्यान के जिस सगर' को उपर अग्नि या सूर्य माना

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१.देखिए, ऋ.२.३५.९ चन्द्राः आपः तै १.७.६.३

२.आपो वे प्राणाः तैआ १.२६.५; जैउ.३.१०.९; श.३.८.२.४;

प्राणा वा आपः  तां.९.९.४; तैब्रा.३.२.५.२

३.मनसा सृष्टा आपश्च वरुणश्चापो हास्मे श्रद्धां संनमन्ते।

ऐआ.२.I.

४.तदेतत्सत्यमक्षरं यदोमिति। तस्मिन्नापः प्रतिष्ठिताः

जैउ.१.२.३.२

५.तस्मादिमा उभयत्रं आप ः प्राणेषु चात्मंश्च माश ७.२.४.१०

६.धर्मो हि आपः। माश.११.१.६.२४

 

उसे आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मा रूपी सूर्य कहा जा सकता है । सर्वानुक्रमणीकार के अनुसार वेद के सभी देवता अन्ततोगत्वा एक आत्मा ही सिद्ध होते है, जिसे सूर्य भी कहा जाता है।१ यह आत्मा जब अहंकाररूप वृत्र के वशीभूत होता है तो विषाक्त होकर सगर" कहा जा सकता है । यही अन्धकार-ग्रस्त अग्नि या सूर्य है। साधनासम्पन्न होने पर जब मन दिव्य आपः नामक प्राणों की सृष्टि करता है तो यही आत्मा अन्धकार के परदे को विदीर्ण करने वाला इन्द्र बन जाता है और जो द्यावापृथिवी अभी तक अन्धकार में पड़े हुए रोदसी थे उन्हें वह अपनी शक्तियों द्वारा पुनः स्तम्भित कर देता है । आध्यात्मिक दृष्टि के अनुसार ये द्यावापृथिवी भी प्राणोदानौ माने गए हैं।२ अतः द्यावापृथिवी को इन्द्र द्वारा स्तम्भित किए जाने का अभिप्राय होगा कि अन्धकार से मुक्त जीवात्मा ने प्राण और उदान की उस जोड़ी को पुनः सक्रिय कर दिया जो पुरुष के भीतर प्राक् और प्रत्यक् गति करती हुई ऊं नामक रेतस् को विविध-स्प प्रदान करती है । ४ जैसा कि पहले कहा जा चुका है, यह ऊं ही तो वह "सत्यमक्षरम्" है जिसमें आपः प्रतिष्ठित माने जाते हैं । अतः प्राणोदानौ के सक्रिय होने से ही इन्द्र की आपः नामक शक्ति मनुष्य व्यक्तित्व में चारों तरफ फैलकर अहंकारजन्य अन्धकार अथवा विष को दूर कर देती है और इस प्रकार न केवल आत्मा-रूप सूर्य पुनः उदित हो जाता है, अपितु साथ ही इन्द्र-विरोधी शक्तियों का भी विनाश हो जाता है ।

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१.ऋग्वेदसर्वानुक्रमणी,

२.प्राणोदानौ वे द्यावापृथिवी श.१४.२.२.३६

इमे हि द्यावापृथिवी प्राणोदानौ श.४.३.१.२२

३.सोऽयं (वायुः) पुरुषे ऽन्तः प्रविष्टः प्राङ् च प्रत्यङ् च

ताविमौ प्राणोदानौ । माश.१.१.३.२; ८.३.१२

.प्राणोदाना ॐ वै रेतः सिक्तं विकुरुतः। माश.९.५.१.५६

 

पूर्व उद्धृत ऋ.१०.८९.४ की इस आध्यात्मिक व्याख्या का अनुमोदन सूक्त के अन्य मन्त्र भी करते हैं । द्वितीय मन्त्र में ही इन्द्र को वह सूर्य कहा गया है (सः सूर्यः) जो विस्तृत तेजों या प्रकाश किरणों को रथ के पहियों के समान चारों ओर गति प्रदान कर सकता है, क्योंकि काले अन्धकारों ने अपने बल के द्वारा शीघ्रगामी सृष्टि-कर्म को नष्ट कर दिया है। तीसरे मन्त्र में बताया गया है कि वह इन्द्र शत्रुओं का विवेचन करने में लगा हुआ है और अपने मित्रों को नहीं चाहता । चतुर्थ मन्त्र में, जैसा कि पहले कहा जा चुका है वह अपनी शक्तियों से प्राणोदानौ रूपी द्यावापृथिवी को पुनः स्तम्भित कर देता है और पांचवें मन्त्र में इन्द्र की विरोधी शक्तियां उसको जलाने में असमर्थ हो जाती हैं । छठे मन्त्र में इसी बदली हुई स्थिति की ओर संकेत करते हुए कहा गया है कि अब द्यावापृथिवी धन्व, अन्तरिक्ष अथवा अद्रयः कहे जाने वाले सभी विरोधी तत्व (जो उस के साथ पहले नहीं थे), अब उसके प्रतिमान नहीं हो सकते, क्योंकि अब सोम का क्षरण होने लगा है और अब इन्द्र का मन्यु दृढ़ और स्थिर रहने वाले पूर्व शत्रुओं का भी भेदन करने में समर्थ है । सातवें मन्त्र में इन्द्र की इसी सामर्थ्य का वर्णन करते हुए बताया गया है कि उसने वृत्र का वध कर दिया और उसके पुरों को नष्ट कर दिया, सिंधुओं को मुक्त कर दिया और (विष) गिरि १ को नये (कच्चे) कुंभ के समान भेद डाला ।

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१.जघान वृत्रं स्वधितिर्वनेव रुरोज पुरो अरदन्न सिन्धून्।

बिभेद गिरिं नवमिन्न कुम्भमा गा इन्द्रो अकृणुत स्वयुग्भिः।। - ऋ.१०.८९.७

 

आध्यात्मिक प्रतीकवाद -

सगर नामक जिस अन्तरिक्ष का  पहले  विवेचन हुआ उससे प्रतीत होता है कि अन्तरिक्ष नामों को समझने में इस दृष्टि का भी प्रयोग किया जा सकता है। ब्राह्मण-ग्रन्थों ने अन्तरिक्ष शब्द की जो यत्र तत्र व्याख्याएं प्रस्तुत की हैं उनके आलोक में भी यही प्रतीत होता है कि वैदिक अन्तरिक्षनामों की पृष्ठभूमि में एक अद्भुत प्रतीकवाद है जिसने सामान्य अन्तरिक्ष शब्द को विभिन्न अर्थ प्रदान कर दिए हैं और तदनुसार अन्तरिक्ष के लिए भिन्न-भिन्न नामों का प्रयोग भी हुआ है । अतः अन्तरिक्ष शब्द की जहां वैदिक परिकल्पना अन्वेषणीय है वहां यह भी विवेच्य है कि निघण्टुगत अन्तरिक्षनामों का प्रयोग वैदिक मन्त्रों में अन्तरिक्ष के सामान्य भौतिक अर्थ में हुआ है या नहीं । यदि इस सामान्य अर्थ में विभिन्न अन्तरिक्षनामों का प्रयोग नहीं हुआ है तो देखना होगा कि अन्तरिक्ष की वह कौन-सी अवधारणा है जिसके अन्तर्गत इन सभी नामों का समावेश किया जा सकता है।

इसलिए वैदिक वाङ्मय का आलोडन करना आवश्यक होगा। वैदिक मन्त्रों में जहां जहां अन्तरिक्ष और निघण्टु में उल्लिखित उसके पर्याय प्रयुक्त हुए हैं उन सबका संकलन करके देखना होगा कि उन सबका क्या अर्थ हो सकता है। इसी प्रकार स्वयं अन्तरिक्ष शब्द के प्रयोगों का सूक्ष्म अध्ययन करके देखना होगा कि क्या अन्तरिक्ष की कोई ऐसी कल्पना भी हो सकती है जिसके अन्तर्गत निघण्टुगत सभी अन्तरिक्षनामों का समावेश हो सके । इस कार्य में, सभी संहिताओं, ब्राह्मणों, आरण्यकों तथा उपनिषदों के अतिरिक्त निरुक्त, बृहद्देवता, पाणिनिव्याकरण, रामायण, महाभारत तथा पुराणों से भी यथासम्भव सहायता

लेनी पडेगी, क्योंकि वैदिक प्रतीकवाद के ऐसे अनेक उदाहरण मिलते है जिनका पल्लवन और विकास वेदोत्तर काल के ग्रन्थों में हुआ प्रतीत होता है ।

इस दृष्टि से विचार करते समय हमें भाषा-वैज्ञानिकों या व्याकरणों की उस रूढ़ भावना को यदा-कदा छोड़ना पड़ेगा जिसके अनुसार एक शब्द की व्युत्पत्ति या निर्वचन एक से अधिक नहीं हो सकता । उदाहरण के लिए हम यहां स्वयं अन्तरिक्ष शब्द की व्युत्पत्तियों पर विचार करते हैं । जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण के अनुसार, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, अन्तरिक्ष शब्द मूलतः अन्तः और यक्षम् का योग था जो परोक्षवादी दृष्टि से अन्तरिक्षम् कहा जाने लगा।१ जैमिनीय ब्राह्मण उसी शब्द को अन्तः + इक्ष के योग से भी निष्पन्न मानता है।२ प्रथम निर्वचन यह मानकर चला है कि अन्तरिक्ष उसका नाम है जिसके भीतर "इदं सर्वं" का समावेश होता है, जब कि दूसरे के अनुसार अन्तरिक्ष को इदं सर्वं" के भीतर ईक्षण करने वाला स्वीकार किया गया है । एक व्युत्पत्ति के अनुसार अन्तस् में स्थित होने के कारण ही अन्तरिक्ष को अन्तरिक्ष कहा जाता है३, जब कि ताण्ड्यब्राह्मण के अनुसार अन्तरिक्ष का अन्तरिक्षत्व इसी में है कि वह अन्तस् में विद्यमान है ।४

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१.तद्यदस्मिन्निदं सर्वमन्तस्तस्मादन्तर्यक्षम् । अन्तर्यक्षं ह वै नामैतत्।

तदन्तरिक्षमिति परोक्षमा चक्षते । जैउ १.६.१.४

२.यदस्मिन् सर्वस्मिन् अन्तरीक्षते तस्मादन्तरिक्षम् । जै.२.५६

३.अथ यद् (आण्डस्य ) अन्तर् आसीत्, तदिदमन्तरिक्षम् अभवत्। जै.३.३६१

४.अन्तरेव वा इदमिति तदन्तरिक्षस्यान्तरिक्षत्वम्। तां.२०.१४.२

 

इन निर्वचनों से स्पष्ट प्रतीत होता है कि ब्राह्मण-ग्रन्थ वैदिक अन्तरिक्ष को उस सामान्य अन्तरिक्ष" शब्द से कुछ भिन्न भी मानते हैं जिसे साधारण बोलचाल में आकाश और पृथिवी के बीच स्थित एक लोक माना जाता है । साथ ही इसमें भी कुछ संदेह नहीं कि ब्राह्मणों में भी इन तीनों को लोकत्रय कहा गया । शतपथब्राह्मण के अनुसार जब प्रजापति ने इन तीनों लोकों को ध्रुव करने के विषय में सोचा तो उसने पर्वतों और नदियों से पृथिवी को दृढ़ किया, वयों

(पक्षियों) और मरीचियों से अन्तरिक्ष को, और जीमूतों (मेघों) और नक्षत्रों से द्युलोक को दृढ़ क्यिा ।१ जब जैमिनीय ब्राह्मण प्रातःसवन, माध्यन्दिन सवन और तृतीय सवन द्वारा इन तीनों लोकों को क्रमशः व्याप्त मानता है, तो भी यही क्रम दिखाई पड़ता है। सम्भवतः शतपथब्राह्मण जब तीन लोकों को मनुष्यलोक, पितृलोक और देवलोक कहता है तो भी क्रमशः पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्युलोक से अभिप्राय है।२ अन्यत्र भी लोकत्रय का उल्लेख प्रायः मिलता है ।३

साथ ही कुछ ऐसे भी संकेत मिलते हैं कि द्यौ और पृथिवी के बीच जो लोक है उसका नामकरण किसी अन्य अन्तरिक्ष के प्रविष्ट

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१.स ह प्रजापतिरीक्षां चक्रे। कथं न्विमे त्रयः लोका ध्रुवाः प्रतिष्ठिता

स्युरिति स एभिश्चैव पर्वतैर्नदीभिश्चेमाम् (पृथिवीम्) अदृंहद्वयोभिश्च मरीचिभिश्चा न्तरिक्षं जीमूतैश्च नक्षत्रैश्च दिवम्।। माश ११.८.१.२

२.त्रयो वाव लोकाः। मनुष्यलोकः पितृलोको देवलोक इति।

माश १४.४.३.२४, तु.एवमिव वा एषु लोकेषु पितरो मनुष्या देवाः। क ४१.४

३.त्रय इमे लोकाः । तैसं० २.५.११.५-६; क.४७.६; जै १.१५६; तां.१६.१६.४, त्रयो वा इमे लोकाः (+ वज्रा एते) जै १.३०४ मैः १.६.१२; ४.८.५; जै.१.१ ३९; ३०४; मा श१.२.४.२०; शांखा.२.१७ इत्यादि ।

 

होने के कारण हुआ। उदाहरण के लिए निम्नलिखित निर्वचनों को लिया जा सकता है

१- वायुनान्तरिक्षेण वयोभिस्तेनैष लोकस्त्रिवृद्योऽयमन्तरा।

तां.१०.१.१

२- सह हैवेमावग्रे लोकावासतुस् तयोर्वियतोर्यो ऽन्तरेणाकाश

आसीत्तदन्तरिक्षम् भवदीक्षे हैतन्नाम ततः पुरान्तरा

वाऽइदमीक्षमभूदिति तस्मादन्तरिक्षम्। माश.७.१.२.२३

इनमें से प्रथम के अनुसार, जब द्यावापृथिवी के बीच में स्थित लोक में वायु और वयः के अतिरिक्त अन्तरिक्ष ने प्रवेश किया तभी उस अन्तवर्ती लोक का नाम अन्तरिक्ष पड़ा । द्वितीय निर्वचन के अनुसार, द्यौ और पृथिवी जब एक साथ थे तो उनके संयुक्त रूप के अतिरिक्त एक आकाश भी था जो अन्तरिक्ष हो गया। वह इन दोनों के अन्तर में 'ईक्षण" हुआ इसीलिए उसका नाम अन्तरिक्षम् पड़ा। इसी बात की पुष्टि करते हए ताण्ड्यब्राह्मण कहता है कि अन्तरिक्ष एक ऊधस् है और द्यौ तथा पृथिवी उसके अंगभूत दो स्तन हैं जिनमें से पृथिवी-रूप स्तन देवों को दूध देता है और द्यौ-रूप स्तन प्रजाओं को दूध देता है ।१

एक अन्य दृष्टि से अन्तरिक्ष प्रजापति का ही एक रूपान्तर है।२ इसी प्रकार तैत्तिरीय संहिता के अनुसार३ प्राण ही अन्तरिक्ष है

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१.ऊधर्वा अन्तरिक्षं (द्यावापृथिव्याख्यौ) स्तनावभितोऽनेन (पृथिवीरूपेण स्तनेन) वा एष देवेभ्यो दुग्धेऽमुना (द्युलोकरूपेण स्तनेन) प्रजाभ्यः । तां २४.१.६

२.अन्तरिक्षं भूत्वा (प्रजापति दिवमस्तभ्नोत्। जै.१.३ १ ४

३.प्राणेन सृष्टावन्तरिक्षं च वायुश्चान्तरिक्षं वा अनुचरन्त्यन्तरिक्षमनु

शृण्वन्ति । ऐ.आ.२.१.७

 

और ऐतरेय आरण्यक का कथन है कि प्राण द्वारा उत्पन्न किए गए अन्तरिक्ष और वायु हैं । काठक संहिता के अनुसार आत्मा अन्तरिक्ष है२ , जब कि जैमिनीय-उपनिषद्-ब्राह्मण ब्रह्म को ही अन्तरिक्ष कहती है ।३ इसका अभिप्राय यही हो सकता है कि अन्तरिक्ष कोई ऐसा तत्त्व है जिसे आत्मा, प्राण, ब्रह्म अथवा प्रजापति का रूपान्तर कहा जा सकता है । इसी दृष्टि से, पूर्वोक्त उस निर्वचन को समझा जा सकता है जिसके अनुसार अपने में इदं सर्वं' को अन्तर्हित रखने के कारण ही उसे "अन्तर्यक्षम् ' कहकर अन्तरिक्षम् कहा गया, क्योंकि बीज-रूप में अन्तरिक्ष प्राणादि में विद्यमान होता है तभी तो प्राण अन्तरिक्ष में रूपान्तरित होता है । इसी प्रकार जिसे अन्तस् में ईक्षण करने से अन्तरिक्ष कहा गया उसे भी आत्मा, ब्रह्म आदि कहा जा सकता है । जब द्यौ को अन्तरिक्ष में प्रतिष्ठित कहा जाता है, तो भी अन्तरिक्ष को ब्रह्म आदि कोई तत्व ही मानना पड़ेगा।४ इसी तत्व को 'तू ज्योति है' ऐसा कहकर उससे ज्योति की मांग की जाती है और फिर कहा जाता है कि ज्योति की मांग अंतरिक्ष की ही मांग है ।५

इस प्रसंग में, जैमिनीय ब्राह्मण में उल्लिखित ज्योति, गौ और आयु नामक स्तोमों का क्रमशः अन्तरिक्ष, द्यौ तथा पृथिवी के साथ समीकरण उल्लेखनीय है -     १.प्राणो वा अन्तरिक्षम्, तैसं० ५.६.८.५; जै.१.३०७; माश.७.५.१.२६

२.आत्मा अन्तरिक्षम्, काठक १६.२ 

३.तद् (ब्रह्म ) इदमन्तरिक्षम् । जैउ.२.३.३.६

४.द्यौरन्तरिक्षे प्रतिष्ठिता । ऐ.३.६; गो.२.३.२

५.ज्योतिरसि, ज्योतिर्मे यच्छान्तरिक्षं यच्छ । तैसं.५.७.६.२

 

अथैते ज्योतिर् गौर आयुर् इति स्तोमा भवन्ति। गोर् आयु स्कन्दत्। ततो ज्योतिर् अजायत । अयं वै लोक आयुर् , असौ गौर, इदम् एवान्तरिक्षं ज्योतिः । जै.२.४३९। इसका तात्पर्य है कि द्यौ और पृथिवी में अन्तर्भूत कोई ज्योतिस्तत्व ही अन्तरिक्ष कहलाता है। इसलिए अन्तरिक्ष को 'अहः " (दिन)   कहा जाता है (जै.३.३६) और अहः स्वरूप को अन्तरिक्षभाजन कहा जाता है, क्योंकि उर्ध्वलोक और अर्वाङ्लोक के सम्बन्ध से अन्तरिक्ष को इति वीतिरूप कहा जाता है -

इति वीति भवत्य् अन्तरिक्षस्य रूपम् । अन्तरिक्षभाजनम् एतद् अहः। इन्द्रेण सं हि दृक्षस इत्य् ऐन्द्रं भवति। सम् इति च वै वीति वान्तरिक्षस्य रूपम्। इतो वा अयं उर्ध्वो लोकोऽर्वाङ् असाव् अमुतः । सम् इति च वा इदम् अन्तरिक्षं वीति च । (जै ३.३८)

इस उल्लेख से उस पूर्वोक्त निष्कर्ष को ही समर्थन मिलता है जिसके अनुसार द्यौ और पृथिवी दोनों को ही अन्तरिक्ष का अंगभूत माना गया है ।

अतः जब अन्तरिक्ष के द्वारा द्यावापृथिवी को विष्टब्ध अथवा विष्कब्ध कहा जाता है तो यही निष्कर्ष निकलता है कि अन्तरिक्ष द्यावापृथिवी के बीच रहने वाला ही नहीं अपितु उससे परे कोई बृहत् तत्त्व भी है ।१ मैत्रायणी संहिता के अनुसार द्यावापृथिवी के भीतर जो अन्तरिक्ष माना जाता है उसका अर्धभाग इस (पृथिवी) लोक में है और दूसरा अर्धभाग उस (द्युलोक) में रहता है ।२ परन्तु 

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अन्तरिक्षेण हीमे द्यावापृथिवी विष्टब्धे। माश १.२.१.१६; एतेन (अन्तरिक्षेण) इमौ लोकौ (द्यावापृथिव्यौ) विष्कब्धौ। जैउ १.६.१.३

२.अर्धं ह्यन्तरिक्षस्यास्मिंल्लोके  ऽर्धममुष्मिन् (द्युलोके) मै.३.८.९

 

 

इसका अभिप्राय यह नहीं कि अन्तरिक्ष द्यावापृथिवी तक ही सीमित है। काठक संहिता के अनुसार अन्तरिक्ष कुछ अनादि-सा और सबका आयतन-सा है। अर्थात् अन्तरिक्ष में ही सब रहते हैं।१अन्तरिक्ष ही सर्वदेवों का आयतन है।२ इसका अर्थ यह नहीं कि देव अन्तरिक्ष, द्यौ और पृथिवी के बीच किसी लोक तक ही सीमित है, अपितु इससे यह समझना होगा कि अन्तरिक्ष से बाहर कोई देव नहीं है और वह अन्तरिक्ष ऐसा है, जो अपने भीतर सभी देवों को समेटे हुए है । सम्भवतः इसी महत्ता की दृष्टि से उसको अन्तरिक्षं एव महः "३ कहकर याद किया जाता है । जब 'अन्तरिक्षं वै यज्ञः '' ४कहकर याद किया जाता है तो भी उसकी व्यापकता और महत्ता ही अभिप्रेत होती है क्योंकि यज्ञ मूलतः ऋग्वेद में भी सर्वव्याप्त ही माना गया है।५

पर, ये तीनों लोक वास्तव में हैं क्या इस प्रश्न का उत्तर ऋग्वेद के प्रस्तुत मन्त्र में है,

नीचीनबारं वरुणः कबन्धं,

प्र ससर्ज रोदसी अन्तरिक्षम्।

तेन विश्वस्य भुवनस्य राजा,

यवं न वृष्टिर् व्युनत्ति भूम ।। ऋ.५.८५.३

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१.अनारम्भणमिव वा एतदनायतनमिव यदन्तरिक्षम्। काठ २१.८

२.अन्तरिक्षं वै सर्वेषां देवानामायतनम्। माश १४.३.२.६

३.गो.१.५.१५

४.मैसं० ३.८.५; ३.६.८

५.यो यज्ञः विश्वतः तन्तुभिः ततः एकशतं देवकर्मेभिः आयतः । ऋ.१०.१ ३०.१

 

यहां नीचीनबार कबन्ध से मनुष्य का स्थूल शरीर अभिप्रेत है जिसके भीतर स्थित मानुषी त्रिलोकी के मनोमय, प्राणमय, और अन्नमयकोशों को क्रमशः द्यौ अन्तरिक्ष और पृथिवी कहा जा सकता है । उन तीनों की सृष्टि कबन्ध के साथ मां के गर्भ में ही हो जाती है। मन-रूप प्रजापति१ जब अहंकार के वशीभूत होकर इस मनुष्य-व्यक्तित्व को अनृत और दुरित से भरपूर कर देता है, तो प्रजापति को रोना पड़ता है और परिणामतः द्यौ और पृथिवी का नाम रोदसी हो  जाता है।२ अतएव जब एक मन्त्र ३ में रोदसी को आपूरित करके, द्यौ और पृथिवी में से प्रत्येक को विस्तार प्रदान करने की बात कही जाती है, तो इसका तात्पर्य यही हो सकता है कि इन्द्र द्वारा आपूरित होने का अर्थ द्यावापृथिवी को उन दोषों से मुक्त करना है जिनके कारण उसका नाम रोदसी पड़ा था। इसी बात को और भी अधिक स्पष्ट करने के लिए अन्तरिक्ष सहित द्यावापृथिवी के लिए जब "पार्थिवानि' शब्द का प्रयोग होता है, तो साथ ही एक "उरु रजः " अन्तरिक्ष की कल्पना भी की जाती है -

आपप्रुषी पार्थिवानि उरू रजो अन्तरिक्षम् । ऋ.६.६१.११

इस "उरु रजः अन्तरिक्षम्" को निस्संदेह उस अन्तरिक्ष से भिन्न मानना पड़ेगा जो द्यौ और पृथिवी के बीच स्थित माना जाता है ।

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.         ऋ.१.९१.२२; ३.२२.२; ५.१.११ इत्यादि ।

२.यदरोदीत् तद् रोदस्योः रोदस्त्वम् तैब्रा.२.२.९.४

३.अवंशे द्याम अस्तभायत् बृहन्तम्,

आ रोदसी अपृणत् अन्तरिक्षम् ।

स धारयत् पृथिवीं पप्रथच्च,

सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार ।। ऋ.२.१५.२८

 

इस प्रसंग में निम्नलिखित ऋग्वेदीय मन्त्र विशेष महत्व का है -

मम देवा विहवे सन्तु सर्व इन्द्रवंतो मरतो विष्णुरग्निः ।

ममान्तरिक्षमुरुलोकमस्तु मह्यं वातः पवतां कामे अस्मिन्।। ऋ.१०.१२८.२

इस मन्त्र में ऋषि अपने सर्वेदेवाः ' को इन्द्रवन्तः मरुतः' होने की कामना करता है और अपने अन्तरिक्ष को उरु लोक में परिणत होता हुआ देखना चाहता है । निस्संदेह यहां पूर्वोक्त मानुषी त्रिलोकी के अन्तरिक्ष को उरुलोक में परिणत करने की बात कही गई है । इसके लिए ऋषि अपने जिन सर्वेदेवाः को 'इन्द्रवन्तः ' मरुतः ' बनाना चाहता है वे वस्तुतः प्राण हैं जो केवल 'सर्व' नामक मानुषी-त्रिलोकी तक ही सीमित रहते हैं और उस अतिमानसिक जगत् में इसकी पहुंच नहीं है जिसको वेद में "विश्व' कहा जाता है और जिसके प्रकाश को प्राप्त करके सर्वेदेवाः इन्द्रवन्तः मरुतः अथवा विश्वेदेवाः कहे जा सकते हैं । सर्व स्तर का अन्तरिक्ष असु कहा गया है१ जहां देव भी असुर हो जाते हैं । इसी कारण अग्नि, वरुण, इन्द्र आदि के लिए कभी कभी असुर विशेषण भी प्रयुक्त होता है । जिस अन्तरिक्ष की रक्षा मरुतः करते हैं वह ब्रह्म से समाविष्ट होता है ।२ अतः जब सर्वेदेवाः को 'इन्द्रवन्तः मरुतः' होने की आकांक्षा की जाती है तो इसका तात्पर्य यही है कि किसी उच्चतर स्तर से ब्राह्मी शक्ति को

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१.अन्तरिक्षमसुम् अन्ववसृजतात् । मै.४.१३.४; काठः १ ६.२१

२.अधिद्यौरन्तरिक्षं ब्रह्मणा विष्टा मरुतस्ते गोप्तारो वायुर्वियित्तः।

तै.४.४.५.२

 

लाकर सर्वेदेवाः का असुरत्व दूर करके उन्हें विश्वेदेवाः बनाया जाए।

उरु अन्तरिक्ष -

उक्त उच्चतर स्तर को ही पहले 'उरु रजः अन्तरिक्षम्" कहा गया है। इसी का एक बहुत ही सुन्दर वर्णन इस प्रकार मिलता है -

इदं स्वरिदमिदास वाममयं प्रकाश उर्वन्तरिक्षम् ।

हनाव वृत्रं निरेहि सोम हविष्ट्वा सन्तं हविषा यजाम।।

ऋ.१०.१ २४.६

इस मन्त्र में जिस उरु अन्तरिक्ष का उल्लेख है उसे प्रकाश कहा गया है और उस के लिए "स्वः' तथा 'वामं का भी प्रयोग हुआ है जो अपने आप में वैदिक अध्यात्म की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। "स्वः' उस परमज्योति का नाम है जिसकी खोज में अंगिरसों तथा मरुतों के अतिरिक्त इन्द्र तथा अन्य देव भी निरत रहते हैं । परन्तु इसकी प्राप्ति अहंकार-रूप-वृत्र के वध हो जाने पर ही होती है । इसीलिए इस मन्त्र में इन्द्र सोम को वृत्र-वध के लिए आमंत्रित करता है । इस

अवस्था को तैयारी के लिए सूक्त के प्रथम मन्त्रों में स्पष्ट बताया गया है कि किस प्रकार  अग्नि अपने असुर पिता वृत्र (अहंकार) को छोड़कर, इन्द्र को पिता के रूप में वरण करता है और उसके फलस्वरूप असुर माया-रहित हो जाते हैं तथा इन्द्र वरुण को अपने राष्ट्र का आधिपत्य प्रदान करने की इच्छा करता हुआ ऋत के द्वारा अनृत का नाश करने की कामना करता है।१ दूसरे शब्दों में, इस प्रकार पूर्वोक्त रोदसी की उस रोदनशीलता को समाप्त करने के लिए सफल प्रयास किया जाता है जिस के रहते मानुषी त्रिलोकी का अन्तरिक्ष ज्योतिर्मय उरु अन्तरिक्ष नहीं बन सकता ।

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१. अधिद्यौरन्तरिक्षं ब्रह्मणा विष्टा मरुतस्ते गोप्तारो वायुर्वियत्तः । तै ४.४.५.२