वेदों में अन्तरिक्ष के पर्यायों का प्रतीकवाद

 अरुणा शुक्ला

 (जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर की पी.एच.डी उपाधि हेतु स्वीकृत शोधग्रन्थ)

1994ई.

 

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Introduction

Chapter One

Chapter Two

Chapter Three

Chapter Four

Chapter Five

Chapter Six  

Chapter Seven 

Chapter Eight  

About the Author

 

 

 

चतुर्थ अध्याय

अंतरिक्ष का भूत्व, पृथ्वीत्व तथा समुद्रत्व

 

- लोक, व्याहृति और पृथिवी

- पृथिवी अथवा भूमि

- अंतरिक्ष की आंतरिकता

- आपः और समुद्रः

- समुद्र से उठने वाली ऊर्मि या ऊर्मियां

- ऋ.४.५८ को रहस्यात्मकता

- अंतरिक्ष - रूप घृत

- सोम और साम

 

चतुर्थ अध्याय

अन्तरिक्ष का भूत्व, पृथिवीत्व तथा समुद्रत्व

पिछले अध्याय में अन्तरिक्ष शब्द के वैदिक प्रयोगों को लेकर जो विवेचन हुआ उससे स्पष्ट हो गया कि वैदिक मन्त्रों में अन्तरिक्ष शब्द बोलचाल में प्रयुक्त अन्तरिक्ष से अवश्य भिन्न है। इसी तरह अन्तरिक्षनामों में परिगणित पृथिवी और भूः शब्द भी निस्संदेह हमारे ग्रह-पिण्ड के वाचक नहीं हो सकते। भाष्यकारों ने पृथिवी शब्द का तो कहीं-कहीं अन्तरिक्ष अर्थ किया है, पर भूः शब्द को तो सम्भवतः इस अर्थ में कहीं नहीं लिया। इसका प्रमुख कारण यह है कि उदात्त-स्वरयुक्त भूः का प्रयोग प्रायः भूः, भुवः, स्वः आदि के साथ जो हुआ है, उसे छोड़ कर इस शब्द का प्रयोग अत्यल्प है। अनुदात्त-स्वर-युक्त भूःनिश्चित रूप से क्रियापद है, जबकि उदात्त स्वर वाला भूः मुख्यतः प्रथम व्याहृति के रूप मंो प्रयुक्त है।

लोक, व्याहृति और पृथिवी

व्याहृति वस्तुतः अभिव्यक्ति का नाम है। पिण्डाण्ड में आत्मा और ब्रह्माण्ड में परमात्मा अपने को जिस रूप में अभिव्यक्त करता है वही अभिव्यक्ति व्याहृति कहलाती है। हम देख चुके हैं कि ये व्याहृतियां सात हैं जिन्हें सात लोक भी कहा जाता है। प्रत्येक व्याहृति-रूप लोक को आत्मा या परमात्मा अपनी वाक् द्वारा

अभिव्यक्त करता है। इस लिए ब्राह्मण ग्रन्ध कहते हैं कि वाक् ही इन लोकों के रूप में फैली हुई है।१ अतः जब ब्राह्मणों में वागिति पृथिवी' की उक्ति बार-बार आती है, तो स्पष्ट है कि फैलने के कारण ही वाक् को भी पृथिवी कहा गया२, क्योंकि पृथिवी नामक ग्रह भी तो फैला होने के कारण पृथिवी कहलाता है - प्रथनात् पृथिवी३ इत्याहुः। जैसा कि देख चुके हैं, अन्तरिक्ष भी फैलकर अनेक अन्तरिक्षाणि' में प्रकट हुआ माना जाता है। अतः "प्रथनात् पृथिवी का निर्वचन अन्तरिक्ष पर लागू करके उसे भी पृथिवी नाम दिया गया।

वास्तव में, यहां प्रधन या फैलाव से जो अभिप्राय है उसी को वाक् के प्रसंग में 'भू' धातु द्वारा भी व्यक्त किया जा सकता है। "वाग् भूत्वा (प्रजापतिः) सर्व व्यभवत् (जैब्रा १.३१४ ) से यही ध्वनि निकलती है कि जो प्रजापति पहले 'अस्ति क्रिया काकर्ता हो कर केवल अस्तित्व वाला कहा जा सकता था वही वाक् के माध्यम से "भवतिक्रिया का कर्ता होकर विविध प्रकार का "भाववृत्त" ग्रहण करने वाला होता है। दूसरे शब्दों में, शक्तिमान् जो पहले अपनी शक्ति को अन्तर्हित किए हुए था वही अब शक्ति को व्यक्त कर नाना भुवनों या भावों (अभिव्यक्तियों) का कर्ता हो रहा है। भाव या भुवन (अभिव्यक्ति) ही अध्यात्म में "प्रजनन" है। अतः प्रजापति को "भूत" कहा जाता है और उसकी वाक् रूप पृथिवी को 'भूतस्य

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वाग् वा इयं वितता यदिमे लोकाः जैब्रा २.३८९; २.२५३; २६४)

२.जैउ.४.११.१.११; तु.तैसं ५.६.८.५; मा श १४.४.३.११ ऐब्रा.५.३३; मा श.४.६.९.१६

३.यास्क निरुक्त- १.१३

४.भूतो वै प्रजापतिः क.४८.१५

प्रधमजाः”  प्रजा कहा जाता है।१

वाक् का यह 'भूतस्य प्रधमजा' रूप ही भूः नामक व्याहृति है और अन्तरिक्षनामों में परिगणित भूः इसी प्रथम सृष्टि का वाचक माना जा सकता है। भूः की उत्पत्ति प्रजापति के ऊर्ध्वगामी (उत्तान पदः होने पर होती है।२ यह मन ही प्रजापति है।३ इसका ऊर्ध्वगामी होने का अर्थ है अहंकार-क्षेत्र से उपर उठना। इस उत्तानता में मनप्रजापति अपनी वाक् के माध्यम से प्रजनन अर्थात् प्रकृष्ट उत्पादन करता है। प्रजनन-प्रक्रिया की प्रथम उपलब्धि भूः है जिसके लिए मन प्रजापति को 'उत्तानपाद ' होना पड़ा। दूसरी उपलब्धि भुवः है जिसमें वह दिशाओं को जन्म देता४ है। दूसरे शब्दों में भूः, व्याहृति के साथ मन-प्रजापति ऊर्ध्वोन्मुख होता है, तो भुवः व्याहृति द्वारा वह सभी दिशाओं की और फैलता है। इन दोनों व्याहृतियों के फलस्वरूप आत्मा-रूप इन्द्र अपने ओज से "विश्वाजातानि' को अभिभूत करने वाला अभिभूः " हो जाता है अथवा यों कहें कि वह स्वयं "विश्वाः भुवः हो जाता है -

त्वमिन्द्राभिभूरसि विश्वा जातान्योजसा ।

स विश्वा भुव आभवः ।। अथ.२०.९३.८

इस मन्त्र में जहाँ भूः व्याहृति आत्मा-रूप इन्द्र के सम्बन्ध से अभिभूःहो जाती है और भपवः व्याहृति विश्वाः" विशेषण ग्रहण कर लेती है वहीं 'आभवः " रूप में 'भूःक्रिया का भी प्रयोग हो जाता है। यह सब परिवर्तन मन-प्रजापति के ऊर्ध्वोन्मुख (उत्तानपद) 

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१.इयं वै पृथिवी भूतस्य प्रथमजाः माश १४.१.२.१०

२.भूर्जज्ञ उत्तानपदः.१०.७२.४

३.मनो हि प्रजापतिः सा.ब्रा १.१; तु.जैउ.१.३.४.५

४.भुवः आशा अजायन्तः ऋ.१०.७२.४

 

होने से होते हैं । इस सबका परिणाम होता है कि आत्मा-रूप इन्द्र में परमात्मा-रूप इन्द्र का "स्वःमनोमय कोश-रूप द्यौ में अवतीर्ण होकर आत्मा-रूप इन्द्र को "सुभूः स्वयंभूः " बना देता है जो मनुष्य-व्यक्तित्व के "महत्" नामक अर्णव में उस ऋत्वियं गर्भम्को धारण करता है जिससे आत्मा स्वयं प्रजापति हो जाता है१-

सुभूः स्वयंभः प्रथमोऽन्तर्महत्यर्णव ।

दधे ह गर्भमृत्वियं यतो यतः प्रजापतिः।। शु.यजु.२३.६३ 

'सुभुः' का अर्थ है - "सु' होने वाला और 'स्वयंभूः' का शब्दार्थ है स्वयं ही (स्वभावत होने वाला। मन के ऊर्ध्वोन्मुख होने से अहंकार के प्रभाव से जीव मुक्त होने लगता है जिसके पलस्वरूप अहंकारजन्य दुरित् का नाश और सुवित् अथवा 'सु' का उद्भव स्वभावतः हो कर महत्-रूप अर्णव में ऋत का बीजवपन (गर्भ) हो जाता है जो मनुष्य-मन को "ठीक समय पर ,ठीक ढंग से ठीक काम करने का स्वभाव प्रदान करके श्रेष्ठ इच्छाओं, भावनाओं, विचारों और क्रियाओं रूपी प्रजाओं का प्रजनन करने वाला प्रजापति बना देता है। उक्त महत् अर्णव सांख्यदर्शन का महत् तत्व प्रतीत होता है जिसे वेद में महः” - व्याहृति कहा जाता है। तैत्तिरीय आरण्यक उसका वर्णन इन शब्दों में करता है-- भूर्भुवः सुवरिति वा एतांस्तिस्रो व्याहृतयः। तासामु ह स्मैतां चतुर्थीमाहाचमस्यः प्रवेदयते । मह इति। तद् ब्रह्म। स आत्मा। अड्गान्यन्या देवताः। तैआ ७.५.१; तैउ १.५.१

इस वर्णन में निम्नलिखित बिंदु विशेष रूप से विचारणीय हैं-

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१.आत्मा हि अयं प्रजापतिः मा श ४.६.१.१; ११.५.९.।

१-इस वर्णन के अनुसार प्रथम तीन व्याहृतियों में जो ऊँ है वह चतुर्थी व्याहृति को माहाचमस्यः महः संज्ञा प्रदान करता है।

२-यह ॐ ही ब्रह्म है और यही आत्मा है ।

३-अन्य सभी देवता इस ब्रह्म या आत्मा के अंग हैं ।

४-यहां तृतीय व्याहृति को सुवः नाम दिया गया है, यद्यपि सामान्यतः इसके लिए "स्वः शब्द का प्रयोग ही दिखाई पड़ता है।

इन बिन्दुओं में से पहले माहाचमस्य संज्ञा पर विचार कर लेना समीचीन होगा। इस संज्ञा के मूल में वही "महाकुल चमसहै जिसको ऋभु, विभ्वा और वाज" नामक तीन सुधन्वा-पुत्र चतुर्विध करने वाले कहे जाते हैं ।१ डॉ० फतहसिंह के अनुसार२, यह चमस मनुष्य का एकीभूत अतिमानसिक व्यक्तित्व है जो मानसिक स्तर पर इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति के कारण त्रिविध-विभक्त होकर, अविभक्त चमस समेत कुल मिलाकर चतुर्विध-विभक्त कहलाता है। 'महाकुल" नाम देने का हेतु यह है कि अतिमानसिक व्यक्तित्व वस्तुतः मनुष्य के उस आध्यात्मिक विकास का परिणाम है जिसके फलस्वरूप उस का "अहम्' वर्ण-विपर्ययजनित 'महः ' नामक अतिमानसिक नाम ग्रहण करता है। एक ऋग्वेदीय सूक्त में प्रश्न उठाया गया है कि एकीभूत चमस को चतुर्विध करना उस की निन्दा हे अथवा प्रशंसा। इस प्रश्न का समाधान करते हुए उक्त तीनों कहते हैं कि हम इसकी भूति (ऐश्वर्य)

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एकं चमसं चतुरः कृणोतन तद्वो देवा अब्रुवन्तद्व आगमम्।

सौधन्वना यद्येवा करिष्यथ साकं देवैर्यज्ञियासो भविष्यथ।। ऋ.१.१६१.२

२.डॉ० फतहसिंहकृत ः भावी वेद भाष्य के संदर्भ-सूत्र

 

को ही बढ़ा रहे हैं। तत्पश्चात, उन तीनों को आश्वासन मिल जाता है कि यदि वे एक चमस को चतुर्विध कर लेते हैं, तो उन्हें देवों के साथ यज्ञ में भागीदार होने का गौरव प्राप्त होगा।२

दूसरे शब्दों में, अतिमानसिक महाकुल चमस मनुष्य की चित्तवृत्तियों को अन्तर्मुखी एवं एकीभूत करने वाले उस मनोन्नयन का परिणाम है जिसके कारण सेन्द्रिय मन और अहंकार महत्-तत्व में विलीन हो जाते हैं । यह योग-समाधि की प्रक्रिया के अन्तर्गत होता है, परन्तु व्युत्थान की अवस्थान में इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति द्वारा उसके तीन अन्य आयाम प्रकट होने के कारण अब पूरा मनुष्य-व्यक्तित्त्व-रूप चमस चतुर्विध हो जाता है। जब तक योगप्रक्रिया में यह 'महःव्याहृति नहीं प्राप्त होती, तब तक जो तीन व्याहृतियां होती हैं उनमें निविष्ट जीवात्मा का ॐ स्वरूप उदभूत होने लगता है और वही 'महः ' व्याहृति के स्तर पर महान् आत्मा के रूप में प्रकट होकर मनुष्य-व्यक्तित्त्व-रूप चमस को महाकुल के अन्तर्गत ला देता है जिसके कारण इस 'महः' नामक चतुर्थी व्याहृति को 'माहाचमस्यः ' नाम प्राप्त होता है।

आत्मा का यह "ॐ" नामक स्वरूप वस्तुतः अहंकार के चंगुल से मुक्त हुआ वह स्वरूप है जो ब्रह्म-सायुज्य प्राप्त करके अहं ब्रह्मास्मि' कहने का अधिकारी होता है। इस प्रकार उपर्युक्त द्वितीय बिन्दु का भी समाधान हो जाता है। यहां जिस "ॐ" नामक आत्मा का उल्लेख किया गया है वह अहंकारजन्य माया से आबद्ध होने पर अपने "ॐ"

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किमु श्रेष्ठः किं यविष्ठो न आजगन्किमीयते दूत्यं कद्यदूचिम्।

न निन्दिम चमसं यो महाकुलोऽग्ने भ्रातर्द्रुण इद्भूतिमूदिम ।।

- ऋ.१.१६१.१

२.देखिए, पूर्वोद्धृत १.१६१.२

 

स्वरूप को भूल जाता है। योग-प्रक्रिया आरंभ होने पर वह अपने उस स्वरूप को पुनः प्राप्त करने का प्रयास करता है और सेन्द्रिय मन और अहंकार जब महत्-तत्व में समाहित कर लेता है तभी उसे पूर्वोक्त महत्-अर्णव में विद्यमान "सुभूः " और "स्वयंभूः ' कहा जाता है और तभी वह स्वभावतः बिना किसी प्रयास के जनः एवं तपः व्याहृतियों को अपनाता हुआ अन्ततोगत्वा, जैसा कि प्रथम अध्याय में बतलाया गया, सत्यं व्याहृति के उत्तरं स्वः१ को भी प्राप्त कर लेता है। व्युत्थान में जब वह पुनः मनोमय-कोश की ओर आता है, तो महः से पूर्व की तीन व्याहृत्यिों में से जो "सुवः " कही गई है वह "स्वः' नाम धारण कर लेती है। उदाहरण के लिए, ऋ १०.१२४ के मन्त्रों का संक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत किया जाता है। इस सूक्त में साधक जो अदेव से अमृतत्त्व की और जाने की अथवा अशिव होता हुआ शिव हेतु नाभि की ओर जाने की बात करता है वह वस्तुतः मायाबद्ध-जीव का मुक्ति की ओर प्रस्थान है। वह अपने असुर पिता (अहंकार) के हित में अयज्ञीय (मायाच्छन्न) भाग से यज्ञीय भाग की ओर चलता हुआ अब इन्द्र को पिता-रूप में वरण करके असुर पिता (अहंकार) को त्याग रहा है तथा उस राष्ट्र की ओर गमन कर रहा है जिसकी रक्षा अग्नि, वरुण और सोम कर रहे हैं। इन्द्र वरुण को अपने राष्ट्र का आधिपत्य स्वीकार करने के लिए आमंत्रित करता हुआ कहता है कि - "हे ॐ स्वरूप वरुण । अब असुर मायारहित हो चुके हैं; इसलिए तुम ऋत और अनृत का विवेक करते हुए यहां आ जाओ। मंत्र ।-५

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१.तुः स्वः पश्यन्त उत्तरम् यजु.२०.२१; २७.१०

 

इस प्रकार उस प्रश्न के समाधान का आधार प्राप्त हो जाता है जिसके अनुसार अन्य देवताओं को इस ब्रह्म अथवा आत्मा का अंग कहा गया है । वास्तव में, मनुष्य-व्यक्तित्व-रूप अयोध्यापुरी में जो देव कहे गए हैं वे प्राण ही हैं जो इस आत्मा या ब्रह्म की अंगभूत शक्ति के ही रूपान्तर हैं । जब आत्मा अहंकारजन्य अज्ञान से आवृत रहता है, तब तक ये पापी प्राण असुर कहे जाते हैं, परन्तु जब अहंकार, मन और इन्द्रियों सहित, महत्तत्व में विलीन होता है, तब वे प्राण असुर प्रभाव को त्यागकर पुनः देवत्व ग्रहण करके आत्मा या ब्रह्म के साथ अपने अंग-अंगीभाव को प्राप्त कर लेते हैं। इस तथ्य का संकेत हमें अनेक वैदिक मन्त्रों में मिलता है। उपर्युक्त सूक्त के अवशिष्ट अंश में (मंत्र ६-९) जब हर्षोल्लास से "यह स्वः है,यही वाम है, यही प्रकाश और यही उरु अन्तरिक्ष कहता हुआ इन्द्र सोम को वृत्र-वध के लिए आमन्त्रित करता है, तो वरुण जिन आपः का सृजन करता है वे वस्तुतः वही शुद्ध प्राण हैं जिन्हें आपः देवीः अधवा देवाः कहा जाता है। वृत्र-वध से पहले वे असुर-प्रभाव में थे, परन्तु अहंकाररूप वृत्र के विनाशोपरान्त, वृत्र से भयभीत उन प्राण-देवों के साथ महान् इन्द्र (मुक्त आत्मा) का सायुज्य हो जाने पर, वे सभी क्रान्तदर्शी 'कवयः ' हो कर इंद्र को दिव्य आपः के "सयुज हंसः के रूप में जानने लगते हैं ।

आत्मा अथवा ब्रह्म के सायुज्य को ऊपर "इदम् स्वः " आदि कहकर याद किया गया है । इसी को प्राप्त करके मनुष्यव्यक्तित्व को वह स्वः प्राप्त हो जाता है जो उसके स्व की हिंसा नहीं करता१, अपितु अभीष्ट स्व२ के लिए "सुहृदयतमसिद्ध होता है।

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१.न हि स्वः स्वं हिनस्ति तैसं ५.१.७१ ; मै ३.१.८; क ३०.५

२.स्वो वै स्वाय नाथिताय सुहृदयतमः काठ ११.६

 

 

 ‘स्वः' प्रकाश है और स्व ऊर्जा१ है जिसके रहते मनुष्य बुभुक्षा-पीड़ित नहीं होता। परन्तु साधना की दृष्टि से ऊर्जस्वती आपः (प्राणाः) को भी स्वर्वती होना आवश्यक है। इसीलिए शुष्ण नामक असुर (महत् अघ का प्रतीक) के अण्डों को भेदने के लिए जिस स्वध्वरं सत्यंकी आवश्यकता पड़ती है उसके लिए आपः का स्वर्वती होना आवश्यक है। जब तक आपः स्वर्वती हो कर नीचे अवतीर्ण नहीं होते तब तक जीवात्मा की प्रथम तीन व्याहृतियां भूः भुवः और सुवः ही कही जाती हैं परन्तु स्वः के आगमन के पश्चात् वे क्रमशः सुभूः, सुभ्वः३ और स्वः हो जाती हैं ।

 

जैसा कि पहले कहा जा चुका है "स्वः वह ब्रह्माण्डीय ज्योति है जो आत्मा को ब्रह्म-सायुज्य प्राप्त करने से प्राप्त होती है और जिसके फलस्वरूप सातों व्याहृतियां आलोकित हो जाती हैं। इसीलिए भासार्थक "लोकृ धातु से निष्पन्न "लोकनाम का प्रयोग इन सब व्याहृतियों के लिए होने लगता है और वे सप्तलोक कहलाते हैं । ये वस्तुतः दिव्य लोक हैं । इसके विपरीत सात अन्य लोक भी माने गये हैं जो एक-दूसरे के नीचे क्रमशः अतल, वितल, सतल, रसातल, तलातल, महातल और पाताल कहे गए हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर जो चौदह लोक होते हैं उन्हीं के परिप्रेक्ष्य में डॉo फतहसिंह ने अपने

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१.ऊर्ग्वै स्वम्, माश ५.३.५-१२

तु.एते वा अपहतपाप्मा प्राणाः वै मुख्याः जैब्रा २.३.४७

२.तु.ऋ.८.४०.१०-११

३.ऋ.१.५२.I; ; ४.I ७.२; ५.३९.१३; ५५.३; ५९.३; ८७.३;

६.५२.१; ७.६७.८

४.तु.वामन शिवराम आप्टे-कृत "संस्कृत हिन्दी कोश";

(मोतीलाल बनारसीदास द्वारा प्रकाशित), पृ० ८८४

 

भारतीय समाजशास्त्र१ में पुराणों के चौदह मन्वन्तरों तथा चौदह मनुओं एवं जैन-परम्परा के चौदह कुलकरों और चौदह गुणस्थानों को स्वीकार किया है। तदनुसार भूः, भुवः आदि सात लोक आध्यात्मिक उत्थान के दिव्य लोक हैं जबकि अतल आदि सात आसुरी लोक जीवात्मा के पतन के द्योतक हैं । सबसे निम्नतम लोक जैनागम का मिथ्यात्व नामक गुणस्थान हैं जिससे क्रमशः आरोहण करते हुए चौदहवें गुण-स्थान पर पहुंच कर आत्मा को "जिन' अथवा "ब्रह्म' होना है। इसीलिए इसको सत्यलोक अथवा ब्रह्मलोक भी कहते हैं ।

पृथिवी अथवा भूमि

उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पूर्वोक्त लोकों की कल्पना मूलतः मानव-चेतना के आरोहण और अवरोहण द्वारा प्रादुर्भत चेतनास्तर हैं । पतनोन्मुख आपः (प्राण) ही "पापाः" कहे गए हैं जिन्हें अतल, वितल आदि पतन के सात स्तरों में कल्पित किया गया है। इसके विपरीत भूः, भुवः आदि सप्तलोकों का लक्ष्य वह 'स्वः ' है जिसे स्वर्ग भी कहा जाता है।२ पतन के सप्तलोकों में मनुष्य चौदहवें लोक (पाताल) से लेकर आठवें (अतल) तक ही सीमित रहता है। परन्तु मनुष्य यदि पशुवत् जीवन व्यतीत करता है तो वह केवल पतन के उन प्रथम लोकों तक ही सीमित रहकर अपने जीवन का अन्त कर देता है जिन्हें आसुरी लोक कहा जा सकता है। इनसे ऊपर फैलने का प्रयास करने वाली वाक् या अन्तरिक्ष (चेतना-शक्ति) ही प्रथनात् पृथिवीके अनुसार

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१.भारतीय समाजशास्त्र - मूलाधार, पृ०

२.स्वर्ग लोको स्वः, जैब्रा ३.६९

 

 

"पृथिवी' होती है। उसका प्रथन (विस्तार) करने वाला वह आत्मारूप इंद्र है जो उसे धारण करते हुए सोम से युक्त हो कर विस्तार भी प्रदान करने लगता है।१ जन्म से जिस वाक् (चेतना) को लेकर मनुष्य आता है वह प्राणन और अपानन क्रिया द्वारा सीमित प्रसार ही करती है जो अन्नमयकोश, प्राणमय कोश और मनोमय कोश तक ही सीमित रहता है, परन्तु और आगे बढ़ने के लिए उसकी शक्ति को दैवी  पोषण की आवश्यकता पड़ती है। इसीलिए कहा जाता है कि पूषा देव ने द्यौ और पृथिवी के पथों का प्रथन (विस्तार) किया।२ पूषा जिस स्वस्ति को देने वाला कहा गया है वह वस्तुतः स्वर्वती (स्वः से युक्त) चेतना तथा अभय पद है। इसलिए "स्वस्तिदा पूषा३ हमें अभयतम मार्ग से ले जाने वाला कहा जाता है और उसके वरद हस्त के कारण जीवात्मा अपने जिस नष्ट हुए आध्यात्मिक धन को पुनः प्राप्त कर लेता है४ वह "स्वर्वतीरभयं स्वस्ति" कहा जाने वाला "उरु लोक'

है ।

यह पूषा वस्तुतः ब्रह्म-सायुज्य से संवलित मानव-चेतना ही है। इसीलिए जब पूषा५ को पृथिवी (प्रथनशील) कहा जाता है, तो

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१.ऋ २.१५.२

२.प्रपथे पथामजनिष्ट पूषा प्रपथे दिवः प्रपथे पृथिव्याः ।

उभे अभिप्रियतमे सधस्थे आ च परा च चरति प्रजानन्।। , -अथ.७.९.१

पूषेमा आशा अनु वेद सर्वाः सो अस्मां अभयतमेन नेषत्।

स्वस्तिदा आघृणिः सर्ववीरो प्रयच्छन् पुर एतु प्रजानन्।।  -अथ.७.९.२

परि पूषा परस्ताद्धस्तं दधातु दक्षिणम् ।

पुनर्नो नष्टमाजतु सं नष्टेन गमेमहि।। ऋ.७.१०.२;

५.इयं पृथिवी वै पूषा ( +प्रपथे (पातु) काठ ७.९ ८। मै २.५.५; ३.७.६; काठ ७.९; क ३७,; तै ।.७.२.५; माश ६.३.२.८; १३.२.२.६; ४.I.१४ (तु.काठ ७.११ ; क ६.I; इत्यादि ।

 

 

अभिप्राय पूर्वोक्त महान् आत्मा के महत् अथवा मही नामक शक्ति से होगा जो अपने शक्तिमान् (आत्मा) से अविनाभाव सम्बन्ध रखती हुई है ।

अन्तरिक्ष की आन्तरिकता

इसी से युक्त पूषा प्रज्ञानवान् आत्मा है। जो अपनी द्विविध चेतना-शक्ति के "सधस्थको 'आगति' और 'परागति" देने में समर्थ है-

उभे अभि प्रियतमे सधस्थे आ च परा च चरति प्रजानन्। -अथ.७.९.१

यह द्विविध चेतना -शक्ति ही द्यावापृथिवी नामक मिथुन है जिसे पूर्वाक-पराक् स्तोमद्वय, पूर्वपक्षापरपक्ष, प्राणापान, प्राणोदान, अहोरात्र आदि युग्मों के रूप में भी माना गया है।१ इन्हीं दोनों में अन्तर्हित वह अन्तरिक्ष रहता है जिसे ब्राह्मण ग्रन्थों में परोक्ष-दृष्टि से अन्तर्यक्षम् " कहा है।२ इसी अन्तरिक्ष को वह पृथिवी कहा गया प्रतीत होता है  जो दिव्य नभ का भेदन करती है तो दिव्य उदक का स्वामी वृष्टि प्रारंभ कर देता है -

प्र नभस्व पृथिवि भिन्द्धीदं दिव्यं नभः ।

उद्नो दिव्यस्य नो धातरीशानो विष्या दृतिम्।। अथ.७.१९.१

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१.देखिए, डॉ० फतह सिंहकृत द्यावापृथ्विी

२.देखिए, द्वितीय अध्याय, पृ० ४१

 

अगला मन्त्र इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए उक्त दिव्य-वृष्टि के परिणाम-स्वरूप बरसने वाले आपः से सोम-रूप घृत१ के क्षरण का उल्लेख करता है और साथ ही बतलाता है कि 'जहां सोम है वहीं सदा भद्र होता है- यत्र सोमः सदमित् तत्र भद्रम्।

 

इसका तात्पर्य है कि उक्त दिव्य-नभ के भेदन से जिस दिव्य उदक की वृष्टि होती है वह वस्तुतः ब्रह्मानंद-रूप सोम है। योगशास्त्र में इसी को धर्म-मेघ-समाधि में होने वाली आनंद-वृष्टि कहा जाता है। अतः इस वर्षा के लिए दिव्य-नभ का भेदन करने वाली पृथिवी निस्संदेह हमारा ग्रह-पिण्ड न होकर वह चेतना ही हो सकती है जो योग-प्रक्रिया द्वारा देशकाल से परे उस अग्रभूमि पर पहुंच जाती है जिसे परम व्योम कहा जाता है और जहां उक्त सोम रूपी उदक के एक अर्णव (समुद्र) की कल्पना की गई है।-

याऽर्णवेऽधि सलिलमग्र आसीद् यां मायाभिरन्वचरन्मनीषिणः।

यस्याः हृदयं परमे व्योमन्सत्येनावृतममृतं पृथिव्याः

सा नो भूमिस्त्विषिं बलं राष्ट्रे दधातूत्तमे । अथ.१२.१.८

यहां जिस भूमि अथवा पृथिवी का उल्लेख है उसकी निम्नलिखित विशेषताएं मुख्य रूप से विचारणीय हैं -

।- यहां भूमि और पृथिवी में किंचिद् भेद किया गया है।

भूमि पृथिवी का सत्यावृत अमृत हृदय है जो परमव्योम

में है ।

२- वह भूमि उत्तम राष्ट्र में त्विषि (तेज) और बल स्थापित

करती है। ।

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१.तुः घृतं वै देवाः सोममघ्नन् मै ३.८.२; १०.५; ४.५.२ गो.२.२.४;

घृतं पिबन्नमृतम्  मैसं ४.१२.४; काठ ।।.१३ तद् यत् अमृतं सोमः सः माश ९.५.१.८

२.न घ्रंस्तताप न हिमो जघान प्र नभतां पृथिवी जीरदानुः ।

आपश्चिदस्मै घृतमित् क्षरन्ति, यत्र सोमः सदमित् तत्र भद्रम्।। अथ ७.१९.२

 

३- यह भूमि पहले अर्णव में सलिल पर अधिष्ठित थी।

४- उस तक केवल मनीषियों की पहुंच है और वह भी उनकी मायाओं के द्वारा । सर्वप्रथम चतुर्थ बिन्दु पर विचार करें तो यह भूमि आध्यात्मिक तत्व सिद्ध होती है जिस तक केवल वही मनीषी पहुंचते हैं जिन्हें कोई माया नामक रहस्यात्मक शक्तियां प्राप्त हैं । परन्तु तृतीय बिन्दु के अनुसार यह आध्यात्मिक तत्व मूलतः उस अर्णव के सलिल से जुड़ा हुआ था जिसे नासदीय सूक्त में 'तमसा गूढमग्रे अप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम् कहा गया है और जो तप की महिमा से ही प्रकट होता है

तम आसीत्तमसा गूळ्हमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम् ।

तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम्।। ऋ.१०.१२९.३

'तमु इच्छायाम्से व्युत्पन्न 'तमस् " शब्द वेद में इच्छा-शक्ति का वह मूल-स्वरूप प्रतीत होता है जिसके अन्तर्गत सभी इच्छाएं, क्रियाएं विचारणाएं आदि एकीभूत होकर अव्याकृत (अप्रकेतं) हो जाती हैं। इसी को 'सलिलंकहा गया है जो तरंगित इच्छाओं के उद्वेलित अर्णव के शान्त सुस्थिर स्तर का नाम है। इसीलिए प्राण-रूप आपः के उस आदि स्तर को सलिलं कहा जाता है जहां से वे सब उद्भूत होते हैं।१ यही मानव-चेतना की वह अग्रभूमि है जिससे मनुष्य-व्यक्तित्व के इदं सर्वम् का नानात्व प्रकट होता है।

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१.समुद्र ज्येष्ठाः सलिलस्य मध्यात् पुनानाः यन्ति। ऋ.७.४९.१

तु.आपो ह वा इदमग्रे सलिलमेवास । ता अकामयन्त कथं नु प्रजायेमहीति । माश ११.१.६.१

आपो वा इदमग्रे सलिलमासीत्। तै.१.१.३.५; जैउ १.१ ८.१.१

 

सलिल कहलाने वाला यह प्राणों (आपः ) का स्तर मनुष्यचेतना की सबसे बड़ी गहराई है, परन्तु इसका सम्बन्ध ब्रह्माण्डीय परम व्योम से भी हैं । इसीलिए, सलिल में अधिष्ठित भूमि को ऊपर प्रथम विशेषता के रूप में, पृथिवी का सत्यावृत अमृत हृदय कहकर परम व्योम बताया गया है। पृथिवी का हृदय कहलाने वाली यह भूमि निस्संदेह ब्रह्माण्ड की वह दिव्य-शक्ति है जिसे विश्ववेत्ता तथा 'ब्रह्मणः प्रथमजाः (ऋ.३.२९.१५) कहा गया है। इसी से युक्त होकर मानव-चेतना सर्वशक्ति-सम्पन्नता प्राप्त करके उत्तम राष्ट्र को वह तेज और बल प्रदान करने में समर्थ होगी जिसका उल्लेख ऊपर भूमि की द्वितीय विशेषता के रूप में किया गया है। ब्रह्म को ही ऋत कहा जाता है१, तो ब्रह्मणः प्रथमजाः को 'प्रधमजा ऋतस्य" कहा जाता है और उस उक्ति का प्रयोग मूलतः हमारे भीतरी अग्नि के लिए हुआ प्रतीत होता है२ जो पूर्व आयुमें द्विविध होकर वृषभ और धेनु कहलाता है, जबकि परम व्योम में दक्ष अथवा अदिति के जन्म या उपस्थ में, वही सत् और असत् कहलाता है और इसीलिए अन्यत्र प्रथमजाः ऋतस्य" को द्विजाः कहा जाता है।

तात्पर्य यह है कि ब्रह्माण्डीय परम व्योम में, ब्रह्म अपने ऋत रूप में जो सत् और असत् का द्वैत ग्रहण करता है वह पूर्वोक्त 'सलिलमप्रकेतम्की अवस्था में नहीं होता, जबकि ब्रह्मात्म-सायुज्य की स्थिति में उसी को पाकर जीवात्मा अपनी "पूर्व आयु में द्वैत ग्रहण करके दोहन करने लगता है-

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१.ब्रह्म वा ऋतम् (माश ४.I.४.१०; जैउ ३.६.८.५)

२.अग्निर्ह नः प्रथमजा ऋतस्य आयुनि वृषभश्च धेनुः । ऋ.१०.५.७

 

इयं मे नाभिरिह मे सधस्थम् इमे मे देवाः अयमस्मि सर्व।

द्विजा अह प्रधमजा ऋतस्येदं धेनुरदुहज्जायमाना ।। ऋ.१०.६१.१९

यह कथन उस जीवात्मा का है जो अपनी साधना द्वारा ब्रह्म-सायुज्य  नामक परमा नाभिके निकटतम (नेदिष्ठ) होने के कारण अपने को 'नाभानेदिष्ठ१ कहता हुआ यहां बतलाता है कि अब वह कितने रूप में (कतिधा) विभक्त हो गया है । कहां तो वह परमा (ब्रह्मसायुज्यरूप) नाभि जहां उसका सारा नानात्व एकीभूत (सधस्थे) था और कहां यह देवों (प्राणों) की अनेकता वाला बहिर्मुखी "सर्व रूप जहां "प्रथमजा ऋतस्य रूप धेनु द्विजाः " होकर निज सामर्थ्य का दोहन कर रही है। दूसरे शब्दों में, जिसे पहले 'सलिलं' अथवा "सलिलमप्रकेतंनाम से एक तत्व कहा गया था उसे ब्रह्मवाक् नामक चेतना ने अब अनेक "सलिलानि' का रूप प्रदान कर दिया। वस्तुतः वाक् के इस रूप में ब्रह्म और आत्मा दोनों ही की वाक् शक्ति का "सहस्रवण' होता है, इसीलिए इसी वाक् को परम व्योम की "सहस्राक्षरा" वाक् कहा जाता है -

गोरीर्मिमाय सलिलानि तक्षत्येकपदी द्विपदी या चतुष्पदी ।

अष्टापदी नवपदी बभूवुषी सहस्राक्षरा परमे व्योमन् ।। ऋ.१.१६४.१

इन सलिलानि' के लिए वेद में एक अन्य अन्तरिक्षनाम आपः प्रयुक्त होता है। ये आपः वस्तुतः मनुष्य-व्यक्तित्व में बरसने वाले, सर्वत्र

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१.तद्बन्धुः सूरिर्दिवि ते धियंध्रा नाभानेदिष्ठो रपति प्रवेनन्।

सा नो नाभिः परमास्य वा घाऽहं तत्पश्चा कतिधश्चिदास ।। ऋ.१०.६१.१८.

 

दिखाई देने वाले या तपने वाले ब्रह्मवर्चस् के रूपांतर मात्र हैं।१ इन आपः में से जो तपने वाले हैं उनको आग्नेय "प्राण" कह सकते हैं। इन्हीं प्राणरूप क्रियापरक आपः को अग्नि का आयतन कहा जाता है२ जबकि वर्षणशील भावनापरक आपः (प्राणाः ) को "शान्तिर्वै भेषजम्३ अथवा "सोम्या आपः४ कहकर याद किया जाता है अथवा आपः को सोम का लोक कहा जाता है।५ ज्ञानपरक आपः सर्वत्र दिखाई देने वाले "सूरयः” (ऋ.८.९४.७) हैं जो चिरकालीन सूर्य (ब्रह्म) दर्शन में सहायक होते हैं । (ऋ.१०.९.७)

आपः और समुद्रः

परन्तु आपः को सोम का लोक कहने से कोई भौतिक स्थान दिशा या स्तर अभिप्रेत न हो कर उन्हीं लोकों में से कोई एक होगा जिसे हम पहले वाक् की व्याहृतियां या रूपांतर कह चुके हैं। इसीलिए, कहा जाता है कि वाक् ही आपः है, क्योंकि वही विभिन्न लोकों या प्राण-रूपान्तरों में व्याप्त हो रही है।६ वाक् सब लोकों को पूरित करने वाली होने से न केवल स्वयं लोकम्पृणा

(माश ८.७.२.७) कही जाती है, अपितु आत्मा की शक्ति होने से उसके शक्तिमान् (आत्मा) को लोकम्पृणा (माश ८.७.२.८) कहा

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१.या आपः आतपति वर्षति याश्च परिददृश ता आपो ब्रह्मवर्चस्याः । मैसं ४.४.१

२.आपो वा अग्नेरायतमम् ।.२२.१ -२ अपामेव ह्येव गर्भो यदग्निः ।(तैसं ५.१.५.८)

३.ऐब्रा.७.५ कौब्रा.३.६; ; ; ; गो २-१.१५ माश १.२.२.११ इत्यादि

४.ऐब्रा.१.७; १२

५.आपो ह्येतस्य (सोमस्य) लोकः माश ४.४.५.२१

६.सेदं सर्वमाप्नोद् यदिदं किं च । यदाप्नोत्तस्मादापः - माश ६.१ १.९

 

 

 

जाता है, क्योंकि शक्ति और शक्तिमान् का अविनाभाव संबंध होता है ।

इसका अर्थ यह है कि अन्तरिक्षनामों में परिगणित आपः ब्रह्मवर्चस्-रूप ब्रह्म वाक् है जो ज्ञानपरक क्रियापरक और भावनापरक प्राणों में अनेक रूप ग्रहण करती है। इसलिए ताण्ड्य महाब्राह्मण ब्रह्मवाक् के इस स्वरूप को ही ध्यान में रखकर वाग् वै समुद्रः " कहता है।१ इस प्रसंग में यह भी स्मरणीय है कि आपः के समान "समुद्र' शब्द भी अन्तरिक्षनामों में निघण्टु ने सम्मिलित किया है। साथ ही यह भी ध्यातव्य है कि ऋग्वेद सोम को ही महान् समुद्र तथा सब देवों का पिता मानता है।२ एक अन्य मन्त्र में कहा गया है कि सोन आपः की ऊर्मि-रूपी समुद्र का सेवन करता हुआ तुरीयधाम का विवेचन करता है।२ इससे पूर्ववर्ती मन्त्र में ऋषिमना, ऋषिकृत, स्वर्षाः और सहस्रणीथं सोम के तृतीय धाम से सम्बन्ध रखने वाला तथा विराज वाक् को प्रकाशित करने वाला कहा गया है।३

इन सब उल्लेखों से संदेह होता है कि कहीं ब्रह्मानंद-रूप सोम ही तो किसी स्तर-विशेष पर अन्तरिक्ष नहीं कहा गया। इस बात का स्पष्ट अनुमोदन करता हुआ ऋग्वेदीय नवम मण्डल का वह मंत्र है जो पवमान को "उरु अंतरिक्षम् कहता है।४ इसी उरु अंतरिक्ष

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१.तांब्रा.६.४.७

२.अपामूर्मिं सचमानः समुद्रं तुरीयं धाम महिषो विवक्ति। -ऋ.९.९६.१९

३.ऋषिमना य ऋषिकृत्स्वर्षाः सहस्रणीथः पदवीः कवीनाम्।

तृतीयं धाम महिषः सिषासन्त्सोमो विराजमनु राजति ष्टुप्।। ऋ.९.९६.१८

४.भगो नृशंस उर्वन्तरिक्षं विश्वे देवाः पवमानं जुषन्त। ऋ.९.८१.५

 

को सोम का पूर्वोक्त "तुरीयधाम" कहा जा सकता है, जबकि तृतीयधाम वह अंतरिक्ष हो सकता है जहां से द्यौ और पृथिवी के सानु' (चोटी) पर पवमानों की सृष्टि होती हुई बतलाई गई है।१ यही वह अन्तरिक्ष हो सकता है जिसमें बलवान वर्षणशील इन्दु जीवात्मारूप इंद्र (अवर इंद्र) को पवित्र करता हुआ, प्रवाहित होता हुआ बतलाया गया है।२ तुरीयधाम कहलाने वाला उरु अंतरिक्ष ही वह शृंग प्रतीत होता है, जहां पवमान सोम तीक्ष्णता प्राप्त करता है और फिर अंतरिक्ष (तृतीय धाम) द्वारा गतिशील होता है।३

यहां जीवात्मा के जिस रूप को सोम पवित्र करता हुआ कहा जाता है वह वस्तुतः अहंकार-रूप वृत्र के चंगुल में फंसा हुआ अवर इन्द्र है जो अनृत और दुरित युक्त होने से अपावन हो गया है । यही जीवात्मा जब मननशील होकर 'मनु' हो जाता है, तो उसमें प्रवाहित होने के लिए पवमान-रूप सूर्य पहले उसके मन-रूप एतश से युक्त होता है और तब उस अंतरिक्ष के द्वारा गतिशील होता है जो अपने अंगभूत द्यौ और पृथिवी को प्रभावित करने में समर्थ है।४ यही बात दूसरे शब्दों में, पुनः  ऋ.९.६५.१६ में कही गई है जहां सोम राजा को अंतरिक्ष द्वारा मनु में मेधाओं सहित गतिशील होना बतलाया गया है।५ इस प्रसंग में यहां इतना और याद रखना चाहिए कि अहंकार के वशीभूत

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१.पवमाना दिवस्पर्यन्तरिक्षादसृक्षत। पृथिव्या अधि सानवि। ऋ.९.६३ः२७

२.एष शुष्म्यसिष्यददन्तरिक्षे वृषा हरिः । पुनान इन्दुरिन्द्रमा । ऋ.९.२७.६

३.समिद्धो विश्वतस्पतिः पवमानो वि राजति। प्रीणन् वृषा कनिक्रदत्। ऋ.९.५.२ ४.अयुक्त सूर एतशं पवमानो मनावधि। अन्तरिक्षेण यातवे। ऋ.९.६३.८

५.राजा मेधाभिरीयते पवमानो मनावधि। अन्तरिक्षेण यातवे। ऋ.९.६५.१६

 

जीवात्मा केवल उस मानुषी त्रिलोकी तक सीमित रहता है जिसमें अन्नमय, प्राणमय और मनोमय कोशों को क्रमशः पृथिवी, अंतरिक्ष तथा द्यौ समझ लिया जाता है। परन्तु जिस अंतरिक्ष के द्यौ और पृथिवी अंगभूत माने जाते हैं वह वस्तुतः पूर्वोक्त उरु अंतरिक्षकी पवमान सोम-धारा है जो उस जीवात्मा को पवित्र और मुक्त करने के लिए चारों तरफ फैलती हुई "आपः' कही जाती है ।

समुद्र से उठने वाली ऊर्मि या ऊर्मियां

इस बात की पुष्टि करने वाला सर्वश्रेष्ठ ऋग्वेदीय चतुर्थ मण्डल का अट्ठावनवां सूक्त है जिसका ऋषि वामदेव है और देवता 'अग्नि, सूर्य, आपः,गावः अथवा घृतम् माना गया है ।देवता के इतने अधिक विकल्पों का कारण यह है कि इन सभी का उल्लेख सूक्त में हुआ है और संभवतः ये सभी मूलतः एक ही तत्व के रूपान्तर कहे जा सकते हैं ।

वह एक तत्व "विश्वं भुवनं' आयु (प्राण?) के भीतर उस हृदय समुद्र में अधिश्रित है। आपः के संगम या समूह में एकीकृत उस तत्व की 'मधुमान् ऊर्मि" के आस्वादन की कामना साधक लोग करते हैं।' यह मधुमान् ऊर्मि ' वही है जो सूक्त के प्रथम मंत्र में ही समुद्र से उठती हुई उपांशुभाव से अमृतत्व प्राप्त करती है और जिसे वही घृत, गुह्य नाम, देवों की जिह्वा तथा अमृत की नाभि कहा गया है। दूसरे मंत्र में घृत के नाम का कीर्तन करने तथा उसे नमस्क्रियाओं द्वारा यज्ञ में

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१ धामन्ते विश्वं भुवनमधि श्रितमन्तः समुद्रे हृद्यन्तरायुषि।

अपामनीके समिथे य आभृतस्तमश्याम मधुमन्तं त ऊर्मिम्।। ऋ.४.५८.११

 

धारण करने की बात करते हुए कहा गया है कि घृत के उस नामकीर्तन का श्रवण ब्रह्मा ने किया और चार सींगों वाले गौर ने उसका वमन कर दिया।१ पणियों द्वारा गो में त्रिधा निहित घृत को देवों ने प्राप्त किया - एक को इंद्र ने और एक को सूर्य ने पैदा किया, जबकि एक को देवों ने वेन से निकाला।२

सूक्त के अगले छह मंत्रों३ में इसी त्रिविध घृत की धाराओं का वर्णन इस प्रकार किया गया है। हृद्य समुद्र से ये घृत-धाराएं शतविध होकर शत्रु द्वारा अदृश्य रहती हुई प्रवाहित हो रही हैं जिनका हिरण्य वेतस मध्य में देखा जा सकता है। घृत की ये ऊर्मियां भीतर हृदय-मन द्वारा क्षरित होती हुई सरिताओं के समान या अहेरी द्वारा वांछित मृगों अथवा वातोद्वेलित सिंधु-तरंगों के समान गतिशील हो रही हैं और उन ऊर्मियों से वर्धमान होता हुआ देदीप्यमान अश्व के समान अग्नि काष्ठाओं का भेदन कर रहा है। कल्याणी और मुस्कराती हुई समना युवतियों के समान, वे घृत-धाराएं अग्नि के चारों और गतिशील होकर व्याप्त हो रही हैं और जातवेदा अग्नि उनका सेवन करता हुआ प्रसन्न हो रहा है। ॐ रूप आभूषण को धारण किए हुए ये घृत-धाराएं स्वभर्ता के पास जाने को उद्यत सजी-धजी कन्याओं के समान दीखने वाली होकर वहां गतिशील हैं जहां सोमयज्ञ हो रहा है। अन्त में ऋषि की प्रार्थना है कि ये घृत-धाराएं मधुमती होकर गतिशील रहें, हमारी गो-समूह-रूप प्रस्तुति को प्राप्त हों, हमारे भीतर भद्र धनों को स्थापित करें तथा इस यज्ञ को वहां पहुंचाएं जहां हमारा "देवताहै।

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१.ऋ.४.५८.२

२.वही.४

३.वही, ५-१०

 

ऋ.४.५८ की रहस्यात्मकता

ऋ.४.५८ का यह भाषान्तर निस्संदेह कुछ अटपटा-सा लगता है, क्योंकि इसका तात्पर्य शब्दों के अभियाध से स्पष्ट होने वाला नहीं है। इसके तात्पर्य का केन्द्र-बिन्दु द्वितीय मन्त्र का वह चतुःशृंग "गौरहै जिसका चित्र मंत्र ३ में इस प्रकार दिया गया है -- "इसके चार सोंग हैं, दो शीर्ष तथा सप्त हस्त हैं । त्रिधा बद्ध वृषभ शब्द कर रहा है। महान् देव मर्त्यों में चारों और से प्रविष्ट हुआ।

इस मन्त्र की व्याख्या करते हुए, आचार्य सायण का कथन है कि इस सूक्त के पांच देवता होने के कारण इसकी पंचविध व्याख्या हो सकती है, परन्तु फिर भी निरुक्तादि की बतलाई हुई नीति के अनुसार इस को यज्ञात्मकाग्निपरक और सूर्यपरक रूप में ही लिया जा रहा है। पतंजलि अपने भाष्य में इस मन्त्र का शब्दपरक अर्थ करते हैं। इसी दृष्टि से सायण ने कहा कि "शाब्दिकास्तु शब्दब्रह्मपरतया चत्वारि शृंगेति चत्वारि पदजातानि नामाख्याते उपसर्गनिपाताश्च इत्यादिना व्याचक्षते।“.

इस सूक्त के पंचदेवतापरक तात्पर्य के सम्बन्ध में डा० श्रद्धा चौहान ने अपने एक लेख में कहा है कि वास्तव में इस सूक्त का जो एक देवता सूक्त के दशम मंत्र में उल्लिखित है वही यज्ञ-रूप में पंचविध होकर विभिन्न दृष्टियों से अग्नि, सूर्य, आपः,गौ तथा घृत कहा जा सकता है। इस तथ्य की पुष्टि वैदिक वाङ्मय से ही होती है। जैमिनीय ब्राह्मण के अनुसार यज्ञ ही अग्नि है।१ यज्ञ ही सूर्य हे और

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१.यज्ञो वा अग्निः । जैब्रा २.२३०

तु.एष वै यज्ञो यदग्निः । माश २.I.४.१ ९

 

वही स्वः, अहः और देवाः भी है।१ इसी प्रकार यज्ञ ही आपः२ और आपः ही यज्ञ३ माना गया है। यज्ञ ही गौ है क्योंकि गौ के बिना यज्ञ का विस्तार संभव नहीं ।४ आध्यात्मिक दृष्टि से यह गौ वस्तुतः वाक् है जो वैदिक-साहित्य में विराज, इडा, वशा आदि रूपों में कल्पित की गई है।५ इसीलिए ब्राह्मणग्रन्थों में वाक् को यज्ञ कहा जाता है।६ वाक् ही अपने वशा नामक गौ रूप में आपः है जो यज्ञ को गर्भ रूप में धारण करती है।७ इसी वाक्-रूप गौ से प्राप्त वह घृतं है जो यज्ञ माना जाता है८ तथा कर्मकाण्ड में प्रयुक्त घृत इसी का प्रतीक स्वरूप होता है। आध्यात्मिक और आधिदैविक दृष्टि से तेजस् ही वह घृत माना गया है।९

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१.यज्ञो वै स्वरहर्देवाः सूर्यः माश.२.४.२.१

२.यज्ञो वा.आपः, कौब्रा १२.१; तैब्रा ३.२.४.I , माश १.१.१.१२

३.आपो हि यज्ञः , मैसं ३.६.२; ; ४.८.९; जैब्रा १.१९२; माश ३.१.४.१५

४.यज्ञो ह्येवैयं (गौः ) नो हि ऋते गोर्यज्ञस्तप्यते माश २.२.४.१३

५.मैसं ४.२.३

६.वाग्वै यज्ञः ऐ ५.२४; माश १.१.२.२; ३.१.३.२७; २.२.३

तुः माश १.१.४.११; ५.२.७; ३.I.४.२.तु.वाचा यज्ञः सन्ततः मै १.११.९ वाचा हि ऊर्ध्वो यज्ञस्तायते जै १.८२

वाचि वै यज्ञः श्रितः तैसं २.६.९.२

७.आपोऽसि जन्मना वशा, सा यज्ञं गर्भमद्यत्था; मै २.१३.१५

८.एतद्वै प्रत्यक्षाद् यज्ञरूपं यद् घृतम् ,माश १२.८.२.१५

९.तेजो वै घृतम्, तैसं २.२.९.४ मै ।.६.८; २.१.७; ३.६.१;

काठ १०.१; २१.१०; २६.५

 

इसी घृत को अमृत कहा जाता है१ और वह अमृत ही सोम है (माश ९.५.१.८, काश ४.३.४.१२ ) प्राणाः है (तैसं ५.२.९.२; २.६.८.७; गोब्रा २.१.१३) यह घृत-रूप सोम अथवा अमृत ही यज्ञ= रूप धारण करके सोम राजा कहा जाता है।२ इस प्रसंग में यह बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि सोम को यज्ञों में संपन्नतम माना गया है जिसके अन्तर्गत सभी पंचविध यज्ञ आ जाते हैं - स वा एष यज्ञः पंचविधः। अग्निहोत्रं दर्शपूर्णमासौ चातुमास्यानि पशुः सोमः...स एष यज्ञानां सम्पन्नतमो यत्सोम एतस्मिन् ह्येताः पंचविधा अधिगम्यते। यत्प्राक् सवनेभ्यः सैका विधा, त्रीणि सवनानि यदूर्ध्वं सा पंचमी (ऐआ २.३.३)। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि प्रस्तुत ऋग्वेद ४.५८ में जिस यज्ञ की ओर संकेत है उसे सोम ही कहा गया है जो यज्ञ-रूप ग्रहण करता है तो चारों ओर घृत-धाराएं उसका क्षरण करने लगती हैं - यत्र सोमः सूयते यत्र यज्ञो घृतस्य धारा अभि तत्पवन्ते। (ऋ.४.५८.९)।

दूसरे शब्दों में, सूक्त( ऋ.४.५८) के प्रथम मन्त्र में जिस घृत नाम को अमृत की नाभि और मधुमान् ऊर्मि कहा गया है उसी के यज्ञ-रूप का वर्णन सूक्त के अवशिष्ट मन्त्रों में किया गया है। जैसा कि ऐतरेय आरण्यक के उक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि सोम-यज्ञ को सम्पन्नतम यज्ञ माना जाता है जिसमें अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, चातुर्मास्य, पशु-यज्ञ तथा सोम-यज्ञ नामक पांचों प्रकार के यज्ञों का समावेश हो जाता है। तो क्या इसी दृष्टि से सोम-यज्ञ का वर्णन करने वाले

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१.मैसं ४.१२.४; काठ ११.१ ३

२.यज्ञस्सोमो राजा (जै १.२५९)ः यज्ञो वै सोमः शुक्राः (जैब्रा ।.९३)।

 

ऋग्वेद ४.५८ के देवता पांच माने गए हैं ? इस प्रश्न का उत्तर खोजने चलते हैं तो उक्त पांच यज्ञों में से अग्निहोत्र का देवता स्पष्टतः अग्नि ही है और दर्शपूर्णमास नाम के जो दो यज्ञ हैं उनमें से दर्श का नामकरण ही इस आधार पर हुआ है कि प्रातःकाल सूर्यदर्शन होता है।१ इसके अतिरिक्त शतपथब्राह्मण के अनुसार प्राण ही दर्श है और उदान पूर्णमा है तथा इन्हीं दोनों के योग से होने वाला जो आध्यात्मिक तत्व है वही दर्शपूर्णमास्य यज्ञ है।२ अन्यत्र सूर्य को ही पूर्णमा और सूर्य को ही दर्श कहकर दर्शपूर्णमास यज्ञ का देवता सूर्य माना गया है।३

तीसरे प्रकार के यज्ञों को चातुर्मास्य-यज्ञ कहा गया है। उन्हें भैषज्य-यज्ञ भी कहा जाता है।४ इन्हें आपः से संबंधित माना जा सकता है क्योंकि आपः ही सबसे बड़े भेषज हैं, अमृत है, अमृतभेषज हैं, अमृतत्व हैं।५ आपः के भीतर विश्वभेषज बताए गए हैं और इसीलिए आपः को "विश्वशम्भुवः " कहा जाता है६ क्योंकि आध्यात्मिक दृष्टि से प्राण ही आपः है७ जो स्वयं मनुष्य के तन-मन के लिए सबसे बड़े भेषज (ओषधि) होते हैं । चातुर्मास्य के पश्चात् जिस पशु-यज्ञ का उल्लेख है उसी के सम्बन्ध से गौ देवता को कल्पना की गई प्रतीत

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१.काठ संक २३.८

२.मा श ११.२.४.५-६

३.माश ११.२.४.१-२

४.कौ.५.१; गोब्रा २.१.१९

५.अमृतं वा आपः मैसं ४.१.९; ४.३ काठ २९.६, तैआ १.२६.७; अस्वन्तरमृतम प्सु भेषजम् । तैसं १.७.७.१-२; मैसं १.११.१

६.मैसं ४.१०.४

७.प्राणा वा आपः तांब्रा ९.९.४; तैब्रा ३.२.५.२; जैउ ३.२.५.९

 

 

होती है क्योंकि आध्यात्मिक दृष्टि से प्राणाः पशवः' कहकर१ जिस वाक् को गो-रूप माना गया है२ वह प्राणों में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। वाक् माता है, प्राण पुत्र (ऐतरेय आरण्यक ३.१.६) है। वाक् प्राणों में उत्तम है।४ इसलिए ऋ ४.५८ में जब गो को विकल्प से एक देवता माना गया है, तो उसका अभिप्राय यही है कि उस सू क्त में वर्णित सोम-यज्ञ के भीतर पुश-यज्ञ का भी समावेश होता है।

अब पांचवां यज्ञ तो स्वयं सोम यज्ञ ही है जिसका प्रारम्भ ऋ ४.५८ घृत नाम से ही करता है। इसलिए यह सर्वथा उचित ही है कि इस सूक्त का एक वैकल्पिक देवता घृत भी माना जाए, क्योंकि जैसा पहले ही कहा जा चुका है, इस सूक्त में वर्णित सोम-यज्ञ का स्वरूप घृत-धाराओं अथवा घृत की ऊर्मियों के रूप में ही प्रस्तुत किया गया है।

इस प्रकार सोम-यज्ञ के अन्तर्गत जिन पांच यज्ञों का समावेश माना गया है उन्हीं की दृष्टि से ऋ ४.५८ के देवता विकल्प से अग्नि, सूर्य, आपः, गो तथा घृत-रूप में स्वीकार किया गया है। इस तरह सोम की जो पंचविधता प्रतीत होती है उसी की झलक हमें अन्यत्र सोम के पंचमुखों के रूप में प्राप्त होती है। संक्षेप में उसका विवरण इस प्रकार है—(हे सोम) पंचमुखोऽसि.........(१) ब्राह्मणस्त एकं मुखं.....(२) राजा त एकं मुखं..........(३) श्येनस्त एकं मुखं.........

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१.तैसं ५.२.६.३; तैब्रा.३.२.८.९

२.माश १४.८.९.।

३.माश १४.९.२.१४

४.वाक् प्राणानां उत्तमा, काठसं ।९.१०

 

 

 

(४) अनिष्ट एकं मुखं.......(५ ) त्वे....पंचमुखं (त्वयि पंचमं मुखं (कौउ)) तेन मुखेन भूतान्यत्सि । शांआ ४,; कौउ २,९ । इस प्रसंग में सोम के ब्राह्मण-मुख को आदित्य अथवा सूर्य के संदर्भ में माना जा सकता है क्योंकि उसी को ब्राह्मण कहा गया है।१ ऋ.४.५८ में भी सूर्य को एक देवता माना गया है। यहां सोम का जो एकंमुख राजा माना गया है उससे वरुण अभिप्रेत है जो स्वयं आपः२ स्वरूप है और प्रायः राजा भी कहा जाता है। सोम के पंचमुखों में से जो अग्नि है वह भी उक्त सूक्त के देवनामों में एक नाम है। सोम के श्येनमुख की कल्पना का आधार निस्संदेह गायत्री नामक वाक् है जो श्येन होकर सोम लाने वाली कही जाती है। उक्त पंचदेवों में गो इसी वाक् का प्रतिनिधित्व करती है। सोम का पंचममुख जो अन्य सबका समावेश करता है निस्संदेह वही घृतम् है जिस रूप में सोम पंचदेवों में अन्तिम देवता ऋ.४.५८ के सोम-यज्ञ वर्णन में माना जाता है।

अन्तरिक्ष-रूप घृत

उक्त सोम को यज्ञ-रूप देने का अर्थ है सोम को सोमाः करना अथवा एक को अनेक करना। इसी बात की पुष्टि यज्ञो वै सोमाः शुक्राः (जै १.९३) कहकर की जाती है। ऋ.४.५८ में समुद्र से उठने वाली एक मधुमान् ऊर्मि अथवा घृतनाम (मंत्र १) को क्रमशः घृत की अनेक ऊर्मियां (मंत्र ६) अथवा धाराएं (मंत्र ५, ७-१०) कहने से भी यही तथ्य अभिप्रेत है। "शतव्रजाः घृतधाराएं (मंत्र ५) उन

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१.असौ खलु वावैष आदित्यो यद् ब्राह्मणः, तैआ २.१३.१

२.आपो वै वरुणः मैसं ४.८.५, काठ १.३९; २२.१ १; २९.३; ३५.५

 

एकशतं" देवकर्म की याद दिलाती हैं जिनके द्वारा उस यज्ञः को "विश्वतः ततः" तथा "आयतः” (ऋ.१०.१३०.१) कहा जाता है। उस यज्ञ को एक पुरुष" फैलाने वाला तथा समेटने वाला कहा जाता है -

पुमाँ एवं तनुत उत् कृणत्ति पुमान्वितत्ने अधि नाके अस्मिन्।

इमे मयूखा उप सेदुरू सदः सामानि चक्रुस्तसराण्योतवे ।। ऋ.१०.१३०.२

इस मन्त्र में विशेष रूप से विचारणीय यह भी है कि यहां यज्ञ को फैलाने -समेटने वाले पुरुष के अतिरिक्त एक अन्य पुरुष का भी उल्लेख है जो 'नाक' (स्वर्ग) में स्थित होकर यज्ञ को विशेष विस्तार दे रहा है। इसका तात्पर्य है कि ऋ.४.५८ का प्रस्तुत यज्ञ वस्तुतः वही आध्यात्मिक यज्ञ है जिसमें व्यष्टिगत आत्मा और समष्टिगत ब्रह्म की वाक् का "सहस्रवण" होता है। दोनों की किरणें (मयूखाः ) ही सायण के अनुसार, प्राण-रूप देव हैं१ जो यज्ञ-स्प वस्त्र को बुनने के लिए सामों का उपयोग करते हैं । इस यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप की पुष्टि में, यह भी कहा जाता है (ऋ.१०.१३०.६) कि यह "पुराण यज्ञहै जिसके करने वाले ऋषि, मनुष्य और पितर नामक प्राण-वर्गों को केवल मानस चक्षु द्वारा ही जाना जा सकता है।

अतएव यह स्पष्ट है कि ऋ.४.५८ तथा ऋ.१०.१३० का जो सोमयज्ञ या प्राजापत्य यज्ञ है वह एक आध्यात्मिक यज्ञ है। इसी यज्ञ को लक्ष्य करके भगवद्गीता में सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टाः " की बात अधिक युक्तिसंगत लगती है। इस आन्तरिक यज्ञ के प्रसंग में जिस घृत

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१.मयूखाः रश्मिभूतास्तस्य प्रजापते प्राणात्मकाः इमे विश्वसृजः.देवाः (सायण-भाष्य)

 

की धाराओं का उल्लेख हुआ है वह भी, जैसा कि ऊपर के विवेचन से स्पष्ट है, वह तेजस् या ज्योति है जो अनेक धाराओं में परिवर्तित होती हुई सोमयाग को मुर्तिमान करती है। इसी दृष्टि से कहा जाता है कि देवों ने घृत को वज्र बना कर सोम पर आघात क्यिा जिससे वह अनेक रूप होता हुआ यज्ञ में परिणित हो गया।१ यह घृत अदिति नामक वाक् से दुहा जाता है।२ इसी घृत को देवों का मधु कहा जाता है३ और इसी मधु-सहित घृत का समीकरण प्रजापति से किया जाता है।४ इसी घृत के वे 'अनाध्रिष्याः आपः हैं जो राष्ट्र को अनाध्रिष्य बना देते हैं५ क्योंकि यह आपः वस्तुतः वे प्राण हैं जो उक्त आन्तरिक घृत कहलाने वाले आनन्द-रस अथवा तेजस् की धाराएं कही जा सकती हैं । इनसे युक्त हो कर मनुष्य-व्यक्तित्व निश्चित रूप से राष्ट्र को अनाध्रिष्य बनाने में समर्थ होता है। अतएव यह स्वाभाविक ही है कि जो पूर्वोक्त "उरु अन्तरिक्ष' नामक आध्यात्मिक तत्व अनेक अंतरिक्षों में विभाजित होता है उसका समीकरण इस घृत के साथ किया जाए। घृत को जब अन्तरिक्ष का रूप कहा जाता है६ तो यही बात अभिप्रेत प्रतीत होती है । यह घृत ब्रह्म-रेतस् है। इसीलिए "रेतः सिक्तिर् वै घृतम्कहकर इसके द्वारा मनुष्य-व्यक्तित्व में ब्रह्म-वर्चस् के संचार की ओर संकेत क्यिा जाता है। यह आध्यात्मिक घृत वाक् नामक चेतना या धी द्वारा मनुष्य-व्यक्तित्व में सर्वत्र गतिशील होता है । इसीलिए ऐतरेय आरण्यक "वाग् वै धीर् घृताची' की घोषणा करता

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१.मैसं ३.८.२; १०.५; ४.५.२; ७.४; गोब्रा २.२.४

२.काठ ३१.१४

३.काठ २६.३ तु.मै ३.९.३

४.मैसं ४.१.१२

५.मैसं ४.४.१

६.घृतम् अंतरिक्षस्य रूपम् माश ७.५.१.३

 

है।१ तैत्तिरीय-संहिता में इसी घृताची देवी से निवेदन है कि वह प्रार्थना को स्वीकार करें ।२

 

जैसा कि ऋ.४.५८ में वर्णित घृत के संदर्भ में देखा जा चुका है, इस घृत की मधुमान् उर्मि मूलतः मनुष्य के उस चेतना-समुद्र से होती है जिसको हम उरु अंतरिक्ष भी कह सकते हैं । अतः उरु अन्तरिक्ष के रूपान्तरभूत अनेक अन्तरिक्षों (अन्तरिक्षाणि) को ही पूर्वोक्त घृतधाराएं कहा जा सकता है। अतः घृत को अन्तरिक्ष का रूप कहना उसी प्रकार समीचीन है जिस प्रकार इन अन्तरिक्षों को विभिन्न व्याहृतियों के रूप में उपस्थित करने वाली अथवा उक्त समुद्रोद्भूत आपः को प्रस्तुत करने वाली वाक् को घृताची३ धी कहना युक्तिसंगत हो सकता है। इस सबको देखते हुए यह माना जा सकता है कि सभी प्रकार के यज्ञों को समाविष्ट करने वाला पूर्वोक्त घृत-समन्वित सोमयज्ञ मूलतः एक आध्यात्मिक यज्ञ था जिसके प्रतीकस्वरूप एक कर्मकाण्डीय सोमयाग की भी अवधारणा विकसित हो गई और कालान्तर में उस कर्मकाण्डीय प्रतीकवाद को भुला दिया गया, यद्यपि ब्राह्मण-ग्रन्थों में इस प्रतीकवाद की ओर विभिन्न रूप में प्रायः संकेत दे दिया जाता है। उदाहरण के लिए, उक्त घृताची धी-रूप वाक् को घृताची गौ-रूप में स्वीकार४ करके जब कर्मकाण्ड में उसे हाड़-मांस की गौ मान लिया गया तो उसके आध्यात्मिक स्वरूप के विस्मृत होने के लिए मार्ग खुल गया, यद्यपि प्राचीन ग्रन्थों में बराबर कहा जाता रहा कि यह गौ

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१.ऐआ १.१.४

२.तैसं ।.८.२२.२

३.वाग्वै धीर्घृताची ऐआ.।.I.

४.गौर्घृताची तैसं २.५.७.४

 

 

वही है जिसे अन्तरिक्ष नामक एकाह'१ अथवा अन्तरिक्षलोक२ कहा गया है। कर्मकाण्ड में स्रुक् निस्संदेह एक यज्ञ-पात्र है जिस में घृत भर कर यज्ञ में उंडेला जाता है। आध्यात्मिक यज्ञ में, वाक् (आत्मा) की शक्ति ही वह घृताची स्रुक्३ है और वही है वह वांछनीय घृताची वाक् जो मानो ब्रह्मानन्द-रूप घृत का वमनकरने के कारण 'वामा " कही जा सकती है।४ ब्रह्मानन्द-रूप यह घृत ही ब्रह्मणस्पति का वह शंभुवंमन्त्र है जिसे प्रकारान्तर से ऋ.४ः५८.१ में वह 'घृतस्य नामकहा जाता है जिसे ब्रह्मा (उक्त ब्रह्मणस्पति) सुनता है और एक चतुःशृंग गौर् उसी का वमन' कर देता है।५

यह गौर मनुष्य-व्यक्तित्व में होने वाला वह यज्ञ है जिसमें चार वेदों को चार शृंगों के रूप में माना गया है।६ उक्त घृतनाम अथवा मन्त्र के रूप में जो हमारे अन्तस्तम कोश का एक वेद है वही साधना के फलस्वरूप इष्टकर्म” (यज्ञ) के निमित्त चतुर्विध हो जाता है।७ अन्तस्तम कोश के वेद को जब एक इन्द्रपान चमस के रूप में कल्पित किया गया, तो पूर्वोक्त ऋभु, विभ्वा और वाज द्वारा उसे ही चतुर्विध करने के कारण यज्ञभाग का अधिकारी माना गया।८ स्पष्ट है कि यहां वेदों से कोई ग्रन्थ अभिप्रेत नहीं है अपितु जो वेद नामक ब्रह्मवीर्य (शक्ति) पहले अन्तस्तम कोश में था वही व्यक्त स्तर पर

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१ अंतरिक्षं गौः (एकाह) तैसं ७.२.४.२ काठ ३३.३ ऐब्रा ४.१५

२.अयं (अन्तरिक्षलोकः ) गौः जै.२.३१७ तुः तां ४.१.७

३.माश ८.६ १.१९; ९.२.३.१७

४.इमां च वाचं प्रतिहर्यथा नरो विश्वेत् वामा वो अश्नवत् ऋ.१.४०.६

५.ऋ.४.५८.२

६.चत्वारि शृंगा इति वेदा एतदुक्ताः काठ संक २५ः१

७.यस्मात् कोशात् उद्भराम वेदं तस्मिन्नन्तरव दध्य एनम्।

कृतमिष्टं ब्रह्मणो वीर्येण तेन मा देवास्तपसावतेह। अथ.१९.७१.१ 

८.एकं चमसं चतुरः कृणोतन तद्वो देवा अब्रुवन्तद्व आगमम्।

सौधन्वना यद्येवा करिष्यथ साकं देवैर्यज्ञियासो भविष्यथ।। ऋ.१.१६१.२

 

 

इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति नामक अपने त्रिविध रूपों सहित अब चतुर्विध होकर मनुष्य के आचरण को इष्टकर्म (यज्ञ) रूप प्रदान करता है। उस ब्रह्मवीर्य अथवा वेद को ब्रह्मवाक् भी कह सकते हैं जो सप्तव्याहृतियों में प्रकट होकर उक्त गौर् या वृषभ को सप्तहस्त प्रदान कर देती है। ब्रह्मानंद-रस-रूप सोम का जाग्रत, स्वप्न,सुषप्ति में विविध रूपेण व्यक्त होना ही तीन सवन हैं जिनको उसके तीन पैर कहा गया है। अव्यक्त और व्यक्त स्तर की दृष्टि से इसी आध्यात्मिक सोम को क्रमशः ब्रह्मौदन और प्रवर्ग्य कहा जाता है जो वृषभ के दो सिर कहे गए हैं। स्थूल, सूक्ष्म और कारणदेह की दृष्टि से संलग्न होने के कारण उसे त्रिधाबद्ध कहा जाता है। यह यज्ञ यद्यपि कर्म (आचरण) के स्तर पर मर्त्यप्राणों में प्रवेश करता है, परन्तु वस्तुतः वह एक अतिमानसिक दिव्य-शक्ति है। इसीलिए उसे महान् देव कहकर, एक मन्त्र में इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है -

चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य ।

त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्याँ आ विवेश ।।  -ऋ.४.५८.३

इस रूपक द्वारा जिस सोम-यज्ञ का वर्णन है उसका आधारभूत घृत (ब्रह्मानंद-रस ) साधना से पूर्व आसुरी प्राणों-रूपी पणियों ने भावनाओं, विचारों और क्रियाओं के रूप में तीन तरह से छिपा रखा था, परन्तु साधना से प्राप्त दिव्य-शक्तियों (देवों) ने उसको ब्रह्मवाक् रूपी गौ में ढूंढ निकाला जिसके परिणामस्वरूप अब वह आत्मा के क्रियापरक (इन्द्र) ज्ञानपरक (सूर्य) तथा भावनापरक (वेन) पक्षों की शक्तियों के रूप में स्वभावतः प्रकट हो गया -

 

त्रिधा हितं पणिभिर्गुह्यमानं गवि देवासो घृतमन्वविन्दन्।

इन्द्र एकं सूर्य एकं जजान वेनादेकं स्वधया निष्टतक्षुः ।। - ऋ.४.५८.४

उक्त त्रिविध शक्तियां ही हमारे उस हिरण्ययकोश के चारों ओर से प्रवाहित होने वाली वे घृत की धाराएं हैं जो 'शतव्रजा' होकर हृद्य-समुद्र से प्रवाहित होती हुई कही गई हैं -

एता अर्षन्ति हृद्यात्समुद्राच्छतव्रजा रिपुणा नावचक्षे ।

घृतस्य धारा अभिचाकशीमि हिरण्ययो वेतसो मध्य आसाम्।। - ऋ.४.५८.५

इस मन्त्र में कहा गया है कि उन घृत-धाराओं के मध्य में हिरण्यय कोश ऐसा दिखाई पड़ता है मानो वह कोई सोने का एक बेंत हो, साथ ही यह भी सूचित किया गया है कि इन घृत-धाराओं को शत्रु नहीं देख सकता क्योंकि यह शत्रु अहंकार-रूप वृत्र है जिसका वध होने पर ही ब्रह्मानंद-रस-रूप घृत की धाराएं साधक के हृद्य-समुद्र (हिरण्ययकोश) से प्रवाहित होती हैं । अतः इनके उत्पन्न होने पर तो उस शत्रु का अस्तित्व ही नहीं रहता ।

सोम और साम

सोम-रूप-घृत से होने वाला यह यज्ञ वस्तुतः ब्रह्मानंद - रस की वह अतिशय अनुभूति है जिसको कभी-कभी सोम नामक साम भी कहा जाता है।१ इसी दृष्टि से जहां साम को सोम-देवत्यं२ कहा

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१.सोमसाम भवति - तांब्रा ११.३.९

२.सोमदेवत्यं वै साम - काठ.२९.२; क ४५.३

 

 

जाता है, वहीं सोम को "साम देवत्यं'१ भी कहा जाता है। इस आध्यात्मिक सोम-यज्ञ को गोरवीति नामक एक अन्य साम के रूप में भी कल्पित किया गया है। "गौरवीति" का अर्थ है गौरी की गति से उत्पन्न। हम देख चुके हैं कि 'गौरी' वह वाक् है जो एकीभूत सलिल को अनेक सलिलों में परिणत करती हुई एकपदी से द्विपदी, चतुष्पदी, अष्टापदी तथा नवपदी तक हो जाती है।२ जैमिनीयब्राह्मण के अनुसार जब वाक् का रस क्षरित हुआ तो वह गोरिवीतम्हो गया।३ इसीलिए इस साम को 'रसो वै गोरिवीतम्' कहकर याद किया जाता है।४ तांड्यब्राह्मण के अनुसार देवों ने जब ब्रह्म को विविध रूपों में विभक्त किया तो फिर भी जो अतिरिक्त ब्रह्म बच गया वही गौरीवित् साम' हो गया।५ इस दृष्टि से यह ब्रह्मवर्चस् नामक तेज है जिसको 'गौरिवीतम्" कहा जाता है।६ दूसरी दृष्टि से देवों ने जब वाक् का विभाजन किया तो उसका जो अतिरिक्त रस बच गया वही 'गौरिवीतम् साम' हो गया।७ इसका तात्पर्य यह है कि साधक की साधना के फलस्वरूप जब ब्रह्मात्म-सायुज्य के स्तर से ब्रह्मवाक्-रूपी गौरी परम व्योम से नीचे की ओर प्रवाहित होकर नौ पदों में विभक्त होती है तो एक प्रकार का रस या तेजस् साधक के पूरे व्यक्तित्व में

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१.साम देवत्यो वे सोमः; तैसं ६.६.७.१, मैसं ४.७.२

२.तैआ १.९.४

३.वाचो वे रसोऽत्यक्षरत् तद् गौरिवीतमभवत्। जै ३.१८

४.जैब्रा ३.२९१

५.ब्रह्म यद्देवा व्यकुर्व् त ततो यदतिरिच्यत तद्गौरीवितमभवत्। -तां ९.२.३

६.तेजो वै ब्रह्मवर्चसं गौरिवीतम्। - ऐ ४.२

७.देवा वै वाचं व्यभजन्त तस्याः यो रसोऽत्यरिच्यत तद्गौरीवितमभवत् । तां.५.७.१

 

समान रूप से छा जाता है। यही "गौरिवीतम् साम' है जिसे "यज्ञस्य श्वस्तनम्" भी कहा जाता है। "यज्ञस्य श्वस्तनंका अर्थ है - कल विस्तारित होने वाला यज्ञ-रूप। परन्तु गौरिवीत् का देवों की दृष्टि से एक रूप ऐसा भी है जो "श्वः” (कल) के साथ अद्य से भी सम्बन्ध रखता है जिसके कारण उसे "अद्यश्वं' कहा जाता है।२ 'गौरिवीतम् साम' के इस वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि समाधि की अवस्था में योगी की सभी दिव्य-शक्तियां जिस तेज अथवा रस का अनुभव करती हैं उसको तो 'अद्यतन गौरिवीतम् कहा जाएगा परन्तु व्युत्थान की अवस्था में उस तेजस् या रस का जो अनुभव नीचे के स्तरों पर होगा उसे यज्ञ का 'श्वस्तनं' माना गया है। योगी के प्राण-रूप देव समाधि और व्युत्धान दोनों से सम्बन्ध रखते हैं, इसलिए देवों की दृष्टि से उस तेजस् या रस को 'अद्यश्वं नाम दिया गया है।

दूसरे शब्दों में, योगी समाधि की अवस्था में जिस ब्रह्मानंद-रस-रूप सोम का अनुभव करता है उसी को वेद में समुद्र , अर्णव, सलिल आदि नाम दिया है। वही विभिन्न तरंगों, ऊर्मियों अथवा धाराओं के रूप में जब पूरे व्यक्तित्व में प्रवाहित होता है तो उसी को अन्यत्र एकशतं देवकर्मभिः आयतः" तथा "विश्वतः ततः वह पुराण यज्ञ कहा जाता है३ जिसका ताना-बाना बुनने वाले पितर

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१.एतद्वै यज्ञस्य श्वस्तनं यद्गौरीवितम्। तां ५.७.५; १९.९.७; तु.जै २.४२४ 

२.एतद्ध वा अद्यश्वं देवानां यद् गौरिवीतम्। जै ३.१७

३.यो यज्ञो विश्वतस्तन्तुभिस्तत एकशतं देवकर्मेभिरायतः।

इमे वयन्ति पितरो य आययुः प्र वयाप वयेत्यासते तते।।- ऋ.१०.१३०.१

 

कहे जाते हैं१ और वही "पूर्व पितर" नामक प्राण हैं जो मानस-चक्षु द्वारा ही द्रष्टव्य होते हैं । इस यज्ञ में "महस्वान् सोमको अपने उक्थों द्वारा जिस वाक् की रक्षा करने वाला कहा जाता है उसे ही वह पूर्वोक्त गौरी वाक् कह सकते हैं जिसके सम्बन्ध से इस सोमयज्ञ को गौरिवीतम् साम कहा गया है। यही गौरी वाक् पुनः ऋ.१०.१७ की वह देवी सरस्वती है जिस का आह्वान "तायमान अध्वर' में वरणीय उपलब्धि के लिए पुण्यात्मा लोक करते हैं तथा जिससे स्वधाओं तथा पितरों के साथ आसीन होकर नीरोग अन्न (अनमीवाः इषः ) देने के लिए प्रार्थना की जाती है -

सरस्वतीं देवयन्तीं हवन्ते सरस्वतीमध्वरे तायमाने ।

सरस्वतीं सुकृतो अह्वयन्त सरस्वती दाशुषे वार्यं दात्।

सरस्वति या सरथं ययाथ स्वधाभिर्देवि पितृभिर्मदन्ती।

आसद्यास्मिन्बर्हिषि मादयस्वानमीवाः इष आ धेह्यस्मे।। - ऋ.१०.१७.७-८ उपर्युक्त दो मन्त्रों में सरस्वती (वाक्) को जिस सोमयज्ञ में आहूत किया गया है उसके लिए अध्वरऔर "बर्हिशब्दों का प्रयोग विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि पूर्वोक्त समुद्र तथा आपः के समान ये दोनों शब्द भी अंतरिक्षनामों की सूची में निघण्टु द्वारा परिगणित हैं । साथ ही उक्त मंत्रद्वय के आगे२ आपः घृतप्वः' का उल्लेख है जो हमारा शोधन घृत' द्वारा करती हैं । निस्संदेह यह 'घृतम् वही है जिसकी मधुमान् ऊर्मि ऋ.४.५८ हृद्य-समुद्र से उद्भूत होकर अनेक ऊर्मियों या धाराओं में परिवर्तित होती हुई सोमयज्ञ का

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1.    चाक्लृप्रे तेन ऋषयो मनुष्या यज्ञे जाते पितरो नः पुराणे ।

पश्यन् मन्ये मनसा चक्षसा तान् य इमं यज्ञमयजन्त ।। ऋ.१०.१३०.६ 

२.ऋ.१०.१७.१०

 

रूप धारण करती है। इसी यज्ञ के संदर्भ में "इमं यज्ञम् नयत देवता नःकहकर  (ऋ.४.५८.१०) जो प्रार्थना की जाती है, उसकी तुलना ऋ.१.४०.३ के "देवा यज्ञं नयन्तु नः ' से कर सकते हैं जिसमें उल्लिखित यज्ञ को "वीरं नर्यं पंक्ति -राधसं' (मंत्र ३) तथा "मंत्रम् उक्थ्यम्' (मंत्र ५) अथवा "शंभुवं मन्त्रमनेहसम्” (मंत्र ६) तथा वामा वाक्कहा गया है। इस यज्ञ का "वमन करने वाली वाक् ही उक्त अध्वर तथा बर्हि से संबंधित सरस्वती है। वह भूः, भुवः, स्वः आदि विभिन्न स्तरों को पंक्तिबद्ध करके एक नर्य (प्राण-रूप नरों का) यज्ञ खड़ा कर देती है। वह 'वीर' कहा जाता है, क्योंकि यह वही यज्ञ है जो "दीर्घंतमः' से मुक्ति दिलाने के लिए प्रसिद्ध है और जिसके पत्नस्वरूप असुर मायारहित हो जाते हैं जिससे देवों को हिंसित होने का भय नहीं रहता।२

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१.तुः ऋ.१०.१२४.१

२.निर्माया उ त्ये असुरा अभूवन् ऋ.१०.१२४.५