वेदों में अन्तरिक्ष के पर्यायों का प्रतीकवाद

 अरुणा शुक्ला

 (जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर की पी.एच.डी उपाधि हेतु स्वीकृत शोधग्रन्थ)

1994ई.

 

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Introduction

Chapter One

Chapter Two

Chapter Three

Chapter Four

Chapter Five

Chapter Six  

Chapter Seven 

Chapter Eight  

About the Author

 

 

पंचम अध्याय

अध्वर, अध्वा और बर्हि

- अध्वर यज्ञ

- गातु, अध्वा और अध्वर

- अध्वर और सूर्या

- अध्वर और विवस्वान् सरस्वती

- अध्वर और श्येन

- पणि, सरमा और अध्वर

- सरमा का अध्वा और अध्वर

- अध्वर और बर्हि

 

पंचम अध्याय

अध्वर,अध्वा और बर्हि

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विगत अध्यायों में हम देख चुके हैं कि अन्तरिक्ष की अवधारणा का प्रमुख आधार आध्यात्मिक प्रतीत होता है। पिछले अध्याय में हमने विशेष रूप से देखा कि अन्तरिक्ष का जो रूप घृत कहलाता है वह वस्तुतः ब्रह्मानन्द-रस-रूप सोम-तत्व से जुड़ा हुआ है और उसी के प्रसंग से आत्मा की वाक् नामक शक्ति घृताची कही जाती है जो भूः, भुवः, स्वः आदि सप्तव्याहृतियों, सप्तलोकों अथवा यज्ञ-रूप चतुशृंग वृषभ के "सप्त हस्तासः” का निर्माण करती है। यह वस्तुतः वह आध्यात्मिक यज्ञ है, जिसको ब्राह्मणग्रन्थ प्राण-रूप१ अथवा रस-रूप२ मानते हैं और कई बार यह भी कहा जाता है कि यह यज्ञ ही अध्वर है क्योंकि इसी के द्वारा देव लोग अध्वर्तव्य (अहिंस्य) हुए थे।३

इस प्रसंग में यह बात महत्वपूर्ण कही जा सकती है कि अध्वर शब्द निघण्टु के अन्तरिक्षनामों में भी परिगणित है। सामान्यतः “अध्वरो वै यज्ञः”४ अथवा “यज्ञो वा अध्वरः'' कहकर ब्राह्मणग्रन्थ अध्वर शब्द को

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१. सोमक्रयणम् - ऽथ वा एतद्व्यतिषजत्यध्वरकर्म चाग्निकर्म च कर्मणः समानतायै समानमिदं कर्मासदिति यद्वेव व्यतिषजति । आत्मा वा अग्निः प्राणोऽध्वर आत्मंस्तत्प्राणं मध्यतो दधाति तस्मादयमात्मन्प्राणो मध्यतः माश ७.३.१.५

२. यद्वेव व्यतिषजति । आत्मा वा अग्नी रसोऽध्वर आत्मानं तद्रसेनानुषजति माश ७.३.१.६

३.  वैश्वदेवम् प्रातःसवनम् अकुर्वत वरुणप्रघासान् माध्यंदिन सवन साकमेधान् पितृयज्ञं त्र्यम्बकास् तृतीयसवनम् अकुर्वत तम् एषाम् असुरा यज्ञम् अन्ववजिगासन् तं नान्ववायन् ते ऽब्रुवन्न् अध्वर्तव्या वा इमे देवा अभूवन्न् इति तद् अध्वरस्याध्वरत्वम् ।तैसं.३.२.२.३ तुः मैसं.३.६.१० (वैश्वदेवं प्रातःसवनं अकुर्वत, वरुणप्रघासान्माध्यंदिनं सवनं , साकमेधान् पितृयज्ञं , त्र्यम्बकास्तत् तृतीयसवनं , तस्मात् तृतीयसवने विश्वं रूपं शस्यते, विश्वं ह्येतद् रूपं , तं एषां यज्ञमसुरा णान्ववायन् , तेन वा एनानपानुदन्त, ततो देवा अभवन्, परासुरा, स्तद्य एवं वेद भवत्यात्मना, परास्य भ्रातृव्यो भवति, तेऽध्वृतोऽयमभूदित्यपाक्रामन् , तदध्वरस्याध्वरत्वं )

तं वा एतम् । अध्वरवन्तं त्रिचमन्वाह देवान्ह वै यज्ञेन यजमानान्त्सपत्ना असुरा दुधूर्षां चक्रुस्ते दुधूर्षन्त एव न शेकुर्धूर्वितुं ते पराबभूवुस्तस्माद्यज्ञोऽध्वरो नाम दुधूर्षन्ह वा एनं सपत्नः पराभवति यस्यैवं विदुषोऽध्वरवन्तं त्रिचमन्वाहुर्यावद्वेव सौम्येनाध्वरेणेष्ट्वा जयति तावज्जयति - माश १.४.१.४०

४. (स्फ्यं) आददेऽध्वरकृतं देवेभ्य इति । अध्वरो वै यज्ञो यज्ञकृतं देवेभ्य इत्येवैतदाह माश १.२.४.५; समिध्यमानो अध्वर इति(ऋ.३.२७.४) । अध्वरो वै यज्ञः समिध्यमानो यज्ञ इत्येवैतदाह माश १.४.१.३८;  देवान्यक्षि स्वध्वरेति । अध्वरो वै यज्ञो देवान्यक्षि सुयज्ञियेत्येवैतदाह माश १.४.१.३९;ग्निं प्रयत्यध्वर इत्यध्वरो वै यज्ञोऽग्निं प्रयति यज्ञ इत्येवैतदाह – माश १.४.१.३९ ५.३; उपप्रयन्तो अध्वरमित्यध्वरो वै यज्ञ उपप्रयन्तो यज्ञमित्येवैतदाह माश २.३.४.१०; प्राची प्रेतमध्वरं कल्पयन्ती इत्यध्वरो वै यज्ञः प्राची प्रेतं यज्ञं कल्पयन्ती इत्येवैतदाह माश ३.५.३.१७; हविष्मान्देवो अध्वर इति । अध्वरो वै यज्ञस्तद्यस्मै यज्ञाय गृह्णाति तं हविष्मन्तं करोति माश ३.९.२.११

५.काठ.३१.११; तैआ ५.२.६०

 

यज्ञ का वाचक मानते हैं और इसलिए प्रत्येक कर्मकाण्डीय यज्ञ को प्रायः अध्वर मान लिया जाता है। परन्तु अभी तक अन्तरिक्ष अथवा उसके नामों के विषय में प्रत्यक्षतः अथवा परोक्षतः जो विवेचन हुआ है उसके आलोक में अध्वर शब्द को अन्तरिक्षनामों में समाविष्ट देखकर उसे कर्मकाण्डीय-यज्ञ मात्र समझना भूल होगी।

अध्वर-यज्ञ

उदाहरण के लिए हम ऋग्वेद के निम्नलिखित मन्त्र को लेते हैं-

अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि ।

स इत् देवेषु गच्छति ।। ऋ १.१.४

इस मन्त्र में यज्ञ और अध्वर निस्संदेह विशेषण-विशेष्य -रूप में प्रयुक्त मानने पड़ेंगे, अन्यथा पुनरुक्ति दोष स्वीकार करना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त इस अध्वर यज्ञ को, जिसको अग्नि केवल विश्वतः परिभूत करने वाला कहा गया है, क्योंकि यज्ञ का विश्व पक्ष ही रहस्यपूर्ण तथा अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है, जैसा कि निम्नलिखित मन्त्र से स्पष्ट है-

या पुरस्ताद्युज्यते या च पश्चाद्या विश्वतः युज्यते या च सर्वतः

यया यज्ञः प्राङ् तायते तां त्वा पृच्छामि कतमा सर्चाम् ।। अथ.१०.८.१०

इस मन्त्र में “विश्वतः" और "सर्वतः' शब्दों द्वारा यज्ञ के जिन दो पक्षों की ओर संकेत किया गया है उनमें से विश्व पक्ष ही यहां प्राक् विस्तार करने वाला यज्ञ बतलाया गया है और उसी को विस्तार देने वाली ऋक् को रहस्यमयी समझकर उसके लिए जिज्ञासा प्रकट की गई है। प्रवेशार्थक “विश्" धातु से निष्पन्न “विश्व' शब्द उस आन्तरिक जगत् का बोधक है जो मनुष्य-व्यक्तित्व में उत्तरोत्तर प्रविष्ट होता हुआ माना जा सकता है। इसके विपरीत प्रसारार्थक “सृ” धातु से निष्पन्न 'सर्व' शब्द मनुष्य-व्यक्तित्व का वह पक्ष कहा जाता है जो उत्तरोत्तर बहिर्मुखी होता हुआ अन्ततोगत्वा व्यापक बाह्य-आचरण में प्रकट होता है। इसी दृष्टि से विश्व और सर्व शब्दों का कई मन्त्रों में साथ-साथ प्रयोग करके दोनों के अर्थभेद की ओर संकेत किया गया है।१

इस प्रसंग में जिस यज्ञ को अध्वर कहा गया है, वह प्राक् विस्तार करने वाला प्रांच यज्ञ, अथवा अध्वर है जिसे "मनुष्वत् दैव्यम् अष्टमं विश्वम् ' कहा गया है३ क्योंकि उस यज्ञ का नेतृत्व करने वाले "चेतन' पिता (अग्नि) में सात रश्मियां ही उसके सप्त विश्व प्रतीत होते हैं।४ वह चेतन पिता पितरों के निमित्त ऊति हेतु जिस “जेन्यं वसु' का यक्षण करता हुआ जन्मता है उसके 'यम' रूप को हम भी प्राप्त कर सकते हैं।५ यह ‘वसु' अथवा 'यम' क्सिी गतिशील तत्व का (वेः) वह "ॐ तत्” है जिसको “ईम्” रूप में धारण करके उसके 'ब्रह्माणि' को अभिव्यक्ति दी जाती है, तो वह (ॐ तत्) आन्तरिक अभिव्यक्तियों

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१.विश्वे मे देवाः शर्म यच्छन्तु ।

सर्वे मे देवाः शर्म यच्छन्तु ।। अथ.१९.९.१२

तु.शान्तिर्विश्वे मे देवाः शान्तिः सर्वे मे देवाः।। अथ १९.९.१४

२. आ यस्मिन्सप्त रश्मयस्तता यज्ञस्य नेतरि ।
मनुष्वद्दैव्यमष्टमं पोता विश्वं तदिन्वति ॥ऋ.२.५.२

३.वही, १-२

४.आ यस्मिन् सप्त रश्मयस्तता यज्ञस्य नेतरि (ऋ.२.५.२)

५.होताजनिष्ट चेतनः पिता पितृभ्य ऊतये ।

प्रयक्षन् जेन्यं वसु शकेम वाजिनः यमम् ।। ऋ.२.५.१

 

(विश्वानि काव्या) से उसी प्रकार जुड़ा रहता है जिस प्रकार चक्र से उसकी नेमि जुड़ी रहती १ है। अन्यत्र इसी “वि' नामक गतिशील तत्व को स्पष्टतः अध्वर कहा गया२ है।

अतः इसका तात्पर्य है कि अध्वर वह विः नामक गतिशील तत्व है जिसकी उक्त अष्टविश्वात्मक अभिव्यक्तियों से यह “ॐ तत्" नामक यम (अथवा जेन्यं वसु) उसके निम्नस्तरीय “ईम्” रूप से भी सदा अभिन्न रहता है। इसी दृष्टि से, अन्यत्र जब "परावर' (ॐ ईम्) यम को अन्यतम "विवस्वान्” कहा गया, तो उसमें निविष्ट अध्वर को भी "भूः' के विवस्वान् का विस्तार बताया गया-

यमः परोऽवरो विवस्वान् ततः परं नाति पश्यामि किं चन।

यमे अध्वरो अधि मे निविष्टो भुवो विवस्वानन्वा ततान ।। अथ.१८.२.३२

दूसरे शब्दों में, जो भूः से लेकर सत्यम् तक सात लोक अथवा व्याहृतियां हैं वह अध्वर हैं जिसमें फैला हुआ “ॐ तत्” ही यहां विवस्वान् तथा परावर यम कहा गया है। इसे ही पूर्वोक्त अष्टम विश्व कह सकते हैं और यही वह अन्यतम विश्वम् अध्वरम् है जिसका "परिभूः” हो कर अग्नि वर्धमान व्याहृतियों (विश्वानि) में उसी प्रकार चमकता है जिस प्रकार द्यौ नक्षत्रों के साथ जगमगाता है।३?

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१.दधन्वे वा यत् ईम् अनु वोचत् ब्रह्माणि वेः ॐ इति तत्।

परि विश्वानि काव्या नेमिः चक्रमिवाभवत् ।। ऋ.२.५.३

२.तु. ससस्य यद्वियुता सस्मिन्नूधन्नृतस्य धामन्रणयन्त देवाः ।
महाँ अग्निर्नमसा रातहव्यो वेरध्वराय सदमिदृतावा ॥७॥
वेरध्वरस्य दूत्यानि विद्वानुभे अन्ता रोदसी संचिकित्वान् ।
दूत ईयसे प्रदिव उराणो विदुष्टरो दिव आरोधनानि ॥८॥ (ऋ.४.७.८)

३.स होता विश्वं परि भूत्वध्वरं तमु हव्यैर्मनुष ऋञ्जते गिरा।

हरिशिप्रो वृधसानासु जर्भुरद्वयोर्न स्तृभिश्चितयद्रोदसी अनु।। -ऋ.२.२.५

 

इस पवित्र क्रतु के साथ श्रेष्ठ और पवित्र साधक या विद्वान् उसके ध्रुव व्रतों पर इस प्रकार आरोहण करता है मानो वे उक्त "वि” नामक अध्वर के रूपान्तर (वयाः) हों -

साकं हि शुचिना शुचिः प्रशास्ता क्रतुनाजनि ।

विद्वां अस्य व्रता ध्रुवा वया इवानु रोहते ।। ऋ.२.५.४

इस प्रकार यज्ञ-नेता अग्नि के दो रूप हो जाते हैं जिनमें से एक को 'वर्ण' अथवा 'स्वः' कहा जाता है और दूसरे को 'वर' अथवा "स्व” कहा जाता है -- एक का सेवन वे व्याहृतियां रूपी गाएं करती हैं जो चारों ओर व्याप्त होती हैं और दूसरे के पास वे स्व का सारण करने वाली स्वसाएं पहुंचती हैं जो मनुष्य के "स्व" नामक व्यक्तित्व की केवल तीन व्याहृतियों के लिए उसके पास जाती हैं।१ इस प्रकार "स्वः' नामक ऋत्विक् 'स्व' के धारण हेतु एक ऋत्विज, स्तोम और यज्ञ का निर्माण करता है जिसके पश्चात् हम अरं संभजन और वितरण करने लगते हैं -

स्वः स्वाय धायसे कृणुतामृत्विगृत्विजम् ।

स्तोमं यज्ञं चादरं वनेमा ररिमा वयम् ।। ऋ.२.५.७

यहां अग्नि के "स्वः' और "स्व" नाम से यज्ञ अथवा अध्वर के जिन दो ऋत्विजों का उल्लेख है उन्हीं को एक आख्यान में क्रमशः अग्नि और यम कहा गया। इनमें से अग्नि परलोक में था और यम इस लोक में था। परन्तु इन दोनों के क्षेत्र का अदला-बदला हो गया,

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१.ता अस्य वर्णमायुवो नेष्टुः सचन्त धेनवः।

कुवित्तिसृभ्य आ वरं स्वसारो या इदं ययुः।। - ऋ.२.५.५

 

क्योंकि देवों ने अग्नि को अपना अन्नाद बनाने के लिए पृथिवी पर बुला लिया और पितरों ने यम को अपना राजा बनाने के लिए ऊपर (स्वर्ग) में बुला लिया।१ तात्विक दृष्टि से ये दोनों एक ही हैं। इसीलिए जहां पहले इन्हीं दोनों को “परावर' यम कहा गया है वहीं अन्यत्र 'अग्निर्वे यमः' कहकर पृथिवी को उसकी बहन यमी बताया गया है।२ यम रूप में वह अग्नि सातों यजनीय विश्वों के लिए “अरं” करता है तो कहा जाता है कि वह सबका नियमन करता है।३ उसी प्रकार हम जब श्रेष्ठतम कर्म४ रूपी यज्ञ करते हैं तो अग्नि के लिए संयम (यज्ञ) बर्तना कह सकते हैं -

यथा विद्वां अरं करद्विश्वेभ्यो यजतेभ्यः ।

अयमग्ने त्वे अपि यं यज्ञं, चक्रमा वयम् ।। ऋ.२.५.८

तदनुसार यम का कार्य देवों के लिए गातु५ मार्ग प्राप्त करना है, जबकि अग्नि का कार्य श्रेष्ठतम कर्म-रूप यज्ञ का “परिभूः” होना है।६

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१.अग्निरमुष्मिँल्लोक आसीद्यमोऽस्मिन् (पृथिवीलोके) ते देवा अब्रुवन्नेतेमो विपर्यूहा मेत्यन्नाद्येन देवा अग्निमुषामन्त्रयन्त, राज्येन पितरो यमं तस्मादग्निर्देवानामन्नादो यमः पितृणां राजा।। तैसं.२.६.६.४-५

२.तैसं.३.३.८.३; गोब्रा.२.४.८ तु.माश ७.२.१.१०

३.स यमो देवानामिन्द्रियं वीर्यमयुवत तद् यमस्य यमत्वम् । तैसं.२.१.४.३-४

तुः अग्निर्वै यम इयं (पृथिवी) यम्याभ्याहीदसर्वं यतम्।(नैर्ऋतीष्टकाचयनम्)- माश ७.२.१.१०

४.यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म। काठ ३०.१०; क ४६,; तै ३.२.१.४; माश १.७.१.५ (तु.मै.४.१.१)

५. यमो नो गातुं प्रथमो विवेद नैषा गव्यूतिरपभर्तवा उ ।
यत्रा नः पूर्वे पितरः परेयुरेना जज्ञानाः पथ्या अनु स्वाः ॥ऋ.१०.१४.२

६. अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि । स इद्देवेषु गच्छति ॥ऋ.१.१.४

 

गातु अध्वा और अध्वर

ऊर्ध्व गातु यम-नियम-संयम पर आश्रित योग-मार्ग ही वह अध्वा (मार्ग) है जिसे अध्वर नाम दिया गया१ और जिसमें हमारा "ॐ सु' नामक ऊर्ध्व अग्नि योगी के "विश्व मन्म' और 'मनीषा' को अभिभूत करता है।२ यही स्वस्ति के लिए “उरु अध्वा है३ और यही सोम द्वारा फैलाया गया वह 'उरु अन्तरिक्ष’ है जिसके फलस्वरूप दिव्य आपः या गायों (ज्ञान रश्मियां) की सृष्टि और ज्योति द्वारा तमस् का विनाश होता है।४ अग्नि के जिस वर्चस् से "उरु अन्तरिक्ष” फैलाया जाता है वह एक ऐसी दीप्ति है जिसे देदीप्यमान अर्णव (समुद्र)  कहा जा सकता है। जब अन्तरिक्ष-सहित आदित्य, रुद्र तथा वसु देवों के गण मिलकर यज्ञ की रक्षा करते हैं, तो अध्वर का केतु ऊर्ध्व होता है।६

अध्वर और सूर्या

अथर्ववेद और ऋग्वेद दो भिन्न भिन्न मन्त्रों द्वारा अध्वर की अवधारणा को सूर्या-प्रसंग से जोड़ते हैं । अथर्ववेदीय मन्त्र के अनुसार जब नर (प्राण!) जीव को रोते हैं, तो वे एक “दीर्घा प्रसिति' का ध्यान करते हैं, अध्वर को विविध रूपेण ले जाते हैं, पितरों के लिए

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१..ऊर्ध्वो वां गातुरध्वरे अकारि. (दे. बर्हिः) ऋ. ३.४.४

ऊर्ध्वो  ऊ षु णो अध्वरस्य होतरग्ने तिष्ठ देवताता यजीयान्।

त्वं हि विश्वमभ्यसि मन्म प्र वेधसश्चित् तिरसि मनीषाम् ।। ऋ.४.६.१

२. ऐतु पूषा रयिर्भगः स्वस्ति सर्वधातमः ।
उरुरध्वा स्वस्तये ॥ऋ. ८.३१.१

३. त्वमिमा ओषधीः सोम विश्वास्त्वमपो अजनयस्त्वं गाः ।
त्वमा ततन्थोर्वन्तरिक्षं त्वं ज्योतिषा वि तमो ववर्थ ॥ १.९१.२२

४. अग्ने यत्ते दिवि वर्चः पृथिव्यां यदोषधीष्वप्स्वा यजत्र ।
येनान्तरिक्षमुर्वाततन्थ त्वेषः स भानुरर्णवो नृचक्षाः ॥ऋ.३.२२.२

५. विश्पतिं यह्वमतिथिं नरः सदा यन्तारं धीनामुशिजं च वाघताम् ।
अध्वराणां चेतनं जातवेदसं प्र शंसन्ति नमसा जूतिभिर्वृधे ॥ऋ.३.३.८

 

सम्यक् प्रकार से “वाम” सोम प्रेरित करते हैं और तब जनी (सूर्या) तथा उसके पतियों के लिए "मय” (आनन्द) का परिष्वजन होता है -

जीवं रुदन्ति वि नयन्त्यध्वरं दीर्घामनु प्रसितिं दीध्युर्नरः ।

वामं पितृभ्यो य इदं समीरिरे, मयः पतिभ्यो जनये परिष्वजे।। शौ १४.१.४६

ऋग्वेदीय मन्त्र में दो शिशुओं का उल्लेख है जो खेल-खेल में पूर्व और अपर अध्वर की परिचर्या करते हैं -- इनमें से एक विश्व भुवनों का निरीक्षण करता है और दूसरा ऋतुओं का विधान करता है और पुनः जन्मता है -

पूर्वापरं चरतो माययैतौ शिशू क्रीडन्तौ परि यातो अध्वरम् ।

विश्वान्यन्यो भुवनाभिचष्टे, ऋतूँरन्यो विदधज्जायते पुनः ।।  ऋ.१०.८५.१८

यद्यपि सूर्या के आख्यान को प्रायः सामान्य विवाह-संस्कार के प्रसंग में ही ग्रहण किया जाता है, परन्तु डॉo फतहसिंह ने अपने वैदिक दर्शन में इसके आध्यात्मिक पक्ष पर विशेष जोर दिया है। उसके आलोक में ब्रह्मवाक् ही सूर्या है जो क्रमशः सोम, गंधर्व अग्नि और मानुष-प्राणों (मनुष्यजा को पति-रूप में प्राप्त करने में क्रमशः आनन्दमय के सोम, विज्ञानमय के गंधर्व, मनोमय के अग्नि और प्राणमय कोश के अनेकभूत मनुष्य-प्राणों को वरण करती हुई कही जा सकती है। ब्रह्मवाक् रूप सूर्या- चेतना का अवतीर्ण होना ही अध्वर है जिसको पैदा करने के लिए पहले प्राणों को एक लम्बे योगध्यान के मार्ग पर चलना पड़ता है (तु.दीध्युः परः)। इसके परिणामस्वरूप ब्रह्मानन्द- रस-रूप सोम (वाम) पितर प्राणों को मिल जाता है और उक्त चतुर्विध सूर्या-पतियों तथा उन्हें चतुर्विध चेतना-रूप में प्राप्त होने वाली सूर्या को आनन्द (मयः)  प्राप्त हो जाता है।

अथर्ववदीय मन्त्र के अनुसार, उक्त ध्यान-योग की आवश्यकता तब पड़ती है, जब प्राण पाश-बद्ध जीव के कष्ट को देखकर रोते हैं । दूसरे शब्दों में, ध्यान-योग द्वारा उक्त अध्वर का विस्तार वस्तुतः अहंकार-रूप वृत्र के चंगुल से जीव को मुक्त करने का प्रयास है, परन्तु ऋग्वेदीय मन्त्र इस अध्वर को दो शिशुओं का खेल मानता है। इसके अनुसार अध्वर के विश्व एवं सर्व नामक दो पक्षों में से प्रथम में भूः, भुवः, स्वः आदि सप्त विश्वों (लोकों) से एक का सम्बन्ध है जो ब्रह्मसायुज्य-प्राप्त कालातीत आत्मा है, जबकि दूसरे का सम्बन्ध कालखण्डों (ऋतुओं) से है जो पुनः पुनः जन्मने वाला जीव है। अध्वर के फलस्वरूप ठीक समय पर ठीक ढंग से ठीक कर्म करने के स्वभावस्वरूप ऋत को अपनाकर जीवन को नैतिक (ऋतमय)  करके लौकिक सन्मार्ग पर चलता हुआ अपने भावी जन्म को सुधारने में प्रवृत्त होता है ।

ऋग्वेदीय “पूर्वापरम् अध्वरम् ' से सम्बद्ध उक्त दो शिशुओं की तुलना पूर्वोक्त यम और अग्नि से कर सकते हैं जिन्हें शौ १८.२.३२(यमः परोऽवरो विवस्वान् ततः परं नाति पश्यामि किं चन । यमे अध्वरो अधि मे निविष्टो भुवो विवस्वान् अन्वाततान ॥) के अनुसार विवस्वान् के पर और अवर रूप कहा गया है, परन्तु साथ ही दोनों को एक ही तत्व के दो पक्ष माना गया है। इनमें से यम-रूप में वह पितर प्राणों से सम्बद्ध है। अतः सूर्या प्रसंग से जब अध्वर द्वारा पितरों को 'वाम' (सोम)  की प्राप्ति की बात कही गई, तो उसे यम-रूप विवस्वान् से प्राप्त होना समझना पड़ेगा, जबकि पतियों और उनकी पत्नी को मयः (सुख) दिलाने की बात की गई, तो उसका सम्बन्ध अग्नि रूप विवस्वान् से समझना होगा।

 

अध्वर और विवस्वान् सरस्वती

ऋग्वेदीय १०.१७ में अध्वर का सम्बन्ध विवस्वान् के एक अन्य आख्यान से भी बताया गया है। उसके अनुसार, विवस्वान् की जाया का नाम सरण्यू है जो त्वष्टा की दुहिता है और जिसके विवाह के प्रसंग से "विश्वभुवन” एकजुट हो जाता है। पहले वह यम-यमी को जन्म देती है, परन्तु जब उसका परितः "वहन' होता है तो वह व्याप्त हो जाती है।१ दूसरे शब्दों में उसका अमृत-रूप मर्त्य तत्वों से ढककर और उसे सवर्णा रूप देकर विवस्वान् को दे दिया जाता है जिससे विवस्वान् मननशील मनु पैदा करते हैं और जब उसे पता चलता है कि सवर्णा स्वयं सरण्यू नहीं है, अपितु वह तो अश्वा होकर विचर रही है तो वह स्वयं भी अश्व होकर सरण्यू के अश्वा-रूप से अश्विनौ की जोड़ी को जन्म देता है। इस प्रकार त्वष्टा की पुत्री सरण्यू के जो तीन स्तर हो जाते हैं उनके अतिरिक्त एक चौथे स्तर का भी प्रस्तुत सूक्त में उल्लेख है जिसका सम्बन्ध पूषा तथा अग्नि से है। इस स्तर पर पूषा उसे पितरों को देता है और अग्नि देवों को देता है।२ इस स्तर को पूर्वोक्त अथर्ववेदीय "मनुष्यजाः” पतियों का स्तर कह सकते हैं। पूषा प्रज्ञावान् है जो दो प्रियतम सधस्थों पर आना-जाना करने में समर्थ हैं।३ इस प्रकार दोनों सदस्थों के बीच आने-जाने से जिस अध्वर का विस्तार होता है उसी में साधक लोग सरस्वती का आह्वान वरणीय आध्यात्मिक धन की प्राप्ति के लिए करते हैं।४

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१-त्वष्टा दुहित्रे वहतुं कृणोतीतीदं विश्वं भुवनं समेति ।
यमस्य माता पर्युह्यमाना महो जाया विवस्वतो ननाश ॥ऋ.१०.१७.१  

२- पूषा त्वेतश्च्यावयतु प्र विद्वाननष्टपशुर्भुवनस्य गोपाः ।
स त्वैतेभ्यः परि ददत्पितृभ्योऽग्निर्देवेभ्यः सुविदत्रियेभ्यः ॥ऋ.१०.१७.३  

३- प्रपथे पथामजनिष्ट पूषा प्रपथे दिवः प्रपथे पृथिव्याः ।
उभे अभि प्रियतमे सधस्थे आ च परा च चरति प्रजानन् ॥ऋ.१०.१७.६  

४- सरस्वतीं देवयन्तो हवन्ते सरस्वतीमध्वरे तायमाने ।
सरस्वतीं सुकृतो अह्वयन्त सरस्वती दाशुषे वार्यं दात् ॥ऋ.१०.१७.७

 

 

उक्त अध्वर के लिए इसी सूक्त में 'बर्हि' शब्द का भी प्रयोग हुआ है जो अध्वर के समान ही निघण्टु के अन्तरिक्षनामों की सूची में पठित है। इस सरस्वती से जुड़ी हुई यहां उन “आपः मातरः” का भी उल्लेख है जो स्वयं घृतमयी होती हुई हमें घृत द्वारा शुद्ध और पवित्र करती हुई "विश्वं रिप्रं” को प्रवाहित करने में समर्थ है।१ इसी घृत-रूपी सोम के एक बिन्दु (द्रप्सः ) का भी उल्लेख है जो धिषणा (प्रज्ञा) की उपस्थ (गोद)  से च्युत होकर अथवा अध्वर्यु की पवित्र (छलनी) से आकर तथा मन द्वारा "वषटकृत” होकर आहुति-रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इस प्रकार यह द्रप्स और अंशु-रूप में द्विविध हो जाता है जिसका "राधस्' के लिए सम्यक् सिंचन बृहस्पति देव "स्रुक” द्वारा नीचे तथा ऊपर दोनों ओर करता है।२

अध्वर के इस वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि वासनारहित विवस्वान् मन की जो मनीषा पहले सरण्यू-रूप में यम-यमी, मनु तथा अश्विनौ के प्रादुर्भाव में हेतु बनी वही अन्ततोगत्वा उस सिंधु सरस्वती में रूपान्तरित हुई जिसे यहां ऋ.१०.७५ के समान अनेक आपः से जुड़ा हुआ पाया गया।३ सरण्यू और सरस्वती दोनों ही नाम मूलतः “सृ” धातु से निष्पन्न होने से दोनों का समीकरण स्वाभाविक लगता है। साथ ही उससे जुड़ी हुई आपः धाराओं की अभिव्यक्ति भी विवस्वान्

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१. आपो अस्मान्मातरः शुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्वः पुनन्तु ।
विश्वं हि रिप्रं प्रवहन्ति देवीरुदिदाभ्यः शुचिरा पूत एमि ॥ऋ.१०.१७.१०

२. यस्ते द्रप्स स्कन्दति यस्ते अंशुर्बाहुच्युतो धिषणाया उपस्थात् ।
अध्वर्योर्वा परि वा यः पवित्रात्तं ते जुहोमि मनसा वषट्कृतम् ॥१२॥
यस्ते द्रप्स स्कन्नो यस्ते अंशुरवश्च यः परः स्रुचा ।
अयं देवो बृहस्पतिः सं तं सिञ्चतु राधसे ॥१३॥, १०.१७.१२-१३

३.प्र सु व आपो महिमानमुत्तमं कारुर्वोचति सदने विवस्वत।

प्र सप्त सप्त त्रेधा हि चक्रमुः प्र सृत्वरीणामिति सिन्धुरोजसा।। -ऋ.१०.७५.१

 

के सदन का “कारु” कर रहा है। इसका अर्थ है कि सिंधु-सरस्वती उसी वासनारहित (विवस्वान्) मन की चेतना का वह रूपान्तर है जो “सप्त-सप्त त्रेधा” होकर अनेक आपः अथवा सिंधवः रूप में प्रवाहित हुई प्रायः कही जाती है। यही मन उक्त वर्णन में वह अध्वर्यु२ हो सकता है जिसकी पवित्र (छलनी)  से वह द्रप्स (सोम) जो मन द्वारा "वषट्कृत” होने के लिए आता है और यही वह अंशु है जो "धिषणा” (प्रज्ञा) की गोद से च्युत होकर आने वाला कहा जाता है।३ यही द्रप्स और अंशु नामक द्विविध आध्यात्मिक तत्व क्रमशः अवरोहण और आरोहण करने वाला ब्रह्मानन्द-रस है जो आनन्द का सुख और ज्ञान का प्रकाश देने वाला है तथा जिसका सिंचन बृहस्पति देव मनुष्य-व्यक्तित्व में करता है।४

दूसरे शब्दों में, ऋग्वेद १०.१७ में जिस अध्वर के “तायमान" होने का इतिहास दिया गया है वह वस्तुतः मानव-व्यक्तित्व के योगाभ्यास-जनित रूपान्तरण का चित्रण मात्र है।५ प्रथम मन्त्र में "विश्वभुवन" के एकत्रीकरण द्वारा उस समाधि की ओर संकेत किया गया है जिसमें वासना-रहित उर्ध्वमन (विवस्वान्) अपनी मनीषा से यम-नियम-संयम-सम्पन्न व्यक्तित्व को जन्म देता है। यही मनीषा “सरण्यू” है

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१.ऋ.१०.७५.१

२. अथाध्वर्युं चाग्नीधं च सम्मृशति । मनो वा अध्वर्युर्वाग्घोता तन्मनश्चैवैतद्वाचं च संदधाति माश १.५.१.२१ अथाध्वर्युं प्रतिप्रस्थाता दीक्षयति। मनो वा अध्वर्युः। वाग् होता। मनश्च तद्वाचं च सन्दधाति। माश १२.१.१.५  

३.यस्ते द्रप्सः स्कंदति यस्ते अंशुर्बाहुच्युतो धिषणाया उपस्थात्।

अध्वर्योर्वा परि वा पवित्रात् तं ते जुहोमि मनसा वषट्कृतम्।।.ऋ.१०.१७.१२

४.यस्ते द्रप्सः स्कन्नो यस्ते अंशुरवश्च यः परः स्रुचा ।

अयं देवो बृहस्पतिः सं तं सिंचतु राधसे ।। ऋ.१०.१७.१३

५.इस विषय का जो वर्णन यहां दिया जा रहा है वह "ढाई अक्षर वेद के' नामक ग्रंथ के विभिन्न लेखों पर मुख्यतः आधारित है।

जो उस व्यक्तित्व में जीव को संयम-सम्पन्न यम तथा उसकी बुद्धि को संयम-सम्पन्न यमी बना देती है। व्युत्थान के मानसिक स्तर पर वही पुनः सारे व्यक्तित्व में व्याप्त होकर "सवर्णा" कही जाती है जिसके सम्पर्क से विवस्वान् (ऊर्ध्वमन) मनुष्य-व्यक्तित्व को मननशील -मनु बनाती है। साथ ही, वह अतिमानसिक स्तर पर चेतना के जिन दो प्रवाहों को जन्म देती है उन्हें “अश्विनौ” नाम दिया गया है। इस सबके परिणामस्वरूप मनुष्य के भीतर स्थित चेतना-सिंधु सप्तविध सरस्वती होकर सेन्द्रिय मन के स्तर पर "वषट्कृत सोम को जाती है जो मनुष्य को सुख और प्रकाश प्रदान करता है। उसके फलस्वरूप जीवन में जो आनंद, रस या सोम उभरता है वेद में उसकी तेज या   पयस्१ संज्ञा है। साधक की प्राण-रूप ओषधियां पयस्वती हो जाती हैं और उसकी अभिव्यक्ति (वचः) भी पयस् से युक्त कही जाती है। इस प्रकार शुद्ध आपः नाम से विख्यात प्राण-धाराओं का जो पयस् है उससे पवित्र होने की कामना वैदिक ऋषि की एक महत्वाकांक्षा के रूप में इस प्रकार प्रकट होती है -

पयस्वतीरोषधयः पयस्वन्मामकं वचः।

अपां पयस्वदित् पयस्तेन मा सह शुन्धत।। ऋ.१०.१७.१४

अध्वर और श्येन

यह पयस् उसी पुरुष (मनुष्य-व्यक्तित्व) में स्थित सोम का तेजस् है२ जिसे ऊपर द्रप्स कहा गया है। यह द्रप्स हमारे भीतर अन्तर्हित

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१. पयसेति रसो वै पयस्तत्पयसा रिरिचानमाप्याययति - माश ४.४.४.८; सं ते पयांसि समु यन्ति वाजा इति रसो वै पयोऽन्नं वाजाः – माश ७.३.१.४६, स्तना उपरवा ग्रावाणो वत्सा ऋत्विजो दुहन्ति सोमः पयः । य एवं वेद दुह एवैनाम् ॥– तैसं ६.२.११.५, कुविदंग यवमन्तो यवं चित् इति पयोग्रहान् गृह्णाति। सोमांशवो वै यवाः। सोमः पयः। माश १२.७.३.१३ एतद् वा अग्नेस् तेजो यद् घृतम् एतत् सोमस्य यत् पयः ।-तैसं.२.५.२.७

२. अनागतं वा एतस्य पयो यो ऽसोमयाजी.... सोमयाज्य् एव सं नयेत् पयो वै सोमः पयः सांनाय्यम् पयसैव पय आत्मन् धत्ते- तैसं २.५.५.१;.मै.२.३.१,जैब्रा.३.१४५

 

पृथिवी नामक अन्तरिक्ष चेतना का रस है जो सभी श्रेष्ठ प्राण-प्रजाओं का जीवनाधार है।१ यह द्रप्स ही वह मूल लोक (गोब्रा.२.२.१२) है जो पूर्वोक्त सप्त लोकों या व्याहृतियों में रूपान्तरित होता है और उसी द्रप्स (सोम ) के सप्तविध विस्तार के आधार पर इन्द्र के उस सप्तहोता अध्वर की कल्पना की गई है जो सब पापों से मुक्ति दिलाता है (यश्चर्षणिप्रो वृषभः स्वर्विद्यस्मै ग्रावाणः प्रवदन्ति नृम्णम् । यस्याध्वरः सप्तहोता मदिष्ठः स नो मुञ्चत्वंहसः ॥अथर्व.४.२४.३; ऋ.१०.११.४), क्योंकि यह वह गतिशील विभु तथा विचक्षण द्रप्स है जिसे तीव्रगामी श्येन नामक पक्षी (विः) अध्वर में लाता है तो आर्य "विशः”  अग्नि को होता रूप में वरण करते हैं जिसके फलस्वरूप 'धी' पैदा होती है –

अध त्यं द्रप्सं विभ्वं विचक्षणं विराभरदिषिरः श्येनो अध्वरे ।

यदी विशो वृणते दस्ममार्या अग्निं होतारमध धीरजायत ।। - ऋ.१०.११.४, अथर्व १८.१.२१

यह मन्त्र अध्वर को उस सुप्रसिद्ध आख्यान से जोड़ देता है जिसके अनुसार श्येन नामक पक्षी (विः ) स्वर्गलोक से सोम्य-मधु अथवा अमृत को लाता है तो सोम के सहस्र अथवा अयुत सवन एक साथ होने लगते हैं। यह आख्यान अपने विभिन्न रूपों में ऋग्वेद से लेकर वैदिक तथा वैदिकोत्तर साहित्य में प्राप्त होता है फिर भी इसका संक्षिप्ततम रूप हमें ऋग्वेद के चतुर्थ मण्डल के छब्बीसवें तथा सत्ताइसवें सूक्त में मिलता है जिसका विस्तृत विवेचन "वैदिक दर्शनकार” ने अपने ग्रन्थ में किया है।

ऋग्वेद के उपर्युक्त दो सूक्तों में कोई एक वक्ता अपने लिए 'अहं' शब्द का प्रयोग करता हुआ बोल रहा है जिसको लेकर विद्वानों ने भिन्न भिन्न मत व्यक्त किए हैं । कोई वक्ता को सोम मानता है,

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१.यो वा अस्याः रसः स द्रप्सस्तमिमं प्रजा उपजीवंति । मै.४.१.१०

 

तो कोई उसे श्येन इन्द्र कहता है। किसी का कहना है कि वक्ता श्येन तो है परन्तु यह श्येन सोम है। एक विद्वान् की सम्मति है कि ऋग्वेद ४.२६ में इन्द्र श्येन और सोम का संवाद है जबकि ४.२७.१ में बोलने वाला श्येन ही है न कि कोई दूसरा। यह विभिन्न मत विदेशी विद्वानों के हैं, परन्तु ऐतरेय आरण्यक, ऐतरेय उपनिषद् तथा बृहदारण्यक-उपनिषद् में सुरक्षित प्राचीन भारतीय परम्परा के अनुसार दोनों सूक्तों का वक्ता एक ही है और वह वामदेव है जो ब्रह्म अथवा आत्मा का प्रतीक है। सर्वानुक्रमणी इन दोनों सूक्तों के विषय में कहती है कि इन सूक्तों में वामदेव ऋषि अपने को इन्द्र मानकर कह रहे हैं अथवा इन्द्र या श्येन आत्मस्तुति कर रहा है। वैदिक-दर्शनकार के अनुसार वामदेव का अर्थ है वह जीवात्मा जो ब्रह्मानन्द-रस-रूप वाम (सोम) को अपना देव मान रहा है। इस वामदेव नामक जीवात्मा के तीन पक्ष हैं जिनको क्रमशः क्रियापरक इन्द्र, ज्ञानपरक अग्नि तथा आनंदपरक सोम माना गया है जबकि इन तीनों का अव्याकृत रूप आत्मा वेद में जातवेदस् कहलाता है।

आत्मा का श्येन रूप तब उभरता है जब वह अपनी बहिर्मुखी चित्तवृत्तियों को समेटकर अपनी अन्तर्मुखी उड़ान भरता है। इसी उड़ान के फलस्वरूप जब योग-समाधि प्राप्त होती है तो वहीं ब्रह्मानन्दरस-रूप सोम इस श्येन को मिल जाता है। यही सोम या अमृत वह वेदस् है जिसके 'जात' से आत्मा जातवेदस अग्नि बनता है। पुनः जब वह सोम लेकर उड़ान भरता है, तो वह सोम अधोमुखी मनुष्य-व्यक्तित्व के कण-कण को आप्लावित और आनन्दित कर देता है। यही सोम-यज्ञ है जिसमें अहंबुद्धि मन और पांच ज्ञानेन्द्रियां सप्तहोता बनते हैं। इसके फलस्वरूप मनुष्य की द्योतमाना मनीषा अथवा ऋतम्भरा प्रज्ञा उत्पन्न होती है। उसी को उपर्युक्त मन्त्र में 'धी' कहा गया है।

यह "धी” एक देवी है जिसका स्वामी होकर जीवात्मा प्रचण्ड-बल प्राप्ति के लिए पूर्वोक्त घृत नामक आनन्द-रस से हवन कर सकता है (अथर्व ३.१५.३)। इस “धी' को प्राप्त करने का अभिप्राय है एक दूरगामी अध्वा (मार्ग) पर यात्रा करना, जहां वह प्रपण, विक्रय और प्रतिपण को समाविष्ट करने वाले वाणिज्य के सफल होने की कामना करता है और चाहता है कि उसका गमन और उत्थान सुखमय हो -

इमामग्ने शरणिं मीमृषो नो यमध्वानमगाम दूरम्।

शुनं नो अस्तु प्रपणो विक्रयश्च प्रतिपणः फलिनं मा कृणोतु।

इदं हव्यं संविदानो जुषेथां शुनं नो अस्तु चरितमुत्थितं च ।।-अथ.३.१५.४

इस मन्त्र में जिन देवों से हव्य स्वीकार करने के लिए गमन तथा उत्थान को सुखमय करने के लिए प्रार्थना की गई है वे आत्मा के ज्ञानपरक तथा क्रियापरक पक्ष हैं जिनको क्रमशः अग्नि तथा इन्द्र रूप में कल्पित किया  जाता है। जिस धन के द्वारा और अधिक धन पाने के लिए प्रपण (वाणिज्य) किया जाता है वह धन वही ब्रह्मानंद-रस-रूप वाम है। इसलिए प्रार्थना की जाती है कि इन्द्र,सविता, प्रजापति, सोम और अग्नि साधक के इस व्यापार में रुचि बढ़ावें -

येन धनेन प्रपणं चरामि धनेन देवा धनमिच्छमानः ।

तन्मे भूयो भवतु मा कनीयोऽग्ने सातघ्नो देवान्हविषा नि षेध।। अथ.३.१५.५

यह वाणिज्य कर्म वस्तुतः एक आध्यात्मिक व्यापार है। इसमें इन्द्र ही वणिक् है जो आत्मा के क्रियापरक पक्ष का प्रतीक है और "पुरएता” (नेता) होकर मार्ग के शत्रुओं और बाधाओं का विनाश करता हुआ आध्यात्मिक धन को देने वाला कहा जाता है -

इन्द्रमहं वणिजं चोदयामि स न ऐतु पुरएता नो अस्तु ।

नुदन्नरातिं परिपन्थिनं मृगं स ईशानो धनदा अस्तु मह्यम्।। अथ.३.१५.१

यह व्यापार उन अनेक देवयान मार्गों पर होता है जो मनुष्य के आन्तरिक जगत् में विद्यमान हैं और जिनसे पयस् और घृत (मानसिक और अति मानसिक सुख) की उपलब्धि तथा विक्रय करके आध्यात्मिक धन को संगृहीत किया जा सकता है-

ये पन्थानो बहवो देवयाना अन्तरा द्यावापृथिवी संचरन्ति।

ते मा जुषन्तां पयसा घृतेन यथा क्रीत्वा धनमाहराणि ।। अथ.३.१५.२

इस व्यापार को करने वाले मनुष्य के वे प्राण हैं जिनको पहले 'विशः आर्याः" कहा गया है। यह अन्तर्मुखी प्रवेश करने के कारण "विशः' कहे जाते हैं और श्रेष्ठ होने के कारण आर्य । इन पर आधिपत्य रखने वाला वैश्वानर अग्नि है जो उक्त सोम-याग-रूप वाणिज्य का स्वामी “होता” है और जिससे प्रार्थना की जाती है कि वह हमारी प्रजाओं (प्रकृष्ट इच्छाओं, विचारों, क्रियाओं ) आत्माओं,ज्ञान-शक्तियों तथा प्राणों में जागरूक रहे -

उप त्वा नमसा वयं होतर्वैश्वानर स्तुमः ।

स नः प्रजास्वात्मसु गोषु प्राणेषु जागृहि ।। अथ.३.१५.७

पणि, सरमा और अध्वर

 “विशः आर्याः" द्वारा होने वाले उक्त वाणिज्य के अतिरिक्त एक अनार्य प्राणों द्वारा होने वाले व्यापार का भी वेद में उल्लेख है।

आर्य व्यापार में जहां प्रपणन और प्रतिपणन होता है वहां अनार्यव्यापार को पणन कहा जाता है और उसको करने वाले "पणयः ' कहे जाते हैं जो वस्तुतः अनार्य अथवा आसुरी प्राणों के प्रतीक हैं। ये पणयः ' नामक असुर देवों की गायों को चुराने वाले तस्कर हैं । इनकी तुलना उस अहंकार-रूप-वृत्र तथा उसके वृत्रों से की जा सकती है जो आपः, उषाओं, स्वः आदि को अपने घोर अंधकार से अवरुद्ध कर देता है अथवा छिपा देता है। देवताओं के इन धनों को छिपाने अथवा अवरुद्ध करने के कारण इन्द्र द्वारा वृत्र का वध किया जाता है और तब उक्त धनों की पुनः प्राप्ति से दिव्य आर्य-जीवन का पुनरुद्धार होता है। इसी प्रकार पणियों द्वारा चुराए गए गोधन, घृत अथवा स्वः आदि का उद्धार भी अपेक्षित समझा जाता है। इस दिशा में प्रयत्न करने वाली दिव्य-शक्तियों को अंगिरस, नवग्वा आदि प्राणों के साथ-साथ वेदमंत्रों में देवताओं की एक देवशुनी का भी उल्लेख मिलता है। उसका नाम सरमा है। यद्यपि सरमा को देवशुनी कहा गया है परन्तु वह इन्द्र और अंगिरसों की दृष्टि में बृहस्पति तथा अंगिरसों के साथ गायों को खोजने का जो कार्य करती है वह आलोक फैलाने वाला है।१ जब आन्तरिक देवयान अध्वाओं (मार्गों) के जानकार अग्नि ने तन्द्रा को त्यागकर देवों का दूत बनना स्वीकार कर लिया, तो देवलोक के सात ऋतज्ञों ने धन के द्वार को जान लिया और सरमा ने दृढ़ गो-समूह को प्राप्त कर लिया जिसके द्वारा मानुषी प्रजा सुख भोगती है।२ वह गायों के रव (शब्द)  की प्रथम जानकार है। इसलिए और सबको उस पर्वत के मार्ग पर ले गई जहां पणियों ने गाएं छिपा रखी थीं।३ जैसे ही उस पर्वत को

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१. इन्द्रस्याङ्गिरसां चेष्टौ विदत्सरमा तनयाय धासिम् ।
बृहस्पतिर्भिनदद्रिं विदद्गाः समुस्रियाभिर्वावशन्त नरः ॥ऋ.१.६२.३

२. विद्वाँ अग्ने वयुनानि क्षितीनां व्यानुषक्छुरुधो जीवसे धाः ।
अन्तर्विद्वाँ अध्वनो देवयानानतन्द्रो दूतो अभवो हविर्वाट् ॥७॥
स्वाध्यो दिव आ सप्त यह्वी रायो दुरो व्यृतज्ञा अजानन् ।
विदद्गव्यं सरमा दृळ्हमूर्वं येना नु कं मानुषी भोजते विट् ॥८॥.७२.७-८

३. विदद्यदी सरमा रुग्णमद्रेर्महि पाथः पूर्व्यं सध्र्यक्कः ।
अग्रं नयत्सुपद्यक्षराणामच्छा रवं प्रथमा जानती गात् ॥ ३.३१.६

 

विदीर्ण किया गया वैसे ही सरमा ने अपने "पूर्व्य अपः' को प्रकट कर दिया और अंगिराओं के द्वारा प्रशंसित होते हुए देवों के नेता अग्नि ने अपने प्रभूत बल का प्रदर्शन करते हुए उस गोष्ठ को तोड़ दिया जिसमें गाएं छिपी हुई थीं । सरमा ऋत के मार्ग पर चलने वाली है और उसी मार्ग पर चलते हुए जब उसने गायों को प्राप्त कर लिया तो अंगिरसों और नवग्वों ने इसकी महिमा के आलोक में सभी सत्यकर्मों को कर लिया।२

सरमा नाम किसी ऐसी आध्यात्मिक शक्ति को दिया गया है जो अंधकार में रहने वाले और प्रकाश-धाराओं रूपी गायों को आवृत्त करने वाले पणियों के यहां भी जा सकती है। इन्द्र और अंगिरसों के देवकार्यों में भी सहयोग दे सकती है। इस प्रकार उसका जो द्विविध व्यक्तित्व है उसी ओर संकेत करने के लिए संभवतः दो सारमेयों की कल्पना की गई है जो चार आंखों वाले शबल श्वान हैं और साधु-मार्ग से उन पितरों के पास भी पहुंच सकते हैं जो यम के साथ आनंद मना रहे हैं।३ इन कुत्तों के चार नेत्रों की कल्पना सम्भवतः उनकी चौमुखी दृष्टि को ध्यान में रखकर की गई है। चार आंखों वाले होने से वे चार दिशाओं में देख सकते हैं और उनसे बचकर कोई भी स्तेन या पणि नहीं जा सकता, इसलिए ये दोनों सारमेय वैदिक यम के दूत कहे जाते हैं जो यम-नियम-संयम का प्रतीक होकर महाज्ञानी के रूप में कठोपनिषदीय नचिकेता के लिए उपदेष्टा बनता है।

 

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१. अपो यदद्रिं पुरुहूत दर्दराविर्भुवत्सरमा पूर्व्यं ते ।
स नो नेता वाजमा दर्षि भूरिं गोत्रा रुजन्नङ्गिरोभिर्गृणानः ॥ऋ.४.१६.८

२. अनूनोदत्र हस्तयतो अद्रिरार्चन्येन दश मासो नवग्वाः ।
ऋतं यती सरमा गा अविन्दद्विश्वानि सत्याङ्गिराश्चकार ॥७॥
विश्वे अस्या व्युषि माहिनायाः सं यद्गोभिरङ्गिरसो नवन्त ।
उत्स आसां परमे सधस्थ ऋतस्य पथा सरमा विदद्गाः ॥ ५.४५.७-८

३. अति द्रव सारमेयौ श्वानौ चतुरक्षौ शबलौ साधुना पथा ।
अथा पितॄन्सुविदत्राँ उपेहि यमेन ये सधमादं मदन्ति ॥ १०.१४.१०

 

इस प्रकार सरमा को वह रहस्यमय तत्व कहा जा सकता है जिसे अष्टम ऋत्विज तथा शूर कह सकते हैं और जो इन्द्र के दोनों हरियों को भी जानता है।१ ऐसी स्थिति में इन्द्र के दोनों हरियों को ही उक्त दोनों सरमा-पुत्रों के रूप में कल्पित हुआ माना जा सकता है। इसी को वह "ऋतायिनी मायिनी” मान सकते हैं जो ज्ञानाग्निरूपी शिशु का वर्धन करती हुई कही जाती है।२ यही "अन्तरिक्ष” के भीतर पूषण के रूप को जानने वाली और चाहने वाली उन 'पुराजाओं' के रूप में कल्पित की गई प्रतीत होती है जो यम-नियम-संयम का सम्पादन करने वाली है।३

सरमा के प्रयास का एक सुंदर प्रस्तुतिकरण हमें ऋ.१०.१०८ में सरमा और पणियों के बीच होने वाले संवाद के रूप में मिलता है। सरमा शब्द के मूल में वही "सृ” धातु है जो सरस्वती तथा सरण्यू में देखी जा चुकी है। अतः सरमा को भी सरस्वती एवं सरण्यू के समान वाक् नामक शक्ति का द्योतक माना गया है।५ सरमा को भूमि भी कहा गया है।६ परन्तु ऐसी भूमि जो शक्ति और शक्तिमान् दोनों का मिथुन है। “भूमि होकर प्रजापति भूत और भव्य हो गया”७ इस कथन द्वारा जैमिनीय ब्राह्मण उसी शक्ति-शक्तिमान् के मिथुन को बतला रहा.है। "यदभवत् तद् भूमिः' कहकर काठक संहितादि ग्रंथ जो निर्वचन

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१. कश्छन्दसां योगमावेद धीरः को धिष्ण्यां प्रति वाचं पपाद ।
कमृत्विजामष्टमं शूरमाहुर्हरी इन्द्रस्य नि चिकाय कः स्वित् ॥ऋ.१०.११४.९

२. ऋतायिनी मायिनी सं दधाते मित्वा शिशुं जज्ञतुर्वर्धयन्ती ।
विश्वस्य नाभिं चरतो ध्रुवस्य कवेश्चित्तन्तुं मनसा वियन्तः ॥ऋ.१०.५.३  

३. सप्त स्वसॄररुषीर्वावशानो विद्वान्मध्व उज्जभारा दृशे कम् ।
अन्तर्येमे अन्तरिक्षे पुराजा इच्छन्वव्रिमविदत्पूषणस्य ॥ऋ.१०.५.५

४. अथ ह वै पणयो नामासुरा देवानां गोरक्षा आसुः। ताभिर् अहापातस्थुः। ता ह रसायां निरुध्य वलेनापिदधुः। ते देवा अलिक्लवम् ऊचुस् सुपर्णेमा नो गा अन्विच्छेति।.....जैब्रा.२.४४०; क.४७.११

५. विदद्यदि सरमा रुग्णमद्रेर्महि पाथः पूर्व्यं सध्र्यक् कः । अग्रं नयत् सुपद्यक्षराणामछा रवं प्रथमा जानती गात् ॥ इति पुरोरुचं कुर्यात् , रुजति हैव , अथो वाग् वै सरमा, वाचं एवैषां वृङ्क्ते, त्सरा वा एषा यज्ञस्य, तस्माद्यत् किंच प्राचीनं आग्रायणात्तदुपांशु चरन्ति मैसं.४.६.४; स नः शर्माणि वीतय इति शंसति वाग्वै शर्म ऐब्रा.२.४०

६. जाया भूमिः पतिर्व्योम । मिथुनं ता अतुर्यथुः । पुत्रो बृहस्पती रुद्रः । सरमा इति स्त्रीपुमम्, इति । -तैआ १.१०.३

७. भूमिर् भूत्वा भूतं भव्यम् अभवत्। जैब्रा.१.३१४

 

प्रस्तुत१ करते हैं उसी को दूसरे रूप में तैत्तिरीय ब्राह्मण इस प्रकार कहता है -- स भूरिति व्याहरत्। स भूमिमसृजत अग्निहोत्रं दर्शपूर्णमासौ यजूंषि (तै.२.२.४.२) अभिप्राय है कि सरमा के साथ समीकरण रखने वाली भूमि उसी भुवन-प्रक्रिया की ओर संकेत करती है जो भूः,भुवः आदि भुवनों या लोकों को जन्म देती है और प्रकारान्तर से जिसे उस सोमयज्ञ के अंगभूत अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमासादि का प्रतिष्ठापक भी माना जा सकता है जो वस्तुतः अध्वर अथवा अध्वा नामक आन्तरिक क्षेत्र या अन्तरिक्ष है।

इसीलिए उक्त संवाद-सूक्त (ऋ.१०.१०८) में सरमा को "अध्वा” से जोड़ा गया है -

किमिच्छन्ती सरमा प्रेदमानड् दूरे ह्यध्वा जगुरिः पराचैः ।

कास्मेहितिः का परितक्म्यासीत्कथं रसायाः अतरः पयांसि।। ऋ.१०.१०८.१

कितना कठिन और दुर्गम 'अध्वा (मार्ग) था जिस पर सरमा इतनी "दूर' आई ! कहां देवों का 'पर' लोक और कहां पणियों का 'अपर" लोक ।। कहां वह रसमयी रसा जो ऊर्ध्वगामिनी और कहां यह विपरीत दिशा का मार्ग१ ।। उस रसा के “पयांसि' को पारकर सरमा पणियों के असुर-लोक में जा पहुंची - पणियों के लिए यह बड़ी आश्चर्य की बात थी। यदि सरमा अकेली आती तो कोई बात नहीं थी क्योंकि वह तो "रसा” के "रसनं” के विपरीत “सरणे की अभ्यस्त है, परन्तु वह 'परा' पथ पर चलने के अभ्यस्त पराक् प्राणों के साथ (पराचैः) आई है और

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१.काठ.८.२; जै २.२४४; तां.२०.१४.२

२.तु. परि णः शर्मयन्त्या धारया सोम विश्वतः । सरा रसेव विष्टपम् ॥ऋ.९.४१.६

 

वह भी आसुरी रात्री (परितक्म्या) में ! अतः पणियों का प्रश्न है -- "हम लोगों से कौन-सा प्रयोजन हो सकता है-कास्मेहितिः?"

सरमा का उत्तर है “मैं इन्द्र की भेजी हुई दूती के रूप में विचरण कर रही हूँ और हे पणियों मैं तुम लोगों की महान् निधि की इच्छक हूँ । रसा के जो आपः थे वह तो मेरे भय से दूर चले गए और इस तरह से उन्होंने हमारी रक्षा की और मैंने रसा के आपः को पार कर लिया।  ऋ.१०.१०८.२ पणि लोग पूछते हैं, “हे सरमे ! इन्द्र कैसा है? उसकी दृष्टि कैसी है जिसकी तुम दूती होकर उस परलोक से आई हो ? "इसके पश्चात् वे परस्पर बात करते हैं कि यह आवे। हम इससे मित्रता कर लेंगे और यह सब गायों की स्वामिनी बन जाए।' इस पर सरमा स्पष्ट कह देती है कि इन्द्र सर्वथा अहिंस्य है और तुम लोग (पणयः ) इन्द्र के द्वारा आहत होकर धराशायी हो जाओगे। परन्तु पणि लोग अपने तीक्ष्ण आयुधों की बात करते हैं और सरमा को याद दिलाते हैं कि बिना युद्ध किए गायों को कोई नहीं प्राप्त कर सकता। साथ ही वे उसको यह भी याद दिलाते हैं कि उनकी यह निधि (गोधन) पणियों द्वारा अत्यन्त सुरक्षित है। इसे कोई प्राप्त नहीं कर सकता। वे सरमा को अपनी बहन बनाने तथा गायों की भागीदार बनाने का प्रस्ताव करते हैं, परन्तु सरमा किसी प्रलोभन में नहीं आती और पणियों से स्पष्ट कहती है कि तुम यहां से दूर भाग जाओ, क्योंकि इन छिपी हुई गायों को बृहस्पति, सोम, ऋषिगण तथा विप्र लोग प्राप्त कर लेंगे और गाएं स्वयं ऋत के द्वारा तुम्हारी हिंसा करती हुई प्रकट हो जाएंगी।

यहां ऋषियों, विप्रों तथा ग्रावाणः के साथ सोम और बृहस्पति का उल्लेख करके यह संकेत दे दिया गया है कि सोमयाग नामक अध्वर प्रारंभ होने पर ज्ञान-शक्तियां रूपी गाएं स्वयं ऋत का अस्त्र लेकर पणि नामक आसुरी शक्तियों का विनाश करने में समर्थ हो जाएंगी। "ग्रावाणः” शब्द “गॄ विज्ञाने” से निष्पन्न होने के कारण विज्ञानशक्तियों का द्योतक है। इसी प्रकार ऋषयः और विप्राः उन ज्ञान तथा प्रज्ञान शक्तियों की ओर संकेत करते हैं जिनका जनक ब्रह्मानन्द रस-रूप सोम कहा जाता है और जिनके फलस्वरूप वह "बृहती' नामक बुदि उत्पन्न होती है जिसको प्राप्त करके आत्मा बृहस्पति बनता है। इस प्रकार सरमा के सांकेतिक वचनों का अर्थ यही हो सकता है कि सरमा की पीठ पर उन दिव्य-शक्तियों का वरदहस्त है जो उसके अध्वा (यात्रा) को एक अध्वर में परिणत करके पणियों को सर्वथा ध्वस्त तथा निर्मूल कर देंगे।

सरमा का अध्वा और अध्वर

अध्वर में परिणत होने वाला सरमा का यह अध्वा ही अध्वर का वह ऊर्ध्व गातु है जिसे आपः रूपी माताएं अनेक अध्वाओं में परिणत करके अध्वर रूप ग्रहण कराती हैं।१ यह वह यज्ञ है जो दीर्घ अध्वा के समान फलदायक होकर इन्द्र का उसी प्रकार वर्धन करता है जिस प्रकार तीर्थस्थल पर जाने वाले प्यासे व्यक्ति के लिए कोई घर प्यास बुझाने वाला होता है।२ इस अध्वा का गुहा में निहित एक परम पद है जहां निहित द्रविण रत्न के जानकार जातवेदा हैं।३ अध्वा

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१.दिवो वा नाभा न्यसादि होता स्तृणीमहि देवव्यचा वि बर्हिः ॥ऋ.३.४.४; अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम् । पृञ्चतीर्मधुना पयः ॥१.२३.१६

२.ऋ.१.१७४.११ ?

३. किं नो अस्य द्रविणं कद्ध रत्नं वि नो वोचो जातवेदश्चिकित्वान् ।ऋ.४.५.१२

 

के “पार” पहुंचाने में मरुतों की सफलता सूर्य के उदय होने पर ही होती है क्योंकि वे तभी स्वः ज्योति को वहन करने वाले "स्वर्णरः” कहलाने के अधिकारी होते हैं ।१ 'निस्संदेह यह सूर्य अग्निवर्षक प्रचण्डसूर्य नहीं हो सकता, यह तो वह सूर्य है जो चक्षु, दिवस, प्रकाश, शैत्य और हिम से अध्वा और गृह को शम्२ देने वाला "चित्रं द्रविणम्”  देता है। यह द्रविणं देता है। यह द्रविणं भी कोई सोना, चांदी या रत्नजवाहर नहीं अपितु , योगयुक्त व्यक्तित्व का (योः) शम् है -

अस्माकं देवा उभयाय जन्मने शर्म यच्छत द्विपदे चतुष्पदे ।।

अदत्पिबदूर्जयमानमाशितं तदस्मे शं योररपो दधातन ।। ऋ.१०.३७.११

यह निष्पाप 'शम्’ हमारे जिस द्विविध जन्म के लिए अभीष्ट है वह एक तो अन्नमय-प्राणमय नामक दो पदों पर स्थित मनोमय व्यक्तित्व है और दूसरा इन दोनों सहित विज्ञानमय नामक चार पदों पर स्थित आनन्दमय व्यक्तित्व है। पहला हमारा पशु-स्तर है और दूसरा दिव्य-स्तर। इन दोनों स्तरों पर आनन्दसमुद्रपर्यन्त फैला हुआ पूर्व और अपर रूप में सूर्य का वह महान् अध्वा है जिसे सूर्य देना चाहता है और जिसे योगी यदि समवेत रूप में वेगपूर्वक प्राप्त करता है और असावधानी नहीं बरतता, तो व्यक्तित्व की देवशक्तियों के अमृतभक्षण में भी कोई अवरोध नहीं पड़ता -

यत् समुद्रमनु श्रितं तत् सिषासति सूर्यः ।

अध्वास्य विततो महान् पूर्वश्चापरश्च यः ।।  

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१.ऋ.५.५४.१०

२.शं नो भव चक्षसा शं नो अह्ना शं भानुना हिमा शं घृणेन।

यथा शमध्वन् शमसद् दुरोणे तत्सूर्य द्रविणं धेहि चित्रम्।। ऋ.१०.३७.१०

 

तं समाप्नोति जूतिभिस्ततो नाप चिकित्सति,

तेनामृतस्य भक्षं देवानां नाव रुन्धते ।।अथ.१३.२.१४-१५

यही सूर्य वह 'अनिध्म" अग्नि है जिसे विप्र लोग अपने भीतर प्राणरूप अध्वरों में ईडन (ध्यान) करते हैं और जिसके फलस्वरूप प्राप्त मधुमती “आपः ( सोम) वीर्यवान इन्द्र (आत्मा) को वर्धमान करते हैं।१ अध्वा की अध्वर में परिणति अथवा पूर्वोक्त 'शम्’ सूर्य-प्रदत्त अध्वा तथा अमृत-भक्षणं की प्राप्ति इसी दृष्टि से समझी जा सकती है।

उक्त शं, अमृत अथवा स्वः आदि को ही वह परमनिधि मान सकते हैं जिसको पणियों ने गुफा के भीतर छिपा रखा है और जिसको वहां अंगिरस खोज निकालते हैं और वहीं अनृत को देखकर आग लगा देते हैं।२ यही निधि अनेक मन्त्रों में उन गायों के रूप में प्रस्तुत की जाती है जिसे सरमा, अंगिरस अथवा मरुतः पणियों के स्थान से खोजते अथवा छीन लेते हैं। वास्तव में मनुष्य के भीतर सत्य और अनृत अथवा देवत्व और असुरत्व की द्विविध शक्तियां विद्यमान हैं जिनमें से दूसरे का स्वामी वृत्र अथवा पणि कहलाता है४ और प्रथम के इन्द्र, अग्नि आदि देवता। पणि को निधि अथवा भोजन “सर्व पशु” कहलाता है जिसको अपहरण करके इन्द्र अपने भक्त को जो सुन्दर वस्तु

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यो अनिध्मो दीदयदप्स्वन्तर्यं विप्रास ईडते अध्वरेषु ।

अपां नपान्मधुमतीरपो दा याभिरिन्द्रो वावृध वीर्यवान्।।अथ.१४.१.३७.

२. अभिनक्षन्तो अभि ये तमानशुर्निधिं पणीनां परमं गुहा हितम् ।
ते विद्वांसः प्रतिचक्ष्यानृता पुनर्यत उ आयन्तदुदीयुराविशम् ॥ ऋ.२.२४.६

३. बळस्य नीथा वि पणेश्च मन्महे वया अस्य प्रहुता आसुरत्तवे ।
यदा घोरासो अमृतत्वमाशतादिज्जनस्य दैव्यस्य चर्किरन् ॥ ऋ.१०.९२.३

४. स सत्पतिः शवसा हन्ति वृत्रमग्ने विप्रो वि पणेर्भर्ति वाजम् ।
यं त्वं प्रचेत ऋतजात राया सजोषा नप्त्रापां हिनोषि ॥ ऋ.६.१३.३

 

 

देता है वही 'विश्व' के रूप में व्यक्ति अपने आन्तरिक दुर्ग में धारण करता है।१ पणि जब उक्त दिव्य अथवा विश्व धन पर आधिपत्य जमा लेता है तो उससे देव वंचित हो जाते हैं इसलिए पूषा से प्रार्थना की जाती है कि वह पणि के मन को मृदुता प्रदान करके उसे दान के लिए प्रेरित करे।२ कभी-कभी पूषा से यह भी याचना की जाती है कि वह पणि के हृदय में उस प्रिय तत्व को हमारे हित के लिए नष्ट कर दे।३

पणि एक वृक है जिसका वध करने के लिए सोम से प्रार्थना की जाती है४ क्योंकि सोम ही उस शर्म प्रदान करने वाली धारा द्वारा रसा के समान सरण करता है जो पणियों को निर्मूल कर सकती है।५ सोम की धारा ही वह मातामही रसा है जो स्वयं श्रेष्ठ और शक्तिशालिनी होती हुई रक्षकों के साथ पद-पद पर प्रवाहित होती है, तो पणियों का भय नहीं रहता।६ यह रसा वस्तुतः आनंद-सिंधु की श्वेत धारा है७ जिसके द्वारा अश्विनौ के अश्व भी सिंचित होते हैं, तो वे दोनों सूर्या के पति हो जाते हैं।८ इसलिए यह आवश्यक है कि यह रसा अथवा सोम की धारा सदा अपनी 'भा' से युक्त रहे।९ सोम का आधिक्य होना और पणियों की वृद्धि पर रोक लगना बहुत आवश्यक

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१. समीं पणेरजति भोजनं मुषे वि दाशुषे भजति सूनरं वसु । ऋ.५.३४.७

२. अदित्सन्तं चिदाघृणे पूषन्दानाय चोदय ।
पणेश्चिद्वि म्रदा मनः ॥ ऋ.६.५३.३

३. वि पूषन्नारया तुद पणेरिच्छ हृदि प्रियम् ।
अथेमस्मभ्यं रन्धय ॥ ऋ.६.५३.६

४. ग्रावाणः सोम नो हि कं सखित्वनाय वावशुः ।
जही न्यत्रिणं पणिं वृको हि षः ॥ ऋ.६.५१.१४

५. परि णः शर्मयन्त्या धारया सोम विश्वतः ।
सरा रसेव विष्टपम् ॥ ऋ.९.४१.६

६. पदेपदे मे जरिमा नि धायि वरूत्री वा शक्रा या पायुभिश्च ।
सिषक्तु माता मही रसा नः स्मत्सूरिभिरृजुहस्त ऋजुवनिः ॥ ऋ.५.४१.१५

७. तृष्टामया प्रथमं यातवे सजूः सुसर्त्वा रसया श्वेत्या त्या ।
त्वं सिन्धो कुभया गोमतीं क्रुमुं मेहत्न्वा सरथं याभिरीयसे ॥ ऋ.१०.७५.६

८. सिन्धुर्ह वां रसया सिञ्चदश्वान्घृणा वयोऽरुषासः परि ग्मन् ।
तदू षु वामजिरं चेति यानं येन पती भवथः सूर्यायाः ॥ ऋ.४.४३.६

९. मा वो रसानितभा कुभा क्रुमुर्मा वः सिन्धुर्नि रीरमत् ।
मा वः परि ष्ठात्सरयुः पुरीषिण्यस्मे इत्सुम्नमस्तु वः ॥ ऋ.५.५३.९

 

है जिससे कि पणि लोग देवों का जो देवत्व अथवा मघ है उसको नष्ट न कर पावें।१ अतः इन्द्र से प्रार्थना की जाती है कि वह "भूरि वामम् (अत्यधिक सोम) को प्रदान करे जिससे पणि अधिक प्रवृद्ध न हो पावें।२

वास्तव में पणि अथवा वृत्र जैसी अनेक देव-विरोधी शक्तियां मनुष्य के भीतर जिन नाना प्रकार के पापों और दुरितों की सृष्टि करती रहती हैं उनको वेद में ‘ध्वरसः' कहा गया है। इन ध्वरसों का विनाश करने वाला मार्ग ही अध्वर है। इसलिए ब्रह्मणस्पति को वह सुगोपा कहा जाता है जो इन ध्वरसों का विनाश करके हमारी रक्षा करता है।३ ब्राह्मण-ग्रन्थ, इसी दृष्टि से, ऐसे आख्यानों का उल्लेख करते हैं जिनके द्वारा अध्वर के निर्वचन को बताया जाता है। तैत्तरीय संहिता के अनुसार जब असुर लोग देवों को बहुत सताने लगे, तो उन्होंने ऐसे यज्ञ का आविष्कार किया जिसके फलस्वरूप देव लोग अध्वर्तव्य (अहिंसनीय) हो गए। इसीलिए उस यज्ञ को अध्वर कहा जाता है।४ शतपथ के अनुसार५, जब देव उस यज्ञ को कर रहे थे, तो उसके शत्रुभूत असुरों ने उनके 'धूर्वण" (हिंसा) की इच्छा की, पर वे सफल नहीं हो सके और भाग गए। इसलिए यज्ञ का नाम 'अध्वर' हो गया। मैत्रायणी संहिता का कथन है कि जब असुरों ने उस यज्ञ को करते हुए देवों को अहिंसनीय पाया, तो वे बोले-- 'अध्वृतोऽयं’ और यह कहकर भाग गए। इसलिए ही इस यज्ञ का नाम अध्वर हुआ।६

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1. न वां द्यावोऽहभिर्नोत सिन्धवो न देवत्वं पणयो नानशुर्मघम् ॥ ऋ.१.१५१.९

2. चोष्कूयमाण इन्द्र भूरि वामं मा पणिर्भूरस्मदधि प्रवृद्ध ॥ ऋ.१.३३.३.

3.न तमंहो न दुरितं कुतश्चन नारातयस्तितिरुर्न द्वयाविनः ।
विश्वा इदस्माद्ध्वरसो वि बाधसे यं सुगोपा रक्षसि ब्रह्मणस्पते॥ ऋ.२.२३.५;

द्रुहं जिघांसन्ध्वरसमनिन्द्रां तेतिक्ते तिग्मा तुजसे अनीका ।
ऋणा चिद्यत्र ऋणया न उग्रो दूरे अज्ञाता उषसो बबाधे ॥ऋ. ४.२३.७

४. वैश्वदेवम् प्रातःसवनम् अकुर्वत वरुणप्रघासान् माध्यंदिन सवन साकमेधान् पितृयज्ञं त्र्यम्बकास् तृतीयसवनम् अकुर्वत तम् एषाम् असुरा यज्ञम् अन्ववजिगासन् तं नान्ववायन् ते ऽब्रुवन्न् अध्वर्तव्या वा इमे देवा अभूवन्न् इति तद् अध्वरस्याध्वरत्वम् ।तैसं.३.२.२.३

५.माश १.४.१.४०

६. वैश्वदेवं प्रातःसवनं अकुर्वत, वरुणप्रघासान्माध्यंदिनं सवनं , साकमेधान् पितृयज्ञं , त्र्यम्बकास्तत् तृतीयसवनं , तस्मात् तृतीयसवने विश्वं रूपं शस्यते, विश्वं ह्येतद् रूपं , तं एषां यज्ञमसुरा णान्ववायन् , तेन वा एनानपानुदन्त, ततो देवा अभवन्, परासुरा, स्तद्य एवं वेद भवत्यात्मना, परास्य भ्रातृव्यो भवति, तेऽध्वृतोऽयमभूदित्यपाक्रामन् , तदध्वरस्याध्वरत्वं मैसं.३.६.१०

 

शतपथ ब्राह्मण एक स्थान पर अध्वर को 'रस' कहता है।१ दूसरे स्थान पर वह प्राण को ही अध्वर कहता है।२ इसका अभिप्राय है कि अध्वर वस्तुतः सोम-यज्ञ ही है जो ब्रह्मानन्द-रस नामक प्राणात्मक पवमान सोम की धारा को साधक के भीतर प्रवाहित कर देता है। एक दृष्टि से यह वही भाव -समाधि है जिसको योग में धर्ममेघ समाधि कहा जाता है। वेद में इसी को पर्जन्य-वृष्टि भी कहते हैं जो प्रत्येक निष्काम अवस्था में साधक के भीतर होती है।३ यह पर्जन्यवृष्टि पूर्वोक्त "स्वः' नामक आध्यात्मिक ज्योति को वृद्धि प्रदान करती है। अतः तैत्तिरीय आरण्यक पर्जन्य को वसोर्धारा कहता है। इस पर्जन्य-वृष्टि के द्वारा साधक अमृत-शक्तियों की ओर निरन्तर गति करता है।६ यह पर्जन्य-वृष्टि ही प्रकारान्तर से सुपर्ण (श्येन ) द्वारा लाए गए अमृत की वृष्टि कही जाती है और इसी कारण सुपर्ण को पार्जन्य कहा जाता है। शांखायन आरण्यक ११.१ जब प्रजापति को उदान प्राण में पर्जन्य को आविष्ट करता हुआ कहा जाता है, तो उसका अभिप्राय है कि उदान-प्राण की साधना उक्त आध्यात्मिक अध्वर अथवा सोमयज्ञ का आधार है। उदान ही वह "पूर्णमा' है जो "पूर्णमास" सोम-यज्ञ का अंगभूत मूलाधार है।८ उत्तरोत्तर उदान

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१. आत्मा वा अग्नी रसोऽध्वर आत्मानं तद्रसेनानुषजति तस्मादयमान्तमेवात्मा रसेनानुषक्तो माश ७.३.१.६

२. आत्मा वा अग्निः प्राणोऽध्वर आत्मंस्तत्प्राणं मध्यतो दधाति....  माश ७.३.१.५

३.निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षन्तु - तैसं.७.५.१८.१, मैसं.३.१२.६

४.तैआ.६.६.३

५.वही, ३.११.१०.३ ,

६.काठ.सं.२.६

७.मैसं ३.१४.१५; काठ.सं.४७.११

उदान एव पूर्णमा उदानेन ह्ययं पुरुषः पूर्यत इव। - माश ११.२.४.५-६

माश ११.२.४.५-६८

 

साधना से जो भीतरी प्रकाश वृद्धि प्राप्त करता है उसे ही तां.५.१०.३ "उदाना मासः" कहकर और जैमिनीयोपरिषद् ब्राह्मण१ "चन्द्रमा उदानः' कहकर याद करता है। वास्तव में आध्यात्मिक सोम को लक्ष्य करके भौतिक चन्द्रमा का भी सोम नाम रखा गया प्रतीत होता है। ज्योत्स्ना के समान धवल प्रकाश तथा आनंद रस को देने वाले आन्तरिक सोम की धारा को इसीलिए 'श्वेत्या रसा' के रूप में कल्पित किया गया२ और सोम को श्वेत रूप करने वाला अथवा श्वेतकलश कहा जाता है।३

अध्वर और बर्हि

उपर्युक्त 'श्वेत्या रसा' ही सोम की वह धारा है जो परम पद से (परमात्) आई और उसने कहीं छिपी हुई गायों का पता लगा लिया-

एषा ययौ परमादन्तरद्रेः कूचित्सतीरूर्वे गा विवेद,

दिवो न विद्युत्स्तनयन्त्यभ्रैः सोमस्य ते पवते इन्द्र धारा।– ऋ.९.८७.८

 यहां सोमधारा की उपमा उस विद्युत् से दी गई है जो बादलों के साथ गर्जन कर रही है। इससे पूर्वोक्त पर्जन्य-वृष्टि अथवा मेघ-समाधि की ओर संकेत है। साथ ही उसे ही छिपी हुई गायों का पता लगाने वाली कहकर, देवशुनी सरमा की ओर इंगित कर दिया है। यदि

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१.चन्द्रमा उदानः जैउ.४.११.I.

२. तृष्टामया प्रथमं यातवे सजूः सुसर्त्वा रसया श्वेत्या त्या ।ऋ.१०.७५.६ ?

३. श्वेतं रूपं कृणुते यत्सिषासति सोमो मीढ्वाँ असुरो वेद भूमनः ।.ऋ.९.७४.७-८

सोमधारा ही वह सरमा है, तो क्यों न सोम ही को गायों का खोजी कहा जाए? इस प्रश्न का उत्तर उसी सूक्त में यह कहकर दिया गया है कि 'वही गायों के गुह्य और निहित नाम को जानता है।‘ १ आगे यह भी कहा गया कि यह मधुमान सोम एक "शाश्वततम बर्हि' में चारों तरफ स्थित होने वाला वाजी है।२ सायण यहां 'शाश्वततम बर्हि' का अर्थ "नित्य यज्ञ” करते हैं । सूक्त के प्रथम मन्त्र में भी उसी वाजी का मार्जन करने वाले उसे बर्हि की ओर ले जाते हैं और उससे कहा जाता है कि तुम कोश के चारों ओर गतिशील होकर बैठ जाओ। यहां भी सायण ने बर्हि का अर्थ यज्ञ किया।

सायण द्वारा स्वीकृत "बर्हि' शब्द का यह अर्थ निघण्टुकार के विरुद्ध जाता है, क्योंकि निघण्टु में “बर्हि” शब्द अन्तरिक्ष उदक(द्र. टिप्पणी) तथा पदनामों में ही सम्मिलित किया है, परन्तु यदि यज्ञ वाचक अध्वर शब्द अन्तरिक्ष का बोधक हो सकता है, तो अन्तरिक्षनामों में परिगणित बर्हि शब्द भी यज्ञ का बोध कराए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए। परन्तु ऋ.९.१९.३(वृषा पुनान आयुषु स्तनयन्नधि बर्हिषि ।) में मनुष्यों के भीतर क्षरित होते हुए तथा शब्द करते हुए जिस बर्हि पर सोम को अधिष्ठित होता हुआ बताया जाता है उसका अर्थ सायण ने "दर्भ” क्यिा है, जब कि ऋ.९.५५.२(नि बर्हिषि प्रिये सदः ॥) में बर्हि शब्द को पुनः यज्ञ के अर्थ में ग्रहण किया गया है। वास्तव में सायण की कठिनाई यह है कि 'बर्हि' शब्द का जो मूल अर्थ था वह कालान्तर में विस्मृत हो गया। विस्मृति का कारण यह था कि वैदिक तत्वज्ञान में 'बर्हि शब्द जिस तत्व का बोधक था उसका

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१.ऋषिर्विप्रः पुरएता जनानामृभुर्धीर उशना काव्येन।

स चिद्विवेद निहितं यदासामपीच्यं गुह्यं नाम गोनाम्।। ऋ. ९.८७.३

२. एष स्य ते मधुमाँ इन्द्र सोमो वृषा वृष्णे परि पवित्रे अक्षाः ।
सहस्रसाः शतसा भूरिदावा शश्वत्तमं बर्हिरा वाज्यस्थात् ॥, ९.८७.४

 

प्रतीक "दर्भ” हो गया। "बर्हि' शब्द जिस 'बर्ह " धातु से निष्पन्न है, धातु-पाठ के अनुसार, उसका अर्थ श्रेष्ठ होना अथवा “हिंसा करना” होता है और सोम-यज्ञ का यौगिक अर्थ इन दोनों दृष्टियों से खरा उतरता है।

उदाहरण के लिए ऋ.९.६१ को लेते हैं –

अया वीती परि स्रव यस्त इन्दो मदेष्वा। अवाहन्नवतीर्नव।।

पुरः सद्य इत्था धिये दिवोदासाय शम्बरम्। अध त्यं तुर्वशं यदुम्।। - ऋ.९.६१.१-

यहां सोम को “इन्दु' नाम से संबोधित किया गया है जो निघण्टु के यज्ञनामों में भी परिगणित है। उससे परिस्रवण करने के लिए कहा गया है, क्योंकि वह गति, व्याप्ति तथा खादन करने वाला होने से वी धातु-निष्पन्न “वीती' भी है। इसीलिए “सत्यकर्मा दिवोदास" के लिए ९९ पुरों सहित "शम्बर' नामक असुर को मिटाने वाला भी कहा गया है और साथ ही उसी सूक्त के मन्त्र २७ में उसे "मख' नामक यज्ञ में परिणत होने के लिए भी कहा गया है(न त्वा शतं चन ह्रुतो राधो दित्सन्तमा मिनन् । यत्पुनानो मखस्यसे ॥)। ऋ.९.४४.४ में "चारु अध्वर" करने वाले बर्हिष्मान सोम का उल्लेख है(स नः पवस्व वाजयुश्चक्राणश्चारुमध्वरम् । बर्हिष्माँ आ विवासति ॥)। इससे स्पष्ट है कि बर्हि से ऐसा तत्व अभिप्रेत है जिससे युक्त होने के कारण सोम "चारु अध्वर" करता हुआ कल्याण कार्य करके परिचर्या करने में समर्थ है ।

ऋग्वेद ९.९५.२ में बर्हि में सोम एक ऐसी 'ऋतस्य पथ्या’ की सृष्टि करने वाला तथा अभिव्यक्ति (वाक्) को प्रेरित करने वाला कहा गया जिसमें वह देवों के गुह्य नामों को प्रकट करता है(हरिः सृजानः पथ्यामृतस्येयर्ति वाचमरितेव नावम् । देवो देवानां गुह्यानि नामाविष्कृणोति बर्हिषि प्रवाचे ॥)। सायण यहां 'बर्हि' का अर्थ यज्ञ करते हैं। निघण्टु के अनुसार 'ऋत’ सत्य का वाचक है। अतः ‘ऋतस्य पथ्यां' से 'सोम' या 'इन्दु' को वह अध्वा (मार्ग) समझा जा सकता है जिसे अध्वर का समानार्थक माना गया है। अतः बर्हि शब्द को एक ऐसे श्रेष्ठ यज्ञ का बोधक मान सकते हैं जिसमें सभी गुह्य देवनामों की अभिव्यक्ति होती है। इस यज्ञ की तुलना ऋ.१०.१३० के प्राजापत्य यज्ञ से कर सकते हैं जहां न केवल सभी देवों अपितु ऋषियों, पितरों और मनुष्यों का भी समावेश होता है। "बर्हि शब्द से यही प्राजापत्य यज्ञ उस समय अभिप्रेत होता है जब बर्हि के द्वारा प्रजापति प्रजा की सृष्टि करते हुए कहे जाते हैं।१ निस्संदेह इस प्रसंग में बर्हि का तात्पर्य दर्भ से नहीं हो सकता। यहां बर्हि को प्राधान्य-बोधक "बर्ह' धातु से निष्पन्न मानकर उसे प्रजापति की उस प्रधान शक्ति के रूप में मानना पड़ेगा जिससे प्रजापति नाना प्रकार की सृष्टि करता है। इसी ओर संकेत करते हुए काठक संहिता में प्रार्थना की गई है कि हे देव शत-शाखाओं वाली बर्हि को विविध रूपों में आरूढ़ करो जिससे हम सहस्र-शाखा हो कर आरोहण कर सकें।२

यह बर्हि घृतपृष्ठ है और यह मनीषियों द्वारा व्यक्तित्व के उस स्तर तक फैलाई जाती है जहां अमृत-दर्शन संभव है।३ घृत और अमृत के जिस अतिमानसिक स्वरूप की चर्चा पहले हो चुकी है, उससे स्पष्ट है कि बर्हि वह वर्धनशील चेतना है जिसे "ब्रह्मवाह' इन्द्र के संदर्भ में ब्रह्म-तत्वों से जनित या संपादित माना जाता था।४ सायण के समान बर्हि को यहां यज्ञ के अर्थ में ग्रहण किया जाए, तो बर्हि के स्तरण से उस प्राजापत्य यज्ञ का विस्तारण अभिप्रेत होगा जिसे ऋ.१०.१३०.१ में “विश्वतः तन्तुभिस्ततः एकशतं देवकर्मेभिरायतः' कहा गया है। यह बर्हि अथवा यज्ञ निस्संदेह ध्यानजनित वह आन्तरिक चेतना-प्रसार है जिसे "आधीतं बर्हिः' कहकर याद किया जाता है।५ इस प्राजापत्य यज्ञ की

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१.-बर्हिषा वै प्रजापतिः प्रजा असृजत काठ.३२.३

२.देव बर्हिश्शतवल्शं विरोह सहस्रवल्शा वि वयं रुहेम। काठ.१.२; क १.२

३.स्तृणीत बर्हिरानुषक् घृतपृष्ठं मनीषिणः । यत्रामृतस्य चक्षणम् ऋ.१.१३.५

४.इमा ब्रह्म ब्रह्मवाहः क्रियन्ते आ बर्हिः सीद- ऋ.३.४१.३

५. चित्तिः स्रुक् , चित्तमाज्यं , वाग् वेदिरा, धीतं बर्हिः-मैसं.१.९.१

 

प्रजा भी इसलिए 'आधीतं" अथवा "आधीतिः' नाम ग्रहण करती है। इस प्रकार की बर्हि नामक चेतना से युक्त कारु के लिए इन्द्र स्वयं उसके दश सहस्र-वृत्रों का बर्हण (विनाश) कर देता है, क्योंकि इस बर्हि के विस्तार का अर्थ है उन सोम-बिन्दुओं का विस्तार जिनके परिणामस्वरूप वृत्रों की हत्या स्वयं ही हो जाती है।२ अतः धातुपाठ की जो हिंसार्थक "बर्ह' धातु है उसका वैदिक प्रयोग उस प्रकार की हिंसा की ओर संकेत करती है जो वस्तुतः हिंसा नहीं होती - "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" की उक्ति का लक्ष्य यही होता था । अतः कहा जाता है कि इन्द्र हिंसक शत्रु-सेनाओं में जब चारों ओर से प्रवेश करता है तो अनेक ऐसे हित-सम्पादक कार्यों को धारण करता है जिससे शत्रु-सेनाओं का जो हिंसक वर्ण होता है वह तिरोहित हो जाता है और साधक के लिए हितकारी बुद्धियां जाग्रत हो जाती हैं।३

दूसरे शब्दों में, बर्हणा इन्द्र की विनाश-लीला (बर्हणे) वस्तुतः स्वः ज्योति से सम्पन्न मद के अन्तर्गत सहज रूप में ही संपन्न हो जाती है। उदाहरण के लिए, वृत्र-वध के प्रसंग में कहा जाता है कि जो धारक 'अच्युतं रजः ' वृत्र ने तिरोहित कर दी उसे बर्हणा इन्द्र ने द्युलोक की दिशाओं में अच्छी तरह स्थापित कर दिया जिससे इन्द्र ने अपनी आनन्द-शक्ति द्वारा स्वः से उत्पन्न मद में ही आपः के अर्णव को खोला, तो आपः के आवरक (वृत्र) का भी निराकरण हो गया। "हे इन्द्र ! महान् तू ने द्यौ एवं पृथिवी के सदनों में जब धारक

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१.प्रजा वा आधीतं, पशव आधीतिः मै.१.४.१४

२.अथ.२०.११.६

३.वही, २०.११.५

 

तत्व को अपने ओज द्वारा पुनः स्थापित किया, तो सोम के मद में तूने आपः को निकाला और उसके साथ ही आवरक (वृत्र) की शक्ति भी विदीर्ण कर दी।१ इसी दृष्टि से कहा जाता है कि, “हे इन्द्र । अपने बलों को बढ़ाते हुए और जनों (प्राणों) में प्रकृष्टरूपेण प्रकट करते हए तूने जो भी आचरण किया और तेरे जो युद्ध कहे जाते हैं, वह सब तेरी माया है; वास्तव में, न तो आज तेरा कोई शत्रु है और न पहले कभी जाना गया।२

सारांश यह है कि "बर्हि' शब्द अध्वा और अध्वर के समान ही उस दिव्य-चेतना की विकास-यात्रा का द्योतक है जिसे स्वः, अमृत, घृत आदि की खोज, देवताति (देवशक्ति का प्रसार) कहा जा सकता है। इसके विकास के फलस्वरूप अदेवी अथवा आसुरी-शक्तियों का का स्वयं ही अन्त होता जाता है। इसीलिए, बर्हि की जो बर्ह धातु एक दृष्टि से देवत्व के प्राधान्य और विकास की द्योतक है, वहीं दूसरी ओर वह अदेवत्व के हिंसन की सूचक है। इसी लिए धातु-पाठ बर्ह धातु के दोनों अर्थ देता है और प्राधान्यबोधक बर्ह धातु वृद्धि-सूचक "बृंह' धातु की समानार्थक होकर 'ब्रह्म’ के लिए उत्तरदायी समझी जा सकती है, वही "बर्हणा" "सहस्राणि बर्हयः” (अथर्व २०.११.६) कहकर उसे हिंसा के अर्थ में भी प्रयुक्त किया जा सकता है।

इस प्रकार हम अध्वा, अध्वर और बर्हि का विवेचन करते हुए वेद के इस केन्द्रभूत विचार पर पहुंचे कि अज्ञान, अंधकार, अनृत

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१.ऋ.१०.५६.५-६ ?

२.यदचरस्तन्वा वावृधानो बलानीन्द्र प्रब्रुवाणो जनेषु।

मायेत्सा ते यानि युद्धान्याहुर्नाद्य शत्रुं ननु पुरा विवित्से ।। -ऋ.१०.५४.२

 

और दुरित आदि अदेवी शक्तियों का विनाश सत्य, ऋत, आनन्द, स्वः अथवा अमृतत्व आदि की प्राप्ति से स्वतः ही हो जाता है। इस लक्ष्य तक पहुंचने की यात्रा को जहां अध्वा, गातु, पंथ आदि पर आरोहण कहा जा सकता है वहीं उसको नव-सृष्टि का यज्ञ, अध्वर तथा बर्हि कहना भी समीचीन है, क्योंकि इसके द्वारा ऐसी दिव्य आध्यात्मिक शक्तियों का विकास होता है जिनसे मनुष्य असत् से सत् की ओर, मृत्यु से अमृत की ओर और अंधकार से ज्योति की ओर बढ़ता हुआ निरन्तर ब्रह्म नामक वर्धमान तत्व की उत्तरोत्तर सृष्टि करता हुआ वह ब्रह्मा बन जाता है जिसको अथर्ववेद में अपराजिता हिरण्ययपुरी में प्रवेश करने वाला बताया है -

प्रभाजमानां हरिणीं यशसा संपरीवृताम् ।

पुरं हिरण्ययीं ब्रह्मा विवेशापराजिताम् ।। -अथ. १०.२.३३

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टिप्पणी – यथा तैसं ३.२.२.३ एवं मै.सं ३.६.१० मध्ये कथितमस्ति, यदि चातुर्मासस्य वैश्वदेव, वरुणप्रघासादि कृत्यानां रूपान्तरणं अग्निष्टोमस्य प्रातःसवनम्, माध्यन्दिनसवनम् आदिषु भवेत्, तर्हि अध्वरस्य स्थापनं संभवं भवति। अस्मिन् संदर्भे चातुर्मासोपरि टिप्पणी पठनीया अस्ति।