वेदों में अन्तरिक्ष के पर्यायों का प्रतीकवाद

 अरुणा शुक्ला

 (जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर की पी.एच.डी उपाधि हेतु स्वीकृत शोधग्रन्थ)

1994ई.

 

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Introduction

Chapter One

Chapter Two

Chapter Three

Chapter Four

Chapter Five

Chapter Six  

Chapter Seven 

Chapter Eight  

About the Author

 

सप्तम अध्याय

धन्व से समुद्र और आकाश तक

- धन्व से त्रित

- त्रित का उद्धार

- रोदसी से रजः तक

- मधुकशा तथा आकाश

- वृष्टिद्यावः स्वर्विदः आपः

 

 

सप्तम अध्याय

धन्व से समुद्र और आकाश तक

धन्व पर विचार करते हुए, हमने उसे ऐसी अन्तश्चेतना अन्तरिक्ष का प्रतीक पाया जिसे मानव-जीवन की मरुभूमि कहा जा सकता है। इस मरुभूमि को नवसृष्टिकर्ता ब्रह्मा का पुष्कर-क्षेत्र बनाकर ही मनुष्य-जीवन का उद्धार किया जा सकता है। यह तब तक सम्भव नहीं जब तक निर्ऋति-जनित तृष्णा१ से धन्व (मरुभूमि) को मुक्ति नहीं मिलती। इस तृष्णा को दूर करने के लिए, रुद्रपुत्र मरुतों द्वारा सत्य-रूप मेह बरसाया जाता है, तो विद्युत् ऐसा शब्द करती है कि मानो माता अपने वत्स को पुचकार  रही हो।२ निस्संदेह सत्य-मेह से सम्बद्ध यह विद्युत् सामान्य वर्षा ऋतु की दामिनी नहीं हो सकती। यहां विद्युत् से वही प्रकाश-तत्व अभिप्रेत हो सकता है जिसे "विद्युत सावित्री” (जैउ. ४.१२.१.९ ) कहा जाता है और जिसमें सत्य निहित ( शांआ.६.२ कौउ.४.२) माना जाता है। इसी विद्युत् को तैत्तिरीय आरण्यक आत्मा-रूप सूर्य में समाहित (तैआ.१.८.२) कहता है।

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१.तु.मो षु णः परापरा निर्ऋतिर्दुर्हणा वधीत्।

पदीष्ट तृष्णया सह।.I ऋ.१.३८.६

२.सत्यं त्वेषा अमवन्तो धन्वञ्चिदा रुद्रियासः। मिहं कृण्वंत्यवाताम्॥

वाश्रेव विद्युन्मिमाति वत्सं न माता सिषक्ति। यदेषां वृष्टिरसर्जि। ऋ.१.३८.७-८

 

धन्व में त्रित

इसी दृष्टि से गोपथ ब्राह्मण ने विद्युत् को सविता (गो.१.१.३३) और ब्रह्म कहा है -- विद्युत्ब्रह्मेत्याहुः । विदानाद् विद्युद् । विद्यत्येनं सर्वस्मात् पाप्मानो य एवं वेद विद्युद् ब्रह्मेति विद्युद्येव ब्रह्म । (माश १४.८.७.१) अतएव 'धन्व' नामक अन्तश्चेतना में जिस जल का अभाव है वह मनुष्य की उस अन्तश्चेतना (अन्तरिक्ष) का ही प्रतीक है जिसे निघण्टु की अन्तरिक्षनामों की सूची में 'आपः' कहा गया है और जिसमें विद्युत् नामक ज्योति अन्तर्हित मानी गई है।१ सामान्य जल से पृथक् करने के लिए उसे हम "दिव्य आपः' कह सकते हैं । अहंकार-रूप वृत्र इसी के दिव्य-प्रवाह को अवरुद्ध करके जीवात्मा को प्यास से आकुल कर देता है। ऐसे ही प्यासे जीवात्मा को एक आख्यान में "त्रित' नाम दिया गया है। वह आख्यान इस प्रकार है -

- आपः से एकत, द्वित और त्रित उत्पन्न हुए ।२ ये तीनों मरुभूमि और अरण्य में घूमते हुए प्यास से अत्यन्त व्याकुल हो गए। वे जल की खोज में घूमते हुए एक कूप के पास पहुंच गए। 

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१.तु.विद्युद्वाऽअपां ज्योतिः । माश ७.५.२.४९, तु.जै.१.२९२

२.तत (ताभ्योऽद्भ्यः सकाशात आप्त्याः सम्बभूवुस्त्रितो द्वित एकतः। माश.१.२.३.१

 

वहाँ "त्रितजल पीने के लिए कूप के भीतर चला गया। उसने स्वयं अपनी प्यास बुझाई और दोनों भाइयों को भी कुएं से जल निकाल कर दिया। उन दोनों ने जल पीने के पश्चात् त्रित को कुएं में ही ढकेल दिया, फिर वे त्रित का सारा धन लेकर और कुएं को रथचक्र से ढककर भाग निकले । कूप में पड़ा हुआ त्रित ऋ.१.१०५ में अपने उद्धार के लिए अनेक प्रकार से पुकार रहा है।

"त्रितकी सबसे बड़ी मांग उसी ज्योति की है जिसे ऊपर विद्युत् कहा गया है। अतः सूक्त का प्रथम मन्त्र ही "हिरण्यनेमयः विद्युतःको सम्बोधित है। मन्त्र इस प्रकार है -

चन्द्रमा अप्स्वन्तरा सुपर्णो धावते दिवि ।

न वो हिरण्यनेमयः पदं विन्दन्ति विद्युतो, वित्तं मे अस्य रोदसी।। (ऋ.१.१०५.१) अभिप्राय यह है कि अहंकार-ग्रस्त मनोमयकोश ही वह कूप है जिसमें पड़ा हुआ त्रित विद्युत् की सुनहरी लहरियों की झलक तो कभी-कभी पा जाता है, परन्तु उन लहरियों का जो परम-पद "दिव्य आपः' नामक अन्तश्चेतना में स्थित है उससे वह सर्वथा वंचित है। यह परमपद वस्तुतः उस ज्योति का है जिसे उक्त मन्त्र में सुपर्ण-चन्द्रमा कहा गया है। ऋग्वेद के दशम मण्डल में एक से लेकर सातवें सूक्त तक इसी ज्योति का वर्णन "त्रितअनेक प्रकार से करता है।

ऋग्वेद १०.४.१ में त्रित उस ज्योति को 'अग्ने प्रत्न राजन्”  कहकर संबोधित करता है और उसे मरुभूमि में स्थित प्रपा (प्याऊ) के समान स्पृहणीय मानता है। इसी सूक्त का उपसंहार करते हुए वह उसे जातवेद नाम से संबोधित करता है जिसे निम्न मन्त्र में निश्चित रूप से अग्नि,इन्द्र और सोम के एकीभूत रूप को अपने में आत्मसात् करने वाला कहा गया है -

अयं सो अग्निर्यस्मिन्त्सोममिन्द्रः सुतं दधे जठरे वावशानः।

सहस्रिणं वाजमत्यं न सप्तिं ससवान्त्सन्त्स्तूयसे  जातवेदः ।। ऋ.३.२२.१

यहां जिस अग्नि को जातवेदा कहकर सम्बोधित किया गया है वह एक ऐसे अन्य अग्नि को अपने में आत्मसात् किए हुए है जिसमें अभिषुत सोम को उदरस्थ किए हुए इन्द्र स्थित है। दूसरे शब्दों में, यहाँ अग्नि, इन्द्र और सोम एकीभूत हो रहे हैं और इस संयुक्त इकाई का सायुज्य जातवेदा के साथ हो रहा है। अतः डॉ० फतह सिंह का मत है कि यहां जातवेदा आत्मन्वी ब्रह्म (आत्मा से युक्त ब्रह्म) का द्योतक है, जब कि उससे सायुज्य-पाप्त संयुक्त इकाई आत्मा है जिसके ज्ञानपरक, क्रियापरक और आनन्दपरक पक्षों को क्रमशः अग्नि, इन्द्र तथा सोम माना जाता है। ब्रह्म से सायुज्य रखने के कारण ही अग्नि , इन्द्र और सोम में से प्रत्येक को "ब्रह्मन् ' कहकर भी संबोधित किया जा सकता है।२ यहां इस एकीभूत संयुक्त इकाई को ही अयं सोऽग्निकहकर सप्ति' नाम दिया गया है, क्योंकि अहंबुद्धि मन और पंचज्ञानेन्द्रियों के रूप में उसके सप्त आयाम हैं । इन्हीं सप्तविध चितियों (चेतनाओं) के सम्बन्ध से इसी अग्नि को सप्तचितिक३ भी कहा जाता है और उसकी समिधाओं, जिह्वाओं, धामों, ऋषियों, होत्राओं और योनियों की संख्या भी सात मानी जाती है।४

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१.डॉo फतहसिंह, भावी वेदभाष्य के संदर्भ-सूत्र; पृ० । ७-२२

२.ऋ.३.१३.६; ७.२९.२; ७.३३.११

३.माश.६.६.१.१४; ९.१.१.२६

४.सप्त ते अग्ने समिधः सप्त जिह्वाः (+सप्त ऋषयः सप्त धाम प्रियाणि) सप्त ऋत्विजः सप्तधा त्वा यजन्ति सप्त होत्रा ऋतुधा नु विद्वान्त्सप्त योनी रापृणस्व घृतेन । तैसं.१.५.३.२-३; मै.१.६.२; ३.३.९; काठ.७.१४; क.६.८; तै.३.११.९.९

 

यहां जिसे जातवेदा अग्नि कहा गया है वह व्यष्टिगत आत्मन्वी ब्रह्म होते हुए भी उस ब्रह्माण्डीय ब्रह्म का अंगभूत है जिसे ऋ.१०.५.१ में एक ऐसा बहुजन्मा समुद्र कहा गया है जो सभी आध्यात्मिक धनों का धारक हो कर हमारे सबके हृदयों को देखता है -

एको समुद्रो धरुणो रयीणामस्मद् हृदो भूरिजन्मा वि चष्टे।

सिषक्ति ऊधर्निण्योरुपस्थे उत्सस्य मध्ये निहितं पदं वेः ।। ऋ.१०.५.१

 यही वह उत्स है जिसमें आत्मा-रूप पक्षी का (वेः) पद निहित है और इसी में छिपा हुआ वह द्यावापृथिवी नामक स्तनयुग्म है जिसके उधस्१ का वह (आत्मा-रूप पक्षी) सेवन करता है। यही वह समान नीड है जिसमें सभी वर्षणशील प्राण (वृषणः महिषाः ) अपनी शक्तियों सहित (अर्वतीभिः) एकत्र होते हुए ऋतस्य पदं की रक्षा करते हैं तथा श्रेष्ठ नामों को गुहा में धारण करते हैं ।२ वही प्राण आत्मा-रूप कवि के ध्रुवात्मक विश्व के नाभितन्तु को मन द्वारा बुनते हैं, जबकि 'ऋतायनी मायिनी' द्यावापृथिवी (द्विविध चेतना) शिशु-रूप में उसका निर्माण करके उसे निरन्तर बढ़ाती हुई जन्म देती है।३

यह शिशु वस्तुतः सुब्रह्म से उत्पन्न आत्मा है। अतः इसको "सुजात' कहा जाता है। मनुष्य के भीतर जो ऋतप्रवर्तक इच्छाएं उत्पन्न होती हैं वे श्रेष्ठ द्युलोक (स्वर्ग ) के बल हेतु (वाजाय) इस "सुजात" का सेवन करती हैं -

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१.ऊधर्वा अन्तरिक्ष (द्यावापृथिव्याख्यो) स्तनावभितोऽनेन (पृथिवीरूपेण स्तनेन वा एष देवेभ्यो दुग्धेऽमुना (द्युलोकरूपेण स्तनेन) प्रजाभ्यः । तां २४.१.६

२.ऋ.१०.५.२

३.वही, १०.५.३

 

ऋतस्य वर्तनयः सुजातमिषो वाजाय प्रदिवः सचन्ते।

अधीवासं रोदसी वावसाने घृतैरन्नैर्वावृधाते मधूनाम्।। ऋ.१०.५.४

इस मन्त्र में रोदसी नाम से जिस द्यावापृथिवी नामक युग्म का उल्लेख है वे पूर्वोक्त वही छिपे हुए (निण्योः ) स्तनयुग्म हैं जिनके ऊधस् का सेवन करता हुआ आत्मा कहा गया था और जिन्हें द्यावापृथिवी कहा जा चुका है। अब यही युग्म उक्त सब आध्यात्मिक धनों के अधिवास-रूप समुद्र चेतना को आच्छादित करता हुआ सुखों के (मधूनाम्) घृतोपम भोगों से बढ़ने लगता है और उसका नाम रोदसी हो जाता है। रोदसी नाम का आधार मन-रूप प्रजापति का रोदन बताया जाता है।१ उसके रोने का कारण सम्भवतः यह है कि उसके द्वारा पूर्वोक्त ध्रुवा-ध्रुवात्मक विश्व के जिस नाभितन्तु का तानाबाना बुना जा रहा था उसके लिए अब आवश्यक सामग्री नहीं मिल पाती, क्योंकि इस रोदसी नामक युग्म ने दिव्य आपः के उक्त ब्राह्म-समुद्र-रूप अधिवास को आच्छादित करके वहां से आने वाले सभी आध्यात्मिक धनों से मन-रूप प्रजापति को वंचित कर दिया है।

अतः जीवात्मा के हित में यही है कि रोदसी उक्त दिव्य आपः को मन-प्रजापति तक स्वाभाविक रूप से आने दे। इसी दृष्टि से, वासना रहित आत्मा (विवस्वते मातरिश्वने) के लिए ब्रह्म-रूप प्रथम अग्नि आविर्भूत होकर रोदसी को कंपनशील करता है२ और

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१.यदरोदीत् तद् रोदस्योः रोदस्त्वम् तैब्रा.२.२.९.४

२.त्वमग्ने प्रथमो मातरिश्वने आविर्भव सुक्रतूया विवस्वते।

अरेजतां रोदसी होतृवूर्येऽसघ्नोर्भारमयजो महो वसो । ऋ.१.३१.३

 

इन्द्र रोदसी को भीतर से (विश्वतः ) सर्वत्र अपनी शक्ति द्वारा भोगता हुआ ब्रह्म-शक्तियों द्वारा आवरक दस्यु (वृत्र) का वध करता है अथवा आपः को उरुत्व प्रदान करता हुआ रोदसी का विस्तार करता है।२ इसी बात को दूसरे शब्दों में, इस प्रकार भी कहा जाता है कि इन्द्र का बल (शवस्) रोदसी को विशेष रूप से आहत करता (विवाधते) है। अथवा इन्द्र अपने धर्षक बल द्वारा रोदसी को प्रसाधित करता है।४ इस सबका उद्देश्य यह है कि ज्ञानपरक शक्तियों के विपरीत जाने वाला "वयुनंबाधित हो और रोदसी में अग्नि इतने व्यापक रूप से प्रविष्ट हो जाए कि द्यौ और पृथिवी की शक्ति के साथ अग्नि की सप्त जिह्वाएं व्यक्त होने लगें।५

दूसरे शब्दों में, द्विविध चेतना द्यावापृथिवी नाम से प्रायः देव-शक्तियों के जनक और पालक समझे जाते हैं वही अहंकार-रूप वृत्र से प्रभावित होकर अति संकीर्ण, संकुचित और अशक्त रोदसी हो जाते हैं। अतः उनको पुनः प्रसाधित, परिपूरित और सशक्त करके उर्वी, बृहती अथवा मही बनाने की आवश्यकता होती है। जिस आत्मा का अग्नि होता" बन जाता है, उसकी रोदसी ऋतावरी और उर्वी हो जाती हैं और वह प्रत्येक यज्ञ के संदर्भ में वर्धनशील होने लगता है।६ अतः प्रार्थना है कि दोनों को 'उरुव्यचसा महिनीबनाने

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१. ऋ.१.३३.९

२.वही, १.३६.८

३.वही, १.५१.१०

४.वही ,१.५४.२

५.वही, ३.६.२

६.स होता यस्य रोदसी चिदुर्वी यज्ञं यज्ञमभि वृधे गृणीतः । ऋ.३.६.१०

 

के लिए पिता (ब्रह्म) उन रोदसी को सर्वतः रूप-सम्पन्न बनाए जो अभी "सुधृष्टमे वपुष्ये' के समान हैं। एक अन्य मन्त्र में अगस्त्य ऋषि की इच्छा है कि वह ऐसी रोदसी का अनुभव करें जो अतप्यमाने देवपुत्रे' हों और जो दिव्य दिनों (अह्नाम् ) के दोनों रूपों से युक्त हों ।२ अन्यत्र महान् ज्ञानी अग्नि से प्रार्थना है कि वह रोदसी में देवों का आवहन करे ।३

जब तक रोदसी मही हो कर देवों की माताएँ द्यावापृथिवी नहीं बनतीं, तब तक जीवात्मा बहुत त्रस्त रहता है। ऐसा ही त्रस्त त्रित है जो १.१०५ के १९ मन्त्रों में न केवल अपनी व्यथा का वर्णन करता है अपितु बार-बार वित्तम् मे अस्य रोदसी' की टेक दुहराता हुआ रोदसी से मानो कहता है कि वे उसके कष्ट को जानें और उन्हें दूर करने के लिए उचित व्यवस्था करें । त्रित को उस "वृष्ण्यं पयः' अथवा रस की प्यास है जो वस्तुतः शांतिदायक सोमनामक ब्रह्म बल या ब्रह्मानन्द४ है। वह 'स्वःभी चाहता है क्योंकि स्वः सोम की विशेष देन है। वह "पूर्व्यं ऋतम्को खो चुका है और नहीं जानता कि कौन 'नूतनदेव उसे वह फिर देगा, क्योंकि तीन दैवी लोकों में जो देव हैं उनमें से पता नहीं कौन ऋत देता है, कौन अनृत को दूर करता है और कहां उनकी प्राचीन आहुति चली गई।६

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१.उरुव्यचसा महिनी असश्चता,पिता माता च भुवनानि रक्षतः ।

सुधृष्टमे वपुष्येन रोदसी पिता यत्सीमभि रूपैरवासयत् ।। ऋ..१६०.२

२.ऋ.१.१८५.४

३.ऋ.३.६.९

४.ऋ.१.१०५.२-३, तु.९.१९.१७; ३१.४; ६४.२

५.ऋ.९.४.२; ७.६ इत्यादि

६.ऋ.१.१०५.४-५

 

त्रित को ऋत के आधार की याद आती है और वह वरुण की दृष्टि तथा अर्यमा के पथ का स्मरण करता है।१

यह सब सोचते हुए, उसे प्रतीत होता है कि यह सब सोचने कहने वाला तो यह वही पुराना त्रित है, परन्तु आज तो उसे व्यथाएं वैसे ही सताती हैं जैसे प्यासे मृग को भेड़िया व्यथित करता है।२ अब तो उसकी अहंबुद्धि, मन और पंचज्ञानेन्द्रियों की सप्त चेतनारश्मियां फैली हुई हैं, और उसकी चेतना का केन्द्रबिन्दु (नाभि) बिखर चुका है, लेकिन इस सबको तो वह पूर्व त्रित आप्त्य" ही जानता है जिससे सम्बन्ध जोड़ने के लिए (जामित्वाय) वह आज चिल्ला रहा है।३ यह सोचते ही उसे विचार आता है दैवी त्रिलोकी के मध्य रहने वाली उन अतिमानसिक रश्मियों (सुपर्ण) का जो वहां के महान् दिव्य आपः को पार करने के लिए प्रयत्नशील भेड़िए

(अहंकार-रूप-वृत्र ) को रोक देती हैं।४ इसी बीच उसे स्मृति आती है कि मानसिक स्तर पर भी सप्त-सिंधवः ऋत को प्रवाहित कर सकती है, सूर्य सत्य का विस्तार कर सकता है और अग्नि का देवों में जो प्रशंसनीय "आप्यं” (भाईचारा) है उसके कारण वह भी इस स्तर पर देवों को मनु के समान सक्रिय कर सकता है।५

इस ओर ध्यान जाते ही त्रित को अग्नि के 'गातुविद्’ (मार्गवेत्ता) वरुण रूप की याद आती है और साथ ही प्रसिद्ध देवयान

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१.ऋ.१.१०५.५-६

२.वही, १.१०५.७

३.त्रितस्तद्वेदाप्त्यः सः जामित्वाय रेभति  ऋ.१.१०५.९

४.वही, १.१०५.११

५. वही, १.१०५.२३

 

मार्ग की भी जिसे उस आदित्य ने बनाया और जिसे मनुष्य नहीं देख पाते।१ अन्त में त्रित के आह्वान को अग्नि के उस बृहस्पति रूप ने सुना, जिसने बृहती बुद्धि का स्वामी होने से त्रित को पाप से निकालकर उरुता प्रदान की अर्थात् उस पथ का पथिक बना दिया जिस पर चलते हुए उसे ब्रह्म-रूप अरुण (चन्द्रमा) ने देखा तो कह दिया "मा सकृद् वृकः” (भेड़िया एक बार भी न देखे), जिसे जानकर वह वृक त्रित को वैसे ही छोड़कर चला गया जैसे कोई तक्षक (बढ़ई)  पृष्ठरोगी होने से अपना काम त्याग देता है।२

त्रित का उद्धार

इस प्रकार के उद्धार का तात्पर्य उक्त अरुण (चन्द्रमा) ज्योति का दर्शन है जो बृहती -पति अग्नि (बृहस्पति) के अनुग्रह से उरुताप्राप्ति करने में निहित है। इस उरुता-प्राप्ति का अर्थ क्या उस रथचक्र को हटाना हो सकता है जिसके द्वारा त्रित के भाइयों ने इस कूप  में बंद किया था? इस रथचक्र के हटने का तात्पर्य है एक ऐसे "अचक्र नव रथका निर्माण जो मन द्वारा निर्मित होकर भीतर ही भीतर (विश्वतः) प्रकृष्ट गति करता है -

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१.ऋ.१.१०५.१६

२.त्रितः कूपेऽविहितो देवान्हवते ऊतये ।

तच्छुश्राव बृहस्पतिः कृण्वन्नंहूरणात् उरु वित्तं मे अस्य रोदसी

अरुणो मा सकृद्वृकः  पथा यन्तं ददर्श हि ।

उज्जिहीते निचाय्या तष्टेव पृष्ठ्यामयी वित्तं मे अस्य रोदसी।।

ऋ.१.१०५.१७-१८

 

यं कुमार नवं रथमचक्रं मनसा कृणोः ।

एकेषं विश्वतः प्राञ्चमपश्यन् अधि तिष्ठसि।। ऋ.१०.१३५.३

यहां अपश्यन्पद द्रष्टा और दृश्य के उस अभेद का वाचक है। इसी को अचक्र नामक रथ मन की अन्तर्मुखी एकाग्रता कह सकते हैं। इसी ओर मन्त्र में "एकेषंपद संकेत करता है। इस एकाग्रता का परिणाम है वह 'साम' जो उस आन्तरिक एकाग्रता को योग-रूप नौका में समाहित कर देता है, जैसा कि निम्न मन्त्र में कहा गया है-

यं कुमार प्रावर्तयो रथं विप्रेभ्यस्परि ।

तं सामान प्रावर्तयत समितो नाव्या हितम् ।।ऋ.१०.१३५.४

यह योग-रूप आन्तरिक अचक्र गति को सेन्द्रिय मन की बाह्य गति में परिणत करना ही पूर्वोक्त आख्यान में रथचक्र द्वारा त्रित को कूप में बंद करना है। दूसरे शब्दों में, इसी अचक्र आन्तरिक शान्त आरोहण को बहिर्मुखी सचक्र रथ दौड़ में परिणत करना है। यही जीवात्मा-रूप त्रित की समस्त पीड़ा का मूल था। यही था वह दैत्य जिसके रहते हुए, उसकी व्यथा का अन्त नहीं होना था।

इसी विचार को अभिव्यक्ति देने के लिए, एक षडक्ष त्रिशिरा की कल्पना त्रित के शत्रु-रूप में की गई।१ इसके तीन शिरों को सोमपान, सुरापान और अन्नादन कहा गया है। ये क्रमशः सात्विक, तामसिक तथा राजसिक कार्य हैं । अतः इन्हें क्रमशः सत्व, तमः एवं रजः नामक गुणों का प्रतीक मान सकते हैं और इन तीनों गुणों से युक्त अहंकार को ही त्रिशिरा कह सकते हैं । सेन्द्रिय मन ही इसकी वे छह आंखें हैं

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१.ऋ.१०.९९.६; जैब्रा.२.१५३

 

जिनके द्वारा यह बहिर्मुखी दृष्टि वाला षडक्ष त्रिशीर्ष हो जाता है। सेन्द्रिय मन की चेतना-धाराओं के साथ अहंकार-चेतना को सम्मिलित करके इसी को एक मन्त्र में सप्तरश्मि१ भी कहा गया है। त्रित नामक जीवात्मा जब तक इस दैत्य की आंखों से देखता है तब तक उसे रथ-चक्र से आवृत कूप में ही पड़ा कहा जाएगा। तब तक वह मन द्वारा उस अतिमानसिक अचक्र रथ का निमाण नहीं कर सकता जिसका उल्लेख करते हुए उस पर अधिष्ठित जीवात्मा को अपश्यन्' अर्थात् सेन्द्रिय मन-रूप आंखों के प्रयोग को त्यागने वाला कहा गया है। अतः षडक्ष त्रिशिरा के वध का अर्थ है त्रित द्वारा सेन्द्रिय मन की सचक्र गति को त्यागकर अचक्र रथ पर बैठने के लिए मनोमय कोशरूप कूप से बाहर निकलकर और मन को ऊर्ध्वमुख करके अतिमानसिक उड़ान भरना ।

इस उड़ान भरने में, त्रिशिरा ने जो सबसे बड़ी बाधा उपस्थित की वह स्वयं उसी त्रिशिरा के "वराह' नाम से व्यक्त हो रही है। इस नाम का प्रयोग निम्नलिखित मंत्र में हुआ है-

स इद्दासं तुवीरथम् पतिः दन् षडक्षं त्रिशीर्षाणं दमन्यत्।

अस्य त्रितो न्वोजसा वृधानो विपा वराहमयो अग्रया हन्।। ऋ.१०.९९.६

"वराह' शब्द की व्याख्या करते हुए, मैत्रायणी संहिता कहती है देवी गायों के 'वरम्’  (पयः) को नष्ट करने के कारण त्रिशिरा का  नाम 'वराह हुआ था।२ अन्यत्र इसे पाशव मन्यु का प्रतीक माना

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१.ऋ.१०.८.८

२.तेऽब्रुवन् यदा आसां वरम् (पयः ) अभूत् तदहास्तेति तद् वराहः ।  मैसं.१.६ ३

 

गया है।१ दूसरे शब्दों में, षडक्ष त्रिशिरा देवी चेतनाओं-रूप गायों के किसी श्रेष्ठ अंश को नष्ट करने वाला कोई आसुरी तत्व है जिसके रहते जीवात्मा (त्रित ) का उद्धार सम्भव नहीं। इसीलिए मन्त्र में कहा है कि त्रित ने इन्द्र के ओज द्वारा प्रवृद्ध होकर अग्रगामी प्रज्ञा (विपा) द्वारा वराह का वध किया।

इस शत्रु के वध के लिए, त्रित को अग्नि के अनुग्रह का बल भी मिला कहा जाता है। यह बात स्वयं त्रिशिरा अपने सूक्त (ऋ.१०.८) में बतलाता है। अपने बृहत केतु के साथ अग्नि रोदसी युग्म के प्रति गर्जन करता है और आपः के उपस्थ में प्रवृद्ध होता (मं.१) है। वह देव विस्तार यज्ञ में ऊर्ध्वगामी प्रयत्न करता है (मं.२) और द्यावापृथिवी के मूर्धा को आरब्ध करके अध्वर में प्रकाशसमुद्र( सूरः अर्णः ) स्थापित करता (म.३) है, मित्र को जन्म (मं४) देता है। आगे जातवेदा को सम्बोधित करते हुए त्रिशिरा कहता है कि तुम्हीं चक्षु बने, तुम्हीं "ऋतस्य गोपा' हुए, तुम्हीं वरुण, अपां नपात् (मं.५) हुए और तुम्हीं ने स्वर्ग में मूर्धन्य हव्यवाह" को स्थापित क्यिा (मं.६) जिसके क्रतु द्वारा त्रित ने अपने पर पिताके रक्षणों से युक्त होकर अन्तस् में धीति' को वरण किया और अब आयुधों की कामना (मं.७) करता है तथा पित्र्य आयुधों को प्राप्त करके, इन्द्र-प्रेरित त्रित आप्त्य युद्ध में त्वष्टापुत्र त्रिशिरा को मारकर उसकी गायों को बाहर निकालता है-

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१.पशूनां वा एष मन्युः यद् वराहः तैब्रा १.७.९.४

 

स पित्र्यायुधानि विद्वानिन्द्रेषित आप्त्यो अभ्ययुध्यत् ।

त्रिशीर्षाणं सप्तरश्मिं जघन्वान् त्वाष्ट्रस्य चिन्निः ससृजे त्रितो गाः।। ऋ.१०.८.८

इस अटपटी शब्दावली से इतना तो स्पष्ट ही है कि त्रित जातवेदा अग्नि के अनुग्रह से पुनः "आप्त्य' हो कर अपने पित्र्य आयुधों को पाकर ही त्रिशिरा का वध करके गायों को पाने में समर्थ हुआ। यहां यह भी कहा गया कि त्रित इन्द्र-प्रेरित होकर इस युद्ध में पहुंचा। साथ ही यह सब हुआ तब जब पहले त्रित ने "पर पिताब्रह्म के संरक्षण में आन्तरिक "धीतिका वरण क्यिा अर्थात् ध्यानयोग का अभ्यास किया। इस अभ्यास का प्रारम्भ रोदसी नामक चेतना-युग्म के स्तर से प्रारम्भ होकर ,द्यावापृथिवी के मूर्धा को आरब्ध करने, अध्वर में अर्णव लाने, मित्र, वरुण और मूर्धन्य "हव्यवाह" की स्थापना के बाद त्रित को पैत्रिक आयुध प्राप्त कराके युद्ध जीतने में सफलता प्रदान करता है। इस सारे कार्य में,जातवेदा अग्नि की भूमिका प्रमुख है।

रोदसी से रजः तक

इस भूमिका का एक वर्णन ऋ.१०.१ से लेकर ऋ.१०.८ तक भली भांति देखा जा सकता है। इस प्रसंग में, सर्वप्रथम अग्नि को हम रोदसी-युग्म के गर्भ-रूप में पाते हैं जो अभी जन्म लेकर चारु और चित्र शिशु ही है -

स जातो गर्भो असि रोदस्योरग्ने चारुर्विभृत ओषधीषु।

चित्रः शिशुः परि तमांसि अक्तून् प्र मातृभ्यो अधि कनिक्रद्गाः।। ऋ.१०.१.२

यद्यपि अंधकार के परितः यह भी छा जाता है, परन्तु त्रित (तृतीयं) की रक्षा करने में वह तभी समर्थ होता है जब वह उसके परम रूप (परमं) को जानता हुआ व्यापक (विष्णु) रूप में जन्म लेकर अपने मुख से अपने पयः (स्वं पयः ) को निकालता हुआ सचेतसों (ज्ञानियों) द्वारा अर्चित होता है। यदि पयः का समीकरण२ सोम के साथ स्वीकार कर लिया जाए, तो कहना पड़ेंगा कि अग्नि का यह व्यापक अथवा विष्णु रूप अपने में से ब्रह्मानन्द-रूप सोम को प्रकट करने में समर्थ होकर ही त्रित का रक्षक हो पाता है।

इसका निष्कर्ष है कि रोदसी नामक द्यावापृथिवी-युग्म के स्तर पर अग्नि सर्वथा अविकसित और अक्षम होता है। इसी ओर संकेत करनेवाले कुछ और भी मन्त्र हैं। रोदसी के भीतर अव्रती और अयज्वा शक्तियों का निवास हो सकता है।३ इन्द्र जब रोदसी-युग्म को अपने बल द्वारा इन शक्तियों से रिक्त करता है, तब कहीं उन दोनों के बीच पूर्वी उषाओं का आरोहण होता है। वैश्वानर अग्नि रोदसीयुग्म के वरम्को प्रकट करके इन दोनों की गोद में बैठता है।५ जब कोई मनुष्य "अध्वर" नामक आध्यात्मिक यज्ञ में अग्निदेव की स्तुति करता है तब वह सत्ययजं होतारं' को प्राप्त करने में समर्थ होता है।६ रोदसीयुग्म में जब कहीं सुमति की अभिव्यक्ति होती है तभी व्यक्ति

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१.ऋ.१०.१.३

२.एतत् सोमस्य यत् पयः (तैसं.२.५.२.७) तं सोममेव प्रत्यक्षं भक्षयन्ति

यत्पयः (जैब्रा.१.३५५)

३.तु.प्र यद् दिवो हरिवः स्थातरुग्र निरव्रताँ अधमो रोदस्योः ऋ.१.३३.५

४.ऋ.६.२४.३

५.ऋ.७.६.६

६.ऋ.६.१६.४६

 

द्वेषों, पापों और दुरितों को पार करने में समर्थ होता है।१ वास्तव में रोदसीयुग्म का मुख्य प्रेरक और जनिता सोम है जो इन्द्र के पास जाता हुआ तथा आयुधों को तीक्ष्ण करता हुआ रोदसी-रूप हाथों में विश्व-वसुओं को स्थापित करता है।२

इसलिए सोम द्वारा रोदसी का जो कायापलट होता है उसको बतलाने वाले बहुत से मन्त्र नवम मण्डल में पाए जाते हैं । जब शुचि सोम अपनी शुक्र ज्योति से चमकता है तो रोदसी माताओं को आलोकित कर देता है।३ सोम द्युलोक का धारक-स्तम्भ तथा फैला हुआ आपूरक- अंशु है जो विश्वतः परिभ्रमण करता है, तो ये दोनों मही रोदसीहो जाती हैं जिन्हें सोम कभी धारण करता है।४ मति रूप अद्रियों से अभिषुत शुचि-सोम रोदसी माताओं को प्रदीप्त कर देता है और वह प्रतिदिन मधु धाराओं को वर्धमान करता हुआ दौड़ता रहता है।५ यह सोम ही पूषा, रयि और भग है जो पवित्र करता हुआ विश्व का स्वामी होकर उभे रोदसी" को आलोकित कर देता है। "उभे रोदसीके भीतर छिपा हुआ सोम जब हर्षित होता है तो वह अपने बल से सभी दुर्मतियों को नष्ट कर देता है।७ यह विचर्षण सोम मही रोदसी" को अपनी रश्मियों से उसी प्रकार भर

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1.    ऋ.६.२.११; १४.६

2.    वही.९.९०.२

3.    वही, ९.८५.१२

4.    वही, ९.७४.२

5.    वही, ९.७५.४

6.    वही, ९.१०१.७

7.    वही, ९.७०.५

 

 

देता है जैसे सूर्य उषा को अपनी रश्मियों से भर देता है।१

जब सोम को अदिति के अन्वेषणीय पयः तथा एक उरु एवं सुयम गातु के समान ले जाने वाला कहा जाता है२, तो उसे अदिति का वही निष्पाप, स्वर्वत् तथा अवध धन माना जा सकता है जिसे जन्म देकर रोदसी न केवल स्वयं देवपुत्रा बनती है अपितु सुसंगत युवती बहनें होकर अपने पितृद्वय की गोद में बैठकर भुवन की नाभि को सूंघने में समर्थ होती हैं।३ इसका अर्थ है कि सोम को जन्म देकर रोदसी का जो रूपान्तर होता है उसके फलस्वरूप वे उस द्यावापृथिवी-युग्म से भी संयुक्त हो जाती हैं जिन दोनों से रोदसी का उद्भव माना जा सकता है। साथ ही अपने पितृद्वय से संयुक्त होकर वे दोनों जिस भुवन नाभिको सूंघती हुई कही जाती हैं और जिसको ऋग्वेद में अन्यत्र एक यज्ञ विशेष कहा गया है४ वह वही आध्यात्मिक अमृत सोम यज्ञ है जिसको धारण करने वाली द्यावापृथिवी को देवों की जनित्री कहा जाता है और उर्वी, सद्मनी, बृहती तथा सुप्रतीके जैसे विशेषणों से अलंकृत किया जाता है।५

इस प्रकार, रोदसी को जहां मनुष्य-व्यक्तित्व के मर्त्यस्तर का चेतना-युग्म कहना होगा वहां उनके पितृयुग्म कहे जाने वाले युग्म को अमर्त्य स्तर का मानना पड़ेगा। यही दोनों युग्म संयुक्त हो कर

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1.    ऋ.९.४१.५

2.    वही, ९.९६.१५

3.    वही, १.१८५.३-५

4.    अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः। ऋ.१.१६४.३५

5.    वही, १.१८५.६-७

 

इस सोम-यज्ञ में दूरे अन्ते" उर्वी, पृथ्वी और बहुले कहे गए हैं।१ यही "दूरेअन्ते" नामधारी दोनों युग्म विशेषरूपेण युक्त होकर, समान्या और जागरूक युवती बहनें कही जाती हैं जो ध्रुवपद में स्थित होती हैं -

समान्या वियुते दूरेअन्ते ध्रुवे पदे तस्थतुर्जागरूके ।

उत स्वसारा युवती भवन्ती आत् ॐ ब्रुवति मिथुनानि नाम।। ऋ.३.५४.७

इस मन्त्र में, ध्रुव पद विशेषरूप से ध्यातव्य है जहां से ॐ मिथुननामों को अभिव्यक्ति देता है। इन्हीं मिथुननामों के लिए अगले मन्त्र में "जनिमा" शब्द का प्रयोग करते हुए बताया गया है कि इनके उद्भव का कारण एकं ध्रुवं विश्वं" का गतिशील हो कर नानात्व ग्रहण करना है।२ यह एकं ध्रुवं विश्वम्पूर्वोक्त ध्रुवपद ही प्रतीत होता है जिसमें दूरेअन्ते जागरूक कहे गए हैं । यही वह ध्रुवपद हमें अश्विनौ के ऋ.१.२२ में मिलता है जहां द्यावापृथिवी के 'घृतवत् पयः " को विप्र लोग अपनी ध्यानक्रियाओं द्वारा (धीतिभिः ) चाट सकते हैं -

तयोरिद् घृतवत् पयो विप्रा रिहन्ति धीतिभिः। गन्धर्वस्य ध्रुवे पदे। ऋ.१.२२.१४

इस ध्रुवपद से संबद्ध गन्धर्व निस्संदेह विष्णु हैं जिसके परमपद के रूप में ध्रुवपद का सूक्त में पुनः दो बार (मं.२०-२१ ) उल्लेख हुआ है। इस

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१.उर्वी पृथ्वी बहुले दूरेअन्ते उप ब्रुवे नमसा यज्ञे अस्मिन्।

दधाते ये सुभगे सुपतूर्ती द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात्।। ऋ.१.१८५.७

२.ऋ.३.५४.८

 

परम पद को द्यौ में फैले हुए चक्षु के समान कहा गया है जिसे देखने की सामर्थ्य सूरियों में है१ जिन्हें पूर्वोक्त विप्र माना जा सकता है। वही पुनः इस परम पद को समिद्ध करने वाले "विप्रासः विपन्यवः" जागृवांसः" कहे गए हैं ।२

पहले हम देख चुके हैं कि त्रित का उद्धार करने में अग्नि तभी सफल होता है जब वह विष्णु बन जाता है। इसी प्रकार रोदसी को इस प्रसंग में "मही' होना पड़ता है। तदनुसार,यहां भी मन्त्र १३ में मही द्यावापृथिवी को इस यज्ञ का सिंचन करने को कहा जाता है और पुनः एक "स्योना पृथिवीसे "निवेशिनीहोने तथा हमें विस्तृत शर्म प्रदान करने को (मं.१५) कहा जाता है। सम्भवतः यह पृथिवी अन्तरिक्ष-वाचक है। अतः उक्त वर्णन में द्यावापृथिवी के एकाकार होकर अन्तरिक्षरूप ग्रहण करने का उल्लेख देखा जा सकता है जहां से होने वाले विष्णु के विक्रमण के साथ-साथ पृथिवी के सात धामों का भी नाम लिया गया है -

अतो देवा अवन्ति नो यतो विष्णुर्विचक्रमे ।

पृथिव्याः सप्त धामभिः ।। ऋ.१.२२.१७

यद्यपि यहां विष्णु को हमने अग्नि का रूपान्तर पाया, परन्तु यहां जिस यज्ञ का सिंचन करने को मही द्यावापृथिवी आहूत की गई वह वस्तुतः सोम-यज्ञ है। इसी लिए सूक्त के प्रारम्भ में ही अश्विनौ को सोमपान के लिए (मं.१) सोमी के गृह में (म.४) आमंत्रित

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१.तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यंति सूरयः।

दिवीव चक्षुरा ततम्।। ऋ.१.२२.२०

२.तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते ।

विष्णोर्यत् परमं पदम् ।। ऋ.१.२२.२१

 

किया गया है। इस प्रकार उक्त ध्रुवपद अथवा परम पद से सोम और विष्णु (अग्नि) दोनों जुड़ जाते हैं। इसीलिए अन्यत्र विष्णु के परम पद में मधु का उत्स माना गया है।१ साथ ही विष्णु को प्रस्तुत प्रसंग में 'इन्द्रस्य युज्यः सखा' कहकर, ध्रुवपद से इन्द्र को भी जोड़ दिया है। यह बात डTo फतह सिंह के उस पूर्वोक्त मत के अनुरूप है जिसमें सोम, अग्नि तथा इन्द्र को क्रमशः आनन्दपरक, ज्ञानपरक और क्रियापरक पक्ष माना जाता है। अतः उक्त ध्रुवपद का गन्धर्व अथवा परम पद का विष्णु स्वयं आत्मा का ही वह रूप है जिससे युक्त होकर ब्रह्मवेत्ताओं का वेद्य ब्रह्म हिरण्ययकोश के ज्योतिर्मण्डित स्वर्ग में विराजमान बताया जाता है।२

अतः जब उक्त ध्रुवपद में विप्रों को घृतवत् पयः " धीतियों द्वारा चाटते हुए कहा जाता है, तो उससे ब्रह्मानन्द रस रूप सोम ही अभिप्रेत समझना चाहिए। इसीलिए, इस प्रसंग में जिस यज्ञ अथवा सोम-यज्ञ का उल्लेख हुआ है उसे पूर्वोक्त आन्तरिक सोम-यज्ञ, अध्वर पर्जन्यवृष्टि अथवा धर्ममेघसमाधि ही समझना चाहिए। प्रस्तुत ध्रुवपद के प्रसंग में अश्विनौ से जिस मधुमती कशाद्वारा यज्ञ-सिंचन करने के लिए प्रार्थना की गई है।३ उस पर भी विचार करते हैं, तो भी हमें ज्ञात होता है कि मधुकशा का हृदय-कलश वस्तुतः एक 'अक्षित सोमधानहै जिसमें आनन्द लेने का सामर्थ्य उसी "ब्रह्मा सुमेधा में

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१.विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः । ऋ.१.१५४.४

२.शौ.अ.१०.२.३२-३३

३.या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती

तया यज्ञं मिमिक्षतम् । ऋ.१.२२.३

 

है जो इस रहस्यमय कलश को जानता है।१ मधुकशा के दो सहस्रधारा वाले अक्षित स्तन हैं -

स तौ प्र वेद स उ तौ चिकेत यो अस्याः स्तनौ सहस्रधारौ।

अक्षितौ उर्जं दुहाते अनपस्फुरन्तौ॥ अथर्व ९.१.

इस मधुकशा की तुलना उस अन्तरिक्ष रूप ऊधस् से कर सकते हैं जिसके स्तनद्वय में से एक द्वारा देवों को और द्वितीय द्वारा प्रजाओं को दूध मिलता है।२ इनमें से प्रथम द्यावा नामक अन्तर्मुखी चेतना-प्रवाह है और दूसरा पृथिवी नामक बहिर्मुखी चेतना प्रवाह है ।

इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि जब मधुकशा के जन्म का प्रसंग आता है तो उसे सर्वप्रथम द्यौ, पृथिवी और अन्तरिक्ष से जन्मा बताया जाता है-

दिवस्पृथिव्या अन्तरिक्षात् समुद्रात् अग्नेर्वातात् मधुकशा हि जज्ञे।

तां चायित्वामृतं वसानां हृद्भिः प्रजाः प्रति नन्दन्ति सर्वाः ।। शौअ.९.१.१

अन्तरिक्ष के पश्चात् जब समुद्र अग्नि और वात को उसका जनक बताया जाता है, तो उसका तात्पर्य यही हो सकता है कि प्रथम त्रिकुटी की अपेक्षा ये तीनों मधुकशा के किसी ऊर्ध्वस्तरीय जन्म की ओर संकेत करते हैं। जिस प्रकार रोदसी द्यावापृथिवी की अपेक्षा मही द्यावापृथिवी चेतना का उच्चतर स्तर अभिप्रेत होता है, उसी प्रकार इस प्रसंग में

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१.कस्तं वेद क उ तं चिकेत यो अस्या हृदः कलशः सोमधानो अक्षितः।

ब्रह्मा सुमेधाः सो अस्मिन् मदेत। अथ.९.१.६

२.ऊधर्वा अन्तरिक्षम् स्तनावभितोऽनेन वा एष देवेभ्यो दुग्धेऽमुना प्रजाभ्यः । तां.२४.१.६

 

अन्तरिक्ष की अपेक्षा "समुद्र उरु अन्तरिक्षनामक उच्चतर अन्तश्चेतना का प्रतीक है और इस समुद्र-रूप उधस् के स्तनद्वय के प्रतीक नाम अग्नि और वात हैं । इनसे जन्मी मधुकशा को अमृतधारिणी कहकर सभी प्रजाओं को उससे हार्दिक आनन्द प्राप्त कराने वाले कहकर स्पष्ट कर दिया गया है१ कि मधुकशा निस्संदेह हमारी अन्तश्चेतना की एक धारा अथवा शक्ति है जिसे अन्तर्हित प्राण अथवा अमृत भी कहा जा सकता है और उसके महत् पयः' को समुद्र का रेतस् भी।२ मधुकशा की तुलना उस मधुमान ऊर्मि से भी कर सकते हैं जो ऋ.४.५८ १ में समुद्र से उठती हुई कही गई है -

समुद्रादूर्मिर्मधुमाँ उदारदुपांशुना सममृतत्वमानट् ।

घृतस्य नाम गुह्यं यदस्ति जिह्वा देवानाममृतस्य नाभिः।।

जैसा कि इस मन्त्र से स्पष्ट है कि यह मधुमान ऊर्मि घृतस्य नाम गुह्यंतथा अमृतस्य नाभिः' कही गई है। मधुकशा भी "अमृतस्य नाभिः' होने के साथ-साथं घृताची भी कही जाती है और उसे मर्त्यों में विचरण करने वाला एक महत् भर्ग (तेजस् ) भी माना गया है-

अग्नेर्वातान्मधुकशा हि जज्ञे मरुतामुग्रा नप्तिः ,

मातादित्यानां दुहिता वसूनां प्राणः प्रजानाममृतस्य नाभिः,

हिरण्यवर्णा मधुकशा घृताची महान्गर्भश्चरति मर्त्येषु।। शौ.अथ.९.१.३-४

मधुकशा और मधुमान् ऊर्मि में से दोनों की अवधारणा का घनिष्ठ सम्बन्ध घृत और अमृत से यहां पूर्णतया स्पष्ट है। मधुमान ऊर्मि को जिस समुद्र से उठता हुआ कहा जाता है उसे स्पष्ट रूप से हृद्य-समुद्र

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१. तां चायित्वामृतं वसानां हृद्भिः प्रजाः प्रति नन्दन्ति सर्वाः। अथ.९.१.१

२.महत्पयो विश्वरूपमस्याः समुद्रस्य त्वोत रेत आहुः। शौ.९.१.२

 

कहा गया है। उसी आन्तरिक समुद्र को यहां मधुकशा के सम्बन्ध में भी माना जा सकता है।

इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण हमें तब मिलता है जब हम मधुकशा को मरुतों, आदित्यों और वसुओं से जुड़ा हुआ पाते हैं क्योंकि ये तीनों देवगण निस्संदेह आन्तरिक प्राण माने गए हैं । मरुतः आपः हैं१ और आपः प्राण हैं।२ मधुकशा भी उपर्युक्त उद्धरण में "प्राणः प्रजानाम्कही गई है। आदित्य भी एक प्रकार के प्राण ही हैं और यही बात वसुओं के विषय में भी सुप्रसिद्ध है।४ सभी प्राणों का संघात होने से पुरुष अथवा मनुष्य-व्यक्तित्व ही उन प्राणों का समुद्र है जिन्हें आपः कहा जाता है। पुरुष जहां अपने सब प्राणों का मूलाधार होने के कारण समुद्र अथवा योनि समुद्र कहा जाता है६, वहीं वह अपने प्रत्येक पक्ष की दृष्टि से भी समुद्र हो सकता है। अतः आनन्दपरक पक्ष में वह सोम समुद्र है७ ,तो ज्ञानपरक पक्ष में वही अग्नि८ तथा क्रियापरक पक्ष में वात९ कहा जा सकता है। इसलिए, जब मधुकशा

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१.आपो वै मरुतः ऐ.६.३०; कौ.१ २.८; माशं ६.४.१.९

२.आपो वै प्राणाः काश.४.८.२.२; माश.३.८.२.४; जैउ.३.१०.१; तैआ १.२६.५

३.प्राणा वा आदित्याः जैउ.४.२.१.९ तु.तां.१६.१३.२

४.प्राणाः वै वसवः तै.३.२.३.३; ५.२; जैउ.४.२.१.३

५.पुरुषो वै समुद्रः जैउ.३.६.७.५

६.तदयत् समुद्द्रवन्ति तस्मात् उच्यते गो१.१.७, योनिः समुद्रः मैसं.३.२.५ ७.तैसं.४.४.९.२

८.आत्मैव अग्निः माश ६.७.१.२०; १०.१.२-४

९.तु.वातः प्राणस्तदयमात्मा काठ. ७.१४; क.६.४; ७.३.१.२

 

को ऊपर अग्नि और वात से उत्पन्न होने के साथ-साथ मरुतों, आदित्यों और वसुओं जैसे प्राणों से भी संबद्ध बताया गया, तो अभिप्राय यही है कि मधुकशा एक ऐसा प्रकाश है जो सभी आन्तरिक तत्वों से उसी प्रकार संबद्ध है जिस प्रकार आकाश।

मधुकशा तथा आकाश

संयोगवश मधुकशा और आकाश में वही धातु प्रतीत होती है जो प्रकाश में है। यद्यपि धातु-पाठ के अनुसार, कश धातु गत्यर्थक है और काशृ दीप्त्यर्थक है, परन्तु वेद में ये दोनों समानार्थक प्रतीत होती हैं । अतः जब उष्णता और प्रकाश देने वाली किरणों को क्रमशः उष्ट्र तथा गो कहकर सूर्य को "कशुः१ नाम दिया गया, तो जिस कश धातु से इस नाम को निष्पन्न माना जाएगा, वह उसी प्रकार दीप्ति बोधक होगी, जिस प्रकार वह काशृ धातु जिससे निष्पन्न "काशि" शब्द को सायण ने ठीक ही प्रकाश अर्थ में ग्रहण किया है।२ इसी धातु से निष्पन्न प्रकाश शब्द ऋग्वेद में उस ज्योति का बोधक प्रतीत होता है जो वृत्र-वध के पश्चात् प्रकट होती है और जिसे स्वः, वामम् तथा उरु अन्तरिक्षम् भी कहा गया है।३

यहां जिसको "उरु अन्तरिक्षकहा गया है उसी को शतपथ ब्राह्मण वह आकाश बताता है जो सब भूतों का मधु है और जिसके मधु सभी भूत हैं तथा इस आकाश में वह तेजोमय अमृतमय पुरुष है जो

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१.ऋ.८.५.३७

२.ऋ.३.३०.५

३.इदं स्वरिदमिदास वाममयं प्रकाश उर्वन्तरिक्षम् ।-ऋ.१०.१२४.६

 

अमृत-ब्रह्म भी कहलाता है। तो क्या यही मधुकशा की अवधारणा का आधार नहीं हो सकता? इसे मूर्त और अमूर्त रूप से द्विविध भी कहा गया है। जो प्राण अथवा अन्तरात्मा से भिन्न प्रकाश है, वह मूर्त है और जो प्राण-रूप अन्तरात्मा में आकाश है वह अमृतमय है और यही सत्य तथा अमूर्त आकाश है।१ यह आकाश जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, मनुष्य-व्यक्तित्व के विभिन्न स्तरों पर, विभिन्न रूप में विद्यमान रहता है और इसीलिए आनन्दमय, विज्ञानमय, मनोमय, प्राणमय और अन्नमय नामक पांचों स्तरों पर इसको उपस्थित माना जा सकता है। इसी दृष्टि से शतपथब्राह्मण और छान्दोग्योपनिषद् के शाण्डिल्यविद्या प्रकरण में आनन्दमय कोश के हिरण्मय पुरुष से लेकर विज्ञानमय मनोमय आदि सभी कोशों के आत्मा की आकाश-रूप में उपासना करने को कहा गया है।२ और उसे भी मूर्त और अमूर्त दो रूपों में कल्पित किया गया है। मूर्त रूप में वह मांस-मेदादि रूप में पंचविध है और अमूर्त रूप में वही प्राण, मन आदि रूप में पंचविध हो सकता है।३

इन द्विविध रूपों में से मधुकशा केवल पुरुष के अमूर्त रूप का ही प्रतीक हो सकता है जबकि मूर्त रूप को उसका सहवर्ती आधार माना जा सकता है। इसी दृष्टि से, हिरण्यय कोश के मधु (आनन्द) को उसका बिन्दु तथा विज्ञानमय, मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोशों को क्रमशः विद्युत, द्यौ तथा अन्तरिक्ष कहकर उनमें मधुकशा के प्रकश, कश, गर्भ तथा दण्ड रूप को माना गया है।४ दूसरे शब्दों में, हिरण्यय कोश मधुकशा

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१.शब्रा.१४.५.३.८

२.वही, १०.६.३.२

३.तदेता वा अस्य ताः पञ्च मर्या३तस्तन्वः आसन् लोम, त्वङ्, मांसमस्थि मज्जा। अथैता अमृता मनो, वाक्, प्राणः चक्षुः, श्रोत्रम् माशः १०.१.३.४

४.पृथिवी दण्डोऽन्तरिक्षं गर्भो द्यौः कशा विद्युत्प्रकशो हिरण्ययो बिन्दु। शौ.९.१.२१

 

ज्योति का सूक्ष्मतम केन्द्रबिन्दु है जो नीचे के कोशों में निरन्तर विस्तार और स्थूलता ग्रहण करता हुआ अन्नमय कोश-रूप दण्ड से बंधा हुआ प्रकाश का एक चाबुक या कोड़ा कहा जा सकता है। जिस प्रकार, जिस दण्ड से चाबुक जुड़ा हुआ है उसी को पकड़कर उसका उपयोग किया जा सकता है, उसी प्रकार मधुकशा-जनित नानारूपात्मक ऊर्जा का उपयोग अन्नमयकोश-रूप पृथिवी द्वारा ही सम्भव है, परन्तु उसके बल, वर्चस्, दीप्ति, ऊर्जा आदि की दृष्टि से, मधुकशा की मीमांसा अनेक प्रकार से की जाती है -

पश्यन्त्यस्याश्चरितं पृथिव्यां पृथङ्नरा बहुधा मीमांसमानाः,

अग्नेर्वातान्मधुकशा हि जज्ञे मरुतामुग्रा नप्तिः । शौ.९.१.३

मधुकशा की इसी वैविध्यपूर्ण मीमांसा की और संकेत करते हुए, उसके तीन धर्ंो  का उल्लेख किया गया है जिनकी कामना करती हुई वह शब्द करती है और पयों (पयोभि से पयःशील होती है।१ सर्वत्र व्याप्त (आपोनाम्)  उस मधुकशा को वर्षणशील स्वराज आपः, ऊर्जा तथा काम की वृष्टि करते हैं।२ उक्त तीन धर्मों को लक्ष्य करके ही संभवतः मधुकशा को अग्नि, वात और मरुतों की वंशपरम्परा में रखा गया है३ और पुनः उसे प्रातः, माध्यंदिन तथा सायंकालीन सोमसवनों के संदर्भ में भी उसका व्याख्यान इस रूप में किया गया है४ 'प्रातःकाल में जिस प्रकार सोम अश्विनौ का प्रिय होता है उसी प्रकार हे अश्विनौ, यह मधुकशा मेरी आत्मा में वर्चस् का आधान करे। जिस तरह माध्यंदिन

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१.त्रीन्धर्मानभि वावशाना मिमाति मायुं पयते पयोभिः शौ.९.१.८

२.वही, मंत्र ९

३.वही, मंत्र १०

४.शौ.९.१. ११-१३

 

सवन इंद्राग्नी को प्रिय होता है उसी तरह हे इन्द्राग्नी, यह मधुकशा मेरे आत्मा में वर्चस् का आधान करे।

इस प्रकार जहां मधुकशा को "आपीना' कहकर आकाश के समान ही व्याप्त माना गया है, वहीं तीन सवनों द्वारा आत्मा में उसके द्वारा वर्चस् का आधान उसे आन्तरिक आकाश के रूप में प्रस्तुत करता है। अतः यह कहना अनुचित न होगा कि मधुकशा को भी अन्तरिक्ष-वाचक आकाश के समान ही कल्पित किया गया है और इस तरह मधुकशा को मधुनामक सोमानन्द का हृद्याकाश कहा जा सकता है जिस पर चलने के इच्छुक अमर सोमबिन्दु चलते थकते नहीं१ और रोदसी-युग्म के पृष्ठों को पार करते हुए 'उत्तमं रजः ' को व्याप्त कर लेते हैं२ अथवा "उत्तम तन्तुका विस्तार करते हुए तथा प्रवाहों (प्रवतः) को व्याप्त करते हुए उत्तमीकृत 'रजःमें फैल जाते हैं।३ यह उत्तमीकृत रजः सोम-बिन्दुओं का वही अपना रजः ः (स्वं रजः ) है जो साक्षात् इन्द्र ही है।४ अतः उसे विश्वं रजः भी कहा जाता है। साथ ही एक वह रजः भी है जिससे परे जाकर श्येन स्वर्ग से सोम को लाता है६ तो पार्थिव और दिव्य रजः में सोम धर्मों द्वारा क्षरित होता है और विप्र लोग उस शुभ्र सोम को धीतियों द्वारा प्रेरित करते कहे जाते हैं-

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१.ऋ. १.२२.४

२.वही,

३.वही,

४.सुता अनु स्वमा रजोऽभ्यर्षन्ति बभ्रवः ।

इन्द्रं गच्छन्त इन्दवः ॥ऋ.९.६३.६

५.ऋ.९.६८.९

६.ऋ.९.७७.२

 

 

स तू पवस्व परि पार्थिवं रजो दिव्या च सोम धर्मभिः।

त्वां विप्रासो मतिभिर्विचक्षण शुभ्रं हिन्वन्ति धीतिभिः।। ऋ.९.१०७.२४

इसका अर्थ है कि जहां से सोम लाया जाता है वह "परो रजः ' है, जबकि पार्थिव और दिव्य कहलाने वाले वे अन्य रजांसि हैं। परो रजः से आसन्न नीचे स्तर का "रजः' वह समुद्र है जिसे राजा सोम मित्र और वरुण के धर्मोर्मि द्वारा पार करता है, तो वह ऋतं बृहत् को प्रेरित करता हुआ भी कहा जाता है। साथ ही इससे उपर जो परोरजः है उसे समुद्र का विष्टप कहा जाता है जिससे क्षरण करने वाले "सोमासः आयवः' को स्वः ज्योति के जानकार मनीषियों एवं मदकारियों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है -

अभि सोमास आयवः पवन्ते मद्यं मदम् ।

समुद्रस्याधि विष्टपि मनीषिणो मत्सरासः स्वर्विदः ।।ऋ.९.१०७.१४

यही विष्टप वह सप्तम लोक है जिसे ब्रह्मलोक तथा सत्यलोक भी कहा

जाता है२ तथा यही ब्रघ्नस्य विष्टपं, नाक, स्वर्ग तथा दशम अहः भी कहलाता है।३ यही हमारा हिरण्यय कोश है। इसके ब्रह्मानन्द-रूप सोम को हिरण्यय उत्स तथा रत्नधा कहा जाता है (ऋ.९.१०७.४)

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१.तरत्समुद्रं पवमान ऊर्मिणा राजा देव ऋतं बृहत्।

अर्षन्मित्रस्य वरुणस्य धर्मणा प्र हिन्वानः ऋतं बृहत्। ऋ.९.१०७.१५

२.विष्टप एव सप्तमो ब्रह्मलोको यस्मिन् सत्यं भाति। जै.३.३८४

३.सोऽब्रवीन्न वै स इदमकम्ऽभूदिति...तत् वाकस्य नाकत्वम्। स एष वाव नाको दशममहरेष स्वर्गो लोक एतद् ब्रध्नस्य विष्टपम् । जै.३.२८३

 

और यही वह "दिव्य, प्रिय, प्रत्न, मधु। ऊधस्', विज्ञानमय कोशरूपी सधस्थ पर आसीन होकर पवमान होता है -

दुहान उधर्दिव्यं मधु प्रियं प्रत्नं सधस्थमासदत् ।

आपृच्छ्यं धरुणं वाज्यर्षति नृभिर्धूतो विचक्षणः ।। ऋ.९.१०७.५

अतः सोम के प्रसंग में जिस समुद्रस्य विष्टपं" अथवा समुद्र का उल्लेख होता है उससे प्रवाहित होने वाला सोम कोई द्रव भौतिक पदार्थ न होकर अपितु धीतियों और मतियों से संबद्ध एक चेतना-प्रवाह है जो भावना, ज्ञान और क्रियाशक्ति के संदर्भ से त्रिपृष्ठ कहा जाता है -

धीभिर्हिन्वन्ति वाजिनं वने क्रीडन्तमत्यविम् ।

अभि त्रिपृष्ठं मतयः समस्वरन् ।। ऋ.९.१०७ ११

यही चेतना-प्रवाह जब वृत्र-वध द्वारा, आपः को जीतने वाला इन्द्र का 'अप्सु-जित् वृषण वज्र' कहा जाता है१, तो निस्संदेह आपः से नदी, कूप आदि का जल अभिप्रेत न होकर उन दिव्य आपः से तात्पर्य होता है जिन्हें आपो वे प्राणाः२ अथवा आपो वै मरुतः३ कहकर स्मरण किया जाता है। अतएव इस प्रसंग में जिस समुद्र से इन्द्र और उसके पेय इन्दु का घनिष्ठ सम्बन्ध है वह निस्संदेह वही "एक समुद्र' है जिसे अग्नि कह कर भी मरुभूमि में प्याऊ के समान स्पृहणीय माना गया है। अतएव अग्नि, इन्द्र तथा सोम को समेटने वाला यह समुद्र वही जातवेदा नामक चेतना-सिंधु है, जिसे हम पहले ज्ञानपरक अग्नि में खड़े हुए क्रियापरक इन्द्र के उदर में आनन्दपरक सोम की संयुक्त इकाई के रूप में देख चुके हैं।

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१.अस्येदिन्द्रो मदेष्वा ग्राभं गृभ्णीत सानसिम्

वज्रं च वृषणं भरत् समप्सुजित् ॥ऋ.९.१०६.३

२.काश ४.८.२.२; माश ३.८.२.४ ; जैउ.३.१०.९; तैआ १.२६.५

३.ऐ.६.३०; कौ १२.८; माश.६.४.१.९

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अतएव जब समुद्र को अन्तरिक्षनाम माना गया, तो उसका अभिप्राय उस मानव-व्यक्तित्व से था जो ब्रह्मानन्द-रूप सोम से ओतप्रोत था, जबकि उससे रहित व्यक्तित्व को मरुभूमि अथवा धन्व कहा गया क्योंकि उसमें आने से दिव्य आपः का वह प्रवाह अहंकार-रूप-वृत्र द्वारा अवरुद्ध कर दिया गया है, जिसके कारण वह उदकरहित मरुभूमि के समान है। उसे मरुभूमि कहने का अभिप्राय है कि उस में हिरण्ययकोश से विज्ञानमयकोश द्वारा सत्य या ऋत का प्रवाह न होने से अब अहंकारयुक्त मनोमय कोश में अनृत और निर्ऋति की बाढ़ आ गई है और पूरा तन-मन दुरितग्रस्त होकर नरकोपम धन्व बन गया है। सोम के प्रभाव से मनुष्य-व्यक्तित्व के कार्य-कलाप यज्ञ-रूप में परिणत हो जाते हैं । और धन्वभूत व्यक्तित्व में जो द्यावापृथिवी नामक चेतना-युग्म रोदनशील रोदसी हो गए थे उन्हें इन्द्र "मानवी" और "दैवी" रूप प्रदान कर देता है-

स वां यज्ञेषु मानवी अजनिष्ट रोदसी ।

देवो देवी गिरिष्ठा अस्रेधन्तं तुविष्वणि।। ऋ.९.९८.९

वृष्टिद्यावः स्वर्विदः आपः

मानवी रोदसी का तात्पर्य है कि मनुष्य-व्यक्तित्व के द्यावापृथिवी नामक चेतना-युग्म उस दैवी संपत्ति से युक्त हो जावें जिनके लिए मनु ने अपने मन्त्रों में कामना की है। मनु की याचना है कि मधुमान् इन्दु ओजपूर्वक अपनी धाराओं को प्रवाहित करे, इन्द्र को प्रवृद्ध करे, स्वः ज्योति को प्राप्त कराने वाले आपः आकाश को वर्षा से पूर्ण हुए हमें

 

रयि प्रदान करें।१ अन्यत्र मनु पुनः जिन आपः की याचना करते हैं वे योगमार्ग (गातु) को सर्वाधिक जानने वाले, स्वः ज्योति को जानने वाले, सुन्दर ध्यान वाले, निष्पाप तथा मित्र कहे गए हैं।२ वे पवित्र, मेधावी, सूर्य-समान दर्शनीय तथा आनन्द-रूप घृत में ध्रुव रहने वाले होने चाहिए।३ निस्संदेह ये आपः वही चेतना-प्रवाह हैं, जिन्हें मरुतः अथवा प्राणाः कहा गया है। इसीलिए, मनु मरुतों का स्तवन करते हुए, प्रार्थना करते हैं कि वे सभी एकमन और एकजुट होकर हमारे हृदयासन पर विराजें और उनके साथ ऋतानृतविवेकी वरुण तथा आदित्य भी विराजमान हैं।४ जिससे 'अच्छिद्रं शर्म’ (पूर्ण सुख) की प्राप्ति निश्चित हो सके।५

इस प्रार्थना का उद्देश्य वस्तुतः पुरुरवा मनु को वासना रहित बनाना है क्योंकि तभी द्यावापृथिवी नामक चेतना-युग्म अपने रोदसी रूप को कंपायमान कर यज्ञ-होता के वरण करते समय उस अग्नि को आविर्भूत कर पायेंगे जो "प्रथमो अंगिरस्तमः " कहलाता है तथा देवों के व्रत को भी परिभूषित करने वाला है।६ जब तक ऐसा नहीं होता तब तक मनुष्य-व्यक्तित्व नाना प्रकार के भोगों के लिए बहुविध शब्द करने वाला अथवा दुखी जीवन के त्राणार्थ पुकारने वाला "पुरुरवा' ही रहेगा और तब तक न उसकी रोदसी मानवी होंगी और न उसका जीवात्मा

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१.ऋ.९.१०६.७-९

२.ऋ.९.१०१.१०

३.ऋ.९.१०१.२

४.ऋ.८.२७.६-७

५.ऋ.८.२७.९

६.ऋ.१.३१.२-३

 

ही मनु बन पाएगा। इसी दृष्टि से, मनु प्रार्थना करता है कि "हे अग्ने । तू उस मनुष्य को उत्तम अमृतत्व में स्थापित करता है जो उभय जन्मों के लिए प्यासा है "मयः" और "प्रयःसूरि को प्रदान करता है -

त्वं तमग्ने अमृतत्व उत्तमे मर्तं दधासि श्रवसे दिवेदिवे।

यस्तातृषाण उभ्याय जन्मने मयः कृणोषि प्रयः च सूरये।।

अभिप्राय यह है कि ज्ञानाग्नि उसी को अमृतत्व प्रदान करता है जो "सूरी' नामक अध्यात्मनिष्ठ व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए ही सुख (मयः ) और भोग (प्रयः = अन्न) का उपयोग करता है।

ऐसी अध्यात्मपिपासा से युक्त व्यक्तित्व की प्यास बुझाने वाला वह हृद्य समुद्र ही हो सकता है जो प्राण-रूपी आपः का उदधि होकर अपने मनुष्य-जीवन को ब्रह्मानन्द-रस की मधुमान् ऊर्मि प्राप्त करा सके -

धामन्ते विश्वं भुवनमधि श्रितमन्तः समुद्रे हृद्यन्तरायुषि।

अपामनीके समिधे य आभृतस्तमश्याम मधुमन्तमूर्मिम् ।। ऋ.४.५८.११.

इसके लिए, रोदसी नामक द्यावापृथिवी चेतना को अपने समस्त दुरित और अनृत को तिलांजलि देते हुए, सर्वप्रथम सुसंयत तथा सुमेके”  करके दोनों को बलवान् मरुतों की एक 'रोदसी' नामक स्वदीप्ति में परिणत कर दिया जाए -

ते इद् उग्रा शक्सा धृष्णुसेनाः उभे युजन्त रोदसी सुमेके।

अध स्म एषु रोदसी स्वशोचिः आ अमवत्सु तस्थौ न रोकः।। ऋ.६.६६.६

 

यह प्रार्थना मरुतों से की गई है जो उग्र हैं और जिनकी सेना शत्रुओं का धर्षण करने वाली है। उनसे प्रार्थना है कि पहले जो रोदसी नामक द्यावापृथिवी अनृत और दुरित के कारण पृथक् पृथक् हो रहे हैं वे संयुक्त होकर "सुमेकेहो जाएं। सुमेके का अर्थ सुब्रह्म परायण रूप को धारण करने वाले हो जाएं। इसके पश्चात् यह कहा गया है कि दोनों रोदसी एकीभूत होकर उन बलवान् मरुतों में सर्वत्र उनकी स्वदीप्ति होकर स्थित हो गईं जिसके कारण अब कोई भी बाधा (रोकः ) नहीं रही।

इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए मरुतों से प्रार्थना है कि उनका मार्ग (यामः ) निष्पाप हो, जिस पर जीवात्मा रूपी वीर बिना शरीर-रूप रथ और सेन्द्रिय मन-रूप अश्व की सहायता के गति कर सके। साथ ही यह भी मांग है कि वह जीवात्मा बिना किसी सहारे के स्वाभाविक रूप में ही रोदसी नामक युग्म को "रजः' नामक अन्तरिक्ष की ओर प्रेरित करते हुए मार्गों पर बढ़ता हुआ साधनारत रहे -

अनेनो वो मरुतो यामो अस्त्वनश्वश्चिद्यमजत्यरधीः ।

अनवसो अनभीशू रजस्तूर्वि रोदसी पध्या याति साधन्।। ऋ.६.६६.७

यहां रोदसी-युग्म को जिस एक रोदसी में परिणत करके मरुतों की स्वदीप्ति बनाने का उल्लेख है उसमें एक विशेषता यह है कि जहां द्विवचनान्त रोदसी को आद्योदात्त लिखा जाता है वहां एकवचनान्त "रोदसी' शब्द अन्त्योदात्त है। एकवचन रूप में उसको देवी कहा जाता है जो मरुतों के बीच में जहां एक मंत्र में मारुत-रथ के उपर आसीन कही जाती है१ वहीं दूसरे मंत्र में स्वयं मारुत गण को रथ में स्थित सुन्दर और प्रशंसनीय तेज कहा जाता है जिसमें वह देवी सुजाता,सुभगा और शिवतमा होकर मरुतों के मध्य महिमामयी होती हुई बतलाई जाती है।२

उक्त एकवचनान्त 'रोदसी' शब्द जिस देवी अथवा मरुतों की स्वदीप्ति का नाम है उसकी तुलना मरुतों की ही उस दीप्ति से की जा सकती है जो सभी मरुतों में विद्यमान एक साधारणी-सी कही जाती है३ और जो अपने सामान्य अन्तर्हित रूप में रहती है तो घोर मरुतः भी रोदसी-युग्म का अपनोदन (हिंसन) नहीं करते, परन्तु जब पूर्वोक्त प्रकार से रोदसीद्वय स्वयं ही "सुमेके ' होकर रोदसी देवी नामक मरुतों की स्वदीप्ति बन जाती है, तो निस्संदेह रोदसी-युग्म का द्वैत सर्वथा समाप्त हो जाता है। इस रोदसी देवी की तुलना पूर्वोक्त मधुकशा से भी की जा सकती है जो मरुतों की "नप्ति कही जाती है और जिसे आदित्यों की माता, वसुओं की दुहिता, प्रजाओं का प्राण तथा अमृत की नाभि भी कहा जाता है। दूसरे शब्दों में एकवचनान्त रोदसी अथवा मरुतों की स्वदीप्ति या मधुकशा वृत्रघ्न इन्द्र की वह 'काशि' है जो अपार रोदसी को एकजुट  करने में समर्थ है -

उताभये पुरुहूत श्रवोभिरेको दृळहमवदो वृत्रहा सन् ।

इमे चिदिन्द्र रोदसी अपारे यत्संगृभ्णा मघवन्काशिरित्ते।। ऋ.३.३०.५.

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१.रथं नु मारुतं वयं श्रवस्युमा हवामहे।

आ यस्मिन्तस्थौ सुरणानि बिभ्रती सचा मरुत्सु रोदसी।। ऋ.५.५६.८

२.तं वः शर्धं रथेशुभं त्वेषं पनस्युमा हुवे।

यस्मिन्त्सुजाता सुभगा महीयते सचा मरुत्सु मीळ्हुषी।। ऋ.५ः५६.९.

३.परा शुभा अयासो यव्या साधारण्येव मरुतो मिमिक्षुः।

न रोदसी अप नुदन्त घोरा जुषन्त वृधं सख्याय देवाः।। ऋ.१.१६७.४

४.शौ.९.१.३-४; १०

 

इन्द्र की यह "काशि" वस्तुतः वह प्रकाश, आकाश अथवा अन्तरिक्ष है जो एक दृष्टि से द्यावापृथिवी नामक स्तनद्वय का ऊधस् बताया गया है, परन्तु वही दूसरी दृष्टि से पूर्वोक्त मरुत, आदित्य, वसु आदि सभी देवगणों की दीप्ति को समाहित करने वाला उरु अंतरिक्ष अथवा बृहत् द्यौ भी कहा जा सकता है। यही आकाश अथवा अन्तरिक्ष चेतना-धाराओं रूपी आपः की वृष्टि कर सकता है। इस प्रसंग में कुछ ऐसे भी मन्त्र उद्धृत किए जा सकते हैं जहां "काशि" शब्द को श्लिष्टार्थ में प्रयुक्त किया गया है। जहां उपर्युक्त मन्त्र में प्रयुक्त काशि" शब्द का अर्थ प्रकाश किया गया है वहां अन्यत्र इस शब्द को 'मुट्ठी' अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। एक मन्त्र में कहा गया है कि हे इन्द्र । मैं तुम्हारी स्तुति द्वारा तुम्हारे हाथ में स्थित धन को लेता हूँ। तुम एकत्र किए हुए दिन-रूप यव की पूर्ति काशि के द्वारा कर दो -

तवेदिन्द्राहमाशसा हस्ते दात्रं चना ददे।

दिनस्य वा मघवन्त्संभृतस्य वा पूर्धि यवस्य काशिना।। ऋ.८.७८.१०

इस मन्त्र में प्रयुक्त "यव' शब्द जहां लौकिक संस्कृत में जौ' नामक अन्न का वाचक है वहां वेद में वह "यु' धातु से निष्पन्न होने के कारण द्वैत का बोधक भी है। इसी प्रकार "दिन' शब्द द्युति-बोधक होने से जहां सु-दिन-रूप में निघण्टु के अनुसार सुखवाचक हो जाता है वहां 'यव" दिन के रूप में उसको दुःख-सुख का मिश्रण कहा जा सकता है। इन्द्र की प्रकाशवती काशिइस द्वैत को अद्वैत में परिणत कर सकती है। यही इस मन्त्र का मुख्य अभिप्राय है; परन्तु श्लिष्टार्थ का अनुसरण करके विनोद के लिए "दिनस्य यवस्य' का अर्थ जौ के दानों से भरी हुई मुट्ठी भी किया जा सकता है जिसकी पूर्ति इन्द्र की मुट्ठी (काशि) के द्वारा होती है।

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