वेदों में अन्तरिक्ष के पर्यायों का प्रतीकवाद

 अरुणा शुक्ला

 (जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर की पी.एच.डी उपाधि हेतु स्वीकृत शोधग्रन्थ)

1994ई.

 

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Introduction

Chapter One

Chapter Two

Chapter Three

Chapter Four

Chapter Five

Chapter Six  

Chapter Seven 

Chapter Eight  

About the Author

 

 

अष्टम अध्याय

सामंजस्य और उपसंहार

- सिंहावलोकन

- अंतरिक्षों की संख्या

- विश्वतोधार यज्ञ

 -वियत्, आकाश और अम्बर

- ओमन्, व्योमन् परम व्योमन्

- ज्येष्ठ ब्रह्म और बर्हि

- निष्कर्ष

 

अष्टम अध्याय

सामंजस्य और उपसंहार

अन्तरिक्षनामों के विषय में अब तक जो विवेचन हुआ है उससे हमारे सामने यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो गई है कि निघण्टु में अन्तरिक्षनामों की जो सूची प्रस्तुत की गई है उसकी पृष्ठभूमि में एक ऐसे अन्तरिक्ष की अवधारणा है जिसे द्यौ और पृथिवी के मध्यवर्ती लोक के अर्थ में सीमित करने से काम नहीं चलेगा। सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि स्वयं पृथिवी और आकाश शब्द भी अन्तरिक्षनामों की सूची में हैं। इसके अतिरिक्त अन्तरिक्षनामों की सूची में ऐसे नाम भी दिखाई पड़े जो कई विरोधाभासों को जन्म देते हैं। उदाहरण के लिए उस सूची में एक सगर शब्द भी है जिसे वैदिक वाङ्मय में अग्नि का वाचक भी माना गया और साथ ही उसे समुद्र कहकर भी सम्बोधित किया गया है। इसी प्रकार अन्तरिक्षनामों में जहां जलवाचक आपः शब्द है वहीं मरुभूमि का बोधक धन्व शब्द भी विद्यमान है।

सिंहावलोकन

इन सब विरोधाभासों के होते हुए भी हमने सभी अन्तरिक्षनामों की पृष्ठभूमि में अन्तरिक्ष की एक ऐसी परिकल्पना को ढूंढ निकाला जिसके अन्तर्गत निघण्टु के सभी अन्तरिक्षनामों का समावेश युक्तिसंगत प्रतीत होता है। इसके साथ ही हम इस निष्कर्ष पर भी पहुंचे कि अन्तरिक्ष- नामों में इन सभी शब्दों का समावेश किसी विशेष प्रयोजन से किया गया है। वह प्रयोजन वेद व्याख्या को सुगम बनाकर वेद विद्या की अनेक गूढ़ बातों को उजागर करना है। इस निष्कर्ष पर हम किस प्रकार पहुंचे इस बात को स्पष्ट करने के लिए अब तक के हुए विषय-निरूपण का एक सिंहावलोकन आवश्यक है। इसीलिए इस अन्तिम अध्याय में हम पिछले अध्यायों का एक संक्षिप्त सर्वेक्षण प्रस्तुत कर रहे हैं।

प्रारम्भ में आकाश और पृथिवी के बीच स्थित लोक के अर्थ में प्रयुक्त अन्तरिक्ष शब्द के प्रचलित अर्थ का उल्लेख करते हुए, यह संकेत दिया गया कि अन्तरिक्ष की इस लोक-प्रसिद्ध परिकल्पना से सभी अन्तरिक्षनामों को नहीं समझा जा सकता। इस दृष्टि से सर्वप्रथम निघण्टु के अन्तरिक्षनामों में परिगणित सगर' शब्द को लेकर हमने देखा कि सगर' का अर्थ "विष सहित' होता है, परन्तु उसे "सगर सुमेक' बनाने की प्रार्थना भी की गई है और इस "सगर सुमेक' की दृष्टि से ही उसे अहिर्बुध्न्य भी कहा गया है। इससे भी अधिक आश्चर्य की बात यह प्रतीत हुई कि जिसे सगर, अहिर्बुध्न्य, समुद्र आदि कहा गया है उसे 'अग्नि' कहकर भी सम्बोधित किया गया है। साथ ही इस बात का भी पता चला कि अन्तरिक्ष पुरुष अथवा आत्मा के लिए भी प्रयुक्त हो सकता है और उस दृष्टि से अन्तरिक्ष शब्द की अनेक व्युत्पत्तियों का भी निर्माण किया गया है।

इन विभिन्न व्युत्पत्तियों का अध्ययन करते हुए, हमने देखा(अध्याय २) कि इस प्रसंग में अन्तरिक्ष को वह अन्तश्चेतना कहना उचित होगा जिसे विभिन्न दृष्टियों से आत्मा, पुरुष, ब्रह्म आदि भी कहा गया है। इस अन्तश्चेतना के दो ध्रुव हैं - एक सगर (अहि) और दूसरा अहिर्बुध्न्य अथवा "सगर सुमेक। अहंकार-रूप अहि या वृत्र ही वह सगर है जिसके बुध्न से आपः प्रवाहित होने की बात ही प्रकारान्तर से इन्द्र द्वारा होने वाला वृत्र-वध कहा जाता है। जिस बुध्न को आवृत्त करके वृत्र दिव्य आपः के प्रवाह को रोक देता है उसी को वह सगर का बुध्न कहा गया जिससे आपः प्रवाहित करने के लिए इन्द्र की अभ्यर्थना आवश्यक समझी जाती है। अहंकार-रूप अहि से उत्पन्न होने वाला गर (विष) ही इस अन्तरिक्ष नामक अन्तश्चेतना को सगर" बना देता है। दिव्य आपः के प्रवाहित होने से सगर का यह 'गर' दूर हो जाता है और वह सगर अहि से बदलकर अहिर्बुध्न नामक देव हो जाता है। । दूसरे शब्दों में, वृत्र-वध होने से आपः, सूर्य, उषा आदि की मुक्ति हो जाती है।

इस प्रसंग में, हमने यह भी देखा कि जिस अन्तश्चेतना को अग्नि कहकर सम्बोधित किया गया उसी को प्रकारान्तर से समुद्र अथवा आपः भी कहा गया, जबकि लौकिक दृष्टि से अग्नि और आपः परस्पर विरोधी होते हैं । इस विरोधाभास का निराकरण जहां हमें 'अपां नपात्' की कल्पना में दिखाई पड़ा, वहीं प्रसिद्ध "हिरण्यगर्भ सूक्त" में निम्नलिखित मन्त्र में भी प्राप्त हुआ

आपो ह यत् बृहतीः विश्वमायन् गर्भं दधाना जनयन्तीरग्निम्। ऋ.१०.१२१.७ निष्कर्ष यह निकला कि व्याप्त्यर्थक आप् धातु से निष्पन्न 'आपः " शब्द उस चेतना का द्योतक है जो व्यान प्राण के समान सर्वत्र व्याप्त हो रही है। साथ ही बहुवचनान्त आपः उस चेतना की अनेक धाराओं का भी द्योतक है जो सप्त सप्त त्रिधा होकर बहती कही जाती हैं। इसी व्यापनशील चेतना की धाराओं से अधिक योगी अपनी ध्यान-क्रिया द्वारा उस ज्योति को प्रकट होता हुआ देखता है जो व्यापनशील "आपः' नामक दिव्य-प्राणों से उद्भूत हुई मानी जा सकती है । यही अग्नि है जिसे आपः गर्भ में धारण करके जन्म देते हैं।

अन्तरिक्षों की संख्या

इस प्रकार अन्तरिक्षनामों की पृष्ठभूमि में 'अन्तरिक्ष' शब्द की एक व्यापक अवधारणा खोजने के मार्ग में जो कठिनाइयां सामने आई उनमें से कुछ का निराकरण हमने दूसरे अध्याय में करने का प्रयत्न किया है। सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि वेद मन्त्रों में एक से अधिक अन्तरिक्षों का उल्लेख प्राप्त होता है। इस बात का संकेत हमें जहां अन्तरिक्षाणि' के प्रयोग से मिलता है वहीं कुछ मन्त्रों में पृथिवी और द्यौ के समान अन्तरिक्ष की संख्या भी तीन बताई गई है। इस प्रसंग में जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण में प्राप्त 'वागित्यन्तरिक्षम् ' की उक्ति महत्वपूर्ण सिद्ध हुई। वाक् को ही 'अनारम्भणं अन्तरिक्षम्कहा गया है और इसी वाक् की सप्तव्याहृतियों को सप्तलोकों के रूप में कल्पित किया गया है। वाक् अन्तरिक्ष है इसलिए उसकी ये सप्त-व्याहृतियां ही अनेक अन्तरिक्षों के रूप में कल्पित हुई मानी जा सकती हैं। इनमें से एक भूः है जो स्वयं एक अन्तरिक्षनाम है।

अथर्ववद के व्रात्य-काण्ड में उक्त सप्तलोकों के संदर्भ में सप्तप्राण, सप्तव्यान और सप्तअपान की भी कल्पना मिलती है। व्यापनशील व्यानप्राण ही "प्राणाः वै आपः ' की उक्ति का मूलाधार है। व्यान से ही उदान नामक प्राण उद्भूत होता है जिसके आधार पर ओदन, बार्हस्पत्यौदन और ब्रह्मौदन की कल्पना की गई है। ब्रह्मौदन

से सारी सृष्टि होती है और ब्रह्मौदन - रूप में जो प्राण हैं उसी को वह आद्यासृष्टि- रूप आपः कहा जा सकता है जिसके द्वारा प्रजापति ने नानारूपात्मक सृष्टि की। इसलिए इस आपः की तुलना उस वाक् से भी कर सकते हैं जो प्रजापति की शक्ति अथवा दुहिता कही जाती है और जिसके द्वारा वह सारी प्रजा-सृष्टि करता है। इस प्रकार आपः नामक अन्तरिक्ष वह अन्तश्चेतना सिद्ध होती है जिसके द्वारा साधक के भीतर इच्छाज्ञानक्रियात्मक सारी सृष्टि हुआ करती है। आपः और वाक् के इस समीकरण के कारण ही वाक् को अनारम्भण समुद्र कहा गया है। संयोगवश, आपः की तरह "समुद्र' भी निघण्टु में एक अन्तरिक्षनाम बताया गया है।

अन्तरिक्षों की संख्या के संदर्भ में कुछ वेदमन्त्रों से उस अन्तरिक्ष की कल्पना का भी पता चला जो आकाश और पृथिवी के बीच में माना जाता है। ये तीनों लोक मनुष्य-व्यक्तित्व के क्रमशः मनोमयकोश, अन्नमयकोश और प्राणमयकोश हैं। सामान्यतः मनुष्य अपनी इस त्रिलोकी से ही परिचित होता है; इसलिए उसको मानुषी त्रिलोकी कहा जाता है। वेद मन्त्रों में जब अन्तरिक्ष को उरुलोक बनाने की बात कही जाती है तो इसका अभिप्राय यह होता है कि ऊर्ध्वमन के द्वारा मानुषीत्रिलोकी को विज्ञानमयकोश से जोड़ दिया जाए जिसको वेद में उरु अन्तरिक्ष" भी कहते है। "उरु अन्तरिक्षकी प्राप्ति के बिना साधक को वह "उरु ऊँ लोकनहीं मिल सकता, जिसे अथर्ववेद में हिरण्ययकोश का ज्योतिर्मण्डित स्वर्ग भी कहा गया है। यही सत्यलोक है, यही ब्रह्मलोक है और यहीं "स्वर्वती अभयं स्वस्तिकी प्राप्ति होती है। इसी के परिणामस्वरूप मानुषी त्रिलोकी में महान् इन्द्र का जन्म हो जाता है, दिव्य आपः प्रवाहित होने लगते हैं और अहंकार-रूप वृत्र का वध होकर उसके स्थान पर अहिर्बुध्न का प्रादुर्भाव हो जाता है जिसे पुराणों में भूमि धारण करने वाले शेषनाग माना गया है।

यह साधक की सतत् साधना का परिणाम है जो मनुष्यजीवन को दिव्यता प्रदान करता है। इससे पूर्व मनुष्य-जीवन भूः, भुवः ओर स्वः के मानुषी लोकों में सीमित रहता है। इसी को अन्नमय, प्राणमय और मनोमयकोश की त्रिलोकी कहा गया। इस त्रिलोकी पर जब तक अहंकार-रूप वृत्र का साम्राज्य रहता है तब तक व्यक्ति इस त्रिलोकी के स्वः को ही स्वर्ग मानता रहता है और भोग-विलास में ही स्वर्गीय आनन्द प्राप्त करने का विश्वास करता है। जब जीव को पता चलता है कि यह वास्तविक स्वः नहीं है तो वह सत्यलोक अथवा ब्रह्मलोक के स्वः की प्राप्ति के लिए साधनारत होता है जिसके पलस्वरूप अहंकार-रूप अहि के वध के साथ ही स्वः का प्रकाश और उस अन्तरिक्ष की प्राप्ति निश्चित करके "उरु के लोक' की भी प्राप्ति हो जाती है और जीव का ब्रह्म के साथ सायुज्य हो जाता है।

विश्वतोधार यज्ञ

इस स्थिति की प्राप्ति जिस साधना से होती है उसी को वेद में प्राण-साधना, अध्वा, अध्वर अधवा आन्तरिक "विश्वतोधार यज्ञ' भी कहा गया है। परोक्षवादी दृष्टि से इसी को ब्रह्मौदन-पकाना भी माना जाता है। इसी दृष्टि से ऋ.१०.१२४.६ को समझा जा सकता है जहां इन्द्र इदं स्वः, इदमिदास वामं अयं प्रकाशः उर्वन्तरिक्षम्" कहकर सोम को वृत्र-वध के लिए आमन्त्रित करता है और उन दिव्य आपः का अवतरण मानुषी- त्रिलोकी के स्तर पर होता है जिन आपः का इन्द्र सयुज हंस" कहा जाता है। "सयुज हंस' कहने का अभिप्राय है कि इन्द्र इन दिव्य आपः से सर्वथा अभिन्न है। ये आपः मनुस्मृति के अप एव ससर्जादौ में आद्यासृष्टि के रूप में वर्णित हैं। इन्हीं को "भिषजः मातृतमाः" तथा सम्पूर्ण विश्व की जनित्री कहा गया है। इन दिव्य आपः के कारण मनुष्य-व्यक्तित्व को जो भेषज प्राप्त होती है उसके फलस्वरूप वह ब्रह्म-रूप सूर्य को सदा देखने में समर्थ होता है। इन आपः की इस अपूर्व सामर्थ्य के कारण ही उन्हें "प्रजापति परमेष्ठी' भी कहा जाता है।

जब इन्हीं आपः में सभी कुछ ओतपोत कहा जाता है, तो साथ ही "प्राणा वै आपः' भी कहा जाता है। व्याप्त होने से जो आपः है वहीं अति बन्धनेसे निष्पन्न अन्तः भी उसी का नाम है, क्योंकि वह प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान को एकसूत्र में बांधने वाला -सर्वान्तर आत्मा' है (माश.१४.६.५-६), अन्तः + इक्ष से निष्पन्न अन्तरिक्ष अथवा अन्तर्यक्ष है। इन प्राण-रूप आपः के अनेक स्तर हैं । प्रथम शान्त स्तर सलिल, सभी आपः का स्रोत (ऋ.७.५६.१?) है । यही पुष्करपर्ण के प्रजापति ब्रह्मा के रूप में (तैआ.१.२३.१) कल्पित होता है। इसी से जब धाराएं उठने लगती हैं, तो उसे समुद्र (गोब्रा.१.१.७) नामक अन्तरिक्ष कहते हैं जो भिन्न-भिन्न दृष्टियों से अर्णव, सिंधु तथा सरस् भी (काठ.४०.१) कहलाता है।

यह सिंधु ही सप्त आपः अथवा सप्त सिंधवः हो कर तीन स्तरों पर (सप्त सप्त त्रिधा ) प्रवाहित होते हैं और निम्नलिखित रूप में समझे जाते हैं -

१-मन, बुद्धि और ५ ज्ञानेन्द्रियों की चेतना-धाराएं।

२- मन, बुद्धि और ५ स्थूल प्राणों की चेतना-धाराएं।

३- मन, बुद्धि और ५ कर्मेन्द्रियों की चेतना-धाराएं।

ये तीनों स्तर जब तक अहंकार-रूप अहि (वृत्र) के वशीभूत रहते हैं तब तक इन्हें अहिगोपाः' कहा जाता है और उसके "गर' (विष) से युक्त होकर वे सगर" नामक अन्तरिक्ष का रूप ग्रहण करते है, परन्तु वृत्र-वध के पश्चात् वही "सगर सुमेक' होकर पुष्कर' नामक - अंतरिक्ष के रूप में इन्द्र का निवास बनता है। इसका तात्पर्य है कि अहंकार -विजय द्वारा जीवात्मा "अहम्' को "महः" में परिणत करके और इस प्रकार महान्आत्मा होकर जिस अतिमानसिक चेतना को प्राप्त करता है उसी को पुष्कर' नाम दिया गया। चेतना के इसी स्तर को 'अपां पृष्ठं', अग्नि की योनि (क.३१.७) तथा पुष्कर-पर्णम् (माश.६.४.१.; ३.६; ८.६.३.७) कहा जाता है। यह स्तर ही अपराजिता हिरण्ययी पुरी कहा जाता है, जिसमें प्रविष्ट होकर आत्मा ब्रह्मा (शौ.१०.२.३३) अर्थात् नवसृष्टि करने वाला हो जाता है। यही इन्द्र प्रजापति (शां आ१.१) है।

पुष्कर नामक अन्तरिक्ष की चेतना-धाराएं (पुष्कराणि) 'सत्यस्येव तत् सत्यं’ (जै.२.२००) हैं। पुष्कर में ब्रह्म ही उक्त ब्रह्मा की सृष्टि करता (गो.१.१.१६) है। पुष्कर नामक अन्तरिक्ष के द्यौ और पृथिवी ही पुष्करपर्ण (माश.६.४.१.९; ७.४.१.१२; काठ १९.४३; क.३०.२) हैं जिनके द्वारा ब्रह्मा की सृष्टि होती है। जब अन्तरिक्ष को ऊधस् तथा द्यौ और पृथिवी को उसके अंगभूत दो स्तन कहा जाता है, तो भी सृष्टि करने के परिप्रेक्ष्य में यही अभिप्रेत होता है । निघण्टु की सूची में पृथिवी एक अन्तरिक्षनाम है और यदि आकाश, अम्बर, वियत् और व्योम को द्यौ का वाचक माना जाए, तो पृथिवी के साथ द्यौ भी एक अन्तरिक्षनाम है। इस प्रकार सृजन और पालन के प्रसंग में एक अन्तरिक्ष (अथवा पुष्कर) द्यावापृथिवी रूप में द्विविध होकर कार्यरत होता हुआ माना जा सकता है। अतः "द्यावापृथिवी सर्वे इमे लोकाः” (जैब्रा.३.२७१) कहकर इन्हीं दो को सभी लोकों का कारण माना गया है।

द्यावापृथिवी वस्तुतः प्राणोदानौ नामक दो चेतना-धाराएं हैं (माश.४.३.१.२२ तु.माश.१४.२.२.३६) जिनमें प्रथम को बहिर्मुख प्रथन करने वाली पृथिवी और दूसरी को अन्तर्मुख दीप्ति फैलाने वाली द्यौ कहा जा सकता है। जब अन्तरिक्ष-चेतना को प्राणरूप१ माना जाता है, तो वह अपनी समञ्चन और प्रसारण नामक द्विविध गति२ से जिन दो रूपों में फैलता है, तो वही व्यक्तित्व के एक स्तर पर प्राणोदानौ कहे जाते हैं और दूसरे स्तर पर प्राणापानौ हैं । जब प्राण को सोम राजा कहा जाता है३ तो प्राणोदानौरूप द्यावापृथिवी ही यज्ञार्थ सोम को वहन करने वाले देवों के हविर्धानमाने जाते हैं। इस प्रकार प्राण रूप अन्तरिक्ष जिस यज्ञ का विस्तार करता है (प्राणेन यज्ञः संततः मैसं.४.६.२) वह आध्यात्मिक सोम-यज्ञ है, अध्वर नामक अन्तरिक्ष चेतना का एक सुसमृद्ध रूप है। इस यज्ञ के द्वारा मानव-व्यक्तित्व के सभी ध्वरसः” (हिंसकतत्व) समाप्त हो जाते हैं। इसीलिए, इस यज्ञ का नाम अध्वर है।

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१.प्राणो वा अन्तरिक्षम् तैसं.५.६.८.५; जैब्रा १.३०७; माश ७.५.१.२६

२.प्राणो वै समञ्चनपसरणं यस्मिन् वा अंगे प्राणो भवति तत् सं चाञ्चति

प्र च सारयति माश ८.१.४.१०

३.प्राणो वा सोमराजा जै.१.३६१; माश.७.३.१.४५

प्राणो हविः मै १.९.१; तैआ.२.१७.२; ३.१. १

४.द्यावापृथिवी वै देवानां हविर्धाने ऐब्रा १.१९

 

वियत्, आकाश और अम्बर

वैदिक शब्दावली में यज्ञ१ अथवा अध्वर ही कर्म है और वह दो पक्षों द्वारा सम्पन्न होता है।२ वे पूर्वोक्त समञ्चन-प्रसारण के प्रतीकस्वरूप द्यावापृथिवी३ आदि हैं । जैमिनीय ब्राह्मण के अनुसार पराक् और पूर्वाक् प्राण की गति ही प्राणापानौ, अहोरात्रे, पूर्वपक्षापरपक्षौ, द्यावापृथिवी, इन्द्राग्नी, मित्रावरुणौ, अश्विनौ आदि समस्त "दैव्यं मिथुनं यदिदं किं च द्वंद्वम् " का मूल कारण है।४ यही क्रमशः पूर्वपक्ष और अपरपक्ष हैं जिनके द्वारा प्राण-रूप अन्तरिक्ष विभिन्न स्तरों पर उड़ान भरता है। यही दो "वियतौ पक्षौ५ हैं जिनके द्वारा प्राण-रूप हंस उड़ता हुआ वह अन्तरिक्ष-रूप ग्रहण करता है जिसे "वियत्" कहा जाता है। वियत् नामक अन्तरिक्ष वही चेतना-स्तर प्रतीत होता है जिसे 'अनन्तं विततं' कहा जाता है और जिसमें अनंत और अन्तवत् दोनों का समन्वय हो जाता है।६

इस वियत् नामक अन्तरिक्ष स्तर तक प्राण जिन दो पक्षों द्वारा पहुंचता है वही उस महाव्रत-रूप सुपर्ण गरुत्मान् के दो पक्ष हैं७

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१.यज्ञो वे कर्म माश.१.१.२.१

२.तस्माद् द्वाभ्यां पक्षाभ्यां सर्वाणि कर्माणि समश्नुते शांआ.२.४.१

३.द्यावापृथिवी देवते पक्षौ माश.१०.३.२.४

४.जैब्रा.३.३३४

५.सहस्राण्यं वियतावस्य पक्षौ हरेर्हंसस्य पततः स्वर्गम् अथर्व १०.८.१८

६.अनन्तं विततं पुरुत्रानन्तमन्तवच्चा समन्ते अथर्व १०.८.१२

७.बृहद्रथन्तरे सुपर्णस्य गरुत्मतः महाव्रतस्य पक्षौ तैसं.४.१.१०.५; मै.२.७.८; ३.३.५

 

जिसे अन्यत्र अर्चि या प्रकाश के रूप में कल्पित किया गया है।१ ऐतरेय आरण्यक के अनुसार कर्मकाण्ड का महाव्रत उस इन्द्र का प्रतीक है जो वृत्र-वध करके "इन्द्र महान्हो गया। अतः ऋग्वेद में उक्त अर्चि को वृत्रहा इन्द्र की उस काशि' के रूप में समझ सकते हैं जो 'रोदसी अपारे" को अपने में समाविष्ट कर लेती है -

उताभये पुरुहूत श्रवोभिरेको दृळ्हमवदो वृत्रहा सन्।

इमे चिदिन्द्र रोदसी अपारे यत्संगृभ्णा मघवन्काशिरित्ते।। ऋ.३.३०.५

सायणाचार्य ने यहां "काशि" का अर्थ ठीक ही प्रकाशकिया है, क्योंकि यह सब इन्द्र के उस व्रत की पूर्ति से होने वाली अर्चि या ज्योति हैं जो इन्द्र को महाव्रात बनाता है जैसा कि पूर्व मन्त्रों से स्पष्ट है। यह 'काशि' निस्संदेह "काशधातु से निष्पन्न उसी प्रकाश या आकाश नामक अन्तरिक्ष-चेतना का द्योतक है जिसे 'अहम् ' से 'महः' होना अथवा अहंकार-रूप वृत्र के वध से इन्द्र का महान् होना कहा जाता है।

इन्द्र महान् के साथ ही उद्भूत होते हैं 'मही अपःजिन्हें शब्द करने के कारण अम्बयः ' भी कहा जाता है।४ ये अम्बयः अथवा आपः साधारण जल-धाराएं नहीं हो सकतीं, क्योंकि ये ब्रह्म-रूप सूर्य में रहने वाले आपः हैं जो आत्मा-रूप सूर्य के साथ होने पर पूर्वोक्त

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१.अथ यदेतदर्चिर्दीप्यते तन्महाव्रतं....स साम्नां लोकः माश.१०.५.२.१

२.इन्द्रो वे वृत्रं हत्वा महान् अभवत् तत् महाव्रतमभवत् ऐआ १.१.१

३.तु.ऋ.३.३०.४ का "व्रतायतथा ऋ.३.३०.३ का "महाव्रत

४.ऋ.६.५७.४

 

अध्वर नामक आध्यात्मिक यज्ञ के प्रेरक होते हैं।१ ये मनुष्य को ब्रह्मरूप सूर्य का चिरदर्शन कराने तथा सभी आन्तरिक दुरित एवं अनृत को दूर करने वाले आपः२ उसी चेतना-धारा के द्योतक हैं जिसे वेद में यज्ञ को धारण करने वाली तथा चेतन्ती सुमतीनाम्सरस्वती कहा गया है३ और जिसे हम आज भी विद्यादेवी मानकर पूजते हैं। यह सरस्वती "धियो विश्वाःको आलोकित करने वाला महो अर्णः” (महः नामक तेज का समुद्र) है४, “मही अपाराभूमि''५ है जिसके प्रादुर्भाव से साधक के भीतर "अनाहतनाद' होता है और जिसके कारण ही सरस्वती को "नदीतमा" तथा "अम्बितमा' कहा गया है।६ अतः इस "अम्बितमा चेतना" अथवा "अम्बयः आपः" के प्रसार को ही 'अम्बर" नामक अन्तरिक्ष-चेतना' कह सकते हैं। मनुष्य के भीतर अन्तर्हित होने के कारण इन अम्बयः के आयतनभूत अम्बर को व्यक्ति की निकटतम "मही भूमिः अपारा' कहा जा सकता है। सम्भवतः इसी दृष्टि से निघण्टु के अंतिकनामों में भी अम्बर का समावेश किया है।

ओमन्, व्योमन् परम व्योमन्

जब शतपथ ब्राह्मण इमे वै लोकाः परमं व्योम ( श.७.५.२.८; २०) की घोषणा करता है, तो इन्हीं अम्बयः ' को 'इमे लोकाः ' तथा 'अम्बर' को ही परमव्योम कहता प्रतीत होता है, क्योंकि यदि

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१.अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम्। पृञ्चतीर्मधुना पयः।

अमूर्या उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह। ताः नो हिन्वन्त्वध्वरम्।। ऋ.१.२३.१६-१७ २.ऋ.१.२३..२१-२२

३.ऋ.१.३.११ 

४.ऋ.१.३.१२.

५.ऋ.३.३०.९

६.ऋ.२.४१.१६

 

"इमे लोकाःसे पार्थिव लोकों का ग्रहण किया जाए, तो "व्योम" को भी पार्थिव मानना पड़ेगा जो वैदिक प्रयोग के विरुद्ध जाता है। जब प्रजापति को व्योम (जै.ब्रा.३.३०९) या व्योमा (माश.५.१.१.१६) कहा जाता है, तो निस्संदेह उसे किसी बाह्य या स्थूल स्तर की वस्तु न मानकर चेतना के किसी  सूक्ष्म आन्तरिक स्तर पर खोजना पड़ेगा, विशेषकर तब, जबकि पद-पाठकार इस शब्द को वि ओम्' या "वि ओमन्" लिखकर सम्भवतः उसका कोई सम्बन्ध "ओम्से जोड़ता प्रतीत होता है। इस प्रसंग में एक विद्वान् की निम्नलिखित धारणा विशेषरूप से उल्लेखनीय है -- ओम् शान्ति का सबसे बड़ा स्रोत है। शान्ति का शम् नामक बीज है.....पहली तो हमारे स्थूल शरीर की शान्ति है जिसे हम आज भी कभी-कभी शान्ति की सांस लेना कहते है। संस्कृत में सांस लेने को "अन् " कहते हैं। ओम् से अन् को मिला दीजिए....ओमन् हो गया। यह ओमन् पहले शान्ति क्षेत्र का नाम है....इससे विपरीत मन की शान्ति है। ओमन् से पहले "विलगा दीजिए। विओमन में संधि हो जाने से वेद में इसको व्योमन् कहते हैं। इस व्योमन् से परे अतिमानसिक शांति का क्षेत्र है। व्योमन् से पूर्व परम शब्द बोलिए...परम व्योमन्।'

परम व्योम को निस्संदेह "व्योमनः रजसः”  के पार में अतिमानसिक चेतना-स्तर कहा जा सकता है क्योंकि इस स्तर के इन्द्र को 'धृषन्मनः ' कहा गया है२ और यदि ओम् एवं अवस्" को एक ही  "अवधातु से निष्पन्न माना जाए तो 'अवसे" द्वारा यह भी संकेत

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१.डा० फतहसिंह; ढाई अक्षर वेद के, पृ० २-३

२.त्वमस्य पारे रजसो व्योमन् स्वभूत्योजाः अवसे धृषन्मनः ।-ऋ.१.५२.१२

 

दिया गया है कि मन का धर्षण 'ओम्के अवःहेतु किया जाता है। 'ओम् के 'अवः' को ही सम्भवतः इन्द्र का वह "ॐ" नामक प्रयक्षतम" तथा "चारुतमकर्म माना गया है जो अपने "उपह्वरमें चार नाद करने वाले सिंधुओं को सेवित करता है।१ ये चार सिंधु, डा० फतहसिंह के अनुसार, वे चतुर्विध दिव्य चेतना-धाराएं हैं जिन्हें अव्याकृत त्रयी तथा व्याकृत वेदत्रयी के रूप में माना गया है और जो मूलतः हिरण्ययकोश के "उपह्वर" में पोषित होते हैं। मानव-व्यक्तित्व के तन-मन को इन चारों की उपलब्धि कराना ही वह 'अवस्' है जिसकी प्राप्ति के लिए वेद-मन्त्रों में प्रायः याचना की जाती है। अवस् की प्राप्ति का अर्थ है उक्त चार के रूप में मानसिक स्तर पर ॐ का 'व्योमसत् (ऋ.४.४०.५) हंस होना तथा स्थूल प्राणों को "ऊमाः " अथवा "ऊमासः बना देना। इसके परिणामस्वरूप मानुषी त्रिलोकी का संकीर्ण अन्तरिक्ष "उरुहो जाता है और साथ ही "ऊमाः”  सु-हवनीय हो कर मानव-व्यक्तित्व रूप रथ को अश्वों के समान वहन करने लगते हैं३ तथा अंधकार और ताप से युक्त ऋबीस" हुआ मनुष्यजीवन "ओमन्वन्त हो जाता है।४

दूसरे शब्दों में, परम व्योम वह 'उरु अन्तरिक्षहै जो मानसिक स्तर के व्योम अन्तरिक्ष को भी अपने सम्पर्क से ऊरुता प्रदान

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१.तद् ॐ प्रयक्षतमम् अस्य कर्म, दस्मस्य चारुतमम् अस्ति दंसः ।

उपह्वरे यत् उपराः अपिन्वत मधु अर्णसः नद्यः चतस्रः ।। ऋ.१.६२.६

2.    ऋ.३.६०.८; ४.१९.१; ५.५२.१२; १.१६६.३

3.    उरो वा ये अन्तरिक्षे मदन्ति दिवो वा ये रोचने सन्ति देवाः।

4.    ऊमा वा ये सुहवासो यजत्रा आयेमिरे रथ्यो अग्रे अश्वाः।। ऋ.३.६.८

४.युवमृबीसमुत तप्तमत्रय ओमन्वन्तं चक्रथुः सप्तवध्रये । ऋ.१०.३९.९

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करता है और नीचे स्थूल स्तर की अन्तरिक्ष चेतना को 'ओमन्वन्त" कर देता है और यह सब होता है "ॐ" के अवतरण से। "ॐ" ही वह "स्वयंभू' नामक अन्तरिक्ष अथवा अन्तश्चेतना है जिसके लिए 'वाग् भूत्वा सर्वे व्यभवत्’ (जै.१.३१४) कहा गया है। यहां "भूधातु के प्रयोग द्वारा "स्वयंभूकी उस स्वतस्सृष्टि की ओर संकेत किया गया है जिसको बनाने के लिए भाववृत्त, भुवनम्, भुवनानि अथवा वाक् की सप्त व्याहृतियों आदि का प्रयोग होता है, क्योंकि वह स्वयंभू ॐ है जिसे ब्रह्म का ज्येष्ठपुत्र, श्रेष्ठ रश्मि तथा महार्णव अथवा समुद्र नामक अन्तश्चेतना (अन्तरिक्ष) में प्रथमः सुभूःकहा जाता है१ और जो अपने विभिन्न रूपान्तरों में "कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभू” (मा.४०.८) कहकर भी याद किया जाता है। स्वयंभू नामक अन्तरिक्ष वस्तुतः वह आत्मचेतना है जो आत्मा के ज्येष्ठ या परब्रह्म के सायुज्य से उपजती है जिसके विषय में अथर्ववेद का कथन है -

अकामो धीरो अमृतः स्वयंभू रसेन तृप्तो न कुतश्चनोनः।

तमेव विद्वान् न बिभाय मृत्योरात्मानं धीरमजरं युवानम्।। अथर्व १०.८.४४

ज्येष्ठ ब्रह्म और बर्हि

निस्संदेह यह उस जीवात्मा का वर्णन है जो परब्रह्म अथवा ज्येष्ठ ब्रह्म के साथ सायुज्य करके अकाम, धीर, अमृत, स्वयंभू, रस तृप्त, पूर्ण, अजर और युवा हो गया है, क्योंकि इस मन्त्र से पूर्व उसी के मनुष्यदेहगत आत्मन्वत् यक्षरूप की ओर इस प्रकार संकेत किया गया है-

१.मा.२.२६; २३.६३;

 

पुण्डरीकं नवद्वारं त्रिभिर्गुणेभिरावृतम् ।

तस्मिन् यद् यक्षमात्मन्वत् तद्वै ब्रह्मविदो विदुः ।। अथर्व १०.८.४३

ब्रह्मवेत्ताओं का वेद्य यह "आत्मन्वत् यक्ष' ही वह ज्येष्ठ अनन्त परब्रह्म है जो जन-जन के भीतर आत्मा से संयुक्त आत्मन्वत् होकर बैठा हुआ है। इसी को उपनिषदों में आत्मन्वी ब्रह्म' कहा गया है। जीवात्मा सामान्यतः इस ब्रह्मात्म-सायुज्य से अपरिचित होकर अपने आपको देह ही समझ बैठता है। यह शरीर-केन्द्रित अहंकार-रूप वृत्र ही जीवात्मा के लिए काम कोधादि वृत्रों की शत्रु-सेना खड़ी कर देता है। वृत्र 'दीर्घं तमः' कहे जाने वाला अज्ञानांधकार है। इसी के कारण जीव अपने उस दिव्य स्वरूप को भूल जाता है जो उसे ब्रह्मात्मसायुज्य की अवस्था में मिला हुआ है। उसके स्थान पर वह अपने को जन्मने-मरने वाला देह मान बैठता है।

अज्ञान-जनित इस क्षुद्रता से मुक्ति और अपने मूल प्राधान्य' की प्राप्ति जिस उपाय से संभव हो सकी है उसी का यौगिक नाम 'बर्हि' है। जिस "बर्ह' धातु से यह नाम निष्पन्न है वह एक ओर तो हिंसार्थक है और दूसरी ओर वही प्राधान्य-बोधक है। अतः बर्हि जिस अन्तरिक्ष-चेतना का नाम है वह जीवात्मा की शत्रु-सेना का संहार करती है, और उसके परिणाम स्वरूप उसे अपने प्राधान्य ब्रह्मात्मसायुज्य का बोध भी कराती है। निघण्टु में बर्हि शब्द अन्तरिक्षनामों के अतिरिक्त उदकनामों में भी परिगणित है तथा कर्मकाण्ड में इसे दर्भ अथवा कुश का वाचक माना जाता है, परन्तु वेदार्थ की गहराई तक पहुंचने के लिए, इन तीनों अर्थों में सामंजस्य स्थापित करना आवश्यक है

हिसार्थक "बर्ह " धातु का प्रयोग करके इन्द्र अग्नि आदि देवों से प्रायः दस्युओं, वृत्रों या हिंसकों का वध करके सूर्य, आपः आदि प्रदान करने की प्रार्थना की जाती है१ और ऐसा करने वाले देवों के लिए "बर्हणा' शब्द का प्रयोग किया जाता है, तो साथ ही वृत्र-वध करने, स्वः, आपः आदि देने और चारु अध्वर में आने का भी उल्लेख होता है। इसका कारण यह है कि अहंकार-रूप-वृत्र अथवा दस्यु आदि अदेवी शक्तियों के विनाश से जो दिव्य चेतना-शक्ति उद्भूत होती है उसी के लिए दृष्टि-भेद से आपः जैसे उदकनामों अथवा अन्तरिक्षनामों का प्रयोग किया गया है। इसीलिए निघण्टु के १०१ उदकनामों में बर्हि के अतिरिक्त आपः और व्योम जैसे अन्य अन्तरिक्ष नाम भी सम्मिलित हैं। जैसे जैसे अदेवी शक्तियों का बर्हण (हिंसा) होता है, वैसे वैसे ही बर्हि नामक अन्तरिक्ष-चेतना का प्रसार होता है। इसी को बर्हि का स्तरण" कहा जाता है और बर्हि को एक ऐसे बिछावन के रूप में कल्पित किया जाता है जिस पर देव-शक्तियां आकर आसीन हो सकती हैं।३ इसी दृष्टि से "बहिषदः देवों या पितरों का उल्लेख मिलता है।४ इस प्रकार की बर्हि-चेतना से युक्त साधक ही "बर्हिष्मान्है जो देवों के अनुग्रह का पात्र समझा जाता है।५ कर्मकाण्ड में, जब पूर्वोक्त आध्यात्मिक यज्ञ का प्रतीक वेदी पर होने वाला द्रव्ययज्ञ हो गया, तो इस बर्हि नामक चेतना के 'स्तरण" का प्रतीक कुश (बर्हि) का बिछावन हो गया।

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१.ऋ.१.१००.१८; ४.२८.३.

२.ऋ.१.५६.५; ५.७.१

३.तु.ऋ.१.१७७.४ तुः १.१८८.४; .१४४.६, १४२.९

४.तुः ऋ.९.६८.१; १०.१५.३-४

५.ऋ.१.५१.८; ५३.६;५.२.१२ इत्यादि।

 

 

बर्हि नामक अन्तरिक्ष-चेतना का विकास ही एक प्रकार से यजन है। इसी कारण सायणादि भाष्यकारों ने बर्हि का अर्थ यज्ञ भी किया है। बर्हि नामक चेतना-रूप-यजन करने वाला साधक देवयान पथ का पधिक है।१ एक मन्त्र में अग्निदेव को ही "वर्धमानं सुवीरं स्तीर्णं सुभरं बर्हि' कहकर सम्बोधन किया गया है और उस घृत-युक्त बर्हि पर वसुओं, विश्वदेवों तथा आदित्यों से उस पर आसीन होने के लिए कहा गया है।२ एक अन्य मन्त्र में भी अग्नि को "देव-बर्हिकहकर सम्बोधित किया गया है तो उस देवजुष्ट बर्हि से दीर्घ प्रसार करने, सुरभि होने तथा इन्द्रज्येष्ठ मरुतों का पूजन करने के लिए कहा गया है। बर्हि देव कहलाने वाला यह अग्नि-रूप अन्तरिक्ष चेतना है जिसको "ज्योतिरसि' कहकर ज्योति-रूप अन्तरिक्ष की याचना की गई है।४ इसी वर्धमान अन्तरिक्ष को जब ब्रह्म (जैउ.२.३.३.६) कहा जाता है, तो ब्रह्म शब्द को भी उसी धातु से निष्पन्न माना गया प्रतीत होता है जिससे बर्हि नामक अन्तरिक्ष निष्पन्न है।

इससे स्पष्ट है कि बर्हि शब्द मूलतः अन्तरिक्ष नामक अग्नि चेतना का बोधक था और कर्मकाण्ड में उसी का प्रतीक कुश को बनाया गया है। जब मनीषियों से लगातार वहां तक बर्हि को स्तीर्ण करने को

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१.बर्हिर्यजति, य एव देवयाना पंधानः तेषु एव प्रतितिष्ठति । तैसं.२.६.१.३

२.देव बर्हिर्वर्धमानं सुवीरं स्तीर्णं राये सुभरं वेद्यस्याम्।.

घृतेनाक्तं वसवः सीदतेदं विश्वे देवा आदित्या यज्ञियासः।। ऋ.२.३.४

३.वि प्रथतां देवजुष्टं तिरश्चा दीर्घम् द्राघ्मा सुरभि भूत्वस्मे।

अहेळता मनसा देव बर्हिः इन्द्रज्येष्ठाँ उशतो यक्षि देवान् ।। ऋ.१०.७०.४

४.ज्योतिरसि ज्योतिर्मे यच्छान्तरिक्षं यच्छ। तैसं.५.७.६.२

 

कहा जाता है जहां अमृत का दर्शन (अमृतस्य चक्षणाम्) होता है, तो सायणाचार्य ठीक ही कहते हैं कि यहां बर्हि से अग्नि अभिप्रेत है

स्तृणीत बहिरानुषक् घृतपृष्ठं मनीषिणः यत्र अमृतस्य चक्षणम् । ऋ.१.१३.५

जिस अमृतस्य चक्षणं तक उस बर्हि नामक चेतना के स्तरण की कामना की गई है वह ब्रह्म-पद प्रतीत होता है। अतः जब निघण्टु में बर्हि को पदनामों में समाविष्ट किया गया, तो सम्भवतः बर्हि शब्द से यही पद अभिप्रेत था। दूसरे शब्दों में, बर्हि व्यक्ति की वह अन्तरिक्षचेतना है जो विस्तार प्राप्त करती हुई अन्ततोगत्वा ब्रह्म-सायुज्य को प्राप्त करती है। इसी दृष्टि से देव बर्हि' से शतवल्श१ होकर आरोहण करने को प्रार्थना है जिससे हम ब्रह्म-शक्ति के साथ "सहस्रवण' करने में सहस्रवल्श होकर आरोहण करते हुए कहे जाएं -

"देव बर्हिश्शतवल्शं विरोह सहस्रवल्शा वि वयं रुहेमा।।' काठ.।.२; क.१.२

निष्कर्ष

अतएव पूरे शोध-प्रबन्ध का निचोड़ "एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति में ही निहित प्रतीत होता है। समस्त अनेकता से परे जो एक

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१.मनुष्य के मेरुदण्ड में कुल मिलाकर ३३ केन्द्र हैं, जिनमें से प्रत्येक

से भावना-ज्ञान-क्रियात्मक त्रिविध चेतना-तन्तु शरीर में फैलते हैं, इस प्रकार ९९ शाखाओं के अतिरिक्त "सुषम्ना' को मिला कर शत शाखाएं हो जाती हैं। इन सब शाखाओं में दिव्य-चेतना प्रवाहित होने का अर्थ है ब्रह्मात्म-सायुज्य से होने वाला सहस्रवण अथवा सहस्रवल्श होना।

 

अद्वैत सत्ता है वही अपनी वाक् द्वारा सम्पूर्ण नानात्व में प्रकट हुआ है -- "वाग् भूत्वा इदं सर्वं व्यभवत्।“  इस प्रसंग में वाक्१ से वाणी अभिप्रेत न होकर उसी अन्तरिक्ष नामक अन्तश्चेतना की ओर संकेत है जिसमें निघण्टु के सभी अन्तरिक्षनामों का समावेश होता है। वाक् नामक अन्तरिक्ष-चेतना ही अपने एक रूप में प्रथनात् पृथिवी' कही जा सकती है।२ वर्धमान (विस्तीर्यमाण) होने से बर्हि का समीकरण पृथिवी के साथ होता है, तो भी "वागिति अन्तरिक्षम्की पुनरुक्ति ही समझी जानी चाहिए। इसी प्रकार, जब 'वागिति द्योः (जैउ  ४.११.I.११ ) कहा जाता है, तो अन्तरिक्ष के द्योतमान रूप की ओर ही इंगित होता है, क्योंकि अन्तरिक्ष उधस् है तो द्यौ और पृथिवी उसी के दो स्तन हैं।४ इस प्रकार द्यो और पृथिवी अपने प्रचलित अर्थ में नहीं, अपितु मूल वाक् अन्तरिक्ष के ही दो पक्ष या पहलू ही समझे जाएंगे।

दूसरे शब्दों में, अव्यक्त अद्वैत सत्ता जिस वाक् या अन्तरिक्ष द्वारा अपने को व्यक्त करना चाहती है वह द्यावापृथिवी का युग्मरूप ग्रहण करके ही नानात्व ग्रहण करती है। इसी दृष्टि से, द्यावापृथिवी को सभी देवों के पिता-माता कहा जाता है। जैसा ऊपर देख चुके हैं, द्यावापृथिवी जैसे अनेक युग्म अथवा देव-मिथुन वेद-मन्त्रों में प्राप्त होते हैं, परन्तु वे सभी प्राण की समञ्चन-प्रसारणात्मक द्विविध गति के द्योतक होकर विभिन्न दृष्टियों से अलग अलग नाम ग्रहण करते

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१.वागिति अंतरिक्षम् जैउ.४.११.१.११ 

२.वागिति पृथिवी जैउ.४.११.१.११ तु.तैसं.५.६.८.५; माश १४.४.३.११

३.अयं लोको बर्हिः माश १.४.१.२४; १.८.२ ११ ; ९.२.२९

४.उधर्वा अन्तरिक्षम् (द्यावापृथिव्याख्यौ)  स्तनौ अभितऽनेन वा एष

देवेभ्यो दुग्धे ऽमुना प्रजाभ्यः तां.२४.१.

 

हैं और अपनी द्विविध गति द्वारा विभिन्न देव-तत्वों को रूप प्रदान करते हैं। इस प्रकार समस्त नानात्व के मूल में मूल अन्तरिक्षचेतना का यही युग्म है जिसे ब्रह्मरूप यक्ष के दो "महती यक्षेकहा गया है इन्हीं को "नाम-रूप' संज्ञा दी गई जो परवर्ती दर्शन में अधिक लोकप्रिय हुई।

अन्तरिक्ष और द्यावापृथिवी के इस तात्विक स्वरूप के अतिरिक्त, लोक-प्रसिद अर्थ की छाया भी वेद-मन्त्रों में प्राप्त हुई। उसके अनुसार, सामान्य अहंकार-ग्रस्त मनुष्य-व्यक्तित्व के मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोश ही क्रमशः द्यौ, अन्तरिक्ष और पृथिवी हैं। यह मानुषी-त्रिलोकी है जिससे ही सामान्यतः जन-जन परिचित होता है। साधना द्वारा इस त्रिलोकी को उरुत्व प्रदान करके देवीत्रिलोकी से उसका सम्पर्क होने से ही मनुष्य अपनी उस अतिमानसिक सत्ता का बोध प्राप्त कर सकता है जहां परब्रह्म आत्मा से युक्त होकर विराजमान है। यह बोध जिस समाधि की अवस्था में साधक को होता है, उसमें मानुषी-त्रिलोकी इतनी विस्मृत हो जाती है कि मानो उसका अस्तित्व ही नहीं रहा। व्युत्थान की अवस्था में वह पुनः यथापूर्व अस्तित्व में आती है, परन्तु अब साथ में वह दिव्य स्वः ज्योति भी होती है जो पूर्व में प्राप्त नहीं थी -

सूर्याचन्द्रमसो धाता यथापूर्वम् अकल्पयत्।

दिवं च पृथिवीं च अन्तरिक्षमथो स्वः।।

इसी पूर्व के संदर्भ में प्रजापति का जिस प्रकार भूत' नाम हो जाता है उसी प्रकार महान् आत्मा के "भूतनामधेयानि' की कल्पना करके निरुक्त (१४.११)  में जो अनेक नाम दिए गए हैं उनमें आत्मा तथा ब्रह्म के अतिरिक्त निघण्टु के अन्तरिक्षनाम तथा ४२ उदकनामानि भी दिए गए हैं, क्योंकि अन्तरिक्षनामों और उदकनामों द्वारा अन्तश्चेतना की ओर ही संकेत किया गया है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण आपः व्योम और बर्हि जैसे अन्तरिक्षनामों और उदकनामों में समान रूप से होता है।

महान् आत्मा के "भूतनामधेयानि' में अन्तरिक्षनामों का पूर्णतया समावेश करना ही इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि निघण्टु और निरुक्त में वेद के आध्यात्मिक व्याख्यान को कितना महत्व दिया गया है। परन्तु निरुक्त १४वें अध्याय में यह सूची देकर ही नहीं रह गया, अपितु "अथैतं महान्तमात्मानम् एतानि सूक्तान्येता ऋचोऽनुप्रवदन्ति कहकर वहीं लगभग ३० वेद-मन्त्रों की आध्यात्मिक व्याख्या भी दी गई है जिसमें सोम, समुद्र, वह्नि, आदित्य, दधिक्रावा, अग्नि, इन्द्र, जातवेदा आदि को आत्मा के अर्थ में ग्रहण किया गया है। इसी प्रकार १३वें अध्याय में अतिस्तुतयःनाम से जिन मन्त्रों की व्याख्या प्रस्तुत की गई है उससे स्पष्टतः प्रमाणित होता है कि निरुक्त की दृष्टि से वेद-मन्त्रों में जो सामान्यतः प्राकृतिक शक्तियों की स्तुति समझी जाती है उससे परे एक अतिस्तुति" भी है। यहां 'अतिस्तुति से अभिप्राय निस्संदेह एकेश्वरवादी स्तुति से, जैसा कि "महाभाग्याद् देवतायाःकहकर साथ ही स्पष्ट भी कर दिया गया है।

प्रायः यह कहा जाता है कि निरुक्त के ये दोनों अध्याय यास्ककृत नहीं, अपितु बाद में जोड़े गए हैं, परन्तु उक्त आध्यात्मिक व्याख्या निस्संदेह निरुक्त के सातवें अध्याय के निम्नलिखित निर्देशों के अनुरूप है -

'महाभाग्याद् देवताया एक आत्मा बहुधा स्तूयते। एकस्य आत्मनः अन्ये देवाः प्रत्यंगानि भवन्ति। अपि च सत्वानां प्रकृतिभूमिभिर्ऋषयः स्तुवन्तीत्याहुः प्रकृतिसार्वनाभ्याच्च इतरेतरजन्मानो भवन्ति। इतरेतरप्रकृतयः। कर्मजन्मानः। आत्मजन्मानः। आत्मा एव एषां रथो भवति। आत्माश्वः। आत्मायुधाम्। आत्मेषवः। आत्मा सर्व देवस्य'

वेद-व्याख्या के विषय में यास्क का यही प्रतिपाद्य मत प्रतीत होता है, यद्यपि उस विद्वान् ने तटस्थभाव से उन सभी मतों को पूरा महत्व दिया है जो उस समय तक प्रचलित हो चुके थे। इनमें न केवल ऐतिहासिकों, नैरुक्तों, याज्ञिकों और नैदानों के मत आते हैं, अपितु कौत्स जैसे उन वेद-विरोधियों के मत भी आते हैं जिनकी मान्यता थी कि वेद-मंत्रों का कोई अर्थ ही नहीं होता।

ऐसा प्रतीत होता है कि यास्क के समय वेद-मन्त्रों का आध्यात्मिक अर्थ सर्वथा उपेक्षित हो चुका था और अर्थ कामपरायणता को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। इसलिए यास्क ने प्रारंभ में प्रचलित अर्थ से दूर न जाते हुए, तथा आध्यात्मिक व्याख्या के अनुरूप दिशा-निर्देशन करते हुए सातवें अध्याय में अपने प्रतिपाद्य को संक्षेप में देकर, व्याख्या के नमूने अंतिम दो अध्यायों में दिए थे, परन्तु इस प्रकार की व्याख्या की मांग न होने से निरुक्त के इन अध्यायों की उपेक्षा होती रही। इसीलिए आचार्य दुर्ग ने अपने भाष्य में लिखा -

'अयं च तस्या द्वादशाध्यायी भाष्यविस्तरः।

तस्येदमदिवाक्यम् समाम्नायः समा म्नातः ।।

दुर्गभाष्य के द्वादश अध्याय तक सीमित रहने का कारण यही था कि मांग न होने के कारण अंतिम दो अध्याय निरन्तर उपेक्षित होते रहे ओर उनकी प्रतिलिपि भी दुर्लभ होती गई । परन्तु सातवें अध्याय से द्धृत उक्त यास्क-वचन को देखते हुए, ब्राह्मणों, आरण्यकों और उपनिषदों में वेद-मन्त्रों की आध्यात्मिकता की ओर अनेक संकेतों को देखते हुए, यह मानना सर्वथा अनुचित है कि निरुक्त के अंतिम दो अध्याय यास्क द्वारा रचित नहीं हैं।

इसके अतिरिक्त स्वयं वेद-मन्त्रों के आधार पर इस शोधप्रबन्ध में अन्तरिक्षनामों की जो आध्यात्मिक व्याख्या की गई है अथवा पूर्व में डा० श्रद्धा चौहान, डा० प्रतिभा शुक्ला तथा डा० माधुरी गुप्ता ने अपने अपने शोध-प्रबन्ध में निघण्टु के क्रमशः धननामानि, हिरण्यनामानि और अश्वनामानि की जो आध्यात्मिक व्याख्या प्रस्तुत की है उससे भी यह सिद्ध है कि वेद का मुख्य प्रतिपाद्य वह अध्यात्मविद्या ही है जो पाश-बद्ध जीव से लेकर ब्रह्म-सायुज्य द्वारा उसके स्वयंभू होने तक का रहस्योद्घाटन करती है।

अन्त में, इस आध्यात्मिकता को अभिव्यक्त करने वाली उस वैदिक शैली के महत्व की ओर संकेत कर देना भी समीचीन होगा, जिसके द्वारा संस्कृत के अनेक शब्दों का अर्थ-विस्तार किया गया है। उदाहरण के लिए, उपर्युक्त स्वयंभू नामक अन्तरिक्ष को लेते हैं जिसका मन्यु देवता के साथ इस प्रकार समीकरण किया गया है -

त्वं हि मन्यो अभिभूत्योजाः स्वयंभूर्भामो अभिमातिषाहः ।

विश्वचर्षणिः सहुरिः सहीयान् अस्मासु ओजः पृतनासु धेहि।। ऋ.१०.८३.४; शौ.४.३२.४

सामान्यतः मन्यु शब्द क्रोध-वाचक है। इसीलिए निघण्टु के क्रोधनामों में परिगणित है। परन्तु जिस मन्यु को ऋ.१०.८३-८४ और अथर्व ४.३२-३३ का देवता माना गया, वह निस्संदेह उक्त कोध-वाचक से भिन्न हैं। इसी ओर संकेत करने के लिए, निघण्टु के पदनामों में भी मन्यु शब्द पठित है। देवता रूप में जिस मन्यु का मन्त्रों में उल्लेख है वह 'तपसा सजोषाः’ (ऋ.१०.८४.२; शौ.४.३३.२) होने से 'मानुषी विशः' का रक्षक है और 'तपसा युजा' होने से (ऋ.१०.८४.३) शत्रु-संहारक है। तपोपूत अन्तश्चेतना ही ब्रह्म-सायुज्य प्राप्त करके वह "स्वयंभूः' होती है जो अपेक्षित रक्षण तथा संहार करने में स्वतः ही प्रवृत्त हो जाती है। यह अन्तश्चेतना का स्वयंभूत्व ही वस्तुतः वह "स्वभावहै जिसे गीता में अध्यात्म" कहा गया है - अक्षरं परमं ब्रह्म स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते। जो तपोपूत अन्तश्चेतना मन्यु कही जाती है वही इन्द्र, वरुण तथा जातवेदा कहलाती है -- मन्युरिन्द्रो मन्युरेवास देवो मन्युर्होता वरुणो जातवेदाः। (ऋ.१०.८३.२)

कोधवाचक मन्यु को इस उदात्त अर्थ प्रदान करने के लिए मन्यु जिस धातु से निष्पन्न है उसे वेद में दीप्त्यर्थक रूप भी दिया गया, जैसा कि यास्क मन्युर्मन्यते दीप्तिकर्मणः (निरु.१०.२९) कहकर बतलाते हैं। यह दीप्ति अन्तश्चेतना में तप के कारण होने वाले ब्रह्म सायुज्य से आती है। इसके परिणामस्वरूप आसुरी-शक्तियों का विनाश और मानुषी-शक्तियों की रक्षा स्वभावतः होने लगती है--अर्थात् अन्तश्चेतना स्वयंभू मन्यु हो जाती है। गीता के शब्दों में स्वभावः एष प्रवर्तते।

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