पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

 

 

दुर्गा सप्तशती

टिप्पणीः दुर्गा सप्तशती का वैदिक मूल तीन अग्नियां गार्हपत्य, अन्वाहार्यपचन और आहवनीय अग्नि हो सकते हैं। पहले केवल एक अग्नि का अस्तित्व होता है जिसे वृथा अग्नि कहते हैं। यह खाण्डव वन की अग्नि है जिसे अर्जुन ने तृप्त किया था। तप करने से इस अग्नि से तीन अग्नियां उत्पन्न होती हैं। इन तीन अग्नियों से तीन वेद उत्पन्न होते हैं। इसके प्रतीकस्वरूप दुर्गा सप्तशती में तीन चरित्र हैं प्रथम, मध्यम और उत्तम। प्रथम चरित्र में विष्णु द्वारा मधु-कैटभ असुरों का निग्रह होता है, द्वितीय चरित्र में देवों के तेज से उत्पन्न भद्रकाली देवी द्वारा महिषासुर का निग्रह होता है और उत्तम चरित्र में देवी के कोशों से उत्पन्न अम्बिका देवी द्वारा शुम्भ-निशुम्भ दैत्यों का वध होता है।  

*प्रजापतिरकामयत प्रजायेय भूयान् स्यामिति, स तपोऽतप्यत, स तपस्तप्त्वेमाँल्लोकानसृजत-- पृथिवीमन्तरिक्षं दिवं, ताँल्लोकानभ्यतपत्, तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रीणि ज्योतींष्यजायन्ताग्निरेव पृथिव्या अजायत, वायुरन्तरिक्षादादित्यो दिवस्तानि ज्योतींष्यभ्यतपत्, तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रयो वेदा अजायन्त ऋग्वेद एवाग्नेरजायत, यजुर्वेदो वायोः, सामवेद आदित्यात्, तान् वेदानभ्यतपत् तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रीणि शुकाण्यजायन्त, भूरित्येव ऋग्वेदादजायत, भुव इति यजुर्वेदात्, स्वरिति सामवेदात्। तानि शुक्राण्यभ्यतपत्, तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रयो वर्णा अजायन्ताकार उकारो मकार इति, तानेकधा समभरत् तदेतदो३मिति, तस्मादोमोमिति प्रणोत्योमिति वै स्वर्गो लोक ओमित्यसौ योऽसौ तपति। - ऐ.ब्रा. ५.३२

 *स्वाध्याय ब्राह्मणम् -- अ॒जान्ह॒ वै पृश्नीँ॑स्तप॒स्यमा॑ना॒न्ब्रह्म॑ स्वयं॒भ्व॑भ्यान॑र्ष॒त्त ऋष॑योऽभव॒न्तदृषी॑णामृषि॒त्वं - - यदृ॒चोऽध्यगी॑षत॒ ताः पय॑आहुतयो दे॒वाना॑मभव॒न्यद्यजूँ॑षि घृ॒ताहु॑तयो॒ यत्सामा॑नि॒ सोमा॑हुतयो॒ यदथ॑र्वाङ्गि॒रसो॒ मध्वा॑हुतयो॒ यद्ब्रा॑ह्म॒णानी॑तिहा॒सान्पु॑रा॒णानि॒ कल्पा॒न्गाथा॑ नाराशँ॒सीर्मे॑दाहु॒तयो॑ दे॒वाना॑मभव॒न्ताभिः॒ क्षुधं॑ पा॒प्मान॒मपा॑घ्न॒न् तै.आ. २.९.१

 प्रथम चरित्र प्रथम चरित्र में मधु दैत्य द्वारा कमल पर विराजमान ब्रह्मा के कमलनाल को प्रकम्पित करने, ब्रह्मा द्वारा योगमाया की स्तुति करने पर योगमाया द्वारा विष्णु के पांच अंगों को त्याग कर बाहर प्रकट होने, विष्णु द्वारा जागकर मधु-कैटभ से युद्ध करने और अन्त में निरुदक प्रदेश/जघन पर मधु असुर का वध करने का वर्णन है। यदि प्रथम चरित्र को ऋग्वेद के तुल्य मानें तो तैत्तिरीय आरण्यक २.९.१ में ऋचाओं से पयः आहुतियों की उत्पत्ति का उल्लेख है, मधु की नहीं। पयः अवस्था किसी भी तनाव से मुक्त होने की अवस्था है जबकि मधु अवस्था हमारी चेतना रूपी पृथिवी के सब भूतों के लिए मधु/मधुर बनने और  सब भूतों के हमारी चेतना के लिए मधुर बनने की अवस्था है। इससे प्रतीत होता है कि संसार की कोई भी वस्तु हमारी चेतना के विपरीत नहीं होगी। यह अरिष्ट की, अहिंसा की स्थिति होगी। दुर्गा सप्तशती के प्रथम चरित्र में मधु असुर का असुरत्व क्या है, यह स्पष्ट नहीं है। हो सकता है मधु असुर पयः की स्थिति हो। तैत्तिरीय आरण्यक के उपरिलिखित संदर्भ में तो मधु अवस्था अथर्ववेद से उत्पन्न होती है तथा उसके पश्चात् ब्राह्मण, इतिहास, पुराण आदि से मेद की अवस्था उत्पन्न होती है। प्रथम चरित्र में उल्लेख आता है कि मधु असुर के हनन के पश्चात् उसका मेद पृथिवी पर फैल गया और इस कारण पृथिवी का नाम मेदिनी हो गया। इस संदर्भ में मेद का अर्थ मेध लिया जाना चाहिए और पृथिवी रूपी चेतना को मेधिनी कहा जाना चाहिए। दुर्गा सप्तशती का प्रारम्भ सुरथ राजा व समाधि वैश्य द्वारा समस्या समाधान के लिए मेधा/सुमेधा ऋषि के पास पहुंचने से होता है। अतः मेधा ऋषि द्वारा जो प्रथम चरित्र सुनाया गया है, उसमें छद्म रूप से मेधा का समावेश है। मेधा का सामान्य अर्थ तो बुद्धि लिया जाता है, लेकिन पौराणिक संदर्भों के आधार पर मेधा का अर्थ श्रुत ज्ञान की प्राप्ति तथा स्मृति की प्राप्ति लिया जा सकता है।

     प्रायः विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल पर ब्रह्मा को स्थित कहा जाता है। इस नाभिकमल के दण्ड को मधु असुर प्रकम्पित करता है। यह संभव है कि प्रथम चरित्र हमारी देह की नाभि पर स्थित मणिपूर चक्र से सम्बन्धित हो। प्रथम चरित्र को ऋग्वेद से सम्बद्ध किया गया है। ऋग्वेद की विशेषता यह होती है कि कोई काम करने से पहले ही उसका पूर्वाभास हो जाए यत्कर्म क्रियमाणम् ऋगभिवदति ऐतरेय ब्राह्मण। हमें उस कर्म के पीछे छिपे कारण का भी ज्ञान हो जाए।

द्वितीय चरित्र द्वितीय चरित्र में महिषासुर से त्रस्त देवों द्वारा स्व-स्व तेज को एकत्र करके उससे एक देवी के प्रादुर्भाव का वर्णन है। इस देवी का नाम भद्रकाली है। यह देवी महिषासुर से युद्ध करती है तो महिषासुर अपना रूप बदल लेता है। कभी वह गज बन जाता है, कभी पुरुष, कभी महिष। एक बार जब वह महिष से दूसरे रूप में परिवर्तित हो रहा था(अर्धनिष्क्रान्त), उस समय देवी ने उसे अपने पद से आक्रान्त करके उसके कण्ठ पर प्रहार किया और तलवार से उसका सिर काट डाला। इस कथा में अर्धनिष्क्रान्त शब्द ध्यान देने योग्य है। श्री रजनीश ने कुण्डलिनी और सात शरीर ( Seven Bodies Seven Chakras) नामक व्याख्यानमाला में कहा है कि अनाहत या हृदय के चक्र में पहुंचने पर चेतना की स्थिति ऐसी होती है जैसे कोई वस्तु बोतल में बन्द भी हो और बोतल के बाहर भी हो। वह है तो देह रूपी आयतन में सीमित, लेकिन उसमें ब्रह्माण्ड में फैलाव का गुण भी है। यह स्थिति महिषासुर की कही जा सकती है। महिषासुर का असुरत्व क्या है जिसका देवी नाश करती है, यह अन्वेषणीय है। सोमयाग में आग्नीध्र ऋत्विज की वेदी का स्थान आधा यज्ञवेदी के बाहर होता है, आधा अन्दर। हविर्याग में दक्षिणाग्नि का गुण यह होता है कि इस स्थिति में ब्रह्माण्ड में व्याप्त होना भी संभव है, लेकिन जब चेतना आयतन में बद्ध हो जाती है तो फिर प्रकृति में विद्यमान द्यूत प्रक्रिया से आक्रान्त हो जाती है, उससे मुक्त नहीं रहती(नल द्वारा अश्व विद्या जानना, लेकिन अक्ष विद्या न जानना)। मध्यम चरित्र को यजुर्वेद से सम्बद्ध किया गया है। यजुर्वेद का आधार यह है कि हम जो भी कामना करें, उसका मूर्तिमान् रूप तुरन्त प्रस्तुत हो जाए, हमें उसके लिए प्रयत्न न करना पडे, कल्प वृक्ष बन जाए। यदि प्रयत्न करना पडे तो वह महिषासुर होगा।

     महिषासुर के सहयोगियों महाहनु, असिलोमा, चिक्षुर, चामर, बाष्कल आदि के निहितार्थ अन्वेषणीय हैं।

तृतीय चरित्र तृतीय चरित्र में पार्वती देवी के शरीरकोश से एक देवी का प्राकट्य होता है जिसे अम्बिका या शिवा नाम दिया गया है। देवी के प्रकट होने के बाद पार्वती का नाम कालिका हो जाता है। अम्बिका शुम्भ-निशुम्भ असुरों और उनके सहयोगियों का वध करती है। शुम्भ के सहयोगियों के रूप में धूम्रलोचन, चण्ड-मुण्ड, रक्तबीज आदि के नाम हैं। इसके अतिरिक्त कालक, दौर्हृद, मौर्य, कालकेय असुरों के गणों का भी उल्लेख है। यह चरित्र सामवेद से सम्बन्धित है। पार्वती देवी के शरीर से दूसरी देवी का प्रकट होना और मूल देवी का कालिका कहलाना यह संकेत करता है कि यह चरित्र कण्ठ में स्थित विशुद्धि चक्र से सम्बन्धित है। श्री रजनीश के अनुसार विशुद्धि चक्र में पहुंचने पर चेतना की जड स्थिति, कालापन समाप्त हो जाता है और वह ब्रह्माण्ड में विचरण करने में, दूसरों की चेतना में प्रवेश करने में पूर्णतः समर्थ होती है। शुम्भ असुर के बारे में यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह किसी प्रकार से हृदय के अन्दर स्थित साम्ब सदाशिव नामक ज्योति से सम्बन्धित है। शुम्भ का शुद्ध रूप शुभ हो सकता है। सभी शुभ है, अशुभ कुछ भी नहीं, अन्दर का यह विश्वास। 

प्रथम लेखन २१-१०-२०११ ई.(कार्तिक कृष्ण नवमी, विक्रम संवत् २०६८)