PURAANIC SUBJECT INDEX (From Nala to Nyuuha ) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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नारद का वैदिक स्वरूप - विपिन कुमार पौराणिक साहित्य में नारद का जितना अधिक विस्तृत वर्णन हुआ है, वैदिक साहित्य में उतना ही संक्षिप्त। ऋग्वेद सूक्त ८.१३ कण्व – पुत्र नारद ऋषि का है जबकि सूक्त ८.१२ कण्व – पुत्र पर्वत ऋषि का है। इन दोनों सूक्तों के देवता के रूप में इन्द्र का उल्लेख है। ऋग्वेद ९.१०४ सूक्त के ऋषियों के रूप में कण्व - पुत्र पर्वत – नारद द्वय, अथवा कश्यप के पुत्र पर्वत – नारद द्वय अथवा शिखण्डिनी अप्सरा – द्वय का उल्लेख है। ऋग्वेद सूक्त ९.१०५ कण्व – पुत्र पर्वत – नारद द्वय ऋषियों का है। पुराणों में नारद शब्द की जो निरुक्तियां उपलब्ध हैं, उनके आधार पर भी वेदों अथवा पुराणों के नारद के चरित्र की व्याख्या नहीं की जा सकती। व्याख्या का एकमात्र स्रोत नर बचता है जिससे नार अर्थात् जल शब्द की व्युत्पत्ति होती है। नार देने वाला नारद हो सकता है, अथवा नर के गुणों के अनुसार आचरण करने वाला नारद हो सकता है। नर के क्या गुण हो सकते हैं, इसका विस्तृत रूप हमें सोमयाग में अन्वाहार्य पचन या दक्षिणाग्नि के रूप से मिल सकता है जिसके लिए अन्वाहार्यपचन शब्द पर टिप्पणी पठनीय है। इस अग्नि के देवता के रूप में नल नैषध का उल्लेख है। पुराणों का नल – दमयन्ती आख्यान इस अग्नि के गुणों पर बहुत प्रकाश डालता है। नल को देवताओं से ८ वरदान मिले हुए हैं जिनमें से एक यह है कि वह जहां चाहेगा वहां जल अथवा रस उत्पन्न हो जाएगा। इसी कारण से नल – दमयन्ती आख्यान में नल राजा ऋतुपर्ण का रसोईया या पाकशालाध्यक्ष बनता है। साहित्य में पाक से अर्थ अचेतन मन या अर्धचेतन मन या चित्त के पाक से, उसे चेतन मन में रूपान्तरित करने से लिया जा सकता है। जब नारद का संदर्भ आता है तो पाक का अर्थ भक्ति में रूपान्तरित करने से लिया जा सकता है। नर का दूसरा गुण यह है कि उसमें द्यूत विद्यमान हो भी सकता है, नहीं भी। पुराणों के नलोपाख्यान में नल अश्व विद्या तो जानता है, लेकिन अक्ष विद्या नहीं। अक्ष विद्या उसे सीखनी पडती है। पुराणों की कथाओं में नारद ऋषि अकस्मात् प्रकट हो जाते हैं और महत्त्वपूर्ण सूचना देते हैं। यह द्यूत का लक्षण है। वेद के सूक्तों में नारद और पर्वत ऋषि – द्वय का उल्लेख मिलता है। पर्वत तथा पर्व शब्दों पर चिन्तन करने से नारद शब्द का रूप भी स्पष्ट होता है। सोमयाग में महाव्रत नामक एकदिवसीय कृत्य सम्पन्न किया जाता है। यह एक प्रकार से उत्सव है। इस दिन सामवेद के १७ स्तोत्रों तथा ऋग्वेद के ८४ शस्त्रों का उच्चारण होता है। यह कुल मिलाकर १०१ हो जाते हैं। यही संख्या शततन्तु वीणा के तारों की भी होती है। इस दिन वीणावादन किया जाता है। इस प्रकार इस दिन एक ओर अमर्त्य स्तर के लिए सामवेद के स्तोत्रों का गायन हो रहा है तो दूसरी ओर मर्त्य स्तर पर वीणा वादन हो रहा है। शतपथ ब्राह्मण ४.६.४.१ का कथन है कि प्रजा का सृजन करते करते प्रजापति के पर्व(अंग) अस्त – व्यस्त हो गए। वह इन पर्वों को संभालने में समर्थ नहीं रहे । तब देवों ने महाव्रत का दर्शन किया और इसके चारण से प्रजापति अपने पर्वों को पुनः धारण कर पाए। उन्होंने संहित पर्वों से अन्नाद्य, अन्नों में सर्वश्रेष्ठ को प्रस्तुत किया। जो मनुष्यों का अन्न है, वही देवों का व्रत है। यह व्रत महान् बना, यही महाव्रत नाम का कारण है। इससे आगे कहा गया है कि जैसे प्रजापति प्रजा की सृष्टि करता है, फिर संवत्सर में अन्नाद्य को प्रस्तुत करता है, इसी की पुनरावृत्ति करनी होती है। जिस प्रकार का स्वरूप महाव्रत का है, वैसा ही स्वरूप पुराणों के नारद का भी है। नारद जी भगवान् के गुणगान हेतु सदैव वीणा धारण करते हैं। यदि पर्वों से, हमारे अंगों से व्यर्थ का सृजन बंद हो जाए तो पर्व या अंग सुरक्षित रह सकते हैं और फिर उनसे अन्नाद्य की, अन्नों में सर्वश्रेष्ठ भक्ति स्वरूप की रचना की जा सकती है। पुराणों में नारद को सदा चलायमान रहने का शाप मिला हुआ है जबकि पर्वतों से यह अपेक्षा की जाती है कि वह स्थिर रहेंगे और इस प्रकार पृथिवी को स्थिरता प्रदान करेंगे। पहले पर्वत उडते फिरते थे, तब इन्द्र ने उनके पक्षों का छेदन कर दिया था। तबसे पर्वत स्थिर हैं। जो कुछ भी साधना करनी है, वह पर्वत के स्तर पर करनी है, नारद के स्तर पर नहीं। पर्वत के स्तर पर साधना के रूप में पहला चरण तो यह है कि पर्वत की एक इकाई को पर्वों में विभाजित कर दिया जाए(वि वृत्रं पर्वशो ययुर्वि पर्वताँ अराजिनः । चक्राणा वृष्णि पौंस्यम् ॥ - ऋग्वेद ८.७.२३, त्यं चित्पर्वतं गिरिं शतवन्तं सहस्रिणम् । वि स्तोतृभ्यो रुरोजिथ ॥- ८.६४.५)। यह वैसे ही है जैसे इन्द्र ने दिति के गर्भ के ७x७ = ४९ टुकडे कर दिए थे और फिर वह मरुत इन्द्र के सखा बन गए थे। ऐसे ही नारद और पर्वत सखा कहे गए हैं। प्रथम लेखन – ३०-१२-२०१०ई.(पौष कृष्ण दशमी, विक्रम संवत २०६७)
तं वृक्षा अप सेधन्ति छायां नो मोप गा इति । यो ब्राह्मणस्य सद्धनमभि नारद मन्यते ॥शौअ ५.१९.९॥ चरेदेवा त्रैहायणादविज्ञातगदा सती । वशां च विद्यान् नारद ब्राह्मणास्तर्ह्येष्याः ॥१६॥ देवा वशामयाचन् यस्मिन्न् अग्रे अजायत । तामेतां विद्यान् नारदः सह देवैरुदाजत ॥२४॥ या वशा उदकल्पयन् देवा यज्ञादुदेत्य । तासां विलिप्त्यं भीमामुदाकुरुत नारदः ॥४१॥ तां देवा अमीमांसन्त वशेया३ अवशेति । तामब्रवीन् नारद एषा वशानां वशतमेति ॥४२॥ कति नु वशा नारद यास्त्वं वेत्थ मनुष्यजाः । तास्त्वा पृच्छामि विद्वांसं कस्या नाश्नीयादब्राह्मणः ॥४३॥ विलिप्त्या बृहस्पते या च सूतवशा वशा । तस्या नाश्नीयादब्राह्मणो य आशंसेत भूत्याम् ॥४४॥ नमस्ते अस्तु नारदानुष्ठु विदुषे वशा । कतमासां भीमतमा यामदत्त्वा पराभवेत्॥शौअ १२.४.४५॥ विलिप्ती या बृहस्पतेऽथो सूतवशा वशा ।
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