PURAANIC SUBJECT INDEX

(From Nala to Nyuuha )

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

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Nala - Nalini( words like  Nala, Nalakuubara, Nalini etc.)

Nava - Naaga ( Nava, Navaneeta / butter, Navami / 9th day, Navaratha, Navaraatra, Nahusha, Naaka, Naaga / serpent  etc.)

Naaga - Naagamati ( Naaga / serpent etc.)

Naagamati - Naabhi  ( Naagara, Naagavati, Naagaveethi, Naataka / play, Naadi / pulse, Naadijangha, Naatha, Naada, Naapita / barber, Naabhaaga, Naabhi / center etc. )

Naama - Naarada (Naama / name, Naarada etc.)

Naarada - Naaraayana (  Naarada - Parvata, Naaraayana etc.)

Naaraayani - Nikshubhaa ( Naaraayani, Naarikela / coconut, Naaree / Nari / lady, Naasatya, Naastika / atheist, Nikumbha, Nikshubhaa  etc.)

Nigada - Nimi  ( Nigama, Nitya-karma / daily ablutions, Nidhaagha, Nidra / sleep, Nidhi / wealth, Nimi etc.)

Nimi - Nirukta ( Nimi, Nimesha, Nimba, Niyati / providence, Niyama / law, Niranjana, Nirukta / etymology etc. )

 Nirodha - Nivritti ( Nirriti, Nirvaana / Nirvana, Nivaatakavacha, Nivritti etc. )

Nivesha - Neeti  (Nishaa / night, Nishaakara, Nishumbha, Nishadha, Nishaada, Neeti / policy etc. )

Neepa - Neelapataakaa (  Neepa, Neeraajana, Neela, Neelakantha etc.)

Neelamaadhava - Nrisimha ( Neelalohita, Nriga, Nritta, Nrisimha etc.)

Nrihara - Nairrita ( Nrisimha, Netra / eye, Nepaala, Nemi / circumference, Neshtaa, Naimishaaranya, Nairrita etc.)

Naila - Nyaaya ( Naivedya, Naishadha, Naukaa / boat, Nyagrodha, Nyaaya etc.)

Nyaasa - Nyuuha ( Nyaasa etc. )

 

 

Story of Manu and fish

Manu and fish saving each other

नौका

टिप्पणी : लौकिक रूप में जल को पार करने के लिए नौका का उपयोग किया जाता है । नौका को नाविक या केवट अरित्र/चप्पू की सहायता से चलाता है । नौका प्रायः काष्ठ की बनाई जाती है । अध्यात्म में इनकी तुलना मन, प्राण और वाक् से की जा सकती है । मन नाविक है, प्राण जल हैं और वाक् स्वयं नौका है । मन, प्राण और वाक् से यह तुलना कितनी सत्य है, यह आगे विवरण से स्पष्ट होगा ।

     सबसे पहले यह ध्यान देना होगा कि वह कौन से प्राण हैं जिन्हें पार करने के लिए नौका की आवश्यकता पडती है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.८.३.४ की यजु निम्नलिखित है -

अनु स्वधामक्षरन्नापो अस्य । अवर्धत मध्य आ नाव्यानाम् । सध्रीचीनेन मनसा तमिन्द्र । ओजिष्ठेन हन्मनाऽहन्नभिद्यून् ।। - ऋग्वेद १.३३.११

     यह यजु संकेत करती है कि कोई ऐसे आपः हैं जिन्हें नाव्य, नाव द्वारा पार करने योग्य कहा गया है । इनके साथ कोई अन्य प्रकार के आपः मिल गए हैं जिनका क्षरण स्वधा के अनुदिश हुआ है ।  इन्द्र इनका नाश करता है । शतपथ ब्राह्मण १०.५.४.१२-१४ का कथन है कि अग्नि दो प्रकार की है - एक चितः या चिति को प्राप्त और दूसरी परिश्रितः । आत्मा चितः है और अस्थियां परिश्रितः हैं । आपः चितः हैं और जो परिश्रितः, चारों ओर बिखरे हुए हैं, वह नाव्य हैं । आयुर्वेद के अनुसार शरीर में ३६० अस्थियां होती है और इनमें ३६० प्राण विद्यमान हैं । यह नाव्य प्राण आदित्य को, मुख्य प्राण को चारों ओर से घेरे हुए हैं । इस संदर्भ में अग्नि के चयन में प्रयुक्त होने वाली ३६० यजुष्मती इष्टकाओं को भी नाव्य, नाव द्वारा पार करने योग्य कहा गया है । यह ३६० प्राण मुख्य आदित्य प्राण पर क्षरण करते हैं ।

     उपरोक्त संदर्भ में यह उल्लेख करना उचित होगा कि अग्नि के चितः होने का क्या अर्थ है । आधुनिक विज्ञान के संदर्भ में चितः होने को एण्ट्रांपी, अव्यवस्था को न्यूनतम बनाना कहते हैं । यह सारा संसार अव्यवस्था की ओर अग्रसर हो रहा है । जैसा कि अन्यत्र टिप्पणियों में भी कहा जा चुका है, अव्यवस्था का दोष यह है कि इस विश्व की जितनी ऊर्जा है, उसे तो नष्ट नहीं किया जा सकता, लेकिन अव्यवस्था में वृद्धि होने पर उस ऊर्जा से कोई उपयोगी कार्य नहीं लिया जा सकता । उदाहरण के लिए, जब तक वाष्प स्टीम इंजन के सिलिण्डर में बंद है, उससे कोई भी कार्य कराया जा सकता है । यदि उस वाष्प को वायुमण्डल में मुक्त कर दिया जाए, वह वाष्प अव्यवस्थित हो जाए तो उससे कोई कार्य नहीं कराया जा सकता ।

 

     शतपथ ब्राह्मण २.३.३.१५ के अनुसार अग्निहोत्र ही स्वर्ग्या नौका है । अग्निहोत्र में गार्हपत्य अग्नि और आहवनीय अग्नि दो नौमण्ड(नाव की दो पार्श्व भित्तियां) कहे गए हैं । अग्निहोत्र कृत्य नौका किस प्रकार बन सकता है, इसके लिए अग्निहोत्र के रहस्य को समझना होगा जिसके लिए अग्निहोत्र पर टिप्पणी पठनीय है । संक्षेप में, अग्निहोत्र कर्म का सम्पादन प्रातः - सायं संध्या में किया जाता है । संध्या घटित होने के लिए भौतिक रूप में दो घटनाओं का घटित होना आवश्यक है - एक तो पृथिवी अपनी धुरी पर घूमे और दूसरे वह सूर्य के परितः भी परिभ्रमण करे । भौतिक रूप में तो यह घटना स्वयं घटित हो रही है, लेकिन अध्यात्म में अपनी पृथिवी को, अपने स्व: को एक बृहत् स्व: के परितः परिभ्रमण कराना है । इसके अतिरिक्त, पृथिवी को अपनी धुरी पर भी घुमाना है जिससे अहोरात्र का आविर्भाव हो सके । इसके लिए यह स्पष्ट करना होगा कि पृथिवी के अपनी धुरी पर चक्कर लगाने का अध्यात्म में क्या रूप हो सकता है । जैमिनीय ब्राह्मण २.४२२ में अहोरात्र को नौका/प्लव बनाया गया है । जैमिनीय ब्राह्मण १.२९ में स्वधा रूपी हिरण्मयी नौका का उल्लेख है ।

      वैदिक साहित्य के अनुसार सूर्य का लघु रूप प्राण है, जबकि पृथिवी का लघु रूप वाक् । अतः अग्निहोत्र कर्म प्राण और वाक् का संयुग्मन है । कहा गया है कि प्रातः काल वाक् रूपी अग्नि सूर्य रूपी प्राण में प्रविष्ट हो जाती है जबकि सायंकाल सूर्य वाक् रूपी अग्नि में प्रवेश कर जाता है । इससे आगे दर्श - पूर्णमास याग में मन रूपी चन्द्रमा घटित होता है । तब मन, प्राण और वाक् का संयुग्मन होता है ।

     आश्वलायन श्रौत सूत्र ४.१३.२ में होता द्वारा आहवनीय अग्नि पर हवनकर्म का विधान निम्नलिखित है -

आहवनीये वागग्रेगा अग्र एतु सरस्वत्यै वाचे स्वाहा । वाचं देवीं मनोनेत्रां विराजमुग्रां जैत्रीं उत्तमामेह भक्षाम् । तामादित्या नावमिवारुहेमामनुमतां पथिभि: पारयन्तीं स्वाहा ।

इस कथन में कहा गया है कि दैवी वाक् हमारी नौका रूप बने, ऐसी नौका जिसे मन चला रहा हो । मन और वाक् का सम्बन्ध वैदिक साहित्य में प्रसिद्ध है । पहले मन सोचता है, फिर वाक् उसको व्यक्त करती है । इस प्रकार मन दिव्य वाक् रूपी नौका को चला रहा है । यहां यह उल्लेखनीय है कि हमारे दैनिक जीवन में वाक्, अन्तरात्मा की आवाज तो सबके पास है, लेकिन वह संसार सागर से पार करने वाली नौका कभी नहीं बन पाती । वह आवाज कभी भी इतनी प्रबल नहीं हो पाती कि हमारे कर्मों पर अंकुश लग सके । मनु से सम्बन्धित कथा में डा. फतहसिंह के अनुसार मनु मन का उच्च रूप है, वह मन जो ॐ की ओर अग्रसर हो गया है । मन के ॐ की ओर अग्रसर होने से वाक् भी प्रतिष्ठा को प्राप्त होगी, ऐसा कहा जा सकता है । इस कथा में मनु द्वारा नौका में सभी बीजों को संगृहीत करने का उल्लेख आता है जिससे प्रलय के बाद उन बीजों से नयी सृष्टि उत्पन्न हो सके । यह कहा जा सकता है कि मनु की कथा वैदिक नौका को समझने के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । और यह कथा केवल पुराणों तक सीमित नहीं है । शतपथ ब्राह्मण १.८.१.१ तथा जैमिनीय ब्राह्मण ३.९९ में भी यह आख्यान रूप में प्रकट हुआ है । मनु के संदर्भ में जिन बीजों की बात की जा रही है, वह सबीज समाधि का प्रतीक हो सकते हैं । दूसरी ओर निर्बीज समाधि है । दोनों प्रकार की समाधियों को स्वर्गीय नौका कहा जा सकता है । जब वैदिक निघण्टु में नौ का वर्गीकरण वाक् नामों के अन्तर्गत किया जाता है तो यह कहा जा सकता है कि वाक् को, अन्तरात्मा की आवाज को तरने वाली नौका का रूप दिया जा सकता है ।

     ऐतरेय ब्राह्मण ४.१३ का कथन है कि सोमयाग में बृहद् व रथन्तर साम ही यज्ञ की नौका - द्वय हैं जिनके द्वारा संवत्सर को तरा जाता है । यही दो पाद हैं । इन कथनों को समझने के लिए यह जानना आवश्यक होगा कि रथन्तर साम का क्या अर्थ हो सकता है । कहा गया है कि जो रथन्तर है, वह रसन्तम:, रसों में सर्वोपरि है । रस का अर्थ होगा न्यूनतम एण्ट्रांपी वाला । रथन्तर साम द्वारा पृथिवी अपना सार सूर्य में स्थापित करती है, जबकि बृहत् साम द्वारा सूर्य अपनी ऊर्जा पृथिवी में स्थापित करता है । यह रसन्तम: रूप ही वह बीज हो सकते हैं जिनका उल्लेख मनु के आख्यान में किया जा रहा है । अतः जब ३६० अस्थियों के प्राणों को अग्निहोत्र रूपी नौका द्वारा तरने का या अग्निहोत्र द्वारा इन प्राणों को नाव का रूप देने का उल्लेख आता है तो उसका अर्थ यह हो सकता है कि प्रत्येक अस्थि( डा. फतहसिंह के अनुसार अस्ति, अस्तित्व मात्र समाधि का रूप ) के प्राणों को रसन्तम: रूप देकर उन्हें सूर्य में स्थापित करना है । सूर्य का अर्थ होगा बृहत् चेतना की स्थिति, समाधि की स्थिति ।

     आधुनिक विज्ञान के अनुसार बृहद् और रथन्तर के महत्त्व को श्री जे. ए. गोवान की वैबसाईटों के आधार पर समझा जा सकता है । श्री गोवान के अनुसार सूर्य पृथिवी पर सममिति की स्थापना करता है । जड जगत में इलेक्ट्रान आदि सूक्ष्म कणों पर जो आवेश विद्यमान है, वह सृष्टि के आरम्भ में विद्यमान सूर्य की ऊर्जा का अंश है । इसका कारण यह दिया गया है कि सृष्टि के आरम्भ में, बिग बैंग की घटना से पूर्व, यह ब्रह्माण्ड सममित था । बिग बैंग के पश्चात् पृथिवी आदि जड द्रव्यों की सममिति खोई गई (श्रीमती नोईथर की परिकल्पना के अनुसार सममिति को नष्ट नहीं किया जा सकता, जैसे ऊर्जा को नष्ट नहीं किया जा सकता । वह कहीं खो सकती है ) । लेकिन विद्युत आवेश के रूप में यह सममिति अभी भी विद्यमान है । दूसरी ओर, पृथिवी अपने गुरुत्वाकर्षण द्वारा सूर्य की रश्मियों को फैलने से रोकती है जिसके कारण प्रकाश की गति से वर्धित हो रहे ब्रह्माण्ड के विस्तार पर रोक लग जाती है । यह कहा जा सकता है कि यदि ब्रह्माण्ड के विस्तार पर अंकुश लग गया तो इससे ब्रह्माण्ड के अव्यवस्था की ओर बढने पर, एण्ट्रांपी में वृद्धि होने पर भी रोक लग जाएगी । श्री गोवान की भौतिक परिकल्पनाओं का अध्यात्म में क्या महत्त्व हो सकता है, इसे रथन्तर और बृहत् सामों के आधार पर समझा जा सकता है ।

      बृहत् साम को समझने के लिए जैमिनीय ब्राह्मण १.७ का यह कथन उपयोगी हो सकता है कि सायंकालीन अग्निहोत्र के संदर्भ में सूर्य पृथिवी के द्रव्यों में किस प्रकार समाहित होता है । उदाहरण के लिए, सायंकालीन सूर्य ब्राह्मण में श्रद्धा के रूप में, पशुओं में पयः रूप में, अग्नि में तेज रूप में, ओषधियों में ऊर्क् रूप में, आपः में रस रूप में और वनस्पतियों में स्वधा के रूप में छिप जाता है । फिर प्रातःकाल वह उन द्रव्यों से उदित होता है । श्री गोवान के अनुसार जड पदार्थों में सूर्य की ऊर्जा की उपस्थिति, विद्युत आवेश की स्थिति जड पदार्थ की सममिति में वृद्धि करती है । इसी कथन को जैमिनीय ब्राह्मण के कथन पर घटित कराया जा सकता है । मनुष्य देह रूपी नौका यदि असममित है तो उच्चतर चेतना के अवतरण द्वारा उसकी सममिति में वृद्धि होनी चाहिए ।

     सममिति के अभाव को सरल रूप में क्षुधा के रूप में समझा जा सकता है । इसका यथार्थ रूप जैमिनीय ब्राह्मण १.९८ के कथन के आधार पर समझा जा सकता है । कहा गया है कि देवों ने मनुष्य में ६ प्रकार से पापों की स्थापना कर दी है जिससे वह सरलता से स्वर्ग न जा सके । यह ६ पाप स्वप्न, तन्द्री/निद्रा, मन्यु, अशना, अक्षकाम्या और स्त्रीकाम्या गिनाएं गए हैं । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, जैमिनीय ब्राह्मण १.७ में अस्त होते हुए सूर्य के ६ प्रकार से पृथिवी के द्रव्यों में छिपने का उल्लेख है - ब्राह्मण में श्रद्धा रूप से, पशुओं में पयः रूप से, अग्नि में तैजस रूप से, ओषधियों में ऊर्ज रूप से, आपः में रस रूप से और वनस्पतियों में स्वधा रूप से । यह विचारणीय है कि क्या अलग - अलग संदर्भों में कहे गए इन दोनों कथनों में कोई सम्बन्ध है ? इस सम्बन्ध को इस प्रकार समझ सकते हैं कि स्वप्न हमारे अचेतन मन के अतृप्त रहने के कारण उत्पन्न होते हैं । वैदिक भाषा में इसे मन को पकाना, शृत करना कह सकते हैं जो श्रद्धा शब्द में निहित है ( शृत दधाति इति ) । इसके पश्चात् तन्द्रा/निद्रा पाप है । इसका तुल्य पशुओं में पयः हो सकता है । पयः का विलोम तृण होते हैं । निद्रा का कारण पयः की अपेक्षा तृण का सेवन है । जैसा कि पयः की टिप्पणी में स्पष्ट किया गया है, जड पदार्थों में पयः की स्थिति दुर्लभ होती है । ओषधियों आदि में जिस पयः का आरम्भ में निर्माण होता है, वह सब विभिन्न प्रकार के तनावों के कारण तन्तु रूप में परिणत हो जाता है । इस जगत में पशु का विकास इस योग्य समझा गया है कि उसमें पयः सुरक्षित रह सकता है । अतः सूर्य के अवतरण द्वारा पशुओं में इन तनावों से छुटकारा मिलना चाहिए जिससे पयः सुरक्षित रहे । इसके पश्चात् मन्यु/क्रोध का समकक्ष अग्नि का तेज हो सकता है । जिस ऊर्जा का व्यय क्रोध रूप में हो रहा है, उसका सत्य रूप तेज है, उस ऊर्जा का तेज के रूप में विकास होना चाहिए । अशना का समकक्ष ओषधियों की ऊर्क् हो सकती है । शारीरिक स्तर पर अशना को आधुनिक शरीर क्रिया विज्ञान के आधार पर समझा जा सकता है । क्षुधा का कारण यह हो सकता है कि भोजन से जो ऊर्जा हमारे शरीर में इन्सुलिन नामक रस के कारण संगृहीत हुई थी, उसका क्षय हो चुका है । अब पुनः भोजन द्वारा ऊर्जा को संगृहीत करने की आवश्यकता है । जैमिनीय ब्राह्मण के कथन से प्रतीत होता है कि ओषधियों के माध्यम से अनन्त ऊर्जा के संग्रहण की कल्पना की गई है । ओषधि शब्द का अर्थ होता है - ओषं धीयते, जो अपने में उषा को, चेतना की नई किरण को धारण करता हो । सोमयाग में सदोमण्डप रूपी उदर में औदुम्बरी रूपी ऊर्क् की स्थापना की जाती है जिसके परितः विराजमान होकर सामवेदी गण सामगान करते हैं । यह अशना की शान्ति का वैदिक उपाय है - साम उत्पन्न करना  । यह ध्यान देने योग्य है कि ओषधियों का विकास पृथिवी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के विपरीत दिशा में होता है । इस विपरीत दिशा के विकास में ऊर्क् का क्या योगदान हो सकता है, यह विचारणीय है । ओषधियां संचित पापों के नष्ट करने की एक प्रक्रिया है( देखें - वनस्पति शब्द पर टिप्पणी ) । इसके पश्चात् अक्षकाम्या का समकक्ष आपः का रस हो सकता है । अक्ष इन्द्रियों को कहते हैं । आधुनिक विज्ञान में अक्ष वह होता है जो ब्रह्माण्ड की ऊर्जा को अपने अन्दर आकर्षित कर ले, जैसे चुम्बकीय अक्ष । अध्यात्म में अक्ष हमारी इन्द्रियां होती हैं जिनमें रखास्वादन करने की शक्ति विद्यमान है । यदि आपः में रस विद्यमान हो तो संभवतः इन्द्रियों के माध्यम से रखास्वादन की आवश्यकता नहीं पडेगी । इसके पश्चात् स्त्रीकाम्या का समकक्ष वनस्पतियों की स्वधा हो सकती है । वनस्पतियों की विशेषता यह कही जाती है कि वे सदा हरी - भरी रहती हैं । इसका कारण वनस्पतियों के स्तम्भ में पाए जाने वाले स्तम्भ/स्टेम सैल हैं । यह स्तम्भ कोश ही स्वधा हो सकते हैं । पशु जगत में स्तम्भ सैलों को वीर्य का रूप माना जा सकता है । इसी कारण से इसका विकृत रूप स्त्रीकाम्या कहा गया है । शरीर में स्तम्भ कोशों की संख्या जितनी अधिक होगी, बाह्य क्षति से उतनी ही जल्दी छुटकारा मिलेगा । विष का प्रभाव भी नहीं होगा । उदाहरण के लिए, एक कथा आती है कि तीर्थंकर महावीर को एक सर्प सारी रात काटता रहा लेकिन उन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ । और यह उल्लेख करना उपयुक्त होगा कि मनुष्य की देह में सममिति की पूर्ति न केवल सूर्य द्वारा होती है, अपितु चन्द्रमा द्वारा भी होती है । जैमिनीय ब्राह्मण के उपरोक्त कथन में यह ध्यान देना भी महत्त्वपूर्ण है कि सूर्य ने अपने अवतरण के लिए ब्राह्मण, पशु, अग्नि, ओषधि, आपः व वनस्पति को ही क्यों चुना ?

     सूर्य द्वारा सममिति उत्पन्न करने के उपरोक्त कथनों को देह के स्तर पर श्री रजनीश की व्याख्यानमाला कुण्डलिनी और सात शरीर के आधार पर समझा जा सकता है जहां कहा गया है कि अन्नमय शरीर का नियन्त्रण सूक्ष्म शरीर द्वारा हो रहा है, सूक्ष्म शरीर का नियन्त्रण कारण शरीर द्वारा इत्यादि । यह शरीर में सममिति उत्पन्न करने का एक रूप है । और पौराणिक और वैदिक साहित्य भी इस विषय में चुप नहीं हैं । होता यह है कि स्वर्ग को ले  जाने वाली रथन्तर और बृहत् साम रूपी नौकाएं केवल देवों के लिए ही बन पाती हैं । मनुष्य के स्तर पर इनके विकृत रूप ही कार्य करते हैं । वैदिक कर्मकाण्ड में इन विकृत रूपों को वैरूप - वैराज और शक्वर - रेवती कहा जाता है । शक्वर व रेवती क्या हो सकता है, इसको भागवत पुराण के पांचवें और छठे स्कन्ध की कथाओं के आधार पर समझा जा सकता है । पांचवें स्कन्ध में जड भरत राजा रहूगण की शिबिका का वहन करते हैं । यह जड भरत कोई और नहीं, स्वयं हमारा अन्नमय कोश हो सकता है । भरत का अर्थ है जो भरने वाला है । यह भरण ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर दोनों दिशाओं में हो सकता है । जड भरत को रथन्तर का विकृत रूप कहा जा सकता है । फिर छठे स्कन्ध में इन्द्र द्वारा दधीचि की अस्थियों से बनाए गए वज्र द्वारा वृत्र के वध का वृत्तान्त है । आख्यान में कहा गया है कि चित्ररूप नामक गन्धर्व ने विमान में आरूढ होकर नीचे पृथिवी पर शिव - पार्वती की रति के दर्शन कर लिए थे, इस कारण शिव ने उसे शाप देकर वृत्र बना दिया । दधीचि की अस्थियों के बारे में कहा जाता है कि देवताओं ने दधीचि ऋषि के पास अपने सारे अस्त्र धरोहर के रूप में जमा करा दिए थे जिससे बाद में आकर वह उन्हें ले सके । दधीचि ऋषि ने उन अस्त्रों के सार का पान कर लिया जिससे वह अस्त्र उनकी अस्थियों में समाहित हो गए । इन्द्र ने वृत्र वध के लिए इन्हीं अस्थियों से बने वज्र का उपयोग किया । इस आख्यान में यह समझना होगा कि वृत्र वध से क्या तात्पर्य हो सकता है । यह रहस्य हम पृष्ठ्य षडह नामक सोमयाग के छठे दिन के कृत्यों से जान सकते हैं । इस दिन शिल्प कहे जाने वाले विभिन्न सामों का गायन होता है । कहा गया है कि कंस, हस्ती, हिरण्य, रथ आदि सब शिल्प हैं । इस कथन से हमें कुछ हाथ नहीं लगता । इस दिन जिन सामों का गान होता है तथा शस्त्रों का शंसन होता है, गान के प्रकार से लगता है कि भावातिरेक में किया जाता है, आनन्द के किसी समुद्र में विलीन होकर, क्योंकि इन गानों को विभिन्न प्रकार से त्रुटित किया जाता है । शिल्प कहने से तात्पर्य यह हो सकता है कि देवों के अस्त्र अमर्त्य स्तर पर थे जिनके सार का दधीचि ने पान कर लिया । यह भी ध्यान देने योग्य है कि देवों के अस्त्र की उत्पत्ति कैसे हुई थी । त्वष्टा ने सूर्य के अतिरिक्त तेज का कर्तन किया था जिससे उसने विभिन्न देवों के अस्त्र बनाए थे । अतः देवों के अस्त्र सूर्य का ही एक रूप हैं । अब वही ऊर्जा मर्त्य स्तर पर शिल्प के रूप में प्रकट हो रही है । यह संभव है कि यह शिल्प शरीर के अङ्गों के किन्हीं विकास विशेष के सूचक हों । इसे ही लगता है आख्यान में वृत्र वध द्वारा सूचित किया गया है । वृत्र का अर्थ है वृणोति इति, जो चारों ओर से ढंके हुए हो । जब यह ढंकने वाला आवरण नष्ट हो गया तो शरीर का आगे विकास आरम्भ हो गया । इसे बृहत् साम का मर्त्य रूप कहा जा सकता है ।

     रथन्तर साम के संदर्भ में यह जानना उपयोगी होगा कि सूर्य ब्रह्माण्ड से किन - किन द्रव्यों का आदान करता है तथा ब्रह्माण्ड के द्रव्य सूर्य को क्या - क्या देते हैं । जैमिनीय ब्राह्मण २.२५ के अनुसार प्राची दिक् ने अह और सत्य दिए, ऊर्ध्वा दिक् ने क्षत्र और राष्ट्र, दक्षिणा दिक् ने अन्न व रथ, उदीची दिक् ने रूप व वर्ण, अन्तरिक्ष ने प्रकाश और असम्बाध?, प्रतीची दिक् ने ऋत व रात्रि, पृथिवी ने क्षेम व विमोक, आपः ने यात्रा व प्रयः आदि । फिर आदित्य ने द्युलोक से वश का ग्रहण किया, नक्षत्रों से क्षत्र का, अन्तरिक्ष से आत्मानम् का, वायु से रूप का, मनुष्यों से आज्ञा का, पशुओं से चक्ष: का, आपः से ऊर्ज का, ओषधियों से रस का, वनस्पतियों से चरथ का, वयों से शिश्न का, अग्नि से अर्चि का, पृथिवी से हृदय का, हिरण्य से गन्ध का, वाक् से स्तनयित्नु का, पितरों से संगम का, चन्द्रमा से भा का । मनु के आख्यान के संदर्भ में इन सबको मनु द्वारा संग्रहीत बीज कहा जा सकता है ।

     जैमिनीय ब्राह्मण का उपरोक्त कथन शास्त्रीय है । हमें इसके व्यावहारिक रूप पर भी विचार करना होगा । योग शास्त्र में ७ चक्रों पर ७ पद्मों की स्थापना की गई है । इन पद्मों के दलों पर वर्णमाला के अक्षरों की स्थापना की गई है और पद्म की कर्णिकाओं में बीजों की स्थापना की गई है । उदाहरण के लिए, हृदय के अनाहत चक्र पर यं बीज, वायु आदि की स्थिति है तथा १२ पद्म दलों में क से लेकर ठ तक अक्षर विद्यमान हैं । नाभि में मणिपूर चक्र पर र बीज की स्थिति है तथा पद्म दलों में ड से लेकर फ तक अक्षर विद्यमान हैं । यह कहा जा सकता है कि मध्य और परिधि की यह स्थिति उसी रथन्तर और बृहत् का प्रतीक हैं । रथन्तर द्वारा बीज की स्थापना द्युलोक में की जाती है तथा बृहत् द्वारा सममिति की स्थापना पृथिवी पर । इस उपमा को सार्वत्रिक रूप से और अधिक समझने की आवश्यकता है जिससे यह दैनिक जीवन का  अंग बन सके ।

रथन्तरम्

 

बृहत्

 

     बृहद् और रथन्तर सामों के नौका - द्वय होने के उल्लेख का उपयोग मनु की कथा में मत्स्य द्वारा बृहद् और बृहत्तर रूप धारण करने के कथन की व्याख्या के लिए किया जा सकता है । मनु की कथा में मनु द्वारा आचमन करते समय उनके हाथ में एक छोटी मछली आ गई जिसकी उन्होंने रक्षा की । मछली बृहत् और बृहत्तर रूप धारण करती गई और अन्त में उसने मनु की नौका को पार लगाया । डा. फतहसिंह के अनुसार मत्स्य विज्ञानमय कोश के आपः की कोई शक्ति है जिसका अवतरण निचले कोशों में क्षुद्र रूप में कभी - कभी हो जाया करता है । मनु के आख्यान में छोटी मछली को भी बृहत् सूर्य का लघु रूप होने के रूप में समझा जा सकता है, वह रूप जो सूर्य अस्त होने पर पृथिवी के द्रव्यों में स्थापित होता  है । यह लघु रूप प्रयत्न करने पर बृहद् रूप धारण कर सकता है और इस प्रकार यह आख्यान वैदिक साहित्य के बृहद् व रथन्तर साम - द्वय की व्याख्या है । जैमिनीय ब्राह्मण ३.९९ में बाढ में मनु द्वारा दो सामों के दर्शन करने और उन सामों द्वारा हिरण्मयी नौका - द्वय बनकर मनु को पार लगाने का उल्लेख है । यह दो साम कौन से हैं, यह स्पष्ट नहीं है, लेकिन इन सामों को रथन्तर व बृहद् साम माना जा सकता है । इस प्रकार मनु का आख्यान बृहत् साम की एक व्याख्या है ।

     महाभारत शान्ति पर्व ३२९.३८ में संसार सागर को पार करने के लिए नौका का विवरण निम्नलिखित है -

रूपकूलां मनःस्रोतां स्पर्शद्वीपां रसावहाम् ।

गन्धपङ्कां शब्दजलां स्वर्गमार्ग दुरावहाम् ।।

क्षमारित्रां सत्यमयीं धर्मस्थैर्यवटारकाम् ।

त्यागवाताध्वगां शीघ्रां नौतार्या तां नदीं तरेत् ।।

     कहा गया है कि इस संसार रूपी नदी के रूप दो तट हैं, मन से यह नदी निकलती है, स्पर्श द्वीप हैं, रस प्रवाह है, गन्ध कीचड है, शब्द जल है आदि । इस नदी को ऐसी सत्यमयी नौका द्वारा पार करना है जिसमें क्षमा रूपी अरित्र( नाव को खेने वाले बांस) हों, धर्म उस नौका को स्थिर करने वाली रस्सी हो, त्याग रूपी वात उस नौका को शीघ्र चलाने वाली हो । इस वर्णन में शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध तन्मात्राओं द्वारा नदी का निर्माण किया गया है । इसका अर्थ होगा कि इन तन्मात्राओं के उत्पन्न होने से पूर्व की स्थिति, समाधि की स्थिति नौका हो सकती है । ऋग्वेद ८.४२.३ से प्रतीत होता है कि धी/बुद्धि को नौका का रूप दिया गया है । ऋग्वेद १.११६.३ में अश्विनौ की आत्मन्वती नौका का उल्लेख है । ऋग्वेद १०.६३.१० में द्यावापृथिवी, अदिति को दैवी नौका कहा गया है । अथर्ववेद १२.२.४८ में अनड्वाह( शरीर रूपी गाडी का वहन करने वाला, श्वास रूपी प्राण ) को प्लव कहा गया है । अरित्रों के संदर्भ में, ऋग्वेद १.११६.५ तथा अथर्ववेद १७.१.२५-२६ में शतारित्र नौका के उल्लेख आए हैं । ऋग्वेद २.४२.१ के अनुसार अरित्र नाव को प्रेरित करते हैं आगे चलने के लिए । ऋग्वेद १०.१०१.२ में कामना की गई है कि नाव अरित्र से युक्त हो । ऋग्वेद १०.११६.९ में नाव को अर्कों द्वारा प्रेरित किया जाता है । अथर्ववेद १२.२.४८ में सविता की नौका का उल्लेख है । सत्यमयी नौका के संदर्भ में, ऋग्वेद ९.७३.१ में सत्य की नौका तथा ९.८९.२ में ऋत की रजिष्ठा नौका का उल्लेख है । नौका को स्थिर करने वाली रस्सी के धर्म रूप होने के संदर्भ में, अथर्ववेद १९.३९.७ में हिरण्ययी नौका के लिए हिरण्य बन्धन का उल्लेख है । अथर्ववेद ३.६.७ में कामना की गई है कि शत्रु इस प्रकार नीचे बह जाएं जैसे बन्धन से छिन्न नौका बह जाती है ।

     ऋग्वेद ८.४२.३ की ऋचा में 'ययाति विश्वा दुरिता तरेम सुतर्माणम् अधि नावं रुहेम ' का उल्लेख है । इस पंक्ति में ययाति शब्दि की संधि यया - अति है । ऐसा संभव है कि इस शब्द को पुराणों में राजा ययाति का रूप दे दिया गया हो जो अपने यदु आदि ५ पुत्रों से वृद्धावस्था ग्रहण करने और यौवन प्रदान करने का अनुरोध करता है और पुत्रों द्वारा अस्वीकार करने पर उन्हें नौका चलाने वाले मनुष्यों पर आधिपत्य प्राप्त करने आदि का शाप देता है ।

     ऋग्वेद प्रथम मण्डल में गोतम - पुत्र नोधा ऋषि के सूक्त मिलते हैं । सामवेद में नौधस साम प्रकट होता है जो बृहत् से सम्बन्धित है । नोधा का रहस्य भविष्य में अन्वेषणीय है ।

     अथर्ववेद के मन्त्रों में सार्वत्रिक रूप से हिरण्ययी नौका द्वारा कुष्ठ का वहन करने के उल्लेख आए हैं ( उदाहरण के लिए, अथर्ववेद ६.९५.२ , १९.३९.७) ।

     तैत्तिरीय ब्राह्मण २.४.१.५ तथा ऋग्वेद १.९७.८ आदि में कहा गया है कि हे जातवेदा अग्नि, हमें दुरितों से ऐसे पार लगाओ जैसे सिन्धु को नाव से पार किया जाता है ( नाव में व उदात्त ) । यहां दुरितों की तुलना सिन्धु से की जा रही है ।

      ऐतरेय ब्राह्मण १.१३ में यज्ञ, कृष्णाजिन तथा वाक् को सुतर्मा नौका कहा गया है । अन्यत्र अग्निहोत्र, रथन्तर - बृहत् सामों को नौका कहा गया है । यह अन्वेषणीय है कि यह नौकाएं भिन्न - भिन्न प्रकार की हैं या एक ही प्रकार की ।

     यास्काचार्य के निरुक्त ५.२३ में नौका की निरुक्ति नुद् - प्रेरणे धातु के आधार पर प्रणोत्तव्या या नमति, नमन करने वाली की गई है । ऋग्वेद की ऋचाओं में नाव दो रूपों में प्रकट होती है - न अक्षर उदात्त तथा व अक्षर उदात्त । दोनों में अन्तर अन्वेषणीय है ।

 

A classical boat is generally made of wood. It is driven by a sailor with the help of propellers. It crosses waters. The boat, sailor and the water can be compared with inner voice, mind and life forces respectively. In spirituality, not every type of water (which represent life forces, praanas) can be crossed with a boat. It is necessary for the water to become crossable by boat that they lie around a centre, which may be the highest consciousness, the sun. Other waters, which do not encircle the centre, or which are away from the centre, have to be reorganized so that they fall in line. This organization is done by a daily ritual called Agnihotra. As has been said in context with comments on Agnihotra, it is coupling of praana/sun and voice/earth. In outer world, earth moves around itself and around the sun. But in spirituality, one has to give impetus to his earth, the self, so that it does so. This process brings the life forces, the praanas, the waters in connection with a boat, in line. The matter does not end here. There are other subtle processes also which have to take place in the Agnihotra ritual. The sun/highest consciousness has to enter the worldly matter in various ways and likewise, the worldly matter has to elevate it’s essence so that it becomes a part of the sun. J.A. Gowan has mentioned that matter is non – symmetric, while energy is symmetric. Before the event of big bang took place, this universe was hypothetically symmetric. According to him, the electrical charge on matter represents a remnant of  that symmetry which the matter lost during big bang.  It can be said that spiritually, symmetry represents what sun has put into matter. And on the reverse side, what matter will impart to sun? According to Gowan, matter exerts a gravitational force on the expanding universe, on the sun rays expanding at the speed of light, to contract the expansion process. This may lead to slowing of the process of increase of entropy of the universe. What can be the spiritual side of this physical statement, has to be unraveled by the statements of sacred texts where different directions, earth, birds, men, herbs etc. impart to sun whatever best these have produced.  And the sun has been stated in sacred texts to hide in worldly matter in the form of milk, self sustenance, essence etc. Obviously, these traits should be a supplement to the lost symmetry of matter, in the form of higher consciousness. Absence of symmetry of our own body, which can also assume a form of boat, can be guessed at a grosser level by the pangs of hunger. Symmetry compensation from lower to higher levels of consciousness can also be understood in a better way on the basis of  Seven Bodies Seven Chakras by Rajneesh)

            One more fact is involved in the process of Agnihotra ritual. It is the decrease of entropy. When scattered life forces are made to fall in line, entropy decrease. And the statements of sacred texts that worldly objects imparted their best produce to the sun can be understood in the light of entropy.

            There is a universal story of an aboriginal man being helped at the time of a great deluge by a fish. This man kept all the seeds of the worldly objects in his boat and when waters receded, he recreated the world with these seed. It seems that these seeds are nothing but a trance where one remembers the lower world in seed form. The other form of trance is where even seeds of the lower world are lost. It seems that both forms of trance represent a boat. And it has been said about the fish which rescued the original man that this man got him in his hands as a very small fish. He rescued this fish and this fish assumed a larger and larger size. It can be said that this fish is nothing but the energy of the sun which it puts in worldly matter.

 

वेद में उदक की प्रतीकात्मकता

- सुकर्मपाल सिंह तोमर

(चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय, मेरठ द्वारा १९९५ में स्वीकृत शोध प्रबन्ध )

ऋग्वेद में नौका द्वारा भुज्यु का रक्षण

अहंकार के वशीभूत होकर आत्मा अपने लक्ष्य को भूल जाता है और नाना प्रकार के इन्द्रिय - भोगों का प्रेमी होकर भुज्यु कहलाता है । यह भुज्यु वस्तुतः तुग्र नामक आदित्य रूपी परब्रह्म का पुत्र है, इसलिए इसको तौग्र्य कहा जाता है । लक्ष्य - भ्रष्ट होने के कारण वह जब वह भवसागर के बीच डूबने लगता है तो वह अपनी रक्षा के लिए अश्विनौ को पुकारता है ( ऋग्वेद १.११७.१५, १.१८०.५, १.१८२.७, ८.५.२२) । और अश्विनौ देवयुगल एक अद्भुत नाव का प्रयोग करके उसकी रक्षा करते हैं ( ऋग्वेद १.१५.३?, १.१८२.५) । इस नौका को कभी तो आत्मन्वत् पक्षी कहा जाता है( ऋ. १.१८२.५) और कभी उसे समुद्र के बीच में स्थित एक रहस्यमय वृक्ष कहा जाता है जिससे तौग्र्य चिपट जाता है( ऋ. १.१८२.७) । साथ ही, एक अन्य मन्त्र में कहा गया है कि यह तौग्र्य जब एक ऐसे अनन्त अन्धकार में आपः के भीतर पीडित रोता है तो अश्विनौ के द्वारा प्रेषित चार नौकाएं उसको पार लगाती हैं -

अवविद्धं तौग्र्यमप्स्व१न्तरनारम्भणे तमसि प्रविद्धम् ।

चतस्रो नावो जठलस्य जुष्टा उदश्विभ्यामिषता: पारयन्ति ।। - ऋग्वेद १.१८२.६

     यह चार नौकाएं साधनायुक्त अन्नमय, प्राणमय, मनोमय तथा विज्ञानमय कोश हैं जो जीवात्मा रूपी तौग्र्य या भुज्यु को परमपिता परमेश्वर रूपी इन्द्र के पास पहुंचा देते हैं । उस समय परमेश्वर इन्द्र अपनी शक्ति से साधक के भीतर सूर्य को देदीप्यमान कर देता है और साधक के सभी आन्तरिक भुवन उसी इन्द्र में नियन्त्रित हो जाते हैं :

इन्द्रो मह्ना रोदसी पप्रथच्छव इन्द्र: सूर्यमरोचयत् । इन्द्रे ह विश्वा भुवनानि येमिर इन्द्रे सुवानास इन्दव: ।। - ऋ. ८.३.६

इसका अभिप्राय है कि साधक के भीतर आनन्दरस रूपी सोमबिन्दुओं की उत्पत्ति और प्रसार का जीवात्मा रूपी तौग्र्य की साधना यात्रा से घनिष्ठ सम्बन्ध है । अतः तौग्र्य के उद्धार की घटना को सभी सोमसवनों में प्रवाच्य माना जाता है (निष्टौग्र्यमूहथुरद्भ्यस्परि विश्वेत् ता वां सवनेषु प्रवाच्या - ऋ. १०.३९.४ ) ।

 

संदर्भ

*वेदा यो वीनां पदमन्तरिक्षेण पतताम्। वेद नावः समुद्रियः ॥ - ऋग्वेद १.२५.७

*अनु स्वधामक्षरन्नापो अस्याऽवर्धते मध्य आ नाव्यानाम्। सध्रीचीनेन मनसा तमिन्द्र ओजिष्ठेन हन्मनाहन्नभि द्यून् ॥ - ऋ. १.३३.११

*आ नो नावा मतीनां यातं पाराय गन्तवे। युञ्जाथामश्विना रथम् ॥ - ऋ. १.४६.७

*वि ते वज्रासो अस्थिरन्नवतिं नाव्या३ अनु। महत् त इन्द्र वीर्यं बाह्वोस्ते बलं हितमर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥ - ऋ. १.८०.८

*द्विषो नो विश्वतोमुखाति नावेव पारय। अप नः शोशुचदघम् ॥ स नः सिन्धुमिव नावयाति पर्षा स्वस्तये। अप नः शोशुचदघम् ॥ - ऋ. १.९७.७-८

*जातवेदसे सुनवाम सोममरातीयतो नि दहाति वेदः। स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिन्धुं दुरितात्यग्निः ॥ - ऋ. १.९९.१

*तुग्रो ह भुज्युमश्विनोदमेघे रयिं न कश्चिन्ममृवाँ अवाहाः। तमूहथुनौrभिरात्मन्वतीभिः अन्तरिक्षप्रुद्भिरपोदकाभिः ॥ - ऋ. १.११६.३

*अनारम्भणे तदवीरयेथामनास्थाने अग्रभणेv समुद्रे। यदश्विना ऊहथुर्भुज्युमस्तं शतारित्रां नावमातस्थिवांसम् ॥ - ऋ. १.११६.५

*त्वं सूरो हरितो रामयो नॄन् भरच्चक्रमेतशो नायमिन्द्र। प्रास्य पारं नवतिं नाव्यानामपि कर्तमवर्तयोऽयज्यoन् ॥ - ऋ. १.१२१.१३

*विश्वेषु हि त्वा सवनेषु तुञ्जते समानमेकं वृषमण्यवः पृथक् स्वः सनिष्यवः पृथक्। तं त्वा नावं न पर्षणिं शूषस्य धुरि धीमहि। इन्द्रं न यज्ञैश्चितयन्त आयवः स्तोमेभिरिन्द्रमायवः ॥ - ऋ. १.१३१.२

*रथाय नावमुत नो गृहाय नित्यारित्रां पद्वतीं रास्यग्ने। अस्माकं वीराँ उत नो मघोनो जनाँश्च या पारयाच्छर्म या च ॥ - ऋ. १.१४०.१२

*अवविद्धं तौग्र्यमप्स्व१न्तरनारम्भणे तमसि प्रविद्धम्। चतस्रो नावो जठलस्य जुष्टा उदश्विभ्यामिषिताः पारयन्ति ॥ - ऋ. १.१८२.६

*प्र ते नावं न समने वचस्युवं ब्रह्मणा यामि सवनेषु दाधृषिः। कुविन्नो अस्य वचसो निबोधिषदिन्द्रमुत्सं न वसुनः सिचामहे ॥ - ऋ. २.१६.७

*नावेव नः पारयतं युगेव नभ्येव न उपधीव प्रधीव। श्वानेव नो अरिषण्या तनूनां खृगलेव विस्रसः पातमस्मान् ॥ - ऋ. २.३९.४

*कनिक्रदज्जनुषं प्रब्रुवाण इयर्ति वाचमरितेव नावम्। सुमङ्गलश्च शकुने भवासि मा त्वा का चिदभिभा विश्व्या विदत् ॥ - ऋ. २.४२.१

*विवेष यन्मा धिषणा जजान स्तवै पुरा पार्यादिन्द्रमह्नः। अंहसो यत्र पीपरद् यथा नो नावेव यान्तमुभये हवन्ते ॥ - ऋ. ३.३२.१४

*विश्वानि नो दुर्गहा जातवेदः सिन्धुं न नावा दुरिताति पर्षि। अग्ने अत्रिवन्नमसा गृणानो३ ऽस्माकं बोध्यविता तनूनाम् ॥ - ऋ. ५.४.९

*एवाँ अग्निं वसूयवः सहसानं ववन्दिम। स नो विश्वा अति द्विषः पर्षन्नावेव सुक्रतुः ॥ - ऋ. ५.२५.९

*आ सूर्यो अरुहच्छुक्रमर्णो ऽयुक्त यद्धरितो वीतपृष्ठाः। उद्ना न नावमनयन्त धीरा आशृण्वतीरापो अर्वागतिष्ठन् ॥ - ऋ. ५.४५.१०

*व्य१क्तून् रुद्रा व्यहानि शिक्वसो व्य१न्तरिक्षं वि रजांसि धूतयः। वि यदज्राँ अजथ नाव ईं यथा वि दुर्गाणि मरुतो नाह रिष्यथ ॥ - ऋ. ५.५४.४

*अमादेषां भियसा भूमिरेजति नौर्न पूर्णा क्षरति व्यथिर्यती। दूरेदृशो ये चितयन्त एमभिरन्तर्महे विदधे येतिरे नरः ॥ - ऋ. ५.५९.२

*यास्ते पूषन्नावो अन्तः समुद्रे हिरण्ययीरन्तरिक्षे चरन्ति। ताभिर्यासि दूत्यां सूर्यस्य कामेन कृत श्रव इच्छमानः ॥ - ऋ. ६.५८.३

*नू न इन्द्रावरुणा गृणाना पृङ्क्तं रयिं सौश्रवसाय देवा। इत्था गृणन्तो महिनस्य शर्धो ऽपो न नावा दुरिता तरेम॥ - ऋ. ६.६८.८

*ता भूरिपाशावनृतस्य सेतू दुरत्येतू रिपवे मर्त्याय। ऋतस्य मित्रावरुणा पथा वामपो न नावा दुरिता तरेम॥ - ऋ. ७.६५.३

*आ यद् रुहाव वरुणश्च नावं प्र यत् समुद्रमीरयाव मध्यम्। अध यदपां स्नुभिश्चराव प्र प्रेङ्ख ईङ्खयावहै शुभे कम्॥ वसिष्ठं ह वरुणो नाव्याधादृषिं चकार स्वपा महोभिः। स्तोतारं विप्रः सुदिनत्वे अह्नां यान्नु द्यावस्ततनन् यादुषासः॥ - ऋ. ७.८८.३-४

*स नः पप्रिः पारयाति स्वस्ति नावा पुरुहूतः। इन्द्रो विश्वा अति द्विषः॥ - ऋ. ८.१६.११

*ते नो भद्रेण शर्मणा युष्माकं नावा वसवः। अति विश्वानि दुरिता पिपर्तन॥ - ऋ. ८.१८.१७

*ते नो नावमुरुष्यत दिवा नक्तं सुदानवः। अरिष्यन्तो नि पायुभिः सचेमहि॥ - ऋ. ८.२५.११

*इमां धियं शिक्षमाणस्य देव क्रतुं दक्षं वरुण सं शिशाधि। ययाति विश्वा दुरिता तरेम सुतर्माणमधि नावं रुहेम॥ - ऋ. ८.४२.३

*मा नः समस्य दूढ्यः परिद्वेषसो अंहतिः। ऊर्मिर्न नावमा वधीत्॥ - ऋ. ८.७५.९

*अति नो विष्पिता पुरु नौभिरपो न पर्षथ। यूयमृतस्य रथ्यः॥ - ऋ. ८.८३.३

*समी सखायो अस्वरन् वने क्रीडन्तमत्यविम्। इन्दुं नावा अनूषत॥ - ऋ. ९.४५.५

*हितो न सप्तिरभि वाजमर्षेन्द्रस्येन्दो जठरमा पवस्व। नावा न सिन्धुमति पर्षि विद्वाञ्छूरो न युध्यन्नव नो निद स्पः॥ - ऋ. ९.७०.१०

*स्रक्वे द्रप्सस्य धमतः समस्वरन्नृतस्य योना समरन्त नाभयः। त्रीन् त्स मूर्धो असुरश्चक्र आरभे सत्यस्य नावः सुकृतमपीपरन्॥ - ऋ. ९.७३.१

*राजा सिन्धूनामवसिष्ट वास ऋतस्य नावमारुहद्रजिष्ठाम्। अप्सु द्रप्सो वावृधे श्येनजूतो दुह ईं पिता दुह ईं पितुर्जाम्॥ - ऋ. ९.८९.२

*हरिः सृजानः पथ्यामृतस्येयर्ति वाचमरितेव नावम्। देवो देवानां गुह्यानि नामाऽऽविष्कृणोति बर्हिषि प्रवाचे॥ - ऋ. ९.९५.२

*पृथक् प्रायन् प्रथमा देवहूतयो ऽकृण्वनत श्रवस्यानि दुष्टरा। न ये शेकुर्यज्ञिया नावमारुहमीर्मेव ते न्यविशन्त केपयः॥ - ऋ. १०.४४.६

*नावा न क्षोदः प्रदिशः पृथिव्याः स्वस्तिभिरति दुर्गाणि विश्वा। स्वां प्रजां बृहदुक्थो महित्वा  ऽऽवरेष्वदधादा परेषु॥ - ऋ. १०.५६.७

*सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसमस्रवन्तीमा सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्। दैवीं नावं स्वरित्रामनागसमस्रवन्तीमा रुहेमा स्वस्तये। - ऋ. १०.६३.१०

*मन्द्रा कृणुध्वं धिय आ तनुध्वं नावमरित्रपरणीं कृणुध्वम्। इष्कृणुध्वमायुधारं कृणुध्वं प्राञ्चं यज्ञं प्र णयता सखायः॥ - ऋ. १०.१०१.२

*ऊर्ध्वा यत् ते त्रेतिनी भूद्यज्ञस्य धूर्षु सद्मन्। सजूर्नावं स्वयशसं सचायोः॥ - ऋ. १०.१०५.९

*प्रेन्द्राग्निभ्यां सुवचस्यामियर्मि सिन्धाविव प्रेरयं नावमर्कैः। अया इव परि चरन्ति देवा ये अस्मभ्यं धनदा उद्भिदश्च॥ - ऋ. १०.११६.९

*यं कुमार प्रावर्तयो रथं विप्रेभ्यस्परि। तं सामानु प्रावर्तत समितो नाव्याहितम्॥ - ऋ. १०.१३५.४

*इन्द्रस्येव रातिमाजोहुवानाः स्वस्तये नावमिवा रुहेम। उर्वी न पृथ्वी बहुले गभीरे मा वामेतौ मा परेतौ रिषाम॥ - ऋ. १०.१७८.२

*भगस्य नावमा रोह पूर्णामनुपदस्वतीम्। तयोपप्रतारय यो वरः प्रतिकाम्यः ॥ - अ. २.३६.५

*तेऽधराञ्चः प्र प्लवन्तां छिन्ना नौरिव बन्धनात्। न वैबाधप्रणुत्तानां पुनरस्ति निवर्तनम् ॥ - अ. ३.६.७

*द्विषो नो विश्वतोमुखाति नावेव पारय। अप नः शोशुचदघम् ॥ स नः सिन्धुमिव नावाति पर्षा स्वस्तये। अप नः शोशुचदघम् ॥ - अ. ४.३३.७-८

*हिरण्ययाः पन्थान आसन्नरित्राणि हिरण्यया। नावो हिरण्ययीरासन् याभिः कुष्ठं निरावहन् ॥ - अथर्ववेद ५.४.५

*तद् वै राष्ट्रमा स्रवति नावं भिन्नामिवोदकम्। ब्रह्माणं यत्र हिंसन्ति तद् राष्ट्रं हन्ति दुच्छुना ॥ - अ. ५.१९.८

*हिरण्ययी नौरचरद्धिरण्यबन्धना दिवि। तत्रामृतस्य पुष्पं देवाः कुष्ठमवन्वत ॥ - अ. ६.९५.२

*सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसं सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्। दैवीं नावं स्वरित्रामनागसो अस्रवन्तीमा रुहेमा स्वस्तये ॥ - अ. ७६.३

*याः कृत्या आङ्गिरसीर्याः कृत्या आसुरीर्याः कृत्याः स्वयंकृता या उ चान्येभिराभृताः। उभयीस्ताः परा यन्तु परावतो नवतिं नाव्या३ अति ॥ - अ. ८.५.९

*सिंहस्येव स्तनथोः सं विजन्तेऽग्नेरिव विजन्त आभृताभ्यः। गवां यक्ष्मः पुरुषाणां वीरुद्भिरतिनुत्तो नाव्या एतु स्रोत्याः ॥ - अ. ८.७.१५

*कामस्येन्द्रस्य वरुणस्य राज्ञो विष्णोर्बलेन सवितुः सवेन। अग्नेर्होत्रेण प्र णुदे सपत्नांछम्बीव नावमुदकेषु धीरः ॥ - अ. ९.२.६

*ते ऽधराञ्चः प्र प्लवन्तां छिन्ना नौरिव बन्धनात्। न सायकप्रणुत्तानां पुनरस्ति निवर्तनम् ॥ - अ. ९.२.१२

*पराक् ते ज्योतिरपथं ते अर्वागन्यत्रास्मदयना कृणुष्व। परेणेहि नवतिं नाव्या° अति दुर्गाः स्रोत्या मा क्षणिष्ठाः परेहि ॥ - अ. १०.१.१६

*अनड्वाहं प्लवमन्वारभध्वं स वो निर्वक्षद् दुरितादवद्यात्। आ रोहत सवितुर्नावमेतां षड्भिरुर्वीभिरमतिं तरेम ॥ - अ. १२.२.४८

*आदित्य नावमारुक्षः शतारित्रां स्वस्तये। अहर्मात्यपीपरो रात्रिं सत्राति पारय ॥ सूर्य नावमारुक्षः शतारित्रां स्वस्तये। रात्रिं मात्यपीपरोऽहः सत्राति पारय ॥ - अ. १७.१.२५-२६

*हिरण्ययी नौरचद्धिरण्यबन्धना दिवि। तत्रामृतस्य चक्षणं ततः कुष्ठो अजायत। स कुष्ठो विश्वभेषजः साकं सोमेन तिष्ठति। तक्मानं सर्वं नाशय सर्वाश्च यातुधान्यः ॥ - अ. १९.३९.७

*स नः पप्रि: पारयाति स्वस्ति नावा पुरुहूतः। इन्द्रो विश्वा अति द्विषः ॥ - अ. २०.४६.२

*विश्वेषु हि त्वा सवनेषु तुञ्जते समानमेकं वृषमण्यवः पृथक् स्वः सनिष्यवः पृथक्। तं त्वा नावं न पर्षणिं शूषस्य धुरि धीमहि। इन्द्रं न यज्ञैश्चितयन्त आयव स्तोमेभिरिन्द्रमायवः ॥ - अ. २०.७२.१

*पृथक् प्रायन् प्रथमा देवहूतयोऽकृणवत श्रवस्यानि दुष्टरा। न ये शेकुर्यज्ञियां नावमारुहमीर्मैव ते न्यविशन्त केपयः ॥ - अ. २०.९४.६

*ययाऽति विश्वा दुरिता तरेम सुतर्माणमधि नावं रुहेमेति यज्ञो वै सुतर्मा नौः कृष्णाजिनं वै सुतर्मा नौर्वाग्वै सुतर्मा नौर्वाचमेव तदारुह्य तया स्वर्गं लोकमभि संतरति - ऐतरेय ब्राह्मण १.१३

*बृहद्रथंतरे सामनी भवत एते वै यज्ञस्य नावौ संपारिण्यौ यद्बृहद्रथंतरे ताभ्यामेव तत्संवत्सरं तरन्ति - - - -- - ते उभे न समवसृज्ये य उभे समवसृजेयुर्यथैव च्छिन्ना नौर्बन्धनात्तीरं तीरमृच्छन्ती प्लवेतैवमेव ते सत्रिणस्तीरं तीरमृच्छन्तः प्लवेरन्य उभे समवसृजेयुः - ऐ.ब्रा. ४.१३

*नावमिवाऽऽरुहेमेति समेवैनमेतदधिरोहति स्वर्गस्य लोकस्य समष्ट्यै संपत्त्यै संगत्यै - ऐ.ब्रा. ४.२०

*ऋजुनीती वो वरुण इति मैत्रावरुणस्य - - - - इन्द्रं वो विश्वतस्परीति ब्राह्मणाच्छंसिनो - - - - यत्सोम आ सुते नर इत्यच्छावाकस्य - - - ता वा एताः स्वर्गस्य लोकस्य नावः संपारिण्यः स्वर्गमेवैताभिर्लोकमभिसंतरन्ति - ऐ.ब्रा. ६.७

*तद्यथा समुद्रं प्रप्लवेरन्नेवं हैव ते प्रप्लवन्ते ये संवत्सर वा द्वादशाहं वाऽऽसमे तद्यथा सैरावती नावं पारकामाः समारोहेयुरेवमेवैतास्त्रिष्टुभः समारोहन्ति - ऐ.ब्रा. ६.२१

*प्राचीनवंशप्रविष्टयजमानस्य दीक्षाङ्गभूता मन्त्राः। अथ दक्षिणं जान्वाच्याभिसर्पति - इमां धियँ शिक्षमाणस्य देव क्रतुं दक्षं वरुण संशिशाधि ययाऽति विश्वा दुरिता तरेम सुतर्माणमधि नावं रुहेम - तै.सं. १.२.२.२

*अंहसो यत्र पीपरद्यथा नो नावेव यान्तमुभये हवन्ते(यथा लोके नावा नद्यां यान्तं नाविकमुभये कूलद्वयवर्तिनो हवन्ते मामुत्तारयेत्याह्वयन्ति तथैवांहसो मुक्तानस्मानुभयकूलप्रभवा आह्वयन्ति - सायण) - तै.सं. १.६.१२.३

*संवर्गेष्टिहोत्रमन्त्राभिधानम् - - - - समस्य दूढ्यः परिद्वेषसो अंहतिः। ऊर्मिर्न नावमा वधीत्।

*वृष्टिसन्यादीष्टकापञ्चकाभिधानम् : यथाऽप्सु नावा संयात्येवम् एवैताभिर्यजमान इमाँल्लोकान्त्सं याति प्लवो वै एषोऽग्नेर्यत्संयानीर्यत्संयानीरुपदधाति प्लवमेवैतमग्नय उप दधाति - तै.सं. ५.३.१०.२

*मनु व मत्स्य का आख्यान - मनवे ह वै प्रातरवनेग्यमुदकमाजह्रुः , यथेदं पाणिभ्यामवनेजनायाहरन्ति - एवम्। तस्यावनेनिजानस्य मत्स्यः पाणी आपेदे। - - - स औघ उत्थिते नावमापद्यासै, ततस्त्वा पारयितास्मि। तमेवं भृत्वा समुद्रमभ्यवजहार। स यतिथीं तत्समां परिदिदेश - ततिथीं समां नावमुपकल्प्योपासाञ्चक्रे। स औघ उत्थिते नावमापेदे। तं स मत्स्य उपन्यापुप्लुवे। तस्य शृङ्गे नावः पाशं प्रतिमुमोच। तेनैनमुत्तरं गिरिमतिदुद्राव। स होवाच - अपीपरं वै त्वा, वृक्षे नावं प्रतिबध्नीष्व, तं तु त्वा मा गिरौ सन्तमुदकमन्तश्छैत्सीद् , यावद् यावदुदकं समवायात् तावत्तावदन्ववसर्पासि इति। - - -- शतपथ ब्राह्मण १.८.१.१ - १०

*नौर्ह वा एषा स्वर्ग्या - यदग्निहोत्रम्। तस्या एतस्यै नावः स्वर्ग्याया आहवनीयश्चैव गार्हपत्यश्च नौमण्डे। अथैष एव नावाजो यत्क्षीरहोता। - श.ब्रा. २.३.३.१५

*नावश्चरन्ति स्वसिच इयानाः, ता आववृत्रन्नधरागुदक्ता अहिं बुध्न्यमनुरीयमाणाः। - श.ब्रा. ५.४.२.५

*आपो वै सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि। ता हैता आप एवैषोऽग्निश्चितः। तस्य नाव्या एव परिश्रितः। ताः षष्ठिश्च त्रीणि च शतानि भवन्ति। षष्ठिश्च ह वै त्रीणि च शतान्यादित्यं नाव्याः समन्तं परियन्ति। नाव्या उ एव यजुष्मत्य इष्टकाः। ताः षष्ठिश्च ह वै त्रीणि च शतानि भवन्ति। षष्ठिश्च ह वै त्रीणि च शतान्यादित्यं नाव्या अभिक्षरन्ति। अथ यदन्तरा नाव्ये तत्सूददोहाः। अथ या अमूः षट्त्रिंशदिष्टका अतियन्ति, यः स त्रयोदशो मासः - आत्माऽयमेव स योऽयं हिरण्मयः पुरुषः। - श.ब्रा. १०.५.४.१४

*कूर्चब्राह्मणम् :- स(याज्ञवल्क्यः) होवाच। यथा वै सम्राट् महान्तमध्वानमेष्यन् रथं वा नावं वा समाददीत। एवमेव एताभिरुपनिषद्भिः समाहितात्माऽसि। - श.ब्रा.१४.६.११.१/बृहदारण्यक उपनिषद ३.११.१

*उपहोमाः। अच्छिद्रकाण्डम् :- विश्वानि नो दुर्गहा जातवेदः। सिन्धुं न नावा दुरिताऽतिपर्षि। अग्ने अत्रिवन्मनसा गृणानः। अस्माकं बोध्यविता तनूनाम्। - तै.ब्रा. २.४.१.५

*यास्ते पूषन्नावो अन्तः समुद्रे। हिरण्ययीरन्तरिक्षे चरन्ति। याभिर्यासि दूत्यां सूर्यस्य। कामेन कृतः श्रव इच्छमानः - तै.ब्रा. २.५.५.५

*सौम्यादि पशुसूक्ताभिधानम्। हविषो याज्या :- अनु स्वधामक्षरन्नापो अस्य। अवर्धते मध्य आ नाव्यानाम्। सध्रीचीनेन मनसा तमिन्द्र ओजिष्ठेन। हन्मनाऽहन्नभिद्यून् - तैत्तिरीय ब्राह्मण २.८.३.४

*हविषः पुरोनुवाक्या :- ब्रह्मन्देवास्त्रयस्त्रिंशत्। ब्रह्मन्निद्रप्रजापती। ब्रह्मन्ह विश्वा भूतानि। नावीवान्तः समाहिता - तै.ब्रा. २.८.८.१०

*ऐन्द्राग्नि पश्वादीनां सूक्तानि :- यास्ते पूषन्नावो अन्तः - - - - तै.ब्रा. २.८.५.३

*प्रेङ्खारोहणम् :- अन्वञ्चमधिरोहेदित्याहुरनूचीं वै नावमधिरोहन्ति नौर्वैषा स्वर्गयाणी यत्प्रेङ्ख- ऐतरेय आरण्यक १.२.४

*स ततस् स्वधाम् एव हिरण्मयी नावं समारुह्य प्रजापतेस् सलोकताम् अभिप्रयाति। - जै.ब्रा. १.२९

*तेषां ह त्रिशीर्ष गन्धर्वो विजयस्यावेत्। स हैषास। तस्य हाप्स्व् अन्तर् नौनगरं परिप्लवम् आस। - - - -स(इन्द्रः) ह तद् एव नौमण्ड उपशिश्लेष जलायुका वा तृणकं वा भूत्वा। - - - जैमिनीय ब्राह्मण १.१२५

*यां ह खलु वै पितापुत्रौ नावम् अजतो न सा रिष्यति। दैव्य~ एषा नौर् यद्यज्ञः। ताव् एतत् पितापुत्राव् एवाजतः। औशनं पुरस्तात् भवति कावम् उपरिष्टाद् यज्ञस्यैवारिष्ट्यै। तस्माद् यद् अदाशा नावम् अधिरोहन्ति पितापुत्रौ हैवाग्रे ऽधिरोहतः। - जै.ब्रा. १.१६६

*अथो समुद्र एष यद्रथन्तरम्। अथ यो ऽन्यत्राक्षरेभ्यस् स्तोब्धि स एवैतं समुद्रं प्रविशति। अथ यो ऽक्षरेषु स्तोब्धि यथा नावा वा प्लवेन वा द्वीपाद् द्वीपं संक्रामेद् एवम् एवैतं समुद्रम् अतितरति। - जै.ब्रा. १.३३२

*औशनं पुरस्ताद् भवति कावम् उपरिष्टात्। ताव् एतत् पितापुत्राव् एव नावम् अजतः। स यथा पितापुत्रौ नावम् अजन्तौ ताम् अरिष्टां स्वस्ति पारं गमयेयाताम्, एवम् एवैतद् औशनकावाभ्यां स्वस्त्य~ अरिष्टा उदृचम् अश्नुवते। - जै.ब्रा. २.४२१

*ओघो वा इमान् लोकान् निरमार्ट्। सो ऽमन्यत मनुर् इदं वावेदम् अभूद् इति। सो ऽकामयतोद् इत इयां गातुं प्रतिष्ठां विन्देयेति। स एते सामनी अपश्यत्। ताभ्याम् अस्तुत। ते एनं हिरण्मय्यौ नावौ भूत्वोपाप्लवेताम्। तयोः प्रत्यतिष्ठत्। ते एनम् उदपारयेताम्। - जै.ब्रा. ३.९९

*यथा नावातिपारयेद् एवम् एवैभ्य एतद् अग्निर् हव्यं नवमाद् अह्नो दशमम् अहर् अभ्य् अत्यपारयत्। एष ह वा एतद् अतिपारयतितुम् अर्हति - जै.ब्रा. ३.२६९

*रोहिणीः पिङ्गला एकरूपाः। क्षरन्तीः पिङ्गला एकरूपाः। शतं सहस्राणि प्रयुतानि नाव्यानाम्।

*त्युग्रो ह भुज्युमश्विनोदमेघे। रयिं न कश्चिन्ममृवां३ अवाहाः। तमूहथुनौrभिरात्मन्वतीभिः। अन्तरिक्षप्रुड्भिरपोदकाभिः। - तै.आ. १.१०.२

*योऽप्सु नावं प्रतिष्ठितां वेद। प्रत्येव तिष्ठति। इमे वै लोका अप्सु प्रतिष्ठिताः। तदेषाऽभ्यनूक्ता। - तै.आ. १.२२.७

*द्विषो नो विश्वतो मुखाऽति नावेव पारय। अप नः शोशुचदघम्। स नः सिन्धुमिव नावयाऽतिपर्षा स्वस्तये। अप नः शोशुचदघम्। - तै.आ. ६.११.२

*विश्वानि नो दुर्गहा जातवेदः सिन्धुं न नावा दुरिताऽतिपर्षि। अग्ने अत्रिवन्मनसा गृणानोऽस्माकं बोध्यविता तनूनाम् ॥ - तैत्तिरीय आरण्यक १०.१.--

*अथात आरम्भणीया एव। ऋजुनीती नो वरुणः इति मैत्रावरुणस्य। - - - इन्द्रं वो विश्वतस्परि इति ब्राह्मणाच्छंसिनः। - - - - यत् सोम आ सुते नरः इति अच्छावाकस्य। - - - ता वा एताः स्वर्गस्य लोकस्य नावः संतारण्यः। - गोपथ ब्राह्मण २.५.१२

*यथा वै समुद्रं प्रतरेयुः, एवं हैवैते प्रप्लवन्ते, ये संवत्सरं द्वादशाहं वोपासते। तद् यथा सैरावती नावं पारकामाः समारोहेयुः, एवं हैवैतास्त्रिष्टुभः स्वर्गकामाः समारोहन्ति। - गोपथ ब्राह्मण २.६.३