PURAANIC SUBJECT INDEX (From Nala to Nyuuha ) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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नेष्टा टिप्पणी - नेष्टा ऋत्विज यज्ञ के १६ प्रमुख ऋत्विजों में से एक होता है । उसका सम्बन्ध अध्वर्यु गण से है । यज्ञ में जब भी यजमान - पत्नी की आवश्यकता हो, तो नेष्टा को प्रैष या निर्देश दिया जाता है । यजमान - पत्नी नेष्टा का अनुगमन करती है । नेष्टा ऋत्विज यज्ञ में जिन कर्मों का निष्पादन करता है, वह गौण से प्रतीत होते हैं और इसी कारण हास्य में यह कह दिया जाता है कि नेष्टा की निरुक्ति न - इष्टा, जिसकी आवश्यकता नहीं है, वह है । वैदिक पदानुक्रम कोश में नेष्टा की व्युत्पत्ति नी - नय धातु के आधार पर की गई है । लेकिन नेष्टा का व्यावहारिक रूप अन्य तथ्य की ओर इंगित करता है । यज्ञ में ऋतुयाज में नेष्टा ऋग्वेद खिल भाग के एक मन्त्र का पाठ करता है (ये यजामहे ग्नावो नेष्ट्रा त्त्वष्टा सजूर्देवानां पत्नीभिर्ऋतुना सोमं पिबतु ) जिसका अर्थ है कि त्वष्टा देव - पत्नियों सहित सोमपान के लिए यज्ञ में आए । त्वष्टा नेष्टा के ग्रह से सोम का पान करेगा । त्वष्टा रूप का तक्षण करता है , ऐसा रूप जो मधु की सृष्टि करता है । ऋग्वेद की ऋचाओं में निष्टतक्षु: (नि: - ततक्षु: ) शब्द आता है और प्रतीत होता है कि इसी शब्द से नेष्टा शब्द बना होगा । त्वष्टा देवलोक का त्वष्टा है तो नेष्टा भूलोक का । नेष्टा जब भी श्रद्धा रूपी यजमान - पत्नी को यज्ञ में लाता होगा तो वह उसे संस्कारित करके लाता होगा । यज्ञ में तृतीय सवन में यजमान - पत्नी मिथुन द्वारा अपनी ऊरु से शान्तिप्रदायक जल का सृजन करती है लेकिन वास्तव में यह मिथुन आग्नीध्र ऋत्विज व नेष्टा ऋत्विज के बीच होता है । आग्नीध्र नेष्टा की ऊरु पर बैठकर ग्रह भक्षण करता है । (गवामयन सत्र में नेष्टा श्री संतोष शर्मा द्वारा दी गई सूचना के आधार पर )
संदर्भाः एते होत्रे व्यृद्धे व्यृद्धसोमपीथे, तस्मान्न नेष्ट्रा न पोत्रा भवितव्यम् – काठ.सं. २४.६, कपिष्ठल कठसं ३७.७ अङ्घारिरसि बम्भारि(इति नेष्टा) – वा.सं. ५.३२ ऐन्द्रं नेष्टा(आदत्ते)। सौर्यमुन्नेता। - आप.श्रौ.सू. १३.८ महाव्रतम् - नेष्टैकविंशेन पुच्छेन भद्रेणोद्गायति...... तस्माद् इदं पुच्छं सं चाञ्चति, प्र च सारयति।....तस्माद् इदं पुच्छं मेद्यतो ऽनुमेद्यति कृश्यतो ऽनुकृश्यति। – जै.ब्रा. २.४०८ नेष्टुरुपस्थ आसीनो भक्षयति पत्नीभाजनं वै नेष्टाऽग्निः पत्नीषु रेतो दधाति प्रजात्या अग्निनैवं तत्पत्नीषु रेतो दधाति प्रजात्यै। - ऐ.ब्रा. ६.३, गो.ब्रा. २.४.५ नेष्टारं वृणीते, ककुभं तच्छन्दसां वृणीते – काठ.सं. २६.९, कपिक.सं.४१.७ अग्निर्हि देवानां पात्नीवतो नेष्टर्त्विजाम् – कौ.ब्रा. २८.३ पुंसामग्नीत् स्त्रीणां नेष्टा, यदग्नीन् नेष्टुरुपस्थमासीदति, मिथुनं वा एतत् संभवतो , यत्तर्ह्यप उपप्रवर्तयति तस्मिन्न् एव मिथुने रेतो दधाति, – मै.सं. ४.५.४ अनड्वान् नेष्टुः (दीयते) – मै.सं. ४.४.८ स्त्रीणां वै नेष्टा, पुमान् धिष्ण्यः – काठसं. २८.८, कपि.क.सं. ४४.८ होता यक्षद्ग्रावो नेष्ट्रात्त्वष्टा सुजनिमा सजूर्देवानां पत्नीभिर्ऋतुना सोमं पिबतु नेष्टर्यज – ऋ. खिल ५.७.५.३ त्विषिश्चापचितिश्च नेष्टापोतारौ – तां.ब्रा. २५.१८.४ शिखानुशिखौ नेष्टापोतारौ – तांब्रा. २५.१५.३ एतौ(नेष्टापोतारौ) सं सचन्ताविव यजतः – कपि.क.सं. ४०.४ मारुते वै वाससी। मारुतौ नेष्टापोतारौ तत् तत्सलक्ष्म क्रियते – जै.ब्रा. २.२०३ राजसूये दशपेयविधिः -- वाससी नेष्टापोतृभ्याम् (ददाति)। पवित्रे एवास्यैते(वाससी)- तै.ब्रा. १.८.२.४ *उपर्युपर्येवाक्षमध्वर्युः । सोमग्रहं धारयत्यधोऽधोऽक्षं नेष्टा सुराग्रहं सम्पृचौ स्थः सं मा भद्रेण पृङ्क्तमिति मा.श. ५.१.२.[१८]
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