PURAANIC SUBJECT INDEX (From Nala to Nyuuha ) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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निर्ऋति शब्दकल्पद्रुम कोश में निर्ऋति की निरुक्ति इस प्रकार की गई है कि “निर्गता ऋतिरशुभं यस्मात्” अथवा “निर्नियता ऋतिर्घृणा अशुभं वा यत्र।” अलक्ष्मीः। पं. चन्द्रशेखर उपाध्याय व श्री अनिल कुमार उपाध्याय-कृत वैदिक कोश में निर्ऋति की परिभाषा इस प्रकार की गई है – निरुद्ध ऋति अर्थात् सत्यगति या ज्ञानमय आचरण से शून्य अविद्या। अथवा, चेतना से रहित जड प्रकृति। अथवा निः+ऋतिः – आत्मा को नीचे ले जाने वाली पाप प्रवृत्ति। अथवा निर्+रम्+क्तिन् = निर्ऋति(रम् का ऋ)। निर्ऋतिः निरमणात्। अथवा नियता ऋतिः घृणा यस्याः सा(जिसकी घृणा चली गई हो। घृणा से रहित निर्घृण)। अथवा ऋति अर्थात् सम्यक् उपचार, लालन पालन और उत्तम शिक्षा के अभाव से होने वाला कष्ट। ऋति को रिक्ति, खाली अर्थ में लिया जा सकता है या नहीं, यह विचारणीय है। शौनकीय अथर्ववेद १५.२. में निर्ऋति का उल्लेख किए बिना एक मन्त्र है कि उषा पुंश्चली है, मन्त्र उसका विज्ञान है, अमावास्या व पौर्णमासी परिष्कन्द हैं। इस मन्त्र से निर्ऋति के स्वरूप का रहस्योद्घाटन हो सकता है। बाणासुर-पुत्री उषा का विवाह अनिरुद्ध से होता है। जहां निरुद्ध स्थिति है, वह निर्ऋति की अवस्था है। निरुद्ध स्थिति भूख-प्यास की होती है – क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठां अलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्। - श्रीसूक्त। यदि भूख-प्यास की अग्नि को विकसित करके सिर तक पहुंचा दिया जाए तो यह उषा बन जाएगी। जब तक भूख उदर तक निरुद्ध है, तब तक यह निर्ऋति के आधीन रहेगी। यही स्थिति जिह्वा के रसों की समझी जा सकती है। जब तक जिह्वा के रस क्षणिक आनन्द देते हैं, तब तक निर्ऋति की स्थिति है। जब यह रस धारा रूप में प्रवाहित होने लगेंगे, तब वह उषा का रूप बन जाएंगे, मन्त्र बन जाएंगे। दूसरे शब्दों में इसे ऐसे कहा गया है कि मूल निर्ऋति है, शीर्ष उषा है। उद्दालक ऋषि अलक्ष्मी को अश्वत्थ मूल में बैठाकर उसके लिए उपयुक्त वर की खोज में चले जाते हैं। गीता के अनुसार अश्वत्थ दो प्रकार का होता है- एक जिसका मूल नीचे की ओर होता है। यह पाप वृक्ष है। दूसरा जिसका मूल ऊपर और शाखाएं नीचे की ओर होती हैं। भागवत पुराण १२.११.४८ में नैर्ऋत राक्षसों के सूर्य के रथ के पृष्ठ में रहकर सूर्य की रक्षा करने का उल्लेख है। इसका अर्थ यह हो सकता है कि जो संस्कार पृष्ठभूमि में छिपे हैं, अचेतन मन में, वह सब निर्ऋति के रूप हैं। पातञ्जल योग का सूत्र है – योगश्चित्तवृत्ति निरोधः। गरुड पुराण ३.८.८ में निर्ऋति इसी सूत्र के अनुसार विष्णु की स्तुति करती है – चित्तस्य निग्रहेणैव विष्णोर्यांति परं पदम्। प्रथम लेखन : २३-१२-२०१२ई.(मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी, विक्रम संवत् २०६९) संदर्भ *धा॒ता मा॒ निर्ऋ॑त्या॒ दक्षि॑णाया दि॒शः पा॑तु बाहु॒च्युता॑ पृथि॒वी द्यामि॑वो॒परि॑। – शौ.अ. १८.३.२६ तुलनीय : विष्णुधर्मोत्तर पुराण १.४१.५ में विरूपाक्ष पुरुष और निर्ऋति प्रकृति *असुन्वन्तमयजमानमिच्छ स्तेनस्येत्यां तस्करस्यान्वेषि अन्यमस्मदिच्छ सा त इत्या नमो देवि निर्ऋते तुभ्यमस्तु – तै.सं. ४.२.५.४, तु. मै.सं. २.७.१२ *आरे बाधस्व निर्ऋतिं पराचैः कृतं चिदेनः प्रमुमुग्ध्यमस्मत् – मै.सं. १.३.३९, काठ.सं. ४.१३, कपि.क.सं. ३.११ *इयं(पृथिवी) वै निर्ऋतिरियं वै तं निरर्पयति यो निर्ऋच्छति – मा.श. ७.२.१.११(तु. तै.ब्रा. १.६.१.१, मा.श. ५.२.३.३) *कपोता उलूकः शशस्ते निर्ऋत्यै – मै.सं. ३.१४.१९ *कृष्णा भवन्त्येतद्धि निर्ऋत्या रूपम् – मै.सं. ३.२.४(तु. मा.श. ७.२.१.७) *घोरा वै निर्ऋतिः – मा.श. ७.२.१.११ *तिग्मतेजा वै निर्ऋतिः – मा.श. ७.२.१.१० *निर्ऋतिं निरवदयते – तै.सं. ५.२.४.३ *निर्ऋतिं निर्जल्पेन शीर्ष्णा(प्रीणामि) – मै.सं. ३.१५.२ *निर्ऋतिं निर्जाल्माकशीर्ष्णा (प्रीणामि) – काठ.सं. ५३.३ *निर्ऋतिं निर्जाल्मकेन शीर्ष्णा (प्रीणामि)- तै.सं. ५.७.१३.१ *निर्ऋतिमस्थभिः (प्रीणामि) – तै.सं. ५.७.१८.१, काठ.सं. ५३.८ *निर्ऋतिर्वै कर्मण उपद्रष्ट्रिका – मै.सं. ३.२.४ *निर्ऋतिर् वै स्त्री – काठ.सं. ३६.१० *निर्ऋतिर् हि स्त्री – मै.सं. १.१०.१६ *निर्ऋतेर्वा एतन्मुखं यद्वयांसि यच्छकुनयः – ऐ.ब्रा. २.१५ *निर्ऋत्याः पञ्चमी – मै.सं. ३.१५.५ *निर्ऋत्याः छिद्रकर्ण्यः – मै.सं. ४.२.९ *निर्ऋत्यै मूलबर्हणी(मूलनक्षत्रम्) – तै.ब्रा. १.५.१.४(तु. तै.ब्रा. ३.१.२.३) *पाप्मा वै निर्ऋतिः – मा.श. ७.२.१.१ *ब्लेष्कोऽसि निर्ऋत्याः पाशः – काठ.सं. ३७.१३ *भूमिरिति त्वा जना विदुर्निर्ऋतिरिति त्वाऽहं परि वेद विश्वतः – तै.सं. ४.२.५.३-४ *निर्ऋ॑त्या अश्वतरगर्द॒भौ – तै.आ. ३.१०.३ *मा नो॑ रु॒द्रो निर्ऋति॒र्मा नो॒ अस्ता॑ – तै.आ. ४.२०.२ *मूलं नक्षत्रं निर्ऋतिर्देवता – मै.सं. २.१३.२० *यं ते देवी निर्ऋतिराबबन्धेति जालमिष्टकास्वध्यस्यति, निर्ऋतिपाशमेवोन्मुञ्चते – मै.सं. ३.२.४ *यां त्वा जनो भूमिरिति प्रमन्दते, निर्ऋतिरिति त्वाहं परिवेद विश्वतः – काठ.सं. १६.१२, कपि.क.सं. २५.३ *वासः कृष्णं भिन्नान्तं दक्षिणेत्येतद्धि निर्ऋत्या रूपम् – मै.सं. ४.३.१ *विशीर्ष्णीं गृध्रशीर्ष्णींञ्च। अपेतो निर्ऋतिँँ हथः। परिबाधँँ श्वेतकुक्षं निजङ्घँँ शबलोदरम् – तै.आ. १.२८.१ *श्येनी वण्डापस्फुरा दक्षिणैतद्धि निर्ऋत्या रूपम् – मै.सं. ४.३.८ *स्वकृत इरिण उप दधाति प्रदरे वैतद्वै निर्ऋत्या आयतनम् – तै.सं. ५.२.४.३ *अर्धं वै पुरुषस्य निर्ऋतिगृहीतमर्धमनिर्ऋतिगृहीतम् – मै.सं. ४.३.१ *निर्ऋतिगृहीता वै एषा स्त्री या पुँँरूपा, निर्ऋतिगृहीत एष पुमान्यः स्त्रीरूपः – मै.सं. २.५.५ *निर्ऋतिगृहीतो वा एष यो निरुद्धः – मै.सं. २.२.१ *या वा ऽ अपुत्रा पत्नी सा निर्ऋतिगृहीता – मा.श. ५.३.१.१३ *स्वकृत इरिणे प्रदरे वा जुहुयादेतद्वा अस्या(पृथिव्याः) निर्ऋतिगृहीतं निर्ऋत्यैवैनं (भ्रातृव्यम्) ग्राहयति – काठ.सं. ९.१६ *आपास्य नैर्ऋतान् पाशान् मृत्योरेकशतं च ये – काठ.सं. ३८.१३ *कपोत उलूकश्शशस्ते नैर्ऋताः – काठ.सं. ७.८ *तद्वै नैर्ऋतमन्नस्य यत्तुषाः – मै.सं. ३.२.४ *नैर्ऋत एककपालः (पुरोडाशः) – काठ.सं. १५.१(तु. मै.सं. २.६.१) *नैर्ऋतश्चरुर्नखावपूतानां परिवृक्त्या गृहे – मै.सं. २.६.५, ४.३.८ *नैर्ऋता वै तुषाः – मा.श. ७.२.१.७ *नैर्ऋतेन पूर्वेण प्रचरति - - - एककपालो भवति, एकधैव निर्ऋतिं निरवदयते – तै.ब्रा. १.६.१.१ *नैर्ऋतो वै पाशः – तै.सं. ५.२.४.३, काठ.सं. २०.२, कपि.क.सं. ३१.४, मा.श. ७.२.१.१५ *यो विदग्धः (पुरोडाशः) स नैर्ऋतः – तै.सं. २.६.३.४ *अथैता नैर्ऋतीस्तिस्रः कृष्णास्तुषपक्वाः – काठ.सं. २०.२, कपि.क.सं. ३१.४ *नैर्ऋती उखा – तै.सं. ५.६.६.२ *त्रया वै नैर्ऋताः अक्षाः स्त्रियः स्वप्नः – मै.सं. ३.६.३ *नैर्ऋतं चरुं परिवृक्त्यै गृहे कृष्णानां व्रीहीणां नखनिर्भिन्नम्। कृष्णा कूटा दक्षिणा – तै.सं. १.८.९.१ *नैर्ऋतमेककपालं कृष्णं वासः कृष्णतूषं दक्षिणा – तै.सं. १.८.१.१ *अनुमत्या अष्टाकपालेन प्रचरन्ति, निर्ऋतिमेव निरवदाय – मै.सं. ४.३.१ *येऽरातीयन्ति (पुरुषाय) सा निर्ऋतिर्ये नारातीयन्ति साऽनुमतिः – मै.सं. ४.३.१ *स्वकृत इरिणे जुहोति प्रदरे वा। एतद्वै निर्ऋत्या आयतनम् – तै.ब्रा. १.६.१.३ *स्वकृत इरिण उपदधात्येतद्वा अस्या (पृथिव्याः) निर्ऋतिगृहीतम् – काठ.सं. २०.२० *निर्ऋत्यै रूपं कृष्णम् – तै.सं. ५.२.४.२ *निर्ऋत्यै वा एतद् भागधेयं यत्तुषाः – तै.सं. ५.२.४.२ *निर्ऋतिगृहीता वै दर्विः तप्तँँ ह्यवचरति – मै.सं. १.१०.१६, काठ.सं. ३६.१० |