पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(From vowel Ekapaatalaa to Ah)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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Ekapaatalaa - Ekashruta (  Ekalavya etc.)

Ekashringa - Ekaadashi ( Ekashringa, Ekaadashi etc.)

Ekaananshaa - Airaavata (  Ekaananshaa, Ekaamra, Erandi, Aitareya, Airaavata etc.)  

Airaavatee - Odana  ( Aishwarya, Omkara, Oja etc.)

Oshadhi - Ah ( Oshadhi/herb, Oudumbari, Ourva etc.)

 

 

 

EKAADASHI

The eleventh day of a fortnight has got special significance in Hindu daily life. One is supposed to observe fast on this day. Why has this day been given so much importance? This note tries to analyze this question on the basis of sacred puraanic and vedic texts. Vedic texts talk of 10 praanas or life forces and the eleventh is Aatman. It is expected that sacred texts are talking of connecting 10 praanas with the 11th Aatman. But what is the use? In sacred Hindu texts, there is a trio of mind/manas, praana/life forces and vaak/basic nature. These three mingle themselves. It is expected that if praanic forces mingle with these, they loose their vitality. Therefore, sacred texts may be talking of connecting praanic forces with Aatman. This is like keeping these praanic forces in the womb for 10 months and then giving birth to a child. On the other hand, the 11th date, which is mixed with 10th date according to Hindu astrological calendar, is forbidden for fast purposes. 11th date, which is mixed with 12th and 13th, is auspicious.The story of Mohini and Rukmangada in puranic texts and other contexts indicate that  ekaadashis is the first state of mind which is free from illusion of this world. Mohini is symbolic of illusion. Puranic texts indicate this as Aatman which has infinite expanse. The 10 quantities have been enumerated differently at different places. It can be said that this topic needs deeper study.

 

एकादशी

टिप्पणी : ब्राह्मण ग्रन्थों का सार्वत्रिक कथन है(जैमिनीय ब्राह्मण २.३२३, शतपथ ब्राह्मण ३.८.१.३, ८.४.३.८, ११.२.७.६, तैत्तिरीय संहिता ६.३.७.५, ६.३.११.६, ६.३.१०.३ आदि) कि पुरुष में १० प्राण हैं और आत्मा एकादश है । यद्यपि यह स्पष्ट नहीं है कि १० प्राण कौन से हैं, लेकिन फिर भी यह कथन पुराणों में एकादशी को समझने की कुञ्जी है । प्राणों का कार्य अन्न की, दिव्य अन्न की, दिव्य वर्षा की अभीप्सा करना है । वेदों में मण्डूक प्राण दिव्य वर्षा की अभीप्सा करते रहते हैं । विभिन्न प्राणों की विभिन्न प्रकार की अभीप्साएं हैं जिन्हें पाकर वह तृप्त होते हैं । इसे प्राणों का अन्न कहा जाता  है । यदि प्राणों को उनका सम्यक् अन्न प्राप्त नहीं हो पाता तो वह प्रकृति में विकृत अन्न प्राप्त करते हैंऔर विकृत हो जाते हैं । यह स्थिति सभी जीवात्माओं की है । दिव्य अन्नों के अभाव में प्राण विकृत होकर अपना काम चला रहे हैं । उपनिषदों की भाषा में इस अन्न को वाक् कहा गया है और उपनिषदों में मन, प्राण और वाक् में श्रेष्ठता की प्रतिस्पर्द्धा के आख्यान मिलते हैं । पुराणों की कथाओं में ललित गन्धर्व का ललिता अप्सरा पर आसक्त हो जाना या वरूथ का कला से मिल जाना आदि भी प्राण और वाक् के मिथुन के रूप हैं जिनसे प्राण दुर्बल पड जाते हैं । इन प्राणों को अ-क्षर बनाने का उपाय वैदिक तथा पौराणिक साहित्य में यह दिया गया है कि इन प्राणों को वाक् के बदले आत्मा से, महाभारत के शब्दों में अनन्तात्मा से जोडा जाए । ऐसा लगता है कि मन, प्राण और वाक् के त्रिक में प्राणों को मन से भी जोडा जा सकता है और तब यह वामन बनते हैं । बलि राजा के समक्ष पहले वामन प्रकट होता है और फिर वह विराट् रूप धारण कर लेता है । तैत्तिरीय संहिता २.२.५.३, ६.६.४.५, जैमिनीय ब्राह्मण २.३२३ के अनुसार दशमी रूपी दश प्राण विराट् बनकर अन्नाद्य, अन्नों में श्रेष्ठतम की अभीप्सा तथा उसका सम्पादन कर सकते हैं । यदि प्राण दिव्य अन्नों का सम्पादन करने में समर्थ हो जाते हैं तो उन्हें आत्मा या मन से जुडने की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए । लेकिन पुराणों में आषाढ शुक्ल एकादशी को वामन पूजा आदि की कथा यह संकेत करती है कि प्राणों  के विराट् बनने के पश्चात् भी उनको मन से जोडने की आवश्यकता रहती है, अथवा हो सकता है कि मन से जुडने से पहले प्राण विराट् बनते ही न हों ।

          पुराणों में एकादशी से पितरों के उद्धार की कथाएं मिलती हैं । पितर भी विकृत प्राणों का रूप हैं जिनके उद्धार की आवश्यकता है(डा. लक्ष्मीनारायण धूत के अनुसार पितर हमारे संस्कार हैं)। ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी को भीम द्वारा निर्जला एकादशी का चीर्णन करने की कथा की थोडी व्याख्या लक्ष्मीनारायण संहिता में मिलती है कि निर्जला एकादशी का उद्देश्य मर्त्य जल की अपेक्षा दिव्य जल की अभीप्सा करना है जिससे हमारी भूख - प्यास समाप्त हो जाए ।

          वैशाख शुक्ल एकादशी को धृष्टबुद्धि वैश्य - पुत्र के उद्धार की कथा आती है । १० प्राण कौन से हैं जिनका उद्धार करना है, यह अस्पष्ट है । महाभारत शान्ति पर्व में एकादश के अन्तर्गत दशम बुद्धि कही गई है । यदि बुद्धि १० प्राणों के अन्तर्गत है तो धृष्टबुद्धि की कथा की व्याख्या की जा सकती है । शतपथ ब्राह्मण ११.२.७.६ में ११ सामिधेनी नामों के अन्तर्गत क्रमशः पृथिवी, अग्नि, वायु, अन्तरिक्ष, द्यौ, आदित्य, चन्द्रमा, मन, तप, वाक् तथा ११वें ब्रह्म के नाम दिए गए हैं । सामिधेनी से तात्पर्य प्राणों का समिन्धन करने से, उनको जाग्रत करने से है जिससे वे अपने दिव्य कामों में प्रवृत्त हो जाएं ।

          पुराणों में एकादशी व्रत से पुत्र प्राप्ति की कथाओं के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण ११.२.१.२, तैत्तिरीय संहिता २.२.१.१, ७.२.६.३ आदि के आधार पर ऐसा लगता है कि वैदिक रूप में पुत्र पिता  की आत्मा व प्राणों का प्रतिरूप होता है । जिस प्रकार गर्भ माता के गर्भ में १० मास तक पुष्टि प्राप्त करके तब जन्म लेता है, इसी प्रकार पुरुष के प्राण १० मासों तक ऋतुओं में पककर(ऋतुओं का कार्य पकाना है)तब ११वें मास में जन्म लेते हैं । यदि प्राण किसी कारण से न पक सके तो पुत्र का  जन्म नहीं होगा । पुराण इस कमी को पूरा करने का उपाय एकादशी बताते हैं ।

          वराह पुराण में कृष्ण पक्ष की एकादशी को मोक्षप्रदा व शुक्ल पक्ष की एकादशी को भक्तिप्रदा कहा गया है । इस संदर्भ का मूल दर्शपूर्ण मास यज्ञ में खोजने का प्रयत्न किया जा सकता है । अमावास्या को इन्द्राग्नि देवता हेतु ११ कपाल पुराडाश का विधान है, जबकि पूर्णिमा को अग्नीषोम देवता हेतु ११ कपाल पुरोडाश का विधान है । अग्नीषोम की व्याख्या के लिए अग्नीषोम पर टिप्पणी द्रष्टव्य है । अग्नि व सोम के मिलन से एक घर्म का जनन होता है जिससे यह सारी सृष्टि चल रही है । इसे रूप की प्राप्ति भी कह सकते हैं । इस संदर्भ में मोहिनी व रुक्माङ्गद की कथा विचारणीय है । ऐसा लगता है कि एकादश आत्मा तथा १० प्राणों के संयोग से जिस स्थिति का जन्म होता है, वह यज्ञ है, द्वादशी तिथि है । आध्यात्मिक प्राप्ति के सर्वत्र वितरण को यज्ञ कह सकते हैं । कार्तिक शुक्ल एकादशी को विष्णु या देवों का प्रबोधन भी यज्ञ की श्रेणी में आ सकता है । लेकिन इस तथ्य की यह व्याख्या अभी संदिग्ध है । गरुड पुराण में माघ शुक्ल एकादशी को यज्ञवराह का न्यास, नारद पुराण में ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी को जगन्नाथ क्षेत्र में पुरुषोत्तम पूजा, पद्म पुराण आदि में फाल्गुन शुक्ल एकादशी को आमलकी वृक्ष की उत्पत्ति, स्कन्द पुराण में कार्तिक शुक्ल एकादशी को विष्णु का वृक के  ऊपर से उठकर क्षीरसागर को जाना(डा. फतहसिंह के अनुसार वृक अहंकार का प्रतीक है)आदि कथाएं शुक्ल पक्ष की एकादशी के याज्ञिक रूप की व्याख्या करती हैं । इसी प्रकार कृष्ण पक्ष की  एकादशियां कष्ट निवारक, पितरों का उद्धार करने वाली, एकान्तिक साधना का प्रतीक होनी चाहिएं । 

          एकादशी तिथि के पश्चात् द्वादशी तिथि विष्णु की तिथि है । पुराणों के अनुसार दशमी विद्धा एकादशी शुभ नहीं है, अपितु त्रिस्पृशा एकादशी, जो द्वादशी व त्रयोदशी तिथियों का स्पर्श करती हो, शुभ है । पहले प्राणों के वाक् के साथ मिथुन का निषेध किया गया, अब एकादश आत्मा के प्राण रूपी दशमी के साथ मिथुन का भी निषेध किया जा रहा है ।

          पुराणों में एकादशी को प्राणों को अन्न से वञ्चित रखने तथा रात्रि में प्राणों को जाग्रत रखने के निर्देश हैं । ब्राह्मण ग्रन्थों(तैत्तिरीय संहिता ७.५.६.४ आदि)में माध्यन्दिन सवन में इन्द्र आदि देवताओं हेतु एकादश कपाल पुरोडाश का विधान है । माध्यन्दिन सवन मध्याह्न की, सूर्य रूपी प्राणों की सर्वाधिक सक्रिय होने की अवस्था है । जैमिनीय ब्राह्मण २.३९४ के आधार पर ऐसा लगता है कि इस सर्वाधिक सक्रिय अवस्था के प्राणों को एकादश रुद्रों का नाम दिया गया है । जैमिनीय ब्राह्मण २.३२३ के अनुसार १० प्राण १० अहों/दिनों का प्रतीक हैं, जबकि रात्रि एकादशी है । इस प्रकार एकादशी व्रत किसी प्रकार से रात्रि और दिवस का मिलन है ।

           शतपथ ब्राह्मण ३.९.१.४, तैत्तिरीय संहिता २.२.१.१, ७.२.६.१ आदि में उल्लेख आता है कि एकादशी के माध्यम से खोई हुई, नष्ट हुई प्रजा की पुनः प्राप्ति की जा सकती है । पुराणों में एकादशी के संदर्भ में इस तथ्य का कहीं प्रत्यक्ष उल्लेख आया हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता । प्रजा की, विचारों रूपी प्रजा की पुनः प्राप्ति से क्या तात्पर्य है, इसे वर्तमान काल में विकसित हो रहे सूचना प्रेषण विज्ञान के आधार पर समझा जा सकता है । यह प्रयत्न किया जा रहा है  कि यदि ऐसे २ कण प्राप्त हो जाएं जो सूक्ष्म रूप में कभी भी एक दूसरे से अलग न हों, उनमें अलग होने पर भी किसी न किसी प्रकार का सम्बन्ध बना रहे, तो सूचना प्रेषण के लिए ऐसा किया जा सकता है कि इन २ कणों में से एक को दूसरे व्यक्ति के पास भेज दिया जाए । चूंकि पहले व्यक्ति के पास जो कण है, वह दूसरे कण के बारे में भी सूचना रख रहा है, अतः दूसरा कण दूसरे व्यक्ति द्वारा ग्रहण किए जाने पर दूसरे व्यक्ति की सूचना पहले व्यक्ति तक भी पहुंच जाएगी । यह टैलीपैथी है । यदि एक व्यक्ति के विचार या प्राण रूपी प्रजा उसकी आत्मा से जुड जाएं तो ऐसे विचार या प्राण दूसरे व्यक्ति के प्राणों या विचारों को प्राप्त कर पुनः लौट सकते हैं । आधुनिक सूचना विज्ञान में प्रकाश के कणों के साथ, जिन्हें क्वाण्टा कहते हैं, ऐसे प्रयोग चल रहे हैं ।

          शतपथ ब्राह्मण १३.३.३.८, तैत्तिरीय संहिता ६.६.४.५, तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.८.२१.२ में पशु एकादशिनी के संदर्भ में श्रेष्ठतम अन्न का सम्पादन कर सकने में समर्थ १० प्राणों को वैराज गौ तथा एकादश को इस गौ का स्तन कहा गया है जिसके द्वारा इस वैराज गौ का दोहन किया जाता है । तैत्तिरीय आरण्यक १.९.२ में ११ रुद्रों की ११ शक्तियों में अन्तिम शक्ति के विद्युत नाम का उल्लेख  है ।

          गरुड पुराण में एकादशी को ऋषियों की पूजा का निर्देश है । ऋषि शब्द में ऋष~ धातु तप, सत्य, ज्ञान प्राप्ति के अर्थों में आती है और ऋषि को अभीप्सा करने वाले प्राणों का रूप कहा जा सकता है । शतपथ ब्राह्मण ५.५.१.९, तैत्तिरीय संहिता १.८.१.१ आदि में इन्द्र के लिए एकादश कपाल पुरोडाश अर्पित करते समय ऋषभ दक्षिणा का निर्देश है । पुराणों में एकादशी कथाओं के बीच में ऋषियों के नाम आते हैं, जैसे मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के संदर्भ में पर्वत ऋषि, फाल्गुन कृष्ण एकादशी के संदर्भ में दाल्भ्य बक, चैत्र कृष्ण के संदर्भ में लोमश आदि । इन नामों के माध्यम से क्या कहा जा रहा है, यह अन्वेषणीय है ।

प्रथम लेखन : २७-१-२००५ई.

संदर्भ
एकादशी

*ये देवासो दिव्येकादश स्थ पृथिव्यामध्येकादश स्थ। अप्सुक्षितो महिनैकादश स्थ ते देवासो यज्ञमिमं जुषध्वम्। - ऋग्वेद १.१३९.११

*विश्वैर्देवैस्त्रिभिरेकादशैरिहाऽद्भिर्मरुद्भिर्भृगुभिः सचाभुवा। - ऋ. ८.३५.३

*अग्निस्त्रीणि त्रिधातून्या क्षेति विदथा कविः। स त्रींरेकादशाँ इह यक्षच्च पिप्रयच्च नो विप्रो दूतः परिष्कृतो नभन्तामन्यके समे ॥ - ऋ. ८.३९.९

*युवां देवास्त्रय एकादशासः सत्याः सत्यस्य ददृशे पुरस्तात्। अस्माकं यज्ञं सवनं जुषाणा पातं सोममश्विना दीद्यग्नी ॥ - ऋ. ८.५७.२

*तव त्ये सोम पवमान निण्ये विश्वे देवास्त्रय एकादशासः। - ऋ. ९.९२.४

*इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कृणु। दशास्यां पुत्राना धेहि पतिमेकादशं कृधि ॥ - ऋ. १०.८५.४५

*आ नासत्या त्रिभिरेकादशैरिह देवेभिर्यातं मधुपेयमश्विना। - अथर्ववेद १.३४.११

*- - - -यद्येकादशोऽसि सोऽपोदकोऽसि। - अ. ५.१६.११

*- - - -दशर्चेभ्यः स्वाहा। एकादशर्चेभ्यः स्वाहा। - अ. १९.२३.८

*ये देवा दिव्येकादश स्थ ते देवासो हविरिदं जुषध्वम्। ये देवा अन्तरिक्ष एकादश स्थ ते देवासो हविरिदं जुषध्वम्। ये देवा पृथिव्यामेकादश स्थ ते देवासो हविरिदं जुषध्वम्। - अ. १९.२७.११

*द्वौ च ते विंशतिश्च ते रात्र्येकादशावमाः। तेभिर्नो अद्य पायुभिर्नु पाहि दुहितर्दिवः ॥ - अ. १९.४७.५

*सामिधेन्यनुवचनम् : एकादशान्वाह। एकादशाक्षरा वै त्रिष्टुब्। ब्रह्म गायत्री, क्षत्रं त्रिष्टुब् - एताभ्यामेवैनमेतदुभाभ्यां वीर्याभ्यां समिन्धे - तस्मादेकादशान्वाह। - शतपथ ब्राह्मण १.३.५.५

*दशमी वा हि तर्हि एकादशी वा सम्पद्यते। तस्यो ह एवैषा अवक्लृप्ता भवति- यस्यैतामष्टमीमन्वाहुः। - मा.श. १.४.१.३७

*ताभ्यामेतमग्नीषोमीयमेकादशकपालं पुरोडाशं निरवपत्। - मा.श. १.६.३.१४

*यज्ञपरिशिष्टम् :(गार्हपत्यम्)एकादशस्वादधीत। एकादशाक्षरा वै त्रिष्टुप्। त्रिष्टुभैवैतद्दिवमुपोत्क्रामति। - मा.श. १.७.३.२४

*यूप सम्पादनम् : एकादशारत्निं परिवासयेत्। एकादशाक्षरा वै त्रिष्टुप् वज्रस्त्रिष्टुप्। - मा.श. ३.६.४.२२

*ते वाऽएतऽएकादश प्रयाजा भवन्ति। दश वाऽइमे पुरुषे प्राणाः - आत्मैकादशः यस्मिन्नेते प्राणाः प्रतिष्ठिताः। - मा.श. ३.८.१.३

*त्रीणि वै पशोरेकादशानि - एकादश प्रयाजाः, एकादशानुयाजाः, एकादशोपयजः। - मा.श. ३.८.४.१

*पश्वेकादशिनी : स एकादशिन्येष्ट्वा प्रजापतिः पुनरात्मानमाप्याययत - उपैनं प्रजाः समावर्तन्त - अतिष्ठन्तास्य प्रजाः श्रियेऽन्नाद्याय - - - - - - - - -। तस्मै कमेकादशिन्या यजेत। - मा.श. ३.९.१.४

*गृहत्यागः : अथैकादश कृत्वोऽभिषुणोति। एकादशाक्षरा वै त्रिष्टुप्, त्रैष्टुभं माध्यन्दिनं सवनम्। - मा.श. ४.१.१.१०

*आग्रयण ग्रहः : अथातो गृह्णात्येव - ये देवासो दिव्येकादश स्थ पृथिव्यामध्येकादश स्थ। अप्सुक्षितो महिनैकादश स्थ ते देवासो यज्ञमिमं जुषध्वम्। - श.ब्रा ४.२.२.९

*अथ श्वोभूतऽआग्नावैष्णवमेकादशकपालं पुरोडाशं निर्वपति। - मा.श. ५.२.३.६

*राजसूयः : तस्मादग्नीषोमीय एकादशकपालः पुरोडाशो भवति। तस्योत्सृष्टो गौर्दक्षिणा। - मा.श. ५.२.३.७

*रत्नयागाः : तानि वाऽएतान्येकादश रत्नानि सम्पादयति। एकादशाक्षरा वै त्रिष्टुप्, वीर्यं त्रिष्टुप्, वीर्यमेवैतद्रत्नान्यभिसम्पादयति। - मा.श. ५.३.१.१२

*पञ्चबिलाख्याश्चरुहोमाः : ऐन्द्र एकादशकपालः पुरोडाशो भवति। - मा.श. ५.५.१.१

*स मनसैव वाचं मिथुनं समभवत्~। स एकादश द्रप्सान्गर्भ्यभवत्~। तऽएकादश रुद्रा असृज्यन्त। - मा.श. ६.१.२.७

*आग्नावैष्णव एकादशकपालः। तदध्वरस्य दीक्षणीयम्। वैश्वानरो द्वादशकपालः। - मा.श. ६.६.१.२

*१४ वालखिल्य इष्टकाः : या अमूरेकादशेष्टका उपदधाति। योऽसौ प्रथमोऽनुवाकः। तदन्तरिक्षम्। स  आत्मा। तद्यत्ता एकादश भवन्ति। एकादशाक्षरा वै त्रिष्टुप्। त्रैष्टुभमन्तरिक्षम्। - मा.श. ८.३.४.११

*एकादशभिरस्तुवत इति। दश प्राणाः, आत्मैकादशः। तेनैव तदस्तुवत। - मा.श. ८.४.३.८

*अष्टानां धिष्ण्याग्नीनां चयनम् : एकादश ब्राह्मणाच्छंस्ये। एकादशाक्षरा वै त्रिष्टुप्। त्रैष्टुभ इन्द्रः। - मा.श. ९.४.३.७

*ते वा एते व्यामैकादशाः प्रक्रमाः - अन्तरा वेद्यन्तं च गार्हपत्यं च। एकादशाक्षरा त्रिष्टुप्। - मा.श. १०.२.३.२

*दशात्मनोऽकुरुत - द्वासप्ततीष्टकान्। स नैव व्याप्नोत्। नैकादशधा व्यभवत्~। - मा.श.१०.४.२.११

*येनैव निर्ऋतिं पाप्मानमपहते - स एकादशः(अग्निः)। - मा.श. १०.४.३.२२

*त्रिहविष्का अभ्युदितेष्टिः : अग्नये पथिकृतेऽष्टाकपालं पुरोडाशम्, इन्द्राय वृत्रघ्न एकादश कपालम्, अग्नये वैश्वानराय द्वादशकपालं पुरोडाशम्। - मा.श. ११.१.५.५

*ता वा एता एकादश देवताः। पञ्च प्रयाजाः। द्वावाज्यभागौ। स्विष्टकृत्। त्रयोऽनुयाजाः। - मा.श. ११.१.६.२५

*ता एकादशाहुतयः। एताभिर्वा आहुतिभिर्देवा इमान् लोकानजयन्नेता दिशः। - मा.श. ११.१.६.२६

*ता वा एता एकादश सामिधेनीरन्वाह। दश वा इमे पुरुषे प्राणाः। आत्मैकादशः। - मा.श. ११.२.१.२

*त्रिर्ह वै पुरुषो जायते। एवमेवैनमेतद्यज्ञात् त्रिर्जनयति। तासामेकादशानां त्रिः प्रथमामन्वाह। त्रिरुत्तमाम्। - मा.श. ११.२.१.४

*इयमेव प्रथमा सामिधेनी। अग्निर्द्वितीया। - - - - - तपो दशमी। ब्रह्मैकादशी। एता हि वा इदं समिन्धते। - मा.श. ११.२.७.६

*एकादशकपाल ऐन्द्रो भवति। एकादशाक्षरा वै त्रिष्टुप्। इन्द्रियमु वै वीर्यं त्रिष्टुप्। - मा.श. १२.७.२.१८

*त्रया देवा एकादशेति। एतद्वा एतस्य साम्न उक्थम्। एषा प्रतिष्ठा। - मा.श. १२.८.३.२८

*त्रया देवा एकादश इति त्रयस्त्रिंशं ग्रहं जुहोति। त्रया हि देवा एकादश। त्रयस्त्रिशाः सुराधसः इति। - मा.श. १२.८.३.२९

*अप स्वर्गं लोकं राध्नोति। योऽन्यत्रैकादशिनेभ्यः संवत्सरं तनुत इति। एष वै संप्रति स्वर्गो लोकः। यदेकादशिनी। प्रजा वै पशवः एकादशिनी। यदैकादशिनान्पशूनालभते। न स्वर्गं लोकमपराध्नोति। - मा.श. १३.२.५.२

*एकादश दशत आलभते। एकादशाक्षरा वै त्रिष्टुप्। - - - - -इन्द्रियस्यैव वीर्यस्यावरुद्ध्यै। एकादश दशत आलभते। दश वै पशोः प्राणाः। आत्मैकादशः। प्राणैरेव पशून्त्समर्द्धयति। - मा.श. १३.२.५.४

*द्वादश एवाग्निः स्यात्। एकादश यूपाः। यद्द्वादशोऽग्निर्भवति। द्वादश मासाः संवत्सरः। यदेकादश यूपाः। विराड्वा एषा संमीयते। यदेकादशिनी। तस्यै य एकादशः। स्तन एवास्यै सः। दुह एवैनां तेन। - मा.श. १३.३.३.८

*एकविंशतिः सवनीयाः पशवः। सर्व आग्नेयाः। - - - - द्वे त्वेव एते एकादशिन्यौ आलभेत। य ऐकादशिनेषु कामः। तस्य कामस्याप्त्यै। - मा.श. १३.५.१.३

*पुरुषमेधः : यद्वेवैकादशिना भवन्ति। एकादशिनी वा इदं सर्वम्। प्रजापतिर्ह्येकादशिनी। - मा.श. १३.६.१.६

*एकादश दशत आलभते। एकादशाक्षरा त्रिष्टुप्। वज्रस्त्रिष्टुप्। वीर्यं त्रिष्टुप्। - मा.श. १३.६.२.४

*एकादशैकादशेतरेषु। एकादशाक्षरा त्रिष्टुप्। - मा.श. १३.६.२.६

*शाकल्य ब्राह्मणम् : अष्टौ वसवः एकादश रुद्राः। द्वादशादित्याः। - मा.श. १४.६.९.३

*तस्मात् पशवो दशमासो गर्भान् बिभ्रति। त एकादशम् अनुप्रजायन्ते। न का चन द्वादशम् अतिहरति। परिगृहीता हि तेन। - जैमिनीय ब्राह्मण १.६७

*एकादशाक्षराणि स्तोभति। एकादशाक्षरा त्रिष्टुप्। - जै.ब्रा. १.१३२

*एकादशाक्षरा त्रिष्टुब् एकादश रुद्राः। त्रैष्टुभं माध्यंदिनं सवनम्। अक्षरेऽक्षरे देवतान्वायत्ता। - जै.ब्रा.१.१४१

*प्र वयम् अमृतं जातवेदसम् इत्य् एकादशाक्षराणि संपद्यन्ते। एकादशाक्षरा त्रिष्टुप्। - जै.ब्रा. १.१७८

*ते द्व्यक्षरेण चतुर्दशाक्षरं त्र्यक्षरेण त्रयोदशाक्षरं चतुरक्षरेण द्वादशाक्षरं पञ्चाक्षरेणैकादशाक्षरं षडक्षरेण दशाक्षरं सप्ताक्षरेण नवाक्षरम्। - जै.ब्रा. १.१९३

*पञ्चाक्षरेणैकादशाक्षरं षडक्षरेण दशाक्षरम्। सानुष्टुब् अभवत्~। - जै.ब्रा. १.१९७

*ते एकाक्षरेण पञ्चदशाक्षरम् अवृञ्जत - - - - - पञ्चाक्षरेणैकादशाक्षरं षडक्षरेण दशाक्षरं सप्ताक्षरेण नवाक्षरम्। - जै.ब्रा. १.२०५

*एकादशान् यद् एकर्चान् उपेत्यैन्द्र दशं सर्वं तृचम् एवं ह चक्रे मौञ्जस् साहश्रवसः। - जै.ब्रा.१.३४८

*ऽथ किं यद् एकादशभ्यश् छिद्यते। को तस्य प्रायश्चित्तिः। - जै.ब्रा. २.११

*कतमे रुद्रा इति। दश पुरुषे प्राणा इति होवाच। आत्मैकादशः। ते यदोत्क्रामन्तो यन्त्य् अथ रोदयन्ति। - जै.ब्रा. २.७७

*दिशो वै हरितः। ता अयं वायुः पवमान आविष्ट इति वाजसनेयः। अथैकादशाक्षी। - जै.ब्रा. २.२२९

*षोडशिनि पूर्वे ऽग्नी अपित्वम् ऐच्छेताम्। तम् एताभिर् एकादशभि स्तोत्र्याभिर् उपसंपरैताम्। - जै.ब्रा. २.२५७

*दशैतान्य् अहानि भवन्ति, रात्रिर् एकादशी। दश पुरुषे प्राणा, आत्मैकादशः। - जै.ब्रा. २.३२३

*इन्द्राय रुद्रवते माध्यन्दिने पुरोडाशम् एकादशकपालं निर्वपेयुः। इन्द्रायादित्यवते ऽपराह्णे पुरोडाशं द्वादशकपालं निर्वपेयुः। - जै.ब्रा. २.३९४

*अष्टाभिर् वा अक्षरैर् अनुष्टुप् प्रथमम् अहर् उद्यच्छत्य्, एकादशभिर् द्वितीयं, द्वादशभिस् तृतीयम्। - जै.ब्रा. ३.६

*सप्ताक्षराण्य् एकानि पदानि भवन्ति, नवाक्षराण्य् एकान्य्, एकादशाक्षराण्य् एका, द्वादशाक्षराण्य् एकानि। - जै.ब्रा. ३.९७

*त्रिष्टुब् विपदा, एकादशाक्षराणि हि तस्यै पदानि। जगती नानापदा- - - -। - जै.ब्रा. ३.३१५

*- - - -मार्गशीर्षो दशमं, तैष एकादशं, माघो द्वादशं, प्रायणीय एवातिरात्रस् त्रयोदशो मास, उदयनीयस् संवत्सरश् चतुर्दशः। - जै.ब्रा. ३.३८६

*आग्नावैष्णवं पुरोळाशं निर्वपन्ति दीक्षणीयमेकादशकपालम्। - ऐतरेय ब्राह्मण १.१

*तदाहुर्यदेकादशकपालः पुरोळाशो द्वावग्नाविष्णू कैनयोस्तत्र क्लृप्तिः का विभक्तिरिति। - ऐ.ब्रा. १.१

*यत्त्रिपदा तेनोष्णिहागायत्र्यौ यदस्या एकादशाक्षराणि पदानि तेन त्रिष्टुब् - ऐ.ब्रा. १.६

*त्रयस्त्रिंशद्वै देवा अष्टौ वसव एकादश रुद्रा द्वादशाऽऽदित्याः प्रजापतिश्च वषट्कारश्च - ऐ.ब्रा. १.१०

*तासां त्रिः प्रथमामन्वाह त्रिरुत्तमां ता एकादश संपद्यत एकादशाक्षरा वै त्रिष्टुप् त्रिष्टुबिन्द्रस्य वज्र - ऐ.ब्रा. २.२

*अध्वर्यो शोंसावोमित्याहृयते मध्यंदिने षळक्षरेण शंसाऽऽमोदैवोमित्यध्वर्युः प्रतिगृणाति पञ्चाक्षरेण तदेकादशाक्षरं संयद्यत एकादशाक्षरा वै त्रिष्टुप् - ऐ.ब्रा. ३.१२

*त्रयस्त्रिंशद्वै देवा अष्टौ वसव एकादश रुद्रा द्वादशाऽऽदित्याः - - - - ऐ.ब्रा. ३.२२

*- - - - - यन्मरुत्वतीयस्योत्तरे प्रतिपदो यश्चानुचरः सैकादशाक्षरा भूत्वा माध्यन्दिनं सवनमुदयच्छत्। - ऐ.ब्रा. ३.२८

*तद्यन्महानाम्नीनां पञ्चाक्षरानुपसर्गानुपसृजत्येकादशाक्षरेषु पादेषु सर्वेभ्य एवैनं तच्छन्दोभ्यः संनिर्मिमीते। - ऐ.ब्रा.४.५

*प्रउग शस्त्र : ये देवासो दिव्येकादश स्थ - - - ऐ.ब्रा. ५.१२

*एतद्ध स्म वै तद्विद्वान्नगरी जानश्रुतेय उदितहोमिनमैकादशाक्षं मानुतन्तव्यमुवाच - - - - ऐ.ब्रा. ५.३०

*आग्रयणग्रहाभिधानम् : ये देवा दिव्येकादश स्थ पृथिव्यामध्येकादश स्थाप्सुषदो महिनैकादश स्थ ते देवा यज्ञमिमं जुषध्वम् - तैत्तिरीय संहिता १.४.१०.१

*एकादशासो अप्सुषदः सुतं सोमं जुषन्तां सवनाय विश्वे - तै.सं. १.४.११.१

*पुनराधानसंबन्ध्यङ्गजातानिरूपणम् : अग्निवारुणमेकादशकपालमनु निर्वपेद्यं चैव हन्ति यश्चास्यर्णयात्तौ - - - - तै.सं. १.५.२.५

*वाजपेयविषयोज्जितिमन्त्राभिधानम् : इन्द्र एकादशाक्षरेण त्रिष्टुभमुदजयद्विश्वे देवा द्वादशाक्षरेण जगतीमुदजयन् - - - तै.सं. १.७.११.२

*राजसूयविषयनैर्ऋतमन्त्राणां अभिधानम् : आग्नावैष्णवमेकादशकपालं वामनो वही दक्षिणाऽग्नीषोमीयम् एकादशकपालं हिरण्यं दक्षिणैन्द्रमेकादशकपालमृषभो वही दक्षिणा - तै.सं. १.८.१.१

*ऐन्द्राग्नमेकादशकपालं - - - तै.सं. १.८.३.१

*चातुर्मास्य संबन्धिवरुणप्रघासाख्यद्वितीयपर्वणोऽभिधानम् : ऐन्द्राग्नमेकादशकपालमैन्द्र चरुं - - - तै.सं. १.८.४.२

*राजसूयविषयेदेविकादिकर्मषट्काभिधानम् : आग्नावैष्णवमेकादशकपालं निर्वपत्यैन्द्रावैष्णवमेकादशकपालं - - - तै.सं. १.८.८.१

*राजसूयविषयाणां रत्नहविषामभिधानम् : ऐन्द्रमेकादशकपालं राजन्यस्य गृहं ऋषभो दक्षिणा - तै.सं. १.८.९.१

*इन्द्राय सुत्राम्णे पुरोडाशमेकादशकपालं प्रति निर्वपति - तै.सं. १.८.९.२

*राजसूयविषयाणां देवसुवां हविषामभिधानम् : इन्द्राय ज्येष्ठाय पुरोडाशमेकादशकपालं महाव्रीहीणां - तै.सं. १.८.१०.१

*राजसूयविषयाणां संसृपां दशसंख्याकहविषां विधिः :- ऐन्द्रमेकादशकपालमृषभो दक्षिणा वारुणं दशकपालं महानिरष्टो दक्षिणा - - - तै.सं. १.८.१७.१

*राजसूयसंबन्धिनां दिशामवेष्टयः पशुद्वयं सात्यदूतहवींषि चेत्येतेषां विधिः :-

ऐन्द्रमेकादशकपालमृषभो दक्षिणा वैश्वदेवं चरुं - - - - तै.सं. १.८.१९.१

*सौत्रामणीमन्त्रपशुहविषामभिधानम् : ऐन्द्रमृषभमैन्द्रमेकादशकपालं निर्वपति - तै.सं. १.८.२१.२

*इन्द्राग्नी वै मे प्रजा अपाधुक्षतामिति स एतमैन्द्राग्नमेकादशकपालमपश्यत्तं निरवत्तावस्मै प्रजाः प्रासाधयत् - - - - -ऐन्द्राग्नमेकादशकपालं निर्वपेत्प्रजाकाम इन्द्राग्नी एव स्वेन भागधेयेनोप धावति - - - - - - ऐन्द्राग्नमेकादशकपालं निर्वपेत्स्पर्धमानः क्षेत्रे वा सजातेषु वेन्द्राग्नी एव स्वेन भागधेयेनोप धावति - - - ऐन्द्राग्नमेकादशकपालं निर्वपेत्सङ्ग्राममुपप्रयास्यन्निन्द्राग्नी एव स्वेन भागधेयेनोप धावति -  - - - - ऐन्द्राग्नमेकादशकपालं निर्वपेत्सङ्ग्रामं जित्वेन्द्राग्नी एष स्वेन भागधेयेनोप धावति - - - - - ऐन्द्राग्नमेकादशकपालं निर्वपेज्जनतामेष्यन्निन्द्राग्नी एव स्वेन भागधेयेनोप धावति - - - - ऐन्द्राग्नमेकादशकपालमुपरिष्टान्निर्वपेदस्यामेव प्रतिष्ठाय - तै.सं. २.२.१.१

*अन्नकामादीष्टिविधिः :- इन्द्राय पुत्रिणे पुरोडाशमेकादशकपालं प्रजाकामोऽग्निरेवास्मै प्रजां प्रजनयति - तै.सं. २.२.४.४

*अभिशस्तादिकर्तव्येष्टिविधिः :- - - - -यद्दशकपालो विराजैवास्मिन्नन्नाद्यं दधाति यदेकादशकपालस्त्रिष्टुभैवास्मिन्निन्द्रियं दधाति - - - तै.सं. २.२.५.३

*ऐन्द्रचर्वादि इष्टिविधिः :- इन्द्रायेन्द्रियावते पुरोडाशमेकादशकपालं निर्वपेत्पशुकाम इन्द्रियं वै पशव - - -  इन्द्राय घर्मवते पुरोडाशमेकादशकपालं निर्वपेद्ब्रह्मवर्चसकामो ब्रह्मवर्चसं वै घर्म - तै.सं. २.२.७.१

*इन्द्रायार्कवते पुरोडाशमेकादशकपालं निर्वपेदन्नकामोऽर्को वै देवानामन्नम् - - - - इन्द्राय अंहोमुचे पुरोडाशमेकादशकपालं निर्वपेद्यः पाप्मना गृहीतः स्यात् - - - -इन्द्राय वैमृधाय पुरोडाशमेकादशकपालं निर्वपेद्यं मृधोऽभि प्रवेपेरन्राष्ट्राणि वाऽभि समियुः - - - इन्द्राय त्रात्रे पुरोडाशमेकादशकपालं निर्वपेद्बद्धो वा परियत्तो वा - - - -इन्द्रायार्काश्वमेधवते पुरोडाशमेकादशकपालं निर्वपेद्यं महायज्ञो नोपनमेदेते वै महायज्ञस्यस्यान्त्ये तनू यदर्काश्वमेधौ - तै.सं. २.२.७.२

* ग्रामकामादीनामनृज्वादीष्टिविधिः :- इन्द्रायान्वृजवे पुरोडाशमेकादशकपालं निर्वपेद् ग्रामकाम - - - -इन्द्राय मन्युमते मनस्वते पुरोडाशमेकादशकपालं निर्वपेत्सङ्ग्रामे संयत्त इन्द्रियेण वै मन्युना मनसा सङ्ग्रामं जयति - - - - इन्द्राय दात्रे पुरोडाशमेकादशकपालं निर्वपेद्यः कामयेत दानकामा मे प्रजाः स्युः - - - - इन्द्राय प्रदात्रे पुरोडाशमेकादशकपालं निर्वपेद्यस्मै प्रतमिव सन्न प्रदीयेत - - - - -इन्द्राय सुत्राम्णे पुरोडाशमेकादशकपालं निर्वपेदपरुद्धो वा अपरुध्यमानो वा- - - - -- - - - - तै.सं. २.२.८.१

*अभिचारकर्त्रादीनामिष्टिविधिः :- आग्नावैष्णवमेकादशकपालं निर्वपेदभिचरन्त्सरस्वत्याज्यभागा स्याद् - - -आग्नावैष्णव एकादशकपालो भवत्यग्नि सर्वा देवता विष्णुर्यज्ञो देवता - - - - - आग्नावैष्णवमेकादशकपालं निर्वपेद्यं यज्ञो न उपनमेद् -- - - - - आग्नावैष्णवमेकादशकपालं निर्वपेन्माध्यंदिनस्य सवनस्य - तै.सं. २.२.९.१

*ग्रामकामादीनामैन्द्रादीष्टिविधिः :- ऐन्द्रमेकादशकपालं निर्वपेन्मारुतं सप्तकपालं ग्रामकाम - - - - तै.सं. २.२.११.१

*भ्रातृव्यवतो विजितिसंज्ञकेष्टिविधिः :- इन्द्रायांहोमुचे पुरोडाशमेकादशकपालं निरवपन्निन्द्राय वैमृधायेन्द्रायेन्द्रियावते - - - तै.सं. २.४.२.२

*इन्द्रायांहोमुचे पुरोडाशमेकादशकपालं निर्वपेदिन्द्राय वैमृधायेन्द्रायेन्द्रियावते - - - तै.सं. २.४.२.३

*अग्नीषोमीयपुरोडाशविधिः :- ताभ्यामेतमग्नीषोमीयमेकादशकपालं पूर्णमासे प्रायच्छत् - - - -तै.सं. २.५.२.३

*आग्नावैष्णवादियागविधिः :- ते देवा एताम् इष्टिमपश्यनाग्नावैष्णवमेकादशकपालं - - - - तै.सं. २.५.४.१

*देविकास्यपञ्चविधहविरुत्कर्षकरणपूर्वकबहुविधकाम्यप्रयोगाभिधानम्: अष्टौ वसवोऽष्टाक्षरा गायत्र्येकादश रुद्रा एकादशाक्षरा त्रिष्टुप् - - - - तै.सं. ३.४.९.७

*अन्वारम्भणीयेष्टिविधिः :- आग्नावैष्णवमेकादशकपालं पुरस्तान्निर्वपेत् - तै.सं. ३.५.१.४

*सौमिकब्रह्मत्वविधिः :- अष्टौ वसव एकादश रुद्रा द्वादशाऽऽदित्या एतावन्तो वै देवाः - तै.सं. ३.५.२.३

*सृष्टिशब्दाभिधेयेष्टकाभिधानम्  : एकादशभिरस्तुवतर्तवोऽसृज्यन्ताऽऽर्तवोऽधिपतिरासीत् - तै.सं. ४.३.१०.१

*वसोर्धारायाभिधानम् : - - एका च मे - - - एकादश च मे - - - तै.सं. ४.७.११.१

*अग्निसंयोजनाभिधानम् : यदेकादश त्रैष्टुभेन यद्द्वादश जागतेन छन्दोभिरेवैनं चिनुते - तै.सं. ५.४.१०.४

*केषांचिद्धविषामभिधानम् : ऐन्द्रमेकादशकपालं वैश्वदेवं द्वादशकपालं - - - - यदेकादशकपालो भवत्येकादशाक्षरा त्रिष्टुगैन्द्रं त्रैष्टुभं - तै.सं. ५.६.५.१

*ऋतुपश्वभिधानम् : एकादश प्रातर्गव्याः पशव आ लभ्यन्ते - - -तै.सं. ५.६.२२.१

*मित्रस्य नवमी वरुणस्य दशमीन्द्रस्यैकादशी विश्वेषां देवानां द्वादशी - - - - तै.सं. ५.७.२१.१

*- - - - - त्वष्टुर्नवमी धातुर्दशमीन्द्राण्या एकादश्यदित्यै द्वादशी - - - तै.सं. ५.७.२२.१

*दीक्षाहुत्याभिधानम् : यदेकादशाक्षरा तेन त्रिष्टुग्यद्द्वादशाक्षरा तेन जगती - तै.सं. ६.१.२.७

*सदोभिधानम् : एकादशछदीन्द्रियकामस्यैकादशाक्षरा त्रिष्टुगिन्द्रियं त्रिष्टुगिन्द्रियाव्येव भवति - तै.सं. ६.२.१०.६

*यूपखण्डनाभिधानम् : एकादशारत्निमिन्द्रियकामस्यैकादशाक्षरा त्रिष्टुगिन्द्रियं त्रिष्टुग् - तै.सं. ६.३.३.६

*सामिधेन्याद्यभिधानम् : एकादश प्रयाजान्यजति दश वै पशोः प्राणा आत्मैकादशो यावानेव पशुस्तं प्र यजति - तै.सं. ६.३.७.५

*अवदानाभिधानम् : एकादशावदानान्यव द्यति दश वै पशोः प्राणा आत्मैकादशो यावानेव पशुस्तस्याव द्यति - तै.सं. ६.३.१०.३

*अनूयाजकथनम् : एकादशानूयाजान्यजति दश वै पशोः प्राणा आत्मैकादशो यावानेव पशुस्तमनु यजति - तै.सं. ६.३.११.६

*उपांशुकथनम् : एकादश कृत्वो द्वितीयमेकादशाक्षरा त्रिष्टुप्त्रैष्टुभं माध्यंदिनं सवनं - - - - तै.सं. ६.४.५.१

*आग्रयणग्रहकथनम् : ये देवा दिव्येकादश स्थेत्याह एतावतीर्वै देवतास्ताभ्य एवैनं सर्वाभ्यो गृह्णाति -  तै.सं. ६.४.११.१

*पश्वेकादशिनीकथनम् : य एकादशः स्तन एवास्यै स दुह एवैनां तेन वज्रो वा एषा सं मीयते यदेकादशिनी - तै.सं. ६.६.४.६

*प्रजापतिः प्रजा असृजत स रिरिचानोऽमन्यत स एतामेकादशिनीमपश्यत्तया वै स आयुरिन्द्रियं वीर्यमात्मन्नधत्त प्रजा इव खलु वै एष सृजते यो यजते स एतर्हि रिरिचान इव यदेषैकादशिनी भवत्यायुरेव तयेन्द्रियं वीर्यं यजमान आत्मन्धत्ते - तै.सं. ६.६.५.१

*एकादशरात्रकथनम् : ऋतवो वै प्रजाकामाः - - - त एतमेकादशरात्रम् अपश्यन्तमाऽहरन्तेनायजन्त -- - - - - - -एकादशरात्रो भवति पञ्च वा ऋतव आर्तवाः पञ्चर्तुष्वेवाऽऽर्तवेषु संवत्सरे प्रतिष्ठाय प्रजामवरुन्धते

 - तै.सं. ७.२.६.१

*अश्वमेधमन्त्रकथनम् : एकादशभ्यः स्वाहा द्वादशभ्यः स्वाहा - - - तै.सं. ७.२.११.१

*नवभ्यः स्वाहैकादशभ्यः स्वाहा त्रयोदशभ्यः स्वाहा - - - तै.सं. ७.२.१२.१

*अहीनद्वादशाहकथनम् : किमेकादशेनेत्येकादशाक्षरां त्रिष्टुभमिति - तै.सं. ७.३.२.२

*गवामयनगुणविकाररूपोत्सर्गाभिधानम् : एकादशकपालान्माध्यंदिने सवने - - - तै.सं. ७.५.६.४

*यदिन्द्राय मरुत्वते पुरोडाशमेकादशकपालं निर्वपन्ति देवतामेव तद्भागिनीं कुर्वन्ति सवनमेकादशभिरुप यन्ति - तै.सं. ७.५.७.३

*अश्वमेधाङ्गमन्त्रकथनम् : इन्द्राय त्रैष्टुभाय पञ्चदशाय बार्हताय ग्रैष्मायैकादशकपालो - तै.सं. ७.५.१४.१

*इन्द्रायांहोमुच एकादशकपालो - तै.सं. ७.५.२२.१

*पवमानहविषां विस्तारः :- ऐन्द्राग्नमेकादशकपालमनुनिर्वपेत्। आदित्यं चरुम्। - तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.६.५

*पश्वभिधानम् : अप्रतिष्ठां वा एते गच्छन्ति। येषां संवत्सरेऽनाप्तेऽथ। एकादशिन्याप्यते। - तै.ब्रा. १.२.५.१

*पश्वभिधानम् : यदतिरिक्तामेकादशिनीमालभेरन्। अप्रियं भ्रातृव्यमभ्यतिरिच्येत। - तै.ब्रा. १.२.५.३

*नक्षत्रेष्टकामन्त्राः :- यच्च परस्तान्नक्षत्राणां यच्चावस्तात्। तान्येकादश। ब्राह्मणो द्वादशः। - तै.ब्रा. १.५.३.४

*नक्षत्रेष्टका। पञ्चमं पुरोडाशाख्यं हविः :- तं वसवोऽष्टाकपालेन प्रातःसवनेऽभिषज्यन्। रुद्रा एकादशकपालेन माध्यंदिने सवने। विश्वेदेवा द्वादशकपालेन तृतीयसवने। - - - - - विलोम तद्यज्ञस्य क्रियेत। एकादशकपालानेव प्रातःसवने कुर्यात्। एकादशकपालान्माध्यंदिने सवने। एकादशकपालांस्तृतीयसवने। यज्ञस्य सलोमत्वाय। - तै.ब्रा. १.५.११.३

*राजसूये देवसुवां हविर्विधिः :- अग्नीषोमीयस्य चैकादशकपालस्य देवसुवां च हविषामग्नये स्विष्टकृते समवद्यति। - तै.ब्रा. १.७.४.४

*त्रया देवा एकादश। त्रयस्त्रिंशाः सुराधसः। बृहस्पतिपुरोहिताः। देवस्य सवितुः सवे। - तै.ब्रा. २.६.५.७

*तस्य प्रातःसवने सन्नेषु नाराशंसेषु। एकादश दक्षिणा नीयन्ते। एकादश माध्यन्दिने सवने सन्नेषु नाराशंसेषु। एकादश तृतीयसवने सन्नेषु नाराशंसेषु। त्रयस्त्रिंशत्संपद्यन्ते। - तै.ब्रा. २.७.१.३

*यद्दश। विराजा तत्। यदेकादश। त्रिष्टुभा तत्। यद्द्वादश। जगत्या तत्। - तै.ब्रा. ३.२.७.५

*द्वादश एवाग्निः स्यादित्याहुः। द्वादशः स्तोमः। एकादश यूपाः। यद्दश यूपा भवन्ति। दशाक्षरा विराट्। अन्नं विराट्। विराजैवान्नाद्यमवरुन्धे। स एकादशः। स्तन एवास्यै सः। दुह एवैनां तेन। तदाहुः यद्द्वादशोऽग्निः स्यात् द्वादशः स्तोम एकादश यूपाः। यथा स्थूरिणा यायात्। तादृक्तत्~। - तै.ब्रा. ३.८.२१.२

*एकादश दशत आलभ्यन्ते। एकादशाक्षरा त्रिष्टुप्। त्रैष्टुभाः पशवः पशूनेवावरुन्धे। - तै.ब्रा. ३.९.२.४

*-- - - - - दशमा एकादशेषु श्रयध्वम्। एकादशा द्वादशेषु श्रयध्वम्। द्वादशास्त्रयोदशेषु श्रयध्वम्। - तै.ब्रा. ३.११.२.२

*अथ वायोरेकादशपुरुषस्यैकादशस्त्रीकस्य। प्रभ्राजमाना व्यवदाताः। याश्च वासुकिवैद्युताः। रजताःपरुषाः श्यामाः। - - -वैद्युत इत्येकादश। नैनं वैद्युतो हिनस्ति। य एवं वेद। - तैत्तिरीय आरण्यक १.९.१

*स्वानभ्राट्। अङ्घारिर्बम्भारिः। - - - - - कृतिरित्येकादश गन्धर्वगणाः। - तै.आ. १.९.३

*अथ वायोरेकादशपुरुषस्यैकादशस्त्रीकस्य। प्रभ्राजमानानां रुद्राणां स्थाने स्वतेजसा भानि। - -- - - - - तै.आ. १.१७.१

*यदेकादशेऽहन्प्रवृज्यते। इन्द्रो भूत्वा त्रिष्टुभमेति। यद्द्वादशेऽहन्प्रवृज्यते। सोमो भूत्वा सुत्यामेति। - तै.आ. ५.१२.३

*एतद्ध स्मैतद् विद्वासंमेकादशाक्षं मौद्गल्यं ग्लावो मैत्रेयोऽभ्याजगाम। - गोपथ ब्राह्मण १.१.३१

*आग्नावैष्णवमेकादशकपालं निर्वपेद् दर्शपूर्णमासावारिप्समाणः। - गो.ब्रा. २.१.१२

*तदु हैक एकादशान्वाहुः एकादशाक्षरा वै त्रिष्टुप्। त्रैष्टुभो वज्रः। - गो.ब्रा. २.१.१८

*अष्टौ वसव एकादश रुद्रा द्वादशादित्या - - - -गो.ब्रा. २.२.१३

*अध्वर्यो शंसावोमित्याह्वयते माध्यन्दिने षडक्षरेण। शंसावो दैवेत्यध्वर्युः प्रतिगृणाति पञ्चाक्षरेण। तदेकादशाक्षरं संपद्यते। एकादशाक्षरा वै त्रिष्टुप्। - गो.ब्रा. २.३.१०

*यदेतत् साम गीयते, अथ क्वैतस्य साम्न उक्थम् ? का प्रतिष्ठा ? त्रया देवा एकादशेत्याहुः, एतद् वा एतस्य साम्न उक्थम्। एषा प्रतिष्ठा। - गो.ब्रा. २.५.७

*एकादश सामिधेनीरन्वाहैकादशाक्षरा वै त्रिष्टुप् - शाङ्खायन ब्राह्मण ३.२

*यस्य दश ताः पंक्तिं यस्यैकादश तास्त्रिष्टुभं यस्य द्वादश ता जगतीम्। - शां.ब्रा. ९.२

*त्रिः प्रथमया त्रिरुत्तमयैकादश संपद्यन्त एकादशाक्षरा त्रिष्टुप्त्रैष्टुभाः पशवः - - - शां.ब्रा. १०.२

*यद्येकयूप एकादशिनीमालभेरन्पशौ पशावेवाध्वर्युः संप्रेष्यति - - - - - -अथ कथं यूपैकादशिन्यामित्येता एव सप्त सप्तदशभ्योऽनुब्रूयात् - शां.ब्रा. १०.२

*- - - - शुक्लं वाऽथ लोहितं वाऽग्नीषोमयोरूपेणेति तस्यैकादश प्रयाजा एकादशानुयाजा एकादशोपयाजास्तानि त्रयस्त्रिंशत् - शां.ब्रा. १०.३

*अष्टौ वसव एकादश रुद्रा द्वादशाऽऽदित्या इन्द्रो द्वात्रिंशत्प्रजापतिस्त्रयस्त्रिंशत् - शां.ब्रा. १२.६

*स(प्रजापतिः)एतामेकादशिनीमपश्यत्तामाहरत्तया यजत- - - - -एवैतद्यजमान एतयैवैकादशिन्येष्ट्वोपकामानाप्नोत्यवान्नाद्यं१ रुन्धे - शां.ब्रा. १२.८

*सावित्रो दशमः - - - वारुण एकादश क्षत्त्रं वै वरुणः क्षत्त्रयशसस्यावरुद्ध्या - शां.ब्रा. १२.८

*- - - हिंकारो दशमो - - - त्रिः प्रथमया त्रिरुत्तमयैकादश संपद्यन्ते याज्या द्वादशी द्वादश वै मासाः संवत्सरः - शां.ब्रा. १४.२

*तामध्वर्यो शोंसावो३ इति माध्यंदिने सवन आह्वयते शोंसामो दैवेत्यध्वर्युस्तान्येकादशाक्षराणि उक्थमवाचीन्द्रायेति माध्यंदिने सवन उपांशु होता ब्रूयादुक्थशा इत्यध्वर्युस्तान्येकादश - शां.ब्रा. १४.३

*एकादश देवताश्चतस्रो निविद उक्थवीर्यं याज्येति - - - शां.ब्रा. १६.३

*- - - ऋतुर्जनित्रीयमुद्धृत्य बृहद्रथंतरे तस्यैवैकादश स्वयोनौ - - - - -एतेन रूपेण बरोरेकादश शस्त्वा सर्वहरेर्वा निविदं मध्य एकशतस्य - - -शां.ब्रा.२५.८

*अष्टौ वसव एकादश रुद्रा द्वादशाऽऽदित्या इन्द्रो द्वात्रिंशदित्येषा देवक्या - - - -शां.ब्रा. २७.३