पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(From vowel Ekapaatalaa to Ah)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

Home Page

Ekapaatalaa - Ekashruta (  Ekalavya etc.)

Ekashringa - Ekaadashi ( Ekashringa, Ekaadashi etc.)

Ekaananshaa - Airaavata (  Ekaananshaa, Ekaamra, Erandi, Aitareya, Airaavata etc.)  

Airaavatee - Odana  ( Aishwarya, Omkara, Oja etc.)

Oshadhi - Ah ( Oshadhi/herb, Oudumbari, Ourva etc.)

 

 

 

 

There is a vedic reference that whosoever kills a cow on Ekaashtakaa day, he is able to propitiate his manes for one full year. His manes do not feel hunger for one full year. One mantra of Atharvaveda mentions of Ekaashtakaa bearing lord Indra in her womb. There are some references which discuss the pros and cons of getting initiation on Ekaashtakaa day. There is no clearcut definition for this particular day, but in practice, the month of January - February has been taken as the desirable day. The sacred texts ordain to test the success of a yaaga on this day. One should put a straw on burning coal. If this gets burned, then the yaaga will have success. Otherwise it will fail. Probably, the initiation process produces too much cold in the initiated. To overcome that cold, one is supposed to generate heat through Ekaashtakaa. To clearly understand Ekaashtakaa, one has to understand Ashtakaa first. In normal sense, the eighth day of a fortnight is called the Ashtakaa.  In puraanic stories, Satyavati, the wife of king Shantanu, became Ashtakaa in heaven. The deficiency of Satyavati is that her sons are unable to protect themselves from enemies. On the other hand, as a virgin, she gives birth to sage Vyaasa. One can guess that the integrated form of Ashtakaa - Ekaashtakaa will not have these deficiencies. She is free from sins. That is why puraanic texts call her manifestation as a pious lady(Virajaa). Ashtakaas are the wives of seasons while Ekaashtakaa is the wife of year. Regarding the statement of killing of cow for  satisfying the hunger of manes, one has to clearly understand the meaning of cow in vedic literature. There are several states of nature in which it can absorb and preserve the energy from sun. Cow is the one who can absorb and preserve the energy of sun at noon. Goat and Sheep have been stated to be able to preserve the energies of sun only before sunrise and after sunrise. The simplest example of a cow is taken as the earth which absorbs the sunrays and then the preserved energy is thought to be emitted in the form of herbs. One has to attain such a stage of cow first and then he has to destroy this state also for attaining higher goals.

 Comments on Ashtakaa

एकाष्टका

टिप्पणी : एकाष्टका को समझने से पहले अष्टका और अष्टमी को समझने की आवश्यकता है जिन पर पहले लिखी गई टिप्पणियों में शास्त्रों के वचनों को उद्धृत मात्र किया गया है । एकाष्टका को समझने के लिए यह आवश्यक है कि अष्टका के संदर्भ में शास्त्रों के वचनों को व्यावहारिक रूप में समझा जाए । कुछ स्थानों ( आश्वलायन गृह्य सूत्र २.४.१ आदि ) पर तो हेमन्त व शिशिर ऋतुओं की ४ कृष्ण अष्टमियों को अष्टका कहा गया है, कहीं माघ, पौष और फाल्गुन मासों की कृष्ण पक्ष की अष्टमियों को अष्टका कहा गया है तो कहीं बारह मासों की कृष्ण पक्षों की अष्टमियों को १२ अष्टकाएं कहा गया है (बौधायन श्रौत सूत्र १६.१२ आदि ) । अतः यह कहा जा सकता है कि अष्टका की प्रकृति को समझने के लिए प्रत्येक कृष्ण पक्ष की अष्टमी के समझने की आवश्यकता है । लोक व्यवहार में कृष्ण पक्ष की अष्टमियों में भाद्रपद कृष्ण जन्माष्टमी तथा कार्तिक कृष्ण पक्ष की अहोई अष्टमी प्रसिद्ध हैं । कृष्ण जन्माष्टमी को कृष्ण का जन्म होता है और उसके साथ ही कंस के शासन का अन्त होना आरम्भ हो जाता है । वैदिक साहित्य में कंस का उल्लेख सुराकंस के रूप में मिलता है । कंस नामक कांस्य पात्र में सुरा रख कर उससे राजा का अभिषेक किया जाता है । यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि हमारा सारा जीवन सुरा के माध्यम से ही चल रहा है । हम जो भी भोजन करते हैं, वह अन्त में सुरा का निर्माण करता है और फिर अन्तिम चरण में सुरा के अणुओं के विघटन से हमें कार्य करने की शक्ति मिलती है । सुरा का एक अणु विघटित होकर कार्बन डाई आक्साइड गैस व जल के अणुओं में रूपान्तरित हो जाता है और इस प्रक्रिया में जो कुछ शक्ति बाहर निकलती है, उसका हम सब उपयोग करते हैं । लेकिन पौराणिक साहित्य इस वैज्ञानिक तथ्य से ऊपर एक संभावना प्रस्तुत करता है कि यदि कृष्ण के रूप में शरीर के अङ्ग - अङ्ग से हमारा एक चुम्बकीय सम्बन्ध स्थापित हो जाए जो सारे अङ्गों की शक्तियों को, रस को खींच कर एक स्थान पर एकत्र कर दे, बाल कृष्ण को, सोम को जन्म दे दे तो कंस रूपी सुरा प्रकृति से छुटकारा मिल सकता है । यह अष्टका का एक पक्ष है । अहोई अष्टमी के संदर्भ में लोककथा आती है कि किसी स्त्री द्वारा भूमि का खनन करने पर सीही/कण्टकी? के ७ पुत्र कट गए और इस कारण स्त्री के भी ७ पुत्र मर गए । पुनः स्त्री द्वारा सीही को प्रसन्न किए जाने पर सीही और स्त्री के ७ पुत्र पुनः जीवित हो गए इत्यादि । इस लोककथा में सीही या कण्टकी पृथिवी का प्रतीक हो सकता है और अध्यात्म में हमारा शरीर, हमारी उच्चतम प्रकृति  ही पृथिवी हो सकती है । सीही के शरीर पर कांटे होते हैं और कण्टक साहित्य में रोमाञ्च का प्रतीक हो सकते हैं । स्वयं अहोई शब्द भी आश्चर्यबोधक प्रतीत होता है क्योंकि सामगान के समय ओहोई शब्द का प्रयोग किया जाता है । वह कौन सी स्थिति है जिसमें भूमि खनन पर, अर्थात् अन्तर्मुखी होने पर सात पुत्रों रूपी सात कोशों से, अथवा हमारे आंख, नाक, कान आदि ७ सप्तर्षियों से सम्बन्ध कट जाए, यह विचारणीय है । लेकिन कथा के अनुसार सम्बन्ध कटना वाञ्छित प्रक्रिया नहीं है, पुत्रों से सम्बन्ध जुडना वाञ्छित है ।

          अब हम अष्टका के सम्बन्ध में शास्त्रों के वचनों पर विचार करते हैं । जैमिनीय ब्राह्मण ३.२ आदि का कथन है कि द्वादशाह यज्ञ में दीक्षाओं द्वारा पौर्णमासियों को प्राप्त किया जाता है, उपसदों द्वारा अष्टकाओं को और प्रसुत द्वारा अमावास्याओं को । द्वादशाह नामक यज्ञ में मुख्य १२ दिवसीय यज्ञ से पूर्व १२ दिवसीय प्रवर्ग्य - उपसद नामक कृत्य को सम्पन्न किया जाता है जिसमें प्रातः - सायं एक - एक प्रवर्ग्य व एक - एक उपसद नामक कृत्य को किया जाता है । प्रवर्ग्य - उपसद नामक १२ दिवसीय कृत्य के आरम्भ के दिन सोम लता का क्रय करके उसको वस्त्र में लपेट कर एक आसन्दी पर उसकी प्रतिष्ठा कर दी जाती है और पूरे प्रवर्ग्य - उपसद कृत्य में वह प्रतिष्ठित रहता है । प्रवर्ग्य और उपसदों द्वारा उसकी पुष्टि की जाती है । प्रवर्ग्य नामक कृत्य में गार्हपत्य अग्नि में उबलते हुए घृत  में दुग्ध का सिंचन किया जाता है जिससे एक बहुत ऊंची ज्वाला निकलती है और उस ज्वाला की स्तुति साम आदि से की जाती है । उसे चन्द्र आदि नाम दिए जाते हैं । उपसद नामक कृत्य में एक ऋत्विज बैठकर कुछ मन्त्रों का मन में जप करता है तथा उसके पश्चात् अग्नि में कुछ आहुतियां दी जाती हैं, आश्रावय, यज आदि के पश्चात् वौषट् बोला जाता है । २४ उपसदों को ३ प्रकारों में विभाजित किया गया है । पहले प्रकार के उपसद का मन्त्र 'या ते अग्ने अयःशया तनूर्वर्षिष्ठा गह्वरेष्ठा । उग्रं वचो अपावधीत् त्वेषं वचो अपावधीत् स्वाहा ।' दूसरे प्रकार के उपसदों में 'या ते अग्ने रज:शया इत्यादि' तथा तीसरे प्रकार में 'या ते अग्ने हराशया इत्यादि' मन्त्रों का उल्लेख आता है( उपसद विधियों के संग्रह को श्रौतकोश नामक ग्रन्थ के द्वितीय भाग ( अग्निष्टोम ), पृष्ठ १३३१ पर देखा जा सकता है ) । चूंकि उपसदों द्वारा अष्टकाओं को प्राप्त करने का शास्त्रीय वचन है, इसलिए उपसदों को सम्यक् प्रकार से समझना होगा । ऐतरेय ब्राह्मण १.२४ में उपसद् का वर्णन है जिसमें कहा गया है कि  असुर संवत्सर के विभिन्न अङ्गों में प्रवेश कर गए और प्रत्येक बार देवों ने उपसदों द्वारा उन्हें वहां से निकाला । यह भी कहा गया है कि असुरों ने अयः, रज: और हिरण्य प्रकार के ३ पुरों का अपने लिए निर्माण कर लिया और अजेय हो गए । तब देवों ने उपसदों द्वारा उन्हें जीता । उपसद् का क्या अर्थ हो  सकता है, इसका संकेत ऐतरेय ब्राह्मण के उपरोक्त वर्णन में ही दिया गया है । एक सद: है, एक उपसद् । सद: देवों का स्वाभाविक स्थान है जबकि उपसद् कामचलाऊ स्थिति है । उपसद् बनाने के लिए देवों में से अग्नि ८ वसुओं में प्रवेश कर गई, इन्द्र ११ रुद्रों में, वरुण १२ आदित्यों में और बृहस्पति विश्वेदेवों में । वास्तव में ८ वसु, ११ रुद्र, १२ आदित्य मिलकर ३१ हो जाते हैं, कुल देवों की संख्या ३३ कही गई है जिन्हें विश्वेदेव नाम दिया गया है । लगता है विश्वेदेव पार्थिव स्तर के देवता हैं जिनकी प्रतिष्ठा असुरों पर विजय पाने के लिए आवश्यक है । प्रवर्ग्य - उपसद नामक कृत्य में २ कार्य साथ - साथ किए जा रहे हैं । हमारी जितनी ऊर्जा को ऊर्ध्वमुखी बनाया जा सकता है, उसे प्रवर्ग्य के द्वारा विकसित किया जा रहा है । जिस सोम को क्रय के द्वारा प्रतिष्ठित किया गया है, प्रवर्ग्य  कर्म उसको पुष्ट करेगा । जिस ऊर्जा को किन्हीं कारणों से ऊर्ध्वमुखी नहीं बनाया जा सकता, उसका  उपयोग दैनिक जीवन से आसुरी शक्तियों को निकालने के लिए उपसदों के माध्यम के किया जा रहा  है और जिन विश्वेदेवों की प्रतिष्ठा उपसदों में की जाती है, पौराणिक साहित्य में उन्हें पितरों के देव रूप में प्रतिष्ठित किया गया है । यही कारण है कि गृह्य सूत्रों ( बौधायन गृह्य सूत्र २.११.१, काठक गृह्य सूत्र ६१.१ ) और पौराणिक साहित्य में अष्टकाओं में पितृ श्राद्ध का विधान है । और यह पितृश्राद्ध भी अमावास्या की तरह का साधारण श्राद्ध नहीं है, अपितु इसमें प्रायः गौ की मज्जा, मांस आदि के होम का विधान है । इस कथन पर आगे विचार किया गया है । प्रायः पौष, माघ और फाल्गुन की कृष्ण अष्टमियों को अष्टकाएं कहा गया है जिनमें से पहली अष्टका में अपूप, दूसरी में मांस तथा तीसरी में शाक/वपा? द्वारा श्राद्ध का विधान है । पहली को ऐन्द्री, दूसरी को प्राजापत्य तथा तीसरी को वैश्वदेवी कहा गया है ( शब्दकल्पद्रुम ) । काठक गृह्य सूत्र ६१.३ में यह क्रम उल्टा है । गृह्य सूत्रों में गौ की वपा आदि द्वारा आहुतियों का विधान है जिसे अष्टका होम कहा जाता है । अष्टका होम के पश्चात् ४ ब्राह्मणों को आमन्त्रित करके पितृश्राद्ध करने का विधान है । वास्तविकता यह है कि अथर्ववेद ३.१० सूक्त अष्टका देवता का है जिसमें अष्टका को रात्रि, उषा और यम से सम्बन्धित धेनु का रूप दिया गया है । डा. लक्ष्मीश्वर झा द्वारा दी गई सूचनाओं के अनुसार गौ पृथिवी को भी कहते हैं और सूर्य की किरणों को भी । एक ओर से सूर्य की किरणें पृथिवी पर आती हैं और दूसरी ओर पृथिवी से परावर्तित सूर्य की किरणें ऊपर जाती हैं । यह दोनों जहां परस्पर मिलती हैं, उस स्थिति का नाम गौ है । इस कथन का क्या स्रोत है, यह ज्ञात नहीं है, लेकिन कथन महत्त्वपूर्ण है । यदि अथर्ववेद के उपरोक्त सूक्त और इस कथन को मिला कर सोचा जाए तो यह कहा जा सकता है कि पृथिवी पर जितनी वनस्पतियां उत्पन्न हो रही हैं, उन्हें पृथिवी द्वारा परावर्तित सूर्य की किरणें ही कहा जा सकता है । इस संदर्भ में भौतिक विज्ञान द्वारा प्रतिपादित विकिरण के उत्सर्जन के सिद्धान्त पर ध्यान देना उपयोगी होगा । इस सिद्धान्त के अनुसार कोई भी द्रव्य यदि एक किरण विशेष का अवशोषण करता है तो अवशोषण के पश्चात् एक भिन्न ऊर्जा की किरण का उत्सर्जन भी करता है । और इस उत्सर्जित किरण की ऊर्जा अवशोषित किरण की ऊर्जा से सदैव कम होगी । इस सिद्धान्त के अनुसार पेड - पौधे हरे इसलिए दिखाई देते हैं क्योंकि वे सूर्य की सभी किरणों का अवशोषण करके केवल हरे रंग की किरणों का ही उत्सर्जन कर रहे हैं जो हमें दिखाई पडती हैं । अथर्ववेद के सूक्त का कथन है कि पहले रात्रि की स्थिति उत्पन्न की जाए जिसमें किसी भी किरण का, किसी भी विचार रूपी किरण का उत्सर्जन न हो, वैसी ही बोधपूर्ण रात्रि जिसमें बुद्ध को स्वप्न भी नहीं दिखे थे । इस प्रकार की रात्रि का निर्माण करने से जिस ऊर्जा का संचय होगा, उसे उषा के रूप में, जीवनदायिनी के रूप में, बोध उत्पन्न करने वाली उषा के रूप में प्रकट करना है । पृथिवी पर वनस्पति जगत के रूप में आंशिक रूप से ऐसा हो रहा है ( यह उल्लेखनीय है कि भौतिक विज्ञान के उत्सर्जन के सिद्धान्त में ऊर्जा के संचय के लिए कोई स्थान नहीं रखा गया है ) । इस उषा को दूध देने वाली धेनु कहा गया है । इस प्रकार धेनु एक ओर सूर्य की किरणों से अपना अन्न प्राप्त कर रही है और फिर अपने वत्स के लिए उसका उत्सृजन कर रही है । गृह्यसूत्रों व पुराणों का कथन है कि ऐसी धेनु का आलभन पितरों की तृप्ति के लिए किया जाए । जितने पितर प्राण हैं, जो हमारा पालन करने के कारण पिता हैं, वह उस धेनु के वत्स बन जाएं । लेकिन यहां यह विरोधाभास है कि पुराणों में पितरों को अष्टका के वत्स नहीं, अपितु पति कहा गया है और इस विरोधाभास को समाप्त करने के लिए अपेक्षित  तर्क विचारणीय हैं । शास्त्रों ने धेनु स्थिति प्राप्त करने की स्थिति को साधारण नहीं माना है । अतः विधान किया गया है कि यदि धेनु न मिले तो पितरों के लिए अजा का ही आलभन कर दे, यदि अजा भी न मिले तो क्रमशः अवि, आरण्यक पशु, व्रीहि, यव आदि से ही पितरों को तृप्त कर दे । यदि वह भी न मिलें तो मन्त्रों से ही काम चला ले आदि आदि ।

          अष्टका शब्द का निहितार्थ क्या हो सकता है, यह अन्वेषणीय है । आश्वलायन गृह्य सूत्र २.४.१२ में अष्टका को वैश्वदेवी, ८ देवताओं वाली कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण ६.२.२.२५ में अष्टका को उखा के ८ अङ्ग कहा गया है और उखा/उषा सम्भरण अर्थात् उखा पात्र निर्माण का कार्य अष्टका में किया जाता है । नारद परिव्राजकोपनिषद ४.३८ में ८ स्तरों पर श्राद्ध का वर्णन है ।

          अब अष्टका से ऊपर एकाष्टका पर विचार करते हैं । पुराणों में तो पितरों की कन्या अच्छोदा शापवश मनुष्यलोक में सत्यवती और पुनः पितृलोक में अष्टका रूप में उत्पन्न हुई । एकाष्टका का पूर्व रूप नहुष - पत्नी विरजा कहा गया है । नारद परिव्राजकोपनिषद ४.३८ में संन्यास दीक्षा के अन्तर्गत विरजा होम का निर्देश है । तैत्तिरीय आरण्यक १०.५१.१ तथा १०.६५.१/नारायणोपनिषद में विरजा होम का वर्णन है जिसमें १३ स्तरों पर पापों के नष्ट होने और विरजा होने के उल्लेख हैं । अष्टका का पूर्व रूप सत्यवती शन्तनु की पत्नी बनती है और उससे जो २ पुत्र चित्राङ्गद और विचित्रवीर्य उत्पन्न होते हैं, वह शत्रुओं से युद्ध में मारे जाते हैं । यह कहा जा सकता है कि सत्यवती ने कन्या रूप में व्यास को जन्म दिया, वह तो शुभ है, लेकिन शत्रुओं को पराजित करने में सत्यवती समर्थ नहीं है । एकाष्टका में यह अपूर्णताएं नहीं होनी चाहिएं । अथर्ववेद ३.१० के अष्टका सूक्त के १२वें मन्त्र में एकाष्टका द्वारा इन्द्र को गर्भ में धारण करके जनने का उल्लेख है । इन्द्र देवों के शत्रुओं को पराजित करता है । व्यावहारिक रूप में, कर्मकाण्ड में माघ कृष्ण अष्टमी को एकाष्टका मान लिया जाता है । प्रश्न किया गया है कि एकाष्टका को यज्ञ की दीक्षा ग्रहण की जाए या नहीं । उत्तर नहीं में दिया गया है और इस वचन के टीकाकार ने अपना मत दिया है कि चूंकि माघ मास में बहुत शीत होता है और दीक्षा में इतना शीत सहन नहीं होगा, अतः यह विधान किया गया है ( यह सर्वविदित है कि संन्यास आदि की दीक्षा में गङ्गाजल में डूबे रहकर गायत्री जप करना होता है ) । जैमिनीय ब्राह्मण ३.२ का कथन है कि दीक्षा द्वारा पौर्णमासी स्थिति प्राप्त की जाती है । जैसे - जैसे शरीर की शक्ति का ऊर्ध्वगमन होता है, उदान प्राण का विकास होता है, अङ्ग शीतल होते चले जाते हैं । एक स्थिति में सारे शरीर के बर्फ समान बन जाने के अनुभवों का उल्लेख विभिन्न लौकिक पुस्तकों में मिलता है । इससे उल्टे एकाष्टका के दिन इतना अधिक शीत होते हुए भी ताप उत्पन्न करने के निर्देश हैं ( बौधायन श्रौत सूत्र १४.१३, गोपथ ब्राह्मण २.४.९, तैत्तिरीय संहिता ३.३.८.४ ) । इन निर्देशों में कहा गया है कि इस दिन अपूप पर उल्मुक/अङ्गार और उल्मुक पर कक्ष/तृण रखे । यदि उल्मुक द्वारा तृण जल जाता है तो यज्ञ पुण्यदायक होगा, अन्यथा नहीं ( लेकिन कात्यायन श्रौत सूत्र १३.१.२ तथा जैमिनीय ब्राह्मण २.३७२ में गवामयन हेतु एकाष्टका में दीक्षा का भी विधान है ) । उपसद्, अष्टका और एकाष्टका की चरम परिणति महाव्रत के रूप में कही जा सकती है । महाव्रत के दिन, जो प्रायः यज्ञ का अन्तिम दिन होता है, यजमान इन्द्र का रूप धारण करके हाथ में धनुष - बाण लेता है और लक्ष्य का वेधन करता है । दूसरी ओर ब्राह्मण व शूद्र में विवाद होता है, वीणा वादन होता है, सारा शरीर ही वीणा बन जाता है और सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि सद: निर्माण अपनी पूर्णता को  प्राप्त करता है । पहले देवों को केवल उपसद् उपलब्ध था । अब सद: के रूप में हविर्धान मण्डप, आग्नीध्र मण्डप, सदोमण्डप आदि को शिर, हृदय, बाहु आदि का रूप दिया जाता है । यह कहा जा सकता है कि महाव्रत के रूप में एकाष्टका का चरित्र ही प्रकाशित होता है । ताण्ड्य ब्राह्मण २३.६.४ व द्राह्यायण श्रौत सूत्र २८.१.९ से इसकी पुष्टि होती है ।

अथर्ववेद ३.१०.८ में एकाष्टका को संवत्सर की पत्नी कहा गया है जबकि काठक गृह्य सूत्र ६१.४ से अनुमान होता है कि अष्टकाएं ऋतुओं की पत्नियां हैं । काठक संहिता १३.३ से ऐसा आभास मिलता है कि एकाष्टका जो अपने इन्द्र पुत्र को उत्पन्न करती है, वह भी उस ऊर्जा का उत्सर्जन ही है जिसे भौतिक रूप में पृथिवी अपनी वनस्पतियों आदि के रूप में प्रकट करती है ।

वैदिक साहित्य में असुरों के तीन पुरों को उपसदों द्वारा जीतने के उल्लेख आते हैं, पुराणों में तो शिव द्वारा त्रिपुर को जलाने के विस्तृत वर्णन आते हैं । लेकिन एकाष्टका से इन वर्णनों का कितना तादात्म्य है, यह अन्वेषणीय है ।

          मैत्रायणी संहिता ४.२.३ का कथन है कि जो एकाष्टका में गौ का हनन करता है, वह सारे संवत्सर के लिए क्षुधा का हनन करता है । ताण्ड्य ब्राह्मण ५.९.१३ तथा बौधायन श्रौत सूत्र १६.१३ आदि में एकाष्टका को सोम क्रय का निर्देश है । सोम क्रय के कृत्य में एक शूद्र से गौ और हिरण्य के बदले सोम का क्रय करने का प्रयास किया जाता है । यजमान गौ की महिमा का व्याख्यान करता है लेकिन शूद्र अपने सोम को इससे भी अधिक मूल्यवान् मानता है । अन्त में शूद्र से सोम ले लिया जाता है और गौ व हिरण्य भी उससे छीन लिए जाते हैं और उसे मार कर भगा दिया जाता है । पूर्णिमा के अन्तर्गत ब्राह्मण ग्रन्थों में कहा गया है कि जैसे - जैसे सोम पूर्णता को प्राप्त करता है, क्षुधा शान्त होती जाती है । पूर्णिमा को दीक्षा से सम्बद्ध किया गया है । मैत्रायत्री संहिता ४.२.३ के कथन से तो ऐसा अनुमान होता है जैसे क्षुधा ही गौ हो जिसका एकाष्टका को हनन किया जाता हो । क्षुधा भी तो इस पृथिवी रूपी शरीर से निकली एक किरण ही है । इसका अर्थ होगा कि गौ के कम से कम २ रूप हैं - एक तो वह जो रात्रि में ऊर्जा का सम्पादन करने में असमर्थ है, वह रात्रि के पश्चात् उषा के रूप में प्रकट नहीं हो सकती । वह भौतिक विज्ञान के जड द्रव्यों की भांति है जो एक ओर से सूर्य की किरणों को ग्रहण करते हैं और दूसरी ओर तुरन्त ही उसका उत्सर्जन कर देते हैं । गौ का दूसरा रूप एकाष्टका है जो प्राप्त किरणों का संरक्षण कर सकती है । एक अन्य तथ्य जो महत्त्वपूर्ण है वह यह है कि गौ ऋत् से, भविष्य से बंधी रहती है, भविष्य को पार कर वह अश्व की भांति अकाल स्थिति में नहीं पहुंच पाती । क्या शास्त्र गौ के हनन के द्वारा ऋत् अवस्था से पार होने की बात कर रहे हैं, यह अन्वेषणीय है । वह कौन सी गौ है जिसका एकाष्टका को हनन करना है, जिससे क्षुधा शान्त हो जाती हो । अन्यथा साधारण तर्क तो यही हो सकता है कि गौ जितनी पुष्टता को प्राप्त होगी, उतनी ही क्षुधा की तृप्ति कराने में समर्थ होगी । शूद्र व्यक्तित्व से सोम का क्रय करने का क्या रहस्य है, यह भी विचारणीय है ।

प्रथम लेखन : १५-१-२००५ई.

संदर्भ

एकाष्टका

*प्रथमा ह व्युवास सा धेनुरभवद् यमे। सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम् ॥ - - - - - - वानस्पत्या ग्रावाणो घोषमक्रत हविष्कृण्वन्तः परिवत्सरीणम्। एकाष्टके सुप्रजसः सुवीरा वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥ - - - - आयमगन्त्संवत्सरः पतिरेकाष्टके तव। सा न आयुष्मतीं प्रजां रायस्पोषेण सं सृज ॥ - - - - - एकाष्टका तपसा तप्यमाना जजान गर्भं महिमानमिन्द्रम्। तेन देवा व्यसहन्त शत्रून् हन्ता दस्यूनामभवच्छचीपतिः ॥ - - - (दे. अष्टका) -- अथर्ववेद ३.१०.१-१३

*तस्य व्रातस्य। योऽस्य प्रथमोऽपानः सा पौर्णमासी। तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य द्वितीयोऽपानः साष्टका। तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य तृतीयोऽपानः सामावास्या ॥ - - - - - अथर्ववेद १५.१६.२

*काम्या पशवः :-यः प्रथम एकाष्टकायां जायेत यस्तमालप्स्यमानः स्यात् स आग्नेयमष्टाकपालं निर्वपेत् - - - - - अथ योऽपरस्यामेकाष्टकायां जायेत तमेवमेवोत्सृज्याथेन्द्राय वृत्रतुरा आलभेत - मैत्रायणी संहिता २.५.९

*गोनामिकः :- एषा वै क्षुत्, क्षुधं वा एतद्धते, तद्य एवं विद्वानेकाष्टकायां गां हते संवत्सरायैव क्षुधं हते - मै.सं. ४.२.३

*ये प्राचीनमेकाष्टकाया जायन्ते पूर्वस्य ते सस्यस्योत्तमा, ये प्रतीचीनमपरस्य ते सस्यस्य प्रथमास्तानुभयान् सहाभिमन्त्रयेतोभयानेनान्त्सहावरुन्द्धे - मै.सं. ४.२.८

*पशवो वै सृष्टा एतानि नक्षत्राण्यन्वपाक्रामन् पौर्णमासीमष्टकाममावास्यां चित्रामश्वत्थं, तस्मात्तेषु गौर्नापाकृत्या - मै.सं. ४.२.१२

*पशुबन्धम् : य एकाष्टकायां जायेत तमुत्सृजेद् यदि द्वौ जायेयातां ता उभा उत्सृजेद् यदि संवत्सरे द्वितीयो जायेत तँ संवत्सरेऽनूत्सृजेत् -- - - - - - - - - - - -एवैतस्यां वा इन्द्रोऽजायत स देवानां वीर्यावत्तमस्तस्माद् य एकाष्टकायां पशूनां जायते स वीर्यावान् भवति - काठ. संहिता १३.३

*सत्त्राणि : या प्रथमा व्यष्टका तस्यामुत्सृज्यमित्याहुरेष हि मासो विशर इति नादिष्टमुत्सृजेयुः - - - काठ. सं. ३३.७

*प्रायश्चित्तिः :- या देव्यष्टकास्यपसामपस्तमा स्वपा असि। तस्यै त एना हविषा विधेम त्वं यज्ञे वरुणस्यावया असि ॥ श्रुतकर्णाय ॥ - काठ. सं. ३५.११

*तस्य ह वा एतस्य संवत्सरस्य साम्नोऽहोरात्राणि हिंकारोऽर्धमासाः प्रस्तावो मासा आदिर्ऋतव उद्गीथः पौर्णमास्यः प्रतिहारोऽष्टका उपद्रवोऽमावास्या निधनम्। - षड्विंश ब्राह्मण ३.४.२२

*या ह्येमा बाह्याः शरीराद् मात्रास्तद् यथैतत् पौर्णमासीमष्टकाममावास्यां श्रद्धां दीक्षां यज्ञं दक्षिणास्तानेतेनास्मिन्नाप्याययति। - गोपथ ब्राह्मण १.१.३९

*सायंप्रातर्होमौ स्थालीपाको नवश्च यः। बलिश्च पितृयज्ञश्चाष्टका सप्तमः पशुः। इत्येते पाकयज्ञाः। - गो.ब्रा. १.५.२३

*अह्नां विधान्यामेकाष्टकायामपूपं चतुःशरावं पक्त्वा प्रातरेतेन कक्षमुपोषेत्। यदि दहति पुण्यसमं भवति। यदि न दहति पापसमं भवति। एतेन ह स्म वा अङ्गिरसः पुरा विज्ञानेन दीर्घसत्त्रमुपयन्ति। - गो.ब्रा. २.४.९

*अवभृथाङ्गहोमाद्यभिधानम् : अह्नां विधान्यामेकाष्टकायामपूपं चतुःशरावं पक्त्वा प्रातरेतेन कक्षमुपोषेद्यदि दहति पुण्यसमं भवति यदि न दहति पापसममेतेन ह स्म वा ऋषयः पुरा विज्ञानेन दीर्घसत्रमुप यन्ति - तैत्तिरीय संहिता ३.३.८.४

*व्युष्टिनामकेष्टकाभिधानम् : एकाष्टका तपसा तप्यमाना जजान गर्भं महिमानमिन्द्रम्। तेन दस्यून्व्यसहन्त देवा हन्ताऽसुराणामभवच्छचीभिः। - तै.सं. ४.३.११.३

*ऋषभेष्टकाद्यभिधानम् : संवत्सरस्य प्रतिमां यां त्वा रात्र्युपासते। प्रजां सुवीरां कृत्वा विश्वमायुर्व्यश्नवत्।प्राजापत्याम् एतामुप दधातीयं वावैषैकाष्टका यदेवैकाष्टकायामन्नं क्रियते तदेवैतयाऽवरुन्ध एषा वै प्रजापतेः कामदुघा तयैव यजमानोऽमुष्मिfल्लोकेऽग्निं दुहे - तै.सं. ५.७.२.२

*संवत्सरसत्रदीक्षाकालः :- संवत्सराय दीक्षिष्यमाणा एकाष्टकायां दीक्षेरन्नेषा वै संवत्सरस्य पत्नी यदेकाष्टकैतस्यां वा एष एताँ रात्रिं वसति - - - - - व्यस्तं वा ते संवत्सरस्याभि दीक्षन्ते य एकाष्टकायां दीक्षन्ते - - - - - चतुरहे पुरस्तात्पौर्णमास्यै दीक्षेरन्तेषामेकाष्टकायां क्रयः सं पद्यते तेनैकाष्टकां न छम्बट्कुर्वन्ति - तै.सं. ७.४.८.२

*उत्सृज्यां नोत्सृज्यामिति मीमाँसन्ते ब्रह्मवादिनस्तदाहुरुत्सृज्यमेवेत्यमावास्यायां च पौर्णमास्यां चोत्सृज्यमित्याहुरेते हि यज्ञं वहत इति - - - - -या प्रथमा व्युष्टका तस्यामुत्सृज्यमित्याहुरेष वै मासो विशर इति - - -तै.सं. ७.५.७.१

*राजसूयः : पौर्णमास्यां पूर्वमहर्भवति। व्यष्टकायामुत्तरम्। - तैत्तिरीय ब्राह्मण १.८.१०.२

*नक्षत्रेष्टका : कतमा सा देवाक्षरा बृहती। यस्यां तत्प्रत्यतिष्ठत्। द्वादश पौर्णमास्यः। द्वादशाष्टकाः। द्वादशामावास्याः। एषा वाव सा देवाक्षरा बृहती। यस्यां तत्प्रत्यतिष्ठदिति। - तै.ब्रा. १.५.१२.२

*पौर्णमास्यष्टकाऽमावास्या। अन्नादाः स्थान्नदुघो युष्मासु। - - - - -तै.ब्रा. ३.११.१.१९

*देवा वा ऋद्धिकामास् तपो ऽतप्यन्त। स इन्द्र एताम् अष्टकाम् अपश्यत्। तस्याम् अदीक्षत। स एकयाश्नुत। यद् एकयाश्नुत तद् एकाष्टकाया एकाष्टकात्वम्। - - - - - यथापूर्वं पलायितम् ईप्सेत् तं वाप्नुयात् तं वा न तादृक् तत्। त एतस्याम् एवाष्टकायां दीक्षेरन्। - - - - जैमिनीय ब्राह्मण २.३७२

*द्वादश वै संवत्सरस्य पौर्णमासीर् द्वादशाष्टका द्वादशामावास्याः। तद् एवैतेन षट्-त्रिंशेन स्तोमेन पर्वशस् संवत्सरम् आरभन्ते। - जै.ब्रा. २.४३७

*स एवैष प्रजापतिस् संवत्सरो ऽभवत्~। - - - - - तस्माद् एता मास्य् एव सर्वाः पौर्णमास्यष्टकामावास्याः। - - - - स दीक्षाभिर् एव पौर्णमासीर् अवारुन्धोपसद्भिर् अष्टकाः प्रसुतेनामावास्याः। - जैमिनीय ब्राह्मण  ३.२

*पुरो इन्द्राय देवा श्रैष्ठ्याय नातिष्ठन्त। स प्रजापतिम् उपाधावत्- प्र म इमा यच्छेति। तस्मा एते द्वे प्रायच्छत् - पौर्णमासी चामावास्यां च। अस्मिन् एवाष्टकाम् अधत्त। ततो वा इन्द्राय देवा श्रैष्ठ्यायातिष्ठन्त। - जै.ब्रा. ३.३

*एतावद् वाव संवत्सर इन्द्रियं वीर्यं यद्द्वादशाहो - द्वादश पौर्णमासीर् द्वादशाष्टका द्वादशामावास्यास्, तद् एवैतेनावरुन्द्धे। - जै.ब्रा. ३.५

*अष्टकायामुखां सम्भरति। प्राजापत्यमेतदहः यदष्टका। प्राजापत्यमेतत्कर्म यदुखा। - शतपथ ब्राह्मण ६.२.२.२३

*यद्वेवाष्टकायाम्। पर्वैतत्सम्वत्सरस्य - यदष्टका। पर्वैतदग्नेः यदुसा। पर्वण्येव तत् पर्व करोति। यद्वेवाष्टकायाम्। अष्टका वाऽउखा। निधिः, द्वाऽउद्धी, तिरश्ची रास्ना, तच्चतुः चतस्र ऊर्ध्वाः। तदष्टौ। अष्टकायामेव तदष्टकां करोति। - मा.श. ६.२.२.२५

*बृहती हि संवत्सरः। द्वादश पौर्णमास्यो, द्वादशाष्टकाः, द्वादशामावास्याः। तत् षट्-त्रिंशत्। षट्-त्रिंशदक्षरा बृहती। - मा.श. ६.४.२.१०

*गवामयनस्य दीक्षाकालः :- एकाष्टकायां दीक्षेरन्। एषा वै संवत्सरस्य पत्नी यदेकाष्टकैतस्यां वा गतां रात्रिं वसति साक्षादेव तत् संवत्सरमारभ्य दीक्षन्ते। - ताण्ड्य ब्राह्मण ५.९.१

*चतुरहे पुरस्तात् पौर्णमास्या दीक्षेरन्। तेषामेकाष्टकायां क्रयः सम्पद्यते तेनैकाष्टकान्न संवट् कुर्वन्ति। - ता.ब्रा. ५.९.१३

*अमावास्यायां पूर्व्वमहरुद्रिष्ट उत्तरन्नानैवार्द्धमासयोः प्रतितिष्ठति पौर्णमास्यां पूर्व्वमहर्व्यष्टकायामुत्तरन्नानैवमासोः प्रतितिष्ठति - ताण्ड्य ब्राह्मण १८.११.८

*पौर्णमास्यतिरात्रोऽथ यानि षडहानि स पृष्ठ्यः षडह एकाष्टका महाव्रतमथ यानि षडहानि स पृष्ठ्यःषडहोऽमावास्यातिरात्रः। - ता.ब्रा. २३.६.४

*तिस्रो ऽष्टका पितृदेवत्याः। - काठ. गृह्य सूत्र ६१.१

*ऊर्ध्वमाग्रहायण्यास्त्रयस्तामिस्राः तेष्वष्टमीष्वष्टकायज्ञाः। प्रथमां शाकेन द्वितीयां मांसेन तृतीयामपूपै:। ऋतूनां पत्नीति षड् द्वे द्वे स्थालीपाकस्य जुहोति। - काठ. गृह्य सूत्र ६१.२

*गवा चेदष्टका स्यात्पशुना वा तदुक्तम्। - काठ. गृह्य सूत्र ६२.१

*यथो एतद्धुतः प्रहुत आहुतश्शूलगवो बलिहरणं प्रत्यवरोहणमष्टकाहोम इति सप्त पाकयज्ञसंस्था इति। - बौधायन गृह्य सूत्र १.१.१

*अथाष्टकाहोमः। तैषे मास्यपरपक्षस्याष्टम्यां क्रियेत। - - - - - -बौ.गृ.सू. २.११.१

*अथाष्टकाहोमं जुहोति - इयमेव सा या प्रथमा व्यौच्छत् इति पञ्चदश। ईयुष्टे ये पूर्वतरामपश्यन् इत्येकाम्। संवत्सरस्य प्रतिमाणम् इत्येकां तास्सप्तदश। - बौ.गृ.सू. २.११.३३

*अपि वाऽरण्येऽग्निना कक्षमुपोषेदेषामेकाष्टकेति। न त्वेवानष्टकस्स्यात्। - बौ.गृ.सू. २.११.६०

*अग्निहोत्रे अग्न्युपस्थानम् : ये प्राचीनमेकाष्टकाया वत्सा जायन्ते तेषां प्रथमजं ददाति। वासः श्यामाके। - आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ६.३०.७

*य ऊर्ध्वमेकाष्टकाया वत्सा जायन्ते तेषां प्रथमजं ददाति। - आप.श्रौ.सू. ६.३०.२०

*अग्निचयनम् : अग्निं चेष्यमाणो ऽमावास्यायां पौर्णमास्यामेकाष्टकायां वोखां संभरति। - आप.श्रौ.सू. १६.१.१

*गवामयनम् : संवत्सराय दीक्षिष्यमाणा एकाष्टकायां दीक्षेरन्नित्युक्तम्। चतुरहे पुरस्तात्पौर्णमास्यै दीक्षेरन्। - आप.श्रौ.सू. २१.१५.४

*औपानुवाक्यम् : अह्नां विधान्यामेकाष्टकायामपूपं चतुःशरावं पक्त्वा प्रातरुदित आदित्ये विप्रुषित आददत एतमपूपमुपस्तीर्णाभिघारितं पर्णसेवाभ्यां परिगृह्य तत्सह पूतितृणानि भवन्त्यन्तमागारादेकोल्मुकमुदपात्रमित्येतत्समादायश् तां दिशं यन्ति यत्रास्य कक्ष स्पष्टो भवति तदेतदेकोल्मुकमुपसमाधायापूपमादीपयति पर्णसेवाभ्यां परिगृह्य तत्सह पूतितृणानि भवन्ति तेन कक्षमुपोषत्यथैनमुद्गृह्णात्यत्र विज्ञानमुपैति यदि दहति पुण्यसमं भवति यदि न दहति पापसमम् - बौधायन श्रौत सूत्र १४.१३

*द्वादशाहः :- तदु वा आहुर्यद् द्वादश दीक्षा द्वादशोपसदो द्वादशाहं प्रसुताः कथं द्वादशाहेन संवत्सर आप्यत इति द्वादश पौर्णमास्यो द्वादशाष्टका द्वादशामावास्या एतानि ह वै संवत्सरस्य वर्षिष्ठान्यहान्येतान्यनु संवत्सर आप्यते - बौधा.श्रौ.सू. १६.१२

*ते चतुरहे पुरस्तान्माघ्यै पौर्णमास्यै दीक्षन्ते तेषामेकाष्टकायां क्रयः संपद्यत इति नु यदि समामविज्ञाय दीक्षन्ते यद्यु वा एतस्यामेवैकाष्टकायां समां विजिज्ञासन्ते चतुरह एव पुरस्तात्फाल्गुन्यै वा चैत्र्यै वै पौर्णमास्यै दीक्षन्ते तेषामपरपक्षस्याष्टम्यां क्रयः संपद्यते तेनैकाष्टकां न छम्बत्कुर्वन्ति - बौधा.श्रौ.सू. १६.१३

*हुतः प्रहुत आहुतः शूलगवो बलिहरणं प्रत्यवरोहणमष्टकाहोम इति सप्त पाकयज्ञसंस्था - बौधा.श्रौ.सू.

२४.३

*गवामयनायैकाष्टकायां दीक्षा। फाल्गुनीपौर्णमासे। चैत्र्याम्। चतुरहे वा पुरस्तात्प्राक्पौर्णमास्याः। - कात्यायन श्रौत सूत्र १३.१.२

*एकाष्टकादीक्षिण उपसर्गिणः। - द्राह्यायण श्रौत सूत्र ८.४.२५

*एकाष्टका महाव्रतममावास्यातिरात्र इति ह्याह। - न्नह.श्रौ.सू. २८.१.९

*हेमन्तशिशिरयोश्चतुर्णामपरपक्षाणामष्टमीष्वष्टका१:। एकस्यां वा। पूर्वेद्युः पितृभ्यो दद्यात्। - - - - - आश्वलायन गृह्य सूत्र २.४.१

*अथ श्वोभूतेऽष्टकाः पशुना स्थालीपाकेन च। अप्यनडुहो यवसमाहरेत्। अग्निना वा कक्षमुपोषेत्। एषा  मेऽष्टकेति। न त्वेवानष्टकः स्यात्। तां हैके वैश्वदेवीं ब्रुवत आग्नेयीमेके सौर्यामेके प्राजापत्यामेके रात्रिदेवतामेके नक्षत्रदेवतामेके ऋतुदेवतामेके पितृदेवतामेके पशुदेवतामेके। - - - आश्व.गृ.सू. २.४.७