पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(From vowel Ekapaatalaa to Ah)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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Ekapaatalaa - Ekashruta (  Ekalavya etc.)

Ekashringa - Ekaadashi ( Ekashringa, Ekaadashi etc.)

Ekaananshaa - Airaavata (  Ekaananshaa, Ekaamra, Erandi, Aitareya, Airaavata etc.)  

Airaavatee - Odana  ( Aishwarya, Omkara, Oja etc.)

Oshadhi - Ah ( Oshadhi/herb, Oudumbari, Ourva etc.)

 

 

 

         As is evident from the lengthy list of  quotations from vedic texts, OJA is one of the most frequently used, but least understood words of vedic texts. In Aayurveda, it is understood that oja is one type of essence produced from   the gradual digestion of food in our body. In common parlance, it is thought that oja is some brightness on face. This site tries to investigate the real meaning of oja on the basis of sacred puraanic and vedic texts. Dr. Fatah Singh suggests that oja is born out of O, omkara. Omkara has three components – a, connected with compensation of loss, u – connected with preservation of whatever has been gained and m- connected with loss. It seems that oja is the third component of Omkara – loss. The integrated form of Omkara is O, the great resonance and one can expect that some energy will be constantly lost from this resonance. That can be called oja.

          Vedic texts  quote some synonyms for brightness, tejas, like teja, oja, bala, nrimna etc. and it becomes difficult to differentiate between these terms. Vedic texts indicates that these states are born out of churning of  holy water.  First state tejas is related with brahmin, the second oja with a warrior, the third payah with a vaishya or businessman and the fourth  aapah with a mean caste or shuudra. Oja has been solely devoted to the vedic qualities of a warrior and therefore one can expect that wherever fighting with enemy is involved, oja is required. It is an open question whether the fighting with so many foreign bodies in our body also involves oja in some way. There is one statement in Bhagvad Gita where Krishna says that it is he who enters the earth to preserve all the beings by his oja. Those waters which are not in a position to flow, have to be made to flow with the help of oja.

 There are some universal vedic statements where oja has been stated to be present in thigh in the body(and bala in hands). This seems to be a symbolic statement in the sense that thigh or uuru represents a vast state of consciousness while it’s opposite puuru/confined in space represents the mortal state. As will be clarified in the website for word Uuru, this part of the body is, in nature, a place where semen is injected. Vedic texts have made it symbolic that oja can be injected only in a vast state of consciousness.

          There are few mantras which indicate that our senses can be catalyzed by oja to open inward. There are two types of oja – one of slave and the other of gods. One has to annihilate oja of slave.

      Word oja has been interpreted on the basis of root ubja - straightness and    we are now familiar with the importance of terms straightness and curvature in modern sciences. This whole universe has been stated to be based on curvature and nothing is straight. Thus it becomes important how straightness is to be achieved in the realm of consciousness. In the website for word Richeeka , it was stated that Richeeka's wife desires that she wants a son who is riju/straight or of brahmin quality, not of warrior quality. The natural duty of a warrior is supposed to fight with the enemy. But in vedic literature, an another function has been associated with the warrior. This is to create efficiency and lessen noise. Wherever noise is produced, efficiency is lost. The basis of this statement can be sought in the website of word Chhanda where  during the explanation for qualities of Trishtup chhanda, it has been stated that this chhanda/meter belongs to a warrior and the quality of trishtup chhanda is to increase efficiency. The apparent contradiction in sacred texts about straightness belonging to either brahmin or warrior is yet to be clarified.

Place of word Oja in Vedic wordbook:

According to Dr. G.N.Bhatt, the word is used in one hundred and ninenty places in Rigveda. Saayana has not interpreted it in the sense of water, one classification under which it falls in wordbook. In ten places, it is used in the sense of tejas, i.e. luster. In rest of the places it is used in  the sense of 'bala', as this word is also listed in 'balanamaani'. Yaaska derives the word ojas from the root 'oj' - to be strong or from 'ubj' - to subdue.

Reference:
Vedic Nighantu
by G.N.Bhat
(Mangalore University,  Konaje(Karnataka), pin 574199)

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ओज

टिप्पणी : इन्द्र कहलाने वाले जीवात्मा को शुद्ध प्राण या जल पांच प्रकार की शक्तियों के रूप में प्राप्त होते हैं । हिरण्यय कोश में ओज जिससे वाणी ओजस्वी बनती है । विज्ञानमय कोश में सह जो नीचे के कोशों में उतरने पर संगठन के लिए प्रवृत्त करती है ; मनोमय कोश में बल जिसे मनोबल कहते हैं ;प्राणमय कोश में वीर्य, अन्नमय कोश में नृम्ण । अथवा ओज की परिभाषा ऐसे कर सकते हैं कि ओ से जन्मा हुआ तत्त्व ओज है । ओ = अ + उ । अ - स्थूल शरीर, उ - सूक्ष्म शरीर । सूक्ष्म शरीर की शक्तियों के विकास से स्थूल शरीर को जो प्राप्ति होती है, वह ओज है । - फतहसिंह

     मनुष्य देह की तुलना एक पुष्प या फल देने वाले पादप से की जा सकती है जिसमें मुख पुष्प या फल का रूप होता है । पादप पुष्प का विकास करने में अपनी सारी शक्ति लगा देता है । फिर कुछ समय पश्चात् वह पुष्प मूर्च्छित होकर नष्ट हो जाता है । मनुष्य व्यक्तित्व ऐसा है कि इसमें मुख रूपी पुष्प को दीर्घकाल तक सुरक्षित रखा जा सकता है । योगी पुरुषों के मुख पर एक आभा मण्डल का विकास हो जाता है जिसे सामान्यतः तेज कहते हैं । यह विकास अनायास ही हो जाता है । जब शरीर में उदान प्राण प्रबल हो जाता है तो वह देह के शुक्र को संभवतः सुषुम्ना नाडी के माध्यम से ऊपर की ओर फेंकता है और वह मुख आदि पर आभा मण्डल के रूप में विकसित हो जाता है । लोक  में इसका इतना ही ज्ञान है । लेकिन वैदिक साहित्य इस घटना का भली भांति विश्लेषण करता है और इस घटना से उत्पन्न परिणामों से भी अवगत कराता है । कहा जा सकता है कि यदि आभामण्डल विकसित हो ही गया तो उससे क्या हो जाएगा ? आधुनिक चिकित्सा शास्त्र जहां तक पहुंच पाया है, उसके अनुसार भी शरीर से शुक्र धातु के क्षरण का बुद्धिमत्ता पर तो कोई प्रभाव नहीं पडता । लेकिन अभी हमारे सामने सार्वत्रिक रूप से जो कुपरिणाम दिखाई पडते हैं, उनमें केशों का श्वेत होना, केशों का झडना, वृद्धावस्था में मस्तिष्क के सिकुडने के कारण स्मृति का नाश आदि प्रत्यक्ष हैं । लेकिन इन तथ्यों के विरुद्ध भी तर्क उपलब्ध हैं । भारत में ऐसे प्रदेश विशेष भी हैं जिनमें मनुष्यों के केश वृद्धावस्था तक सुरक्षित रहते हैं । अतः वैदिक साहित्य इस आभामण्डल के जो लाभ दर्शाता है, वह लौकिक लाभों से ऊपर होते होंगे ।

     सामान्य रूप से जो मुख का तेज या आभामण्डल माना जाता है, उसे वैदिक साहित्य में चार भागों में बांटा गया है ( तैत्तिरीय ब्राह्मण २.७.७.७ आदि ) । एक तो आपः के द्रवण से उत्पन्न रस से तेज का प्रादुर्भाव होता है । इसे ब्रह्मवर्चस नाम दिया गया है । दूसरे, आपः में उत्पन्न ऊर्मियों के, तरङ्गों के कारण जिस रस का विकास होता है, उससे ओज का प्रादुर्भाव होता है जो वर्तमान टिप्पणी का विवेचनीय विषय है । तीसरे, आपः में मधु/मध्य(? ) के कारण जिस रस का विकास होता है, उसका नाम नहीं दिया गया है । उससे पुष्टि प्राप्त होती है । चौथे, आपः का जो यज्ञिय रस है, उससे आयु की वृद्धि होती है । इन रसों की पूर्वावस्था को मन्थ भी कहा जाता है । बौधायन श्रौत सूत्र १.८.९ में यह रस क्रमशः मधु, सुरा, पयः ( क्षीर या दुग्ध ) व आपः/  जल कहे गए हैं । मधु के स्थान पर आज्य का भी उल्लेख आता है ।

     ओज को समझने की पहली कुञ्जी हमें डा. फतहसिंह के इस सुझाव से प्राप्त होती है कि ओ (अ + उ) से जन्मा हुआ ओज है । वैदिक साहित्य कईं प्रकार से इस तथ्य की पुष्टि करता है । सोमयागों में प्रातःसवन में बहिष्पवमान नामक स्तोत्र का गान किया जाता है । यह स्तोत्र प्रायःगायत्री छन्द में होता है । सामवेद में गायन के लिए तृचों का प्रयोग होता है । तृच अर्थात् ऋग्वेद की तीन ऋचाओं से मिलकर बना हुआ । बहिष्पवमान स्तोत्र में तृच की ऋचाओं को पूरा नहीं गाया जाता, अपितु गायत्री छन्द में निबद्ध ऋचा के तीन पदों में से केवल प्रथम पद को ही गाया जाता है । शेष पदों की पूर्त्ति ओ आदि का दीर्घकालिक उच्चारण करके की जाती है । उदाहरण के लिए, ऋचा "पवमानस्य ते कवे वाजिन्त्सर्गा असृक्षत । अर्वन्तो न श्रवस्यव:" का उच्चारण इस प्रकार किया जाता है ( श्रौत कोश, खण्ड २, पृष्ठ २८० ) : पवमानस्यतेकवोम्। ओमोओओओओ ओओओ२ ओओओओओओ१२१२ । हुम् आ२ । ओओ। आ३४५ ।। ऐसा अनुमान है कि साधक गान करते समय आश्चर्य चकित हो जाता है और पूरी ऋचा का गान करने में अपने आपको असमर्थ पाता है । वह आश्चर्य में केवल ओ का उच्चारण ही कर पाता है , जैसे लोक में आश्चर्य से ओहो करते  हैं ।

     उपनिषदों में ओंकार को तीन अक्षरों से बना हुआ कहा गया है - अ, उ तथा म । अ से पूरण किया जाता है, उ से धारण और म से विसर्जन । यह पूरण, धारण, विसर्जन किस वस्तु का किया जाता है, यह अपने - अपने साधना के स्तर पर निर्भर करता है । आरम्भिक रूप में श्वास द्वारा प्राणों का पूरण आदि किया जाता है । ब्राह्मण और श्रौत ग्रन्थों से प्रतीत होता है कि ओंकार का निरूपण ओदन / भात पकाने के द्वारा किया गया है । ओदन को ओदान मान सकते हैं - ओ का दान ) । ओ द्वारा इतनी शक्ति का संचय हो जाए कि उसका दूसरों को दान कर दिया जाए तो भी कोई अन्तर नहीं पडता । आधुनिक विज्ञान में ओ का निरूपण अनुनाद, रेजोनेन्स द्वारा किया जा सकता है । यह अनुनाद ध्वनि की तरङ्गों में हो सकता है, वैद्युतचुम्बकीय तरङ्गों में हो सकता है, आवेश धारण करने वाले सूक्ष्म कणों इलेक्ट्रान आदि में हो सकता है अथवा अन्य किसी प्रकार से । अनुनाद में शक्ति का संचय कितना अधिक होता है, यह विज्ञान में सर्वविदित है । लेकिन अभी तक आधुनिक विज्ञान में अनुनाद द्वारा प्राप्त इस शक्ति को धारण करने की किसी सम्यक् विधि का विकास नहीं हो पाया है । अनुनादित अवस्था से शक्ति का सतत् रूप से क्षय होता रहता है जिसकी क्षतिपूर्त्ति करते रहना पडता है । यह कहा जा सकता कि जड पदार्थों से व्यवहार करने वाले आधुनिक विज्ञान के माध्यम से हमने जो अनुभव प्राप्त किया है, उसका उपयोग चेतना के विज्ञान को समझने के लिए भी किया जा सकता है ।। अनुनादित अवस्था में शक्ति के क्षय को ओज कहा जा सकता है । यह ओंकार के म अक्षर का, विसर्जन का एक भाग है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.७.७.२, बौधायन श्रौत सूत्र १८.९ व १० आदि में ओदन सव के अन्तर्गत मन्थ के मन्थन से तेज, ओज, पुष्टि या पयः तथा आपः प्राप्ति का वर्णन है । मन्थ ओदन सव का ही एक भाग है जो चन्द्रमा से सम्बन्धित है । मन्थ की निरुक्ति का प्रयास इस प्रकार कर सकते हैं कि जो मन को स्थिरता प्रदान करे, वह मन्थ है । इस मन्थ के मन्थन से तेज, ओज, पयः और आपः प्राप्त होते हैं जिन्हें क्रमशःब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र प्राप्त करते हैं । साथ ही, इन्हें क्रमशः हिरण्मय, राजत, अयस्मय, और मृन्मय पात्रों में ग्रहण किया जाता है । यह आवश्यक नहीं है कि ओज का उपयोग केवल क्षत्रिय तक ही सीमित हो । चाहें तो ओज का प्रयोग ब्रह्मत्व की पुष्टि के लिए किया जा सकता है ( तैत्तिरीय संहिता ३.३.१.१ ), अथवा इसके द्वारा वैश्य भाग की पुष्टि की जा सकती है ( आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १४.६.८, १७.१७.१ ) । कर्मकाण्ड में ब्रह्म, क्षत्र व वैश्य के प्रतीक क्रमशः त्रिवृत्~, पञ्चदश व सप्तदश स्तोम होते हैं । क्षत्र की स्थिति पञ्चदश स्तोम पर होती है । स्तोम का स्थूल अर्थ स्तुति होता है ।। समुचित अर्थ अभी स्पष्ट नहीं है । पञ्चदश स्तोम के विषय में कहा गया है कि यह अर्धमास की १५ रात्रियों का प्रतीक है । चूंकि अर्धमास चन्द्रमा से सम्बन्धित होता है, अतः पञ्चदश स्तोम चन्द्रमा की १५ कलाओं से सम्बन्धित होना चाहिए । और इसमें भी चन्द्रमा का एक शुक्ल पक्ष है, एक कृष्ण पक्ष । अतः कुल ३० कलाएं हुईं । हमें यह आशा करनी चाहिए कि यदि वैदिक साहित्य में ओज को सार्वत्रिक रूप से पञ्चदश स्तोम से सम्बन्धित किया गया है तो उसका कोई गहन निहितार्थ होगा ।

     योगवासिष्ठ में ओज की अनुपस्थिति में चित्तवृत्तियों के बहिर्मुखी हो जाने का उल्लेख है । भगवद्गीता १५.१३ का कथन है कि गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा । अर्थात् विष्णु गायों में  प्रवेश करके ओज के द्वारा भूतों को धारण करते हैं । इस कथन की एक व्याख्या ऐसे की जा सकती है कि चन्द्रमा आकाश में जितना अपूर्ण दिखाई देता है, उसका वह अपूर्ण अंश उस दिन पृथिवी पर ओषधियों आदि की पुष्टि करता है । पृथिवी को भी गौ कहा जाता है , अतः गौ रूपी पृथिवी चन्द्रमा के विभिन्न अंशों को प्रतिदिन ग्रहण करती है और उससे भूतों का पालन करती है । हो सकता है कि पृथिवी पर ओषधियां अपने जिन फलों को उत्पन्न करती हैं, उसे पृथिवी का अथवा ओषधियों का ओज कहा जा सकता हो क्योंकि पृथिवी इसी अन्न द्वारा भूतों को धारण करती है । सूर्य की किरणों को भी गो कहा जाता है । लोक में तो गौ अपने पयः के द्वारा वत्स का पालन करती है । इस पयः में ही ओज छिपा है जिसको प्रत्यक्ष करना है ( तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.६.१२) । चेतना के स्तर पर यह ओज क्या होगा जिसके द्वारा भूतों को धारण किया जा सकता है ? ऐसा कहा जा सकता  है कि योगी में गौ रूपी किरणों का जन्म ओज के कारण, ओ की स्थिति के क्षय के कारण होता है और इन गायों रूपी किरणों के कारण जैसे सूर्य सारे संसार का पालन करता है, वैसे ही सूर्य स्थिति को प्राप्त योगी समस्त भूतों को धारण शक्ति प्रदान कर सकता है । गौ का एक अन्य अर्थ इन्द्रियां होता है । इन्द्रियां, जैसे चक्षु, अपना प्रवेश करके भूतों को धारण करते हैं । गौ रूपी इन्द्रियों को अपना कार्य करने के लिए प्रकाश, ध्वनि, विद्युत आदि शक्तियों की आवश्यकता पडती है । यह शक्तियां जैसी होंगी, उसी कार्य का ज्ञान भूतों के बारे में देंगी । हमें दूसरे भूतों का ज्ञान इसलिए है कि हमारी इन्द्रियां उनका ज्ञान हमें कराती हैं । यदि हमारे चक्षु आधुनिक विज्ञान की भांति एक्स किरणों को देखने लगें तो यह भूतों का आन्तरिक ज्ञान भी प्रदान करने लगेंगे । इन्द्रियों के कार्य करने के लिए अपेक्षित इस शक्ति को ओज कहा जा सकता है । योगीजन संभवतः तृतीय नेत्र से प्राप्त प्रकाश से अपने चक्षुओं को प्रकाशित कर उससे भूतों का ज्ञान प्राप्त करते हैं । अन्य इन्द्रियों को आन्तरिक रूप से संवेदन किस प्रकार प्राप्त होता है, यह अज्ञात है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१०.३.१ में तप द्वारा ज्योति को अनिभृष्ट ओज में रूपान्तरित करने का उल्लेख है । गवामयन आदि यज्ञों के संदर्भ में ब्राह्मण ग्रन्थों का कहना है कि ज्योति गौ के लिए वृषभ का कार्य करती है जिससे आयु का जन्म होता है । ऋग्वेद १.७.८ व अथर्ववेद २०.७०.१४ में ईशान इन्द्र द्वारा ओज से कृष्टि को प्रेरित करने का उल्लेख है । अन्य स्थानों जैसे ऋग्वेद १.१६०.५, ६.४६.७, ८.६२.२, ८.७५.१०, तैत्तिरीय संहिता २.६.११.१ में भी ओज के संदर्भ में कृष्टि का उल्लेख है । यद्यपि निघण्टु में कृष्टि शब्द मनुष्य नामों के अन्तर्गत परिगणित है, लेकिन डा. फतहसिंह कृष्टि की व्याख्या कर्षण - योग्य इन्द्रियों के रूप में करते हैं । अथर्ववेद ७.९५.१ आदि में इन्द्र से प्रार्थना की गई है कि वह दास के ओज का दम्भन कर दे । तैत्तिरीय संहिता १.२.१०.२ में यज्ञार्थ लाए गए अतिथि सोम को देवों का ओज कहा गया है । ऋग्वेद ३.५१.१० में विश्वामित्र इन्द्र से प्रार्थना करते हैं कि जिस सोम का सोतन ओज के अनु, ओज के द्वारा किया गया है, हे इन्द्र, तुम उसे पिओ । इन कथनों से संकेत मिलता है कि हमारी इन्द्रियां जिस ओज को प्राप्त करके कार्य कर रही हैं, वह दास का ओज है । देवों का ओज सोम है जिसका यज्ञार्थ आगे भी शोधन किया जा सकता है । क्या इसका निहितार्थ यह हो सकता है कि हमारी इन्द्रियां अभी जिस ओज को प्राप्त कर रही हैं, वह सौर्य है जबकि अपेक्षा चान्द्र ओज की है ?

पुराणों में ओजस्वती नदी को इडा का रूप कहा गया है । इडा भी चन्द्रमा से सम्बन्धित है । शांखायन श्रौत सूत्र ७.५.१३ में यज्ञ में ३ सवनों में इडा के तीन रूपों तेज, ओज व पुष्टि का क्रमशः भक्षण किया जाता है । ताण्ड्य ब्राह्मण ६.१०.१६ व ६.१०.१८, अथर्ववेद २०.१३८.१, तैत्तिरीय संहिता २.४.९.१ में ओज द्वारा वृष्टि के च्यावयन का उल्लेख है । यदि ओज स्वयं रस है, सोम है, तो फिर ओज द्वारा सोम रूपी, पर्जन्य रूपी वृष्टि के च्यावयन का क्या तात्पर्य है ? हो सकता है कि ऋग्वेद ९.५.३, ९.२९.१, ९.६५.१४, ९.१०६.७ में ओज के द्वारा जिस मधु धारा , सोम की धारा प्राप्त करने की बात कही गई है, वह पुराणों में ओजस्वती नदी से साम्य रखती हो ।

     भागवत पुराण में मरुतों से ओज प्रदान की प्रार्थना का उल्लेख है । यह एक ऐसा विषय है जो व्यावहारिक दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण है लेकिन जिसका वैदिक साहित्य में प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं मिलता, केवल परोक्ष रूप मिलता है । ऋग्वेद १.८५.१० में मरुद्गण गोतम ऋषि के लिए जल की प्राप्ति ओज द्वारा सुगम बना देते हैं । ऋग्वेद ३.२६.६ में अग्नि के भाम: /क्रोध तथा मरुतों के ओज का उल्लेख है । ऋग्वेद ३.४७.३ में मरुद्गण इन्द्र के लिए ओज का भरण करते हैं । ऋग्वेद ५.५९.७ में मरुद्गण ओज की सहायता से पक्षियों की भांति उडते हैं । ऋग्वेद ७.५६.६ व ७ में मरुतों के उग्र ओज का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता १.८.११.१ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण १.७.५.२ में राजसूय में अभिषेक हेतु जल ग्रहण करते समय उसे मरुतों का ओज कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता १.८.१५.२ में राजसूय में  रथ द्वारा विजय के संदर्भ में इन्द्र के बल व मरुतों के ओज का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता २.३.१.५ में अश्वत्थ को मरुतों का ओज कहा गया है । मरुत ७ गणों में विभक्त विशः हैं । शतपथ ब्राह्मण ४.३.३.८ में इन्द्र मरुतों के ओज की सहायता से वृत्र का वध करता है । ओज मुख्य रूप से क्षत्रिय के लिए होता है जिसके द्वारा वह शत्रु का वध करता है । आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १४.६.८ व १७.१७.१ आदि में इसका विवेचन है कि यदि ओज को विशः या वैश्य प्राप्त करते हैं तो उसका क्या प्रभाव होगा । इन्द्र को ऋग्वेद में सार्वत्रिक रूप से ओजिष्ट ओजस्पति कहा गया है । फिर भी वृत्र वध के लिए उसे मर्त्य स्तर के मरुतों के ओज की आवश्यकता क्यों पडती है, यह एक विचारणीय प्रश्न है ।

      में विष्णु की ऊरुओं में ओज होने का उल्लेख है । ऋग्वेद ५.५७.६ व ८.९६.३ आदि में बाहुओं में ओज होने का उल्लेख आता है जो अधिक उपयुक्त लगता है क्योंकि ओज क्षत्र से सम्बन्धित है । लेकिन दूसरी ओर, अथर्ववेद १९.६०.२, तैत्तिरीय संहिता ५.५.९.२ व तैत्तिरीय आरण्यक १०.७२.१ में ऊरुओं में ओज होने का उल्लेख है । लगता है कि ऊरु शब्द प्रतीकात्मक है और ऋग्वेद १०.१८०.३ उरुं देवेभ्यो अकृणोरु लोकम् के आधार पर ऐसा मान सकते हैं कि ऊरु अमर्त्य स्तर का प्रतीक है । ऋग्वेद १.५३.७, १.१०३.३, ८.३३.७, ८.९७.१४ व अथर्ववेद २०.५७.११ में इन्द्र द्वारा ओज से पुर के भेदन का उल्लेख आता है । पुर को उरु से विपरीत स्थिति मान सकते हैं । यह मर्त्य स्तर का प्रतीक हो सकता है तथा ॐ लोक की उपलब्धि का विस्तार इस मर्त्य स्तर तक करना है ।

     वामन पुराण में ओजस तीर्थ में कार्तिकेय के अभिषेक होने के कथन के संदर्भ में तैत्तिरीय संहिता १.८.११.१ में राजसूय यज्ञ में अभिषेक हेतु जल प्राप्ति के संदर्भ में जल को मरुतों का ओज भी कहा गया है । अतः यह कहा जा सकता है कि वास्तविक अभिषेक वही है जब उसके लिए स्वतःही ओज उत्पन्न हो जाए ।

     पुराणों में तेज, ओज, बल आदि काल के अवयव होने का सार्वत्रिक कथन यह संकेत करता है कि यह गुण अमृत नहीं हैं, अपितु नश्वर हैं ।

     जैसे पुराणों में सार्वत्रिक रूप से ओज के साथ सह, बल आदि का उल्लेख आता है, इसी प्रकार वैदिक साहित्य में भी ओज, सह, बल, नृम्ण आदि का सार्वत्रिक रूप से उल्लेख है ( अथर्ववेद १०.५.१-६, १८.४.५३, ऋग्वेद ५.५७.६, तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.११.१.२१ आदि ) । डा. फतहसिंह ने इस सम्बन्ध में जो टिप्पणी की है, उसकी सत्यता की पुष्टि अपेक्षित है । अथर्ववेद ७.५७.१ में यजु:को बल व साम को ओज कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता १.८.१५.२ में इन्द्र के बल व मरुतों के ओज का उल्लेख है । डा. फतहसिंह के अनुसार नृम्ण बल अन्नमय कोश में होता है । लेकिन ऋग्वेद ५.५७.६ में शीर्ष में नृम्ण/नृत्य तथा बाहुओं में ओज की स्थिति कही गई है । सह को उत्साह के रूप में समझ सकते हैं ।

     आँक्सफोर्ड शब्दकोश के अनुसार अंग्रेजी में ऊज(ooze) का अर्थ स्थिर जल होता है जबकि वैदिक साहित्य में ओज का अर्थ ऊर्मि से युक्त ( तैत्तिरीय ब्राह्मण २.७.७.७ ), स्थिर के विपरीत बहता हुआ, शब्दायमान जल ( तैत्तिरीय आरण्यक १.२४.३) लिया गया है ।

 

     ऋग्वेद १.७.८, १.११.८, १.१७५.४, ८.६.४१, ८.१७.९, ८.३२.१४, ८.४०.५, ८.७६.१, ९.१०१.५ आदि में सार्वत्रिक रूप से ओज के साथ ईशान शब्द का उल्लेख आता है । ऐसा लगता है कि ईशान बनना पहली आवश्यकता है । पुराणों के सार्वत्रिक कथन के अनुसार ईशानः सर्वविद्यानाम् - सारी विद्याओं का जानने वाला । इसी प्रकार ओज के साथ सार्वत्रिक रूप से उग्र शब्द का उल्लेख मिलता है ( ऋग्वेद १.१९.४, १.१६५.१०, ३.३६.४, ४.२०.१, ६.१९.६, ७.५६.६, ७.५६.७, ८.९७.१०, ९.६६.१६, ९.६६.१७, १०.७३.१, १०.११३.६ आदि ) ।

     अथर्ववेद १.१२.१ में एक ओज के त्रेधा विभक्त कर दिए जाने का उल्लेख है । ऋग्वेद १.१६५.१० में एक ओज के विभु होने का उल्लेख है । ऋग्वेद १.१०२.८ में ओज की प्रतिमान ३ धातुओं, ३ भूमियों, ३ रोचनों का उल्लेख है ।

     तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१२.९.५ में ग्रावस्तुत् ऋत्विज को ओज का प्रतीक कहा गया है । यह कथन यज्ञ में ग्रावस्तुत् ऋत्विज की प्रकृति को समझने में सहायक होगा ।

     ओज की निरुक्ति उणादि कोश ४.१९७ के सूत्र उब्जेर्बले बलोपश्च के आधार पर की गई है । यहां उब्ज को आर्जव, ऋजुता, दीनता के अर्थ में लिया जाता है । उणादिकोश के टीकाकार नारायण ने ओज की परिभाषा उब्जति आर्जवेन गच्छति इति ओज: की है । दण्डनाथ नारायण वृत्ति में ओज की परिभाषा उषेर्जश्च ( २.१.३२६) के आधार पर की गई है । दुर्गसिंह की वृत्ति में ओज की परिभाषा उषेर्जश्च के आधार पर उषतीति ओज: बलम् की गई है । यास्क के निरुक्त ६.२.८ में भी ओज की परिभाषा ओजतेर्वोब्जतेर्वा की गई है । एक ओर ओ से उत्पन्न होने वाले ओज की ऋजुता है तो दूसरी ओर केवल अ से उत्पन्न होने वाले अज के संदर्भ में काशकृत्स्न धातु कोश में अज धातु वक्रता के अर्थ में बताई गई है । आर्जव, ऋजुता या सरलता व वक्रता की व्याख्या लक्ष्मीनारायण संहिता में संन्यास मार्ग व गृहस्थ मार्ग द्वारा की गई है । लेकिन अब ऋजुता व वक्रता को समझने के लिए हमारे पास आधुनिक विज्ञान का आधार है । जीवन के लिए ऋजु गति आवश्यक है । कैंसर व्याधि में शरीर के जीवन शक्ति वाले कोषों का जनन मन्द पड जाता है और व्याधि के कोषों का तीव्र हो जाता है । इसे इस प्रकार कह सकते हैं कि जीवन की गति अब ऋजु से वक्र बन जाती है । दूसरा उदाहरण लोहे में चुम्बकत्व का दे सकते हैं । लोहे में चुम्बकत्व इसलिए उत्पन्न होता है कि किन्हीं कारणों से लौह का एक कण दूसरे कण को एक विशिष्ट प्रकार से आकर्षित करता है और यह घटना लौह के सभी कणों के बीच घटती है । यदि लौह के तापमान में वृद्धि कर दी जाए या दो लौह कणों के बीच अन्य धातुओं के कण रख दिए जाएं तो यह चुम्बकीय गुण या तो समाप्त हो जाता है या बहुत  मन्द पड जाता है । भौतिक विज्ञान की शब्दावली में इसे व्यवस्था - अव्यवस्था की घटना कहते हैं, जबकि वेद की शब्दावली में इसे ऋजुता व वक्रता कह सकते हैं । उणादि कोष के टीकाकारों ने उष धातु के आधार पर भी ओज की निरुक्ति का प्रयास किया है । पुराण विषय अनुक्रमणिका में उषा शब्द की टिप्पणी में उषा को अव्यवस्था का माप माना गया है । अतः उष शब्द के आधार पर भी ओज की निरुक्ति ठीक हो सकती है । ओज व्यवस्था से उत्पन्न हो रहा है, ओ की व्यवस्था से । इस व्यवस्था से सम्बन्ध कटा कि अव्यवस्था उत्पन्न हुई ।

     वैदिक साहित्य में ओज के देवता - द्वय इन्द्राग्नि कहे गए हैं ( तैत्तिरीय संहिता ५.३.२.१, ५.६.२१.१, ६.५.५.१, ६.६.५.२, तैत्तिरीय ब्राह्मण १.३.४.३, १.६.४.४, ३.८.७.१, शतपथ ब्राह्मण १३.१.२.६, ताण्ड्य ब्राह्मण २४.१७.३, २५.११.३, बौधायन श्रौत सूत्र २६.११ आदि )तथा इनके उष्ट्र - द्वय पशुओं का उल्लेख आता है ( तैत्तिरीय संहिता ५.६.२१.१, बौधायन श्रौत सूत्र २६.११) । उष्ट्र पशु यज्ञीय पशु अवि का अपक्रान्त मेध है । यह अपक्रान्त मेध वैसे ही हो सकता है जैसे ओज ओ की अपक्रान्त शक्ति है । उष्ट्र उषा से, अव्यवस्था से सम्बन्धित हो सकता है । वास्तव में, यदि भौतिक विज्ञान की दृष्टि से विचार किया जाए तो ओ, अनुनाद अपने आप में बहुत बडी व्यवस्था है जिसका माप एण्ट्रापी होता है ( ट्रांफी अर्थात् ट्रान्सफार्मेशन, रूपान्तरण ) । यह एण्ट्रांपी जितनी कम होगी, अव्यवस्था उतनी ही कम होगी । एण्ट्रांपी का विवेचन उषा व ओषधि शब्दों पर टिप्पणियों में किया जा चुका है । किसी तन्त्र की एण्ट्रांपी जितनी कम होगी, उस तन्त्र से उतना ही अधिक उपयोगी कार्य कराया जा सकता है ( फिजिकल रिव्यू) । इन्जन से बहुत कार्य लिया जा सकता है । इसका अर्थ हुआ कि उसकी एण्ट्रांपी कम है । ओज का जन्म ओ से हुआ है । अतः ओज में कार्य करने की शक्ति होनी चाहिए । वेदों में ओज की सहायता से बहुत से कार्य करने का वर्णन है  । ऋग्वेद १.१६५.१० में एक विभु( भावनात्मक ) ओज का उल्लेख है जबकि अथर्ववेद १.१२.१ में एक ओज के त्रेधा विभक्त किए जाने का उल्लेख है । इसका अर्थ यह हो सकता है कि ओज इच्छा, ज्ञान व क्रिया में प्रयुक्त हो सकता है । ऋग्वेद में ओज द्वारा जितने कार्य होने का उल्लेख है, उन्हें इच्छा, ज्ञान व क्रिया के आधार पर समझने की आवश्यकता है, जैसे ईशान द्वारा किए गए कार्य ज्ञान से सम्बन्धित हो सकते हैं । उदुम्बर ( शतपथ ब्राह्मण ७.४.१.३९, ७.४.१.४२ ) को प्राप्त ओज भावना प्रकार का हो सकता है ।

प्रथम लेखन : २६-२-२००५ई.

संदर्भ

*वृषा यूथेव वंसगः कृष्टीरियर्त्योजसा । ईशानो अप्रतिष्कुतः ॥ - ऋग्वेद १.७.८

*इन्द्रेहि मत्स्यन्धसो विश्वेभिः सोमपर्वभिः । महाँ अभिष्टिरोजसा ॥ - ऋ.१.९.१

*इन्द्रमीशानमोजसाभि स्तोमा अनूषत । सहस्रं यस्य रातय उत वा सन्ति भूयसीः ॥ - ऋ.१.११.८

*य उग्रा अर्कमानृचुरनाधृष्टास ओजसा । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥ - ऋ.१.१९.४

*आ ये तन्वन्ति रश्मिभिस् तिरः समुद्रमोजसा । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥ - ऋ.१.१९.८

*सध्रीचीनेन मनसा तमिन्द्र ओजिष्ठेन हन्मनाहन्नभि द्यून् ॥ - ऋ.१.३३.११

*यावत्तरो मघवन् यावदोजो वज्रेण शत्रुमवधीः पृतन्युम् ॥ - ऋ.१.३३.१२

*वि तं युयोत शवसा व्योजसा वि युष्माकाभिरूतिभिः ॥ - ऋ.१.३९.८

*असाम्योजो बिभृथा सुदानवो ऽसामि धूतयः शवः । ऋषिद्विषे मरुतः परिमन्यव इषुं न सृजत द्विषम् ॥ - ऋ.१.३९.१०

*त्वमस्य पारे रजसो व्योमनः स्वभूत्योजा अवसे धृषन्मनः । - ऋ.१.५२.१२

*युधा युधमुप घेदेषि धृष्णुया पुरा पुरं समिदं हंस्योजसा । - ऋ.१.५३.७

*इन्द्रः सोमस्य पीतये वृषायते सनात् स युध्म ओजसा पनस्यते । - ऋ.१.५५.२

*स इन्महानि समिथानि मज्मना कृणोति युध्म ओजसा जनेभ्यः । - ऋ.१.५५.५

*स हि श्रवस्यु: सदनानि कृत्रिमा क्ष्मया वृधान ओजसा विनाशयन् । - ऋ.१.५५.६

*त्वं दिवो धरुणं धिष ओजसा पृथिव्या इन्द्र सदनेषु माहिनः । - ऋ.१.५६.६

*अनु ते द्यौर्बृहती वीर्यं मम इयं च ते पृथिवी नेम ओजसे ॥ - ऋ.१.५७.५

*शविष्ठ वजि|न्नोजसा पृथिव्या नि: शशा अहिमर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥ - ऋ.१.८०.१

*येना वृत्रं निरद्भ~यो जघन्थ वजि|न्नोजसार्चन्ननु स्वराज्यम् ॥ - ऋ.१.८०.२

*यदिन्द्र वजि|न्नोजसा वृत्रं मरुत्वाँ अवधीरर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥ - ऋ.१.८०.११

*तस्मिन्नृम्णमुत क्रतुं देवा ओजांसि सं दधुरर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥ - ऋ.१.८०.१५

*वि ये भ्राजन्ते सुमखास ऋष्टिभिः प्रच्यावयन्तो अच्युता चिदोजसा । मनोजुवो यन्मरुतो रथेष्वा वृषव्रातासः पृषतीरयुग्ध्वम् ॥ - ऋ.१.८५.४

*ऊर्ध्वं नुनुद्रेऽवतं त ओजसा दादृहाणं चिद् बिभिदुर्वि पर्वतम् । - ऋ.१.८५.१०

*अकल्प इन्द्रः प्रतिमानमोजसाथा जना विह्वयन्ते सिषासवः ॥ - ऋ.१.१०२.६

*त्रिविष्टिधातु प्रतिमानमोजसस्तिस्रो भूमीर्नृपते त्रीणि रोचना । - ऋ.१.१०२.८

*स जातूभर्मा श्रद्दधान ओजः पुरो विभिन्दन्नचरद् वि दासीः । - ऋ.१.१०३.३

*शुष्णस्य चित् परिहितं यदोजो दिवस्परि सुग्रथितं तदादः ॥ - ऋ.१.१२१.१०

*स हि पुरू चिदोजसा विरुक्मता दीद्यानो भवति द्रुहंतर परशुर्न द्रुहंतरः । - ऋ.१.१२७.३

*स्थिरा चिदन्ना नि रिणात्योजसा नि स्थिराणि चिदोजसा ॥ - ऋ.१.१२७.४

*ओजिष्ठ त्रातरविता रथं कं चिदमर्त्य । - ऋ.१.१२९.१०

*संविव्यान ओजसा शवोभिरिन्द्र मज्मना । तष्टेव वृक्षं वनिनो नि वृश्चसि परश्वेव नि वृश्चसि ॥ - ऋ.१.१३०.४

*महो धनानि दयमान ओजसा विश्वा धनान्योजसा ॥ - ऋ.१.१३०.७

*सूरश्चक्रं प्र वृहज्जात ओजसा प्रपित्वे वाचमरुणो मुषायतीशान आ मुषायति । - ऋ.१.१३०.९

*तस्मा आयु: प्रजावदिद् बाधे अर्चन्त्योजसा । - ऋ.१.१३२.५

*ओजायमानस्तन्वश्च शुम्भते भीमो न शृङ्गा दविधाव दुर्गृभिः ॥ - ऋ.१.१४०.६

*येनाभि कृष्टीस्ततनाम विश्वहा पनाय्यमोजो अस्मे समिन्वतम् ॥ - ऋ.१.१६०.५

*एकस्य चिन्मे विभ्वस्त्वोजो या नु दधृष्वान् कृणवै मनीषा । - ऋ.१.१६५.१०

*त्वं तू न इन्द्र तं रयिं दा ओजिष्ठया दक्षिणयेव रातिम् । - ऋ.१.१६९.४

*मुषाय सूर्यं कवे चक्रमीशान ओजसा । वह शुष्णाय वधं कुत्सं वातस्याश्वैः ॥ - ऋ.१.१७५.४

*पितुं नु स्तोषं महो धर्माणं तविषीम् । यस्य त्रितो व्योजसा वृत्रं विपर्वमर्दयत् ॥ - ऋ.१.१८७.१

*प्राचीनं बर्हिरोजसा सहस्रवीरमस्तृणन् । यत्रादित्या विराजथ ॥ - ऋ.१.१८८.४

*यः शम्बरं पर्वतेषु क्षियन्तं चत्वारिश्यां शरद्यन्वविन्दत् । ओजायमानं यो अहिं जघान दानुं शयानं स जनास इन्द्रः ॥ - ऋ.२.१२.११

*स भूतु यो ह प्रथमाय धायस ओजो मिमानो महिमानमातिरत् । - ऋ.२.१७.२

*स प्राचीनान् पर्वतान् दृंहदोजसा ऽधराचीनमकृणोदपामपः । - ऋ.२.१७.५

*अध त्विषीमाँ अभ्योजसा क्रिविं युधाभवदा रोदसी अपृणदस्य मज्मना प्र वावृधे । - ऋ.२.२२.२

*साकं जातः क्रतुना साकमोजसा ववक्षिथ साकं वृद्धो वीर्यैः सासहिर्मृधो विचर्षणि: । - ऋ.२.२२.३

*भुवद् विश्वमभ्यादेवमोजसा विदादूर्जं शतक्रतुर्विदादिषम् । - ऋ.२.२२.४

*यो नन्त्वान्यनमन्न्योजसोतादर्दर्मन्युना शम्बराणि वि । - ऋ.२.२४.२

*अश्मास्यमवतं ब्रह्मणस्पतिर्मधुधारमभि यमोजसातृणत् । - ऋ.२.२४.४

*सिन्धुर्न क्षोदः शिमीवाँ ऋघायतो वृषेव वध्रीँरभि वष्ट्योजसा । - ऋ.२.२५.३

*अनिभृष्टतविषिर्हन्त्योजसा यं यं युजं कृणुते ब्रह्मणस्पतिः ॥ - ऋ.२.२५.४

*यूयं देवाः प्रमतिर्यूयमोजो यूयं द्वेषांसि सनुतर्युयोत । - ऋ.२.२९.२

*अर्हन्निदं दयसे विश्वमभ्वं न वा ओजीयो रुद्र त्वदस्ति ॥ - ऋ.२.३३.१०

*एष स्य ते तन्वो नृम्णवर्धनः सह ओजः प्रदिवि बाह्वोर्हितः । - ऋ.२.३६.५

*ओजिष्ठं ते मध्यतो मेद उद्भृतं प्र ते वयं ददामहे । - ऋ.३.२१.५

*व्रातं व्रातं गणंगणं सुशस्तिभिरग्नेर्भामं मरुतामोज ईमहे । - ऋ.३.२६.६

*ये ते शुष्मं ये तविषीमवर्धन्नर्चन्त इन्द्र मरुतस्त ओजः । माध्यन्दिने सवने वज्रहस्त पिबा रुद्रेभिः सगणःसुशिप्र ॥ - ऋ.३.३२.३

*न द्याव इन्द्र तवसस्त ओजो नाहा न मासा शरदो वरन्त ॥ - ऋ.३.३२.९

*अहन्नहिं परिशयानमर्ण ओजायमानं तुविजात तव्यान् । - ऋ.३.३२.११

*महाँ अमत्रो वृजने विरप्श्युग्रं शवः पत्यते धृष्वोजः । - ऋ.३.३६.४

*स वावृधान ओजसा पुरुष्टुत भवा नः सुश्रवस्तमः ॥ - ऋ.३.४५.५

*याf आभजो मरुतो ये त्वा ऽन्वहन् वृत्रमदधुस्तुभ्यमोजः ॥ - ऋ.३.४७.३

*इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते । पिबा त्वस्य गिर्वणः ॥ - ऋ.३.५१.१०

*अभि व्ययस्व खदिरस्य सारमोजो धेहि स्पन्दने शिंशपायाम् । - ऋ.३.५३.१९

*शुचिमर्कैर्बृहस्पतिमध्वरेषु नमस्यत । अनाम्योज आ चके ॥ - ऋ.३.६२.५

*सद्यो जातस्य ददृशानमोजो यदस्य वातो अनुवाति शोचि । - ऋ.४.७.१०

*भिनद् गिरिं शवसा वज्रमिष्णन्नाविष्कृण्वानः सहसान ओजः । - ऋ.४.१७.३

*दृळहान्यौभ्नादुशमान ओजो ऽवाभिनत् ककुभः पर्वतानाम् । - ऋ.४.१९.४

*ओजिष्ठेभिर्नृपतिर्वज्रबाहुः संगे समत्सु तुर्वणिः पृतन्यून् ॥ - ऋ.४.२०.१

*दभ्रेभिश्चिच्छशीयांसं हंसि व्राधन्तमोजसा । सखिभिर्ये त्वे सचा ॥ - ऋ.४.३२.३

*इन्द्रा युवं वरुणा दिद्युमस्मिन्नोजिष्ठमुग्रा नि वधिष्टं वज्रम् । यो नो दुरेवो वृकतिर्दभीतिस्तस्मिन् मिमाथामभिभूत्योजः ॥ - ऋ.४.४१.४

*अग्न ओजिष्ठमा भर द्युम्नमस्मभ्यमधि|गो । - ऋ.५.१०.१

*तदिन्नु ते करणं दस्म विप्राऽहिं यद् घ्नन्नोजो अत्रामिमीथा: । - ऋ.५.३१.७

*वावन्धि यज्यूंरुत तेषु धेह्योजो जनेषु येषु ते स्याम ॥ - ऋ.५.३१.१३

*इमे चिदस्य ज्रयसो नु देवी इन्द्रस्योजसो भियसा जिहाते । - ऋ.५.३२.९

*सं यदोजो युवते विश्वमाभिरनु स्वधाव्ने क्षितयो नमन्त ॥ - ऋ.५.३२.१०

*पपृक्षेण्यमिन्द्र त्वे ह्योजो नृम्णानि च नतृमानो अमर्तः । - ऋ.५.३३.६

*उतान्तरिक्षं ममिरे व्योजसा शुभं यातामनु रथा अवृत्सत ॥ - ऋ.५.५५.२

*नि ये रिणन्त्योजसा वृथा गावो न दुर्धुरः । अश्मानं चित् स्वर्यं पर्वतं गिरिं प्र च्यावयन्ति यामभिः ॥ - ऋ.५.५६.४

*ऋष्टयो वो मरुतो अंसयोरधि सह ओजो बाह्वोर्वो बलं हितम् । नृम्णा शीर्षस्वायुधा रथेषु वो विश्वा वःश्रीरधि तनूषु पिपिशे ॥ - ऋ.५.५७.६

*वयो न ये श्रेणीः पप्तुरोजसा ऽन्तान् दिवो बृहतः सानुनस्परि । - ऋ.५.५९.७

*यस्य प्रयाणमन्वन्य इद् ययुर्देवा देवस्य महिमानमोजसा । ( दे. सविता ) - ऋ.५.८१.३

*दृळहा चिद् या वनस्पतीन् क्ष्मया दर्धर्ष्योजसा । यत् ते अभ्रस्य विद्युतो दिवो वर्षन्ति वृष्टयः ॥ (पृथिवी  )- ऋ.५.८४.३

*अनु द्यावापृथिवी तत् त ओजो ऽमर्त्या जिहत इन्द्र देवाः । - ऋ.६.१८.१५

*शविष्ठं न आ भर शूर शव ओजिष्ठमोजो अभिभूत उग्रम् । - ऋ.६.१९.६

*तूर्वन्नोजीयान् तवसस्तवीयान् कृतब्रह्मेvन्द्रो वृद्धमहाः । - ऋ.६.२०.३

*अहं चन तत् सूरिभिरानश्यां तव ज्याय इन्द्र सुम्नमोजः । - ऋ.६.२६.७

*य ओजिष्ठ इन्द्र तं सु नो दा मदो वृषन् त्स्वभिष्टिर्दास्वान् । - ऋ.६.३३.१

*अनु प्र येजे जन ओजो अस्य सत्रा दधिरे अनु वीर्याय । - ऋ.६.३६.२

*इन्द्र ज्येष्ठं न आ भरf ओजिष्ठं पपुरि श्रवः । येनेमे चित्र वज्रहस्त रोदसी ओभे सुशिप्र प्रा: ॥ - ऋ.६.४६.५

*यदिन्द्र नाहुषीष्वाँ ओजो नृम्णं च कृष्टिषु । यद्वा पञ्च क्षितीनां द्युम्नमा भर सत्रा विश्वानि पौंस्या ॥ - ऋ.६.४६.७

*दिवस्पृथिव्या: पर्योज उद्भृतं वनस्पतिभ्यः पर्याभृतं सहः । अपामोज्मानं परि गोभिरावृतमिन्द्रस्य वज्रं हविषा रथं यज ॥ - ऋ.६.४७.२७

*आ क्रन्दय बलमोजो न आ धा निः ष्टनिहि दुरिता बाधमानः । अप प्रोथ दुन्दुभे दुच्छुना इत इन्द्रस्य मुष्टिरसि वीळयस्व ॥ - ऋ.६.४७.३०

*यामं येष्ठाः शुभा शोभिष्ठाः श्रिया संमिश्ला ओजोभिरुग्राः । उग्रं व ओजः स्थिरा शवांस्यधा मरुद्भिर्गणस्तुविष्मान् । - ऋ.७.५६.६-७

*प्र ये महोभिरोजसोत सन्ति विश्वो वो यामन् भयते स्वर्दृक् ॥ - ऋ.७.५८.२

*विश्वे देवासः परमे व्योमनि सं वामोजो वृषणा सं बलं दधुः ॥ - ऋ.७.८२.२

*अन्वपां खान्यतृन्तमोजसा सूर्यमैरयतं दिवि प्रभुम् । ( इन्द्रावरुणौ ) - ऋ.७.८२.३

*महे शुल्काय वरुणस्य नू त्विष ओजो मिमाते ध्रुवमस्य यत् स्वम् । - ऋ.७.८२.६

*यावत् तरस्तन्वो यावदोजो यावन्नरश्चक्षसा दीध्यानाः । ( इन्द्रवायू ) - ऋ.७.९१.४

*प्र चक्रे सहसा सहो बभञ्ज मन्युमोजसा । विश्वे त इन्द्र पृतनायवो यहो नि वृक्षा इव येमिरे । - ऋ.८.४.५

*निमेघमानो मघवन् दिवेदिव ओजिष्ठं दधिषे सहः ॥ - ऋ.८.४.१०

*महाँ इन्द्रो य ओजसा पर्जन्यो वृष्टिमाँ इव । स्तोमैर्वत्सस्य वावृधे । - ऋ.८.६.१

*ओजस्तदस्य तित्विष उभे यत् समवर्तयत् । इन्द्रश्चर्मेव रोदसी ॥ - ऋ.८.६.५

*न द्याव इन्द्रमोजसा नान्तरिक्षाणि वजि|णम् । न विव्यचन्त भूमय ॥ - ऋ.८.६.१५

*यदङ्ग तविषीयस इन्द्र प्रराजसि क्षिती । महाँ अपार ओजसा । - ऋ.८.६.२६

*ऋषिर्हि पूर्वजा अस्येक ईशान ओजसा । इन्द्र चोष्कूयसे वसु । - ऋ.८.६.४१

*सृजन्ति रश्मिमोजसा पन्थां सूर्याय यातवे । ते भानुभिर्वि तस्थिरे ॥ - ऋ.८.७.८

*इमं स्तोममभिष्टये घृतं न पूतमद्रिव । येना नु सद्य ओजसा ववक्षिथ ॥ - ऋ.८.१२.४

*इन्द्रं वृत्राय हन्तवे देवासो दधिरे पुरः । इन्द्रं वाणीरनूषता समोजसे ॥ महान्तं महिना वयं स्तोमेभिर्हवनश्रुतम् । अर्कैरभि प्र णो नुम समोजसे ॥ न यं विविक्तो रोदसी नान्तरिक्षाणि वजि|णम् । अमादिदस्य तित्विषे समोजसः ॥ - ऋ.८.१२.२२- २४

*इन्द्र प्रेहि पुरस्त्वं विश्वस्येशान ओजसा । वृत्राणि वृत्रहञ्जहि ॥ - ऋ.८.१७.९

*आयन्तारं महि स्थिरं पृतनासु श्रवोजितम् । भूरेरीशानमोजसा ॥ - ऋ.८.३२.१४

*अयं यः पुरो विभिनत्त्योजसा मन्दानः शिप्र्यन्धसः ॥ - ऋ.८.३३.७

*नकिष्ट्वा नि यमदा सुते गमो महाँश्चरस्योजसा ॥ - ऋ.८.३३.८

*आ यदिन्द्रश्च दद्वहे सहस्रं वसुरोचिषः । ओजिष्ठमश्व्यं पशुम् ॥ - ऋ.८.३४.१६

*ऊर्जा देवाँ अवस्योजसा त्वां पिबा सोमं मदाय कं शतक्रतो । - ऋ.८.३६.३

*या सप्तबुध्नमर्णवं जिह्मबारमपोर्णुत इन्द्र ईशान ओजसा नभन्तामन्यके समे । - ऋ.८.४०.५

*अपि वृश्च पुराणवद् व्रततेरिव गुष्पितमोजो दासस्य दम्भय । - ऋ.८.४०.६

*उतो नु चिद् य ओजसा शुष्णस्याण्डानि भेदति जेषत् स्वर्वतीरपो नभन्तामन्यके समे ॥ - ऋ.८.४०.१०

*उतो नु चिद् य ओहत आण्डा शुष्णस्य भेदत्यजैः स्वर्वतीरपो नभन्तामन्यके समे ॥ - ऋ.८.४०.११

*रथिरासो हरयो ये ते अस्रिध ओजो वातस्य पिप्रति । - ऋ.८.५०८

*प्र यो ननक्षे अभ्योजसा क्रिविं वधैः शुष्णं निघोषयन् । - ऋ.८.५१.८

*तं हि स्वराजं वृषभं तमोजसे धिषणे निष्टतक्षतुः । - ऋ.८.६१.२

*पूर्वीरति प्र वावृधे विभ्वा जातान्योजसा भद्रा इन्द्रस्य रातयः ॥ - ऋ. ८.६२.२

*यद्धंसि वृत्रमौजसा शचीपते भद्रा इन्द्रस्य रातयः ॥ - ऋ. ८.६२.८

*नमस्ते अग्न ओजसे गृणन्ति देव कृष्टयः । अमैरमित्रमर्दय ॥ - ऋ. ८.७५.१०

*इमं नु मायिनं हुव इन्द्रमीशानमोजसा । मरुत्वन्तं न वृञ्जसे ॥ - ऋ. ८.७६.१

*मरुत्वन्तमृजीषिणमोजस्वन्तं विरप्शिनम् । इन्द्रं गीर्भिर्हवामहे ॥ - ऋ. ८.७६.५

*प्र हि रिरिक्ष ओजसा दिवो अन्तेभ्यस्परि। न त्वा विव्याच रज इन्द्र पार्थिवमनु स्वधां ववक्षिथ ॥ -ऋ. ८.८८.५

*अस्य पीत्वा मदानां देवो देवस्योजसा । विश्वाभि भुवना भुवत्॥ - ऋ. ८.९२.६

*यस्ते चित्रश्रवस्तमो य इन्द्र वृत्रहन्तमः। य ओजोदातमो मदः ॥ - ऋ. ८.९२.१७

*इन्द्रः स दामने कृत ओजिष्ठः स मदे हितः । द्युम्नी श्लोकी स सोम्यः ॥ - ऋ. ८.९३.८

*इष्टा होत्रा असृक्षतेन्द्रं वृधासो अध्वरे । अच्छावभृथमोजसा ॥ - ऋ. ८.९३.२३

*इन्द्रस्य वज्र आयसो निमिश्ल इन्द्रस्य बाह्वोर्भूयिष्ठमोजः ॥ - ऋ. ८.९६.३

*त्वं ह त्यदप्रतिमानमोजो वज्रेण वजि|न् धृषितो जघन्थ । - ऋ. ८.९६.१७

*क्रत्वा वरिष्ठं वर आमुरिमुतोग्रमोजिष्ठं तवसं तरस्विनम् । - ऋ. ८.९७.१०

*स्वर्पतिं यदीं वृधे धृतव्रतो ह्योजसा समूतिभिः ॥ - ऋ. ८.९७.११

*त्वं पुर इन्द्र चिकिदेना व्योजसा शविष्ठ शक्र नाशयध्यै । - ऋ. ८.९७.१४

*त्व न इन्द्रा भरँ ओजो नृम्णं शतक्रतो विचर्षणे । आ वीरं पृतनाषहम् ॥ - ऋ.८.९८.१०

*गिरस्त इन्द ओजसा मर्मृज्यन्ते अपस्युवः । याभिर्मदाय शुम्भसे। - ऋ. ९.२.७

*ईळेन्यः पवमानो रयिर्वि राजति द्युमान् । मधोर्धाराभिरोजसा ॥ बर्हिः प्राचीनमोजसा पवमानः स्तृणन् हरिः । देवेषु देव ईयते । - ऋ. ९.५.३-४

*एष शृङ्गाणि दोधुवच्छिशीते यूथ्यो३ वृषा । नृम्णा दधान ओजसा ॥ - ऋ. ९.१५.४

*प्रास्य धारा अक्षरन् वृष्णः सुतस्योजसा । देवाँ अनु प्रभूषत ॥ - ऋ. ९.२९.१

*प्र सुवानो धारया तनेन्दुर्हिन्वानो अर्षति । रुजद्दृळ्हा व्योजसा ॥ - ऋ. ९.३४.१

*इन्दो समुद्रमीङ्खय पवस्व विश्वमेजय । रायो धर्ता न ओजसा ॥ - ऋ. ९.३५.२

*सुत एति पवित्र आ त्विषिं दधान ओजसा । विचक्षाणो विरोचयन् । - ऋ. ९.३९.३

*अया निजघ्निरोजसा रथसङ्गे धने हिते । स्तवा अबिभ्युषा हृदा ॥ - ऋ. ९.५३.२

*परि णो याह्यस्मयुर्विश्वा वसून्योजसा । पाहि नः शर्म वीरवत्॥ - ऋ. ९.६४.१८

*वृषा पवस्व धारया मरुत्वते च मत्सरः । विश्वा दधान ओजसा ॥ - ऋ. ९.६५.१०

*आ कलशा अनूषतेन्दो धाराभिरोजसा । एन्द्रस्य पीतये विश ॥ -ऋ. ९.६५.१४

*महाँ असि सोम ज्येष्ठ उग्राणामिन्द ओजिष्ठः । युध्वा सञ्छश्वज्जिगेथ ॥ य उग्रेभ्यश्चिदोजीयाञ्छूरेभ्यश्चिच्छूरतरः । भूरिदाभ्यश्चिन्मंहीयान् ॥ - ऋ. ९.६६.१७

*त्वं सोमासि धारयुर्मन्द्र ओजिष्ठो अध्वरे । पवस्व मंहयद्रयिः ॥ - ऋ. ९.६७.१

*अदधादिन्द्रे पवमान ओजो ऽजनयत् सूर्ये ज्योतिरिन्दुः ॥ - ऋ. ९.९७.४१

*इन्दुरिन्द्राय पवते इति देवासो अब्रुवन् । वाचस्पतिर्मखस्यते विश्वस्येशान ओजसा ॥ - ऋ. ९.१०१.५

*य ओजिष्ठस्तमा भर पवमान श्रवाय्यम् । यः पञ्च चर्षणीरभि रयिं येन वनामहै ॥ - ऋ. ९.१०१.९

*पवस्व देववीतय इन्दो धाराभिरोजसा । आ कलशं मधुमान् त्सोम नः सदः ॥ - ऋ. ९.१०६.७

*य उस्रिया अप्या अन्तरश्मनो निर्गा अकृन्तदोजसा । अभि व्रजं तत्निषे गव्यमश्व्यं वर्मीव धृष्णवा रुज ॥ -ऋ. ९.१०८.६

*भूरीदिन्द्र उदिनक्षन्तमोजो ऽवाभिनत् सत्पतिर्मन्यमानम् । - ऋ.१०.८.९

*ओजः कृष्व सं गृभाय त्वे अप्यसो यथा केनिपानामिनो वृधे ॥ - ऋ. १०.४४.४

*अहं सूर्यस्य परि याम्याशुभिः प्रैतशेभिर्वहमान ओजसा । - ऋ. १०.४९.७

*प्रावो देवाँ आतिरो दासमोजः प्रजायै त्वस्यै यदशिक्ष इन्द्र ॥ - ऋ. १०.५४.१

*अन्तरिक्षं मह्या पप्रुरोजसा सोमो घृतश्रीर्महिमानमीरयन् ॥ - ऋ. १०.६५.२

*स्वर्णरमन्तरिक्षाणि रोचना द्यावाभूमी पृथिवीं स्कम्भुरोजसा । - ऋ. १०.६५.४

*द्यां स्कभित्वय१प आ चक्रुरोजसा यज्ञं जनित्वी तन्वी३ नि मामृजुः ॥ - ऋ. १०.६५.७

*जनिष्ठा उग्रः सहसे तुराय मन्द्र ओजिष्ठो बहुलाभिमानः । - ऋ. १०.७३.१

*अश्वादियायेति यद्वदन्त्योजसो जातमुत मन्य एनम् । - ऋ. १०.७३.१०

*प्र सप्तसप्त त्रेधा हि चक्रमुः प्र सृत्वरीणामति सिन्धुरोजसा ॥ - ऋ. १०.७५.१

*हत्वाय शत्रून् वि भजस्व वेद ओजो मिमानो वि मृधो नुदस्व ॥ - ऋ. १०.८४.२

*जज्ञिष इत्था गोपीथ्याय हि दधाथ तत् पुरूरवो म ओजः । - ऋ. १०.९५.११

*मही चिद्धि धिषणाहर्यदोजसा बृहद्वयो दधिषे हर्यतश्चिदा ॥ - ऋ. १०.९६.१०

*अस्य त्रितो न्वोजसा वृधानो विपा वराहमयोअग्रया हन् ॥ - ऋ. १०.९९.६

*गोत्रभिदं गोविदं वज्रबाहुं जयन्तमज्म प्रमृणन्तमोजसा । - ऋ. १०.१०३.६

*तमस्य विष्णुर्महिमानमोजसांऽशुं दधन्वान् मधुनो वि रप्शते। - ऋ. १०.११३.२

*वृत्रं यदुग्रो व्यवृश्चदोजसा ऽपो बिभ्रतं तमसा परीवृतम् ॥ - ऋ. १०.११३.६

*व्यर्य इन्द्र तनुहि श्रवांस्योजः स्थिरेव धन्वनोऽभिमातीः । - ऋ. १०.११६.६

*ओजीयो धृष्णो स्थिरमा तनुष्व मा त्वा दभन् यातुधाना दुरेवाः ॥ - ऋ. १०.१२०.४

*त्वमिन्द्र बलादधि सहसो जात ओजसः । त्वं वृषन् वृषेदसि ॥ तवमिन्द्रासि वृत्रहा व्यन्तरिक्षमतिरः। उद् द्यामस्तभ्ना ओजसा ॥ त्वमिन्द्र सजोषसमर्कं बिभर्षि बाह्वोः। वज्रं शिशान ओजसा॥ त्वमिन्द्राभिभूरसि विश्वा जातान्योजसा । स विश्वा भुव आभुवः ॥ - ऋ. १०.१५३.२-५

*विश्वभ्राड~ भ्राजो महि सूर्यो दृश उरु पप्रथे सह ओजो अच्युतम् । - ऋ. १०.१७०.३

*इन्द्र क्षत्रमभि वाममोजो ऽजायथा वृषभ चर्षणीनाम् । - ऋ. १०.१८०.३

*स नो मृडाति तन्व: ऋजुगो रुजन् य एकमोजस्त्रेधा विचक्रमे ॥ - अथर्ववेद १.१२.१

*नैनं रक्षांसि न पिशाचा: सहन्ते देवानामोजः प्रथमजं ह्ये३तत् । यो बिभर्ति दाक्षायणं हिरण्यं स जीवेषु कृणुते दीर्घमायु: ॥ - अ.१.३५.२

*अपां तेजो ज्योतिरोजो बलं च वनस्पतीनामुत वीर्याणि । इन्द्र इवेन्द्रियाण्यधि धारयामो अस्मिन् तद् दक्षमाणो बिभरद्धिरण्यम् । - अ.१.३५.३

*ओजोऽस्योजो मे दाः स्वाहा । सहोऽसि सहो मे दाः स्वाहा ॥ - अ.२.१७.२

*इन्द्रः सेनां मोहयतु मरुतो घ्नन्त्वोजसा । चक्षूंष्यग्निरा दत्तां पुनरेतु पराजिता ॥ - अ.३.१.६

*असौ या सेना मरुतः परेषामस्मानैत्यभ्योजसा स्पर्धमाना । तां विध्यत तमसापव्रतेन यथैषामन्यो अन्यं न जानात् ॥ - अ.३.२.६

*आयमगन् पर्णमणिर्बली बलेन प्रमृणन्त्सपत्नान् । ओजो देवानां पय ओषधीनां वर्चसा मा जिन्वत्वप्रयावन् ॥ - अ.३.५.१

*समहमेषां राष्ट्रं स्यामि समोजो वीर्यं१ बलम् । वृश्चामि शत्रूणां बाहूननेन हविषाहम् ॥ - अ.३.१९.२

*शतेन मा परि पाहि सहस्रेणाभि रक्ष मा । इन्द्रस्ते वीरुधां पत उग्र ओज्मानमा दधत् ॥ - अ.४.२०.८

*यस्मिन्नर्कः शिश्रिये यस्मिन्नोजः स नो मुञ्चत्वंहसः ॥ - अ.४.२४.५

*हत्वाय शत्रून् वि भजस्व वेद ओजो मिमानो वि मृधो नुदस्व ॥ - अ.४.३१.२

*यस्ते मन्योऽविधद् वज्र सायक सह ओजः पुष्यति विश्वमानुषक् । - अ.४.३२.१

*विश्वचर्षणिः सहुरि: सहीयानस्मास्वोजः पृतनासु धेहि ॥ - अ.४.३२.४

*वावृधानः शवसा भूर्योजा शत्रुर्दासाय भियसं दधाति । - अ.५.२.२

*ओजीयः शुष्मिन्त्स्थिरमा तनुष्व मा त्वा दभन् दुरेवासः कशोका: ॥ - अ.५.२.४

*इमं वीरमनु हर्षध्वमुग्रमिन्द्रं सखायो अनु सं रभध्वम् । ग्रामजितं गोजितं वज्रबाहुं जयन्तमज्म प्रमृणन्तमोजसा ॥ - अ.६.९७.३

*दिवस्पृथिव्या: पर्योज उद्भृतं वनस्पतिभ्यः पर्याभृतं सहः । अपामोज्मानं परि गोभिरावृतमिन्द्रस्य वज्रं हविषा रथं यज ॥ इन्द्रस्योजो मरुतामनीकं मित्रस्य गर्भो वरुणस्य नाभिः । - अ.६.१२५.२-३

*आ क्रन्दय बलमोजो न आ धा अभि ष्टन दुरिता बाधमानः । अप सेध दुन्दुभे दुच्छुनामित इन्द्रस्य मुष्टिरसि वीडयस्व ॥ - अ.६.१२६.२

*यत् पुरुषेण हविषा यज्ञं देवा अतन्वत । अस्ति नु तस्मादोजीयो यद्विहव्येनेजिरे ॥ - अ.७.५.४


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