पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(From vowel Ekapaatalaa to Ah)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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Ekapaatalaa - Ekashruta (  Ekalavya etc.)

Ekashringa - Ekaadashi ( Ekashringa, Ekaadashi etc.)

Ekaananshaa - Airaavata (  Ekaananshaa, Ekaamra, Erandi, Aitareya, Airaavata etc.)  

Airaavatee - Odana  ( Aishwarya, Omkara, Oja etc.)

Oshadhi - Ah ( Oshadhi/herb, Oudumbari, Ourva etc.)

 

 

 

The celestial elephant Airavata is well known in Hindu mythology- how he appeared from churning of ocean, how he is the carrier of god Indra, how he is benefactor to mankind , how the appearance of Airavata is auspicious in dreams etc. But what is the mystical meaning of Airavata? Airavata has its origin from Rigveda where the seer of hymn 10.76 is Airavata Jaratkarna. Some of the references of Airavata in puranic texts are well known and some relatively unknown. This note brings forth the puranic contexts of Airavata and attempts to interpret its mystical meaning on the basis of references in vedic and puranic texts.

 

ऐरावत

टिप्पणी : पुराणों में ऐरावत को इरावती का पुत्र कहा गया है । ऐरावत नाम से स्वयं ही स्पष्ट हो जाता है कि वह इरावती का पुत्र है । इरावती को समझने के लिए इरावती शब्द पर टिप्प्णी पठनीय है । पर्जन्य वृष्टि के फलस्वरूप पृथिवी पर इरा, वनस्पतियां आदि उत्पन्न हो जाती हैं । अतः ऐसी पृथिवी को इरावती कहा जा सकता है । इरा आनन्द की कोई अवस्था हो सकती है जो सारे प्राणों को तृप्त कर देती है । महाभारत भीष्मपर्व ८.११ में ऐरावत वर्ष के निवासियों की अवस्था बताई गई है कि वे निराहार, इष्ट गन्ध वाले, जितेन्द्रिय, विरज होते हैं । प्रश्न यह है कि इरावती से उत्पन्न यह ऐरावत अवस्था क्या है जिस पर इन्द्र आरूढ होता है । अथर्ववेद ८.१४.१५ में उल्लेख आता है कि पृथिवी/गौ सर्पों के पास आई और सर्पों में तक्षक उसका वत्स बना और धतृराष्ट्र ऐरावत उसका दुहने वाला । विष का दोहन अलाबु पात्र में किया गया । ऋग्वेद १०.७६ सूक्त का ऋषि ऐरावत जरत्कर्ण है और इसका देवता ग्रावाण:, सोम कूटने/सवन के पत्थर हैं । जैसा कि अर्बुद शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है, सोम याग में माध्यन्दिन सवन के प्रारम्भ में सोम लता को ग्रावाण: / पत्थरों से कूट कर सोम निचोडा जाता है । ऐतरेय ब्राह्मण ६.१ के अनुसार यज्ञ में पाप नाश न हो सकने के कारण देवों को उनका भाग प्राप्त नहीं हो पा रहा था । इस क्षण में अर्बुद काद्रवेय सर्प ऋषि ने अपनी ग्रावस्तोत्रीय ऋचाओं के गान का प्रस्ताव किया । गान करने पर सोम और देवों को मद और विष आक्रान्त करने लगे । उससे बचने के लिए उन्होंने ग्रावस्तुत् नामक अर्बुद ऋत्विज के सिर पर उष्णीष/पट्टी बांध दी जिससे वह देख न सके । लेकिन समस्या का हल नहीं हुआ । यहां उल्लेख है कि ग्रावस्तोत्रिय ऋचाएं ( ऋग्वेद १०.९४ तथा १०.७६ ) मन हैं । शतपथ ब्राह्मण १४.२.२.२३ में उल्लेख है कि ग्रावाण: प्राण हैं । इस प्रकार ऐरावत जरत्कर्ण ऋषि मन का प्रतीक होना चाहिए जो ग्रावाण: रूपी प्राणों को जाग्रत करने की चेष्टा करता है । यह ग्रावाण: जाग्रत होकर सोम का सवन करेंगे । जरत्कर्ण शब्द में जरत् की व्युत्पत्ति जॄ - जरणे, स्तुतौ और कर्ण की व्युत्पत्ति छेदने के आधार पर की जा सकती है । कर्ण शब्द की टिप्पणी में यह सुझाव दिया गया है कि कर्ण १५ कलाओं से, स्मृति से सम्बन्धित हो सकता है । स्मृति को, सारी कलाओं को स्तुति के स्तर तक ला देना जरत्कर्ण का कार्य हो सकता है । धतृराष्ट्र ऐरावत द्वारा पृथिवी रूपी गौ के दोहन के संदर्भ में, ताण्ड~य ब्राह्मण २५.१५.३, बौधायन श्रौत सूत्र १७.१८.१ तथा बौधायन गृह्य सूत्र ३.१०.६ में सर्प सत्र के ऋत्विजों के नामों का उल्लेख करते हुए धतृराष्ट्र ऐरावत को ब्रह्मा तथा अर्बुद काद्रवेय को ग्रावस्तुत् कहा गया है ( ब्रह्मा को ब्राह्मण ग्रन्थों में मन कहा गया है ) । अतः ऐरावत को समझने के लिए धतृराष्ट्र को समझना भी आवश्यक होगा । राष्ट्र को धारण करने वाले को धतृराष्ट्र कहा जा सकता है । जैमिनीय ब्राह्मण १.८० का कथन है कि द्रोण कलश राष्ट्र है और उस राष्ट्र के विशः / प्रजाएं ग्रावाण: / सोम कूटने के पत्थर हैं । द्रोण कलश एक उदुम्बर काष्ठ का पात्र होता है जिसका मुख उ अक्षर के आकार का होता है और निचोडे हुए सोम को सबसे पहले इसी में एकत्र किया जाता है । ग्रावाण: को विशः कहने से ऐसा अनुमान होता है कि धतृराष्ट्र ऐरावत द्वारा गौ से विष के दोहन के संदर्भ में कहीं विशः और विष का परस्पर सम्बन्ध है । हो सकता है कि विशः से विष का विलगन करने पर ही विशः या प्राण जाग्रत होते हों । महाभारत के सार्वत्रिक आख्यान में राजा धतृराष्ट्र को अन्धा कहा गया है । अन्धा कहने से तात्पर्य प्रज्ञा चक्षु के विकसित होने अथवा न होने, दोनों से हो सकता है । महाभारत के आख्यान का राजा धतृराष्ट्र बहिर्मुखी और अन्तर्मुखी दोनों ओर से अन्धा हो सकता है । कृष्ण के विश्वरूप के दर्शन के लिए वह विशेष रूप से चक्षु प्राप्त करता है । धतृराष्ट्र वह है जो द्रोण कलश को, शुद्ध सोम एकत्र करने के पात्र को धारण करता हो तथा उस राष्ट्र की विशः / प्रजाएं प्राण हैं । यह विशः या प्राण जितने जाग्रत होंगे, उतना ही शुद्ध सोम द्रोणकलश रूपी राष्ट्र में भरा जा सकेगा । देवीभागवत पुराण में धतृराष्ट्र को अरिष्ट - पुत्र हंस का अंश कहा गया है ।

          महाभारत भीष्म पर्व ६.३८ में ऐरावत वर्ष और भारत वर्ष को धनुष की २ कोटियों/सिरों की भांति कहा गया है तथा इनके बीच में इलावर्ष होने का उल्लेख है । भारत वर्ष का नाम भरत से पडा । भरत, अर्थात् जो आनन्द से भरता है, हमारे विशेष रूप से जाग्रत प्राण ( विपश्यना साधना में प्राणों की सिद्धि का लक्षण है कि जब अन्दर जाने वाले प्राण और बाहर आने वाले प्राण, दोनों आनन्ददायी बन जाएं ) । महाभारत अनुशासन पर्व १४.२३९ में वर्णन आता है कि तपोरत उपमन्यु ऋषि के समक्ष ऐरावत पर आरूढ इन्द्र प्रकट हुआ लेकिन शिव के दर्शन के आकांक्षी उपमन्यु ने उसका स्वागत नहीं किया । तब ऐरावत शिव के वाहन नन्दी वृषभ में बदल गया । नन्दी वृषभ प्राण का प्रतीक है ( प्राणापानौ अनड्वाहौ अनड्वान् प्राण उच्यते ) और यदि ऐरावत मन का प्रतीक है तो यह विचारणीय है कि मन प्राण में कैसे बदल सकते हैं । ऐसा भी हो सकता है कि ऐरावत कोई अर्धचेतना की स्थिति हो जो पूर्ण चेतना की नन्दी स्थिति में बदल जाती हो । डा. फतहसिंह इंगित करते हैं कि पुराणों में जब भी इन्द्र ऐरावत पर आरूढ होकर युद्ध करने के लिए आता है, वह हार जाता है । पुराणों में ऐरावत के शीर्ष को गणेश के कबन्ध से जोडा गया है । अतः यह हो सकता है कि ऐरावत का केवल शीर्ष भाग ही पूर्ण चेतन हो । ऐरावत गणेश का शीर्ष तभी बन सकता है जब गणेश का कबन्ध भाग इरावती पृथिवी बन गया हो ।

          कथासरित्सागर में ऐरावत उशीनर पर्व का भेदन करके गङ्गा का अवतारण करता है । जैसा कि उशीनर शब्द की टिप्पणी में कहा गया है, उशी - वाञ्छायाम् के आधार पर उशीनर अतृप्त प्राणों को तृप्ति की ओर ले जाने वाला हो सकता है । उशीनर का कार्य अपक्व( प्राणों? ) को पकाना है । इस संदर्भ से प्रतीत होता है कि ऐरावत इस अवस्था में फंसे सोम को मुक्त करता है ।

 

धृतराष्ट्र शब्द की टिप्पणी से उद्धृत

बौधायन श्रौत सूत्र 28.9 में अध्वर दीक्षा के संदर्भ में कुछ प्रायश्चित्तों का उल्लेख है । यदि दीक्षित वमन कर दे या थूक दे तो उसके लिए प्रायश्चित्त विधान इरावती अनमीवा अयक्ष्मा इत्यादि मन्त्रों द्वारा है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि इरावती के अमीवा, यक्ष्मा आदि रोगों से ग्रस्त होने का भय है । इरावती को सुरक्षित रखने की आवश्यकता है । इरावती और इरा में सम्बन्ध इसी प्रकार समझा जा सकता है जैसे सत्य और सत्यवती में । महाभारत में सत्यवती शन्तनु की भार्या बनकर चित्राङ्गद और विचित्रवीर्य नामक अल्पायु वाले पुत्रों को जन्म देती है । अतः इरावती की शुद्ध अवस्था इरा है । इरा की प्रकृति को संक्षेप में कौशिक सूत्र 20.6 के आधार पर समझा जा सकता है (इरावानसि धार्तराष्ट्रे तव मे सत्रे राध्यतामिति प्रतिमिमीते )। यह संदर्भ पृथिवी में सीर या हल चलाकर सीताएं बनाने का है । सीर को स इरा कहा जाता है, जो इरा से युक्त है, वही सीर बन सकता है । कहा जाता है कि इरा भूमि की वह शक्ति है जिसके द्वारा वनस्पति जगत गुरुत्वाकर्षण शक्ति के विपरीत ऊर्ध्व दिशा में आरोहण करने में समर्थ होता है । लेकिन सीर के संदर्भ में कहा जा रहा है कि जो इरा से युक्त होगा, वही भूमि को जोतने में, हल चलाने में समर्थ होगा ।

प्रथम लेखन : २९-१२-२००१ई.