PURAANIC SUBJECT INDEX

(From Nala to Nyuuha )

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

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Nala - Nalini( words like  Nala, Nalakuubara, Nalini etc.)

Nava - Naaga ( Nava, Navaneeta / butter, Navami / 9th day, Navaratha, Navaraatra, Nahusha, Naaka, Naaga / serpent  etc.)

Naaga - Naagamati ( Naaga / serpent etc.)

Naagamati - Naabhi  ( Naagara, Naagavati, Naagaveethi, Naataka / play, Naadi / pulse, Naadijangha, Naatha, Naada, Naapita / barber, Naabhaaga, Naabhi / center etc. )

Naama - Naarada (Naama / name, Naarada etc.)

Naarada - Naaraayana (  Naarada - Parvata, Naaraayana etc.)

Naaraayani - Nikshubhaa ( Naaraayani, Naarikela / coconut, Naaree / Nari / lady, Naasatya, Naastika / atheist, Nikumbha, Nikshubhaa  etc.)

Nigada - Nimi  ( Nigama, Nitya-karma / daily ablutions, Nidhaagha, Nidra / sleep, Nidhi / wealth, Nimi etc.)

Nimi - Nirukta ( Nimi, Nimesha, Nimba, Niyati / providence, Niyama / law, Niranjana, Nirukta / etymology etc. )

 Nirodha - Nivritti ( Nirriti, Nirvaana / Nirvana, Nivaatakavacha, Nivritti etc. )

Nivesha - Neeti  (Nishaa / night, Nishaakara, Nishumbha, Nishadha, Nishaada, Neeti / policy etc. )

Neepa - Neelapataakaa (  Neepa, Neeraajana, Neela, Neelakantha etc.)

Neelamaadhava - Nrisimha ( Neelalohita, Nriga, Nritta, Nrisimha etc.)

Nrihara - Nairrita ( Nrisimha, Netra / eye, Nepaala, Nemi / circumference, Neshtaa, Naimishaaranya, Nairrita etc.)

Naila - Nyaaya ( Naivedya, Naishadha, Naukaa / boat, Nyagrodha, Nyaaya etc.)

Nyaasa - Nyuuha ( Nyaasa etc. )

 

 

नाग पञ्चमी

 

बारह महीने के व्रत और त्यौहार

लेखक

पं० गौरीशंकर शर्मा पुजारी' साहित्य सुधाकर

अध्यक्ष --श्री आद्यशक्ति ज्योतिर्विज्ञान भवन, बिसाऊ

सहायक लेखिका

श्रीमती गोदावरी देवी शर्मा

 সকাহাক

गर्ग एण्ड कम्पनी, थोक पुस्तकालय

(लाल कटरे के ऊपर पहली मंजिल पर)

४८४ खारी बावली, दिल्ली-११०००६

१९७८

 

नाग पाँचे

श्रावण मास की बदी पंचमी को यह व्रत होता है। शास्त्र में सुदी में करना बताया है । लोकाचार में यह पैल सावणो पाँचे कही जाती है और चौथ के दिन रात को मोठ बाजरा भिगो दिया जाता है। पंचमी के दिन बासी रसोई जीमने का रिवाज है, इसलिए चौथ के दिन शाम को रसोई बनाकर रख दी जाती है । रसोई में खास कर गुलगुले बनाये जाते हैं । गुड़ के पानी में गेहूँ का चून घोलकर तेल में पकाये जाते हैं। बड़े, पकौड़ी, मीठी फीकी सुहाली, दाल की पूड़ी आदि भी बनाये जाते हैं । पाँचे के दिन जेबड़ी (मूंज की रस्सी) का टुकड़ा करीब एक हाथ का लेकर सात गाँठ लगाकर सर्प बनाया जाता है। कहीं पाटे पर कहीं जमीन पर रखकर पूजा की जाती है। पहले पानी और दूध मिलाकर नहलावे । ऐसा करने से नाग-देवता हिलते हैं तब उसे बिरि या बासारा चढ़ावे । मोई, गुलगुले आदि भी चढावे । रोली से चिरचे, टीके निकाले और कहानी सुने जो इस तरह है:

एक साहूकार के सात बेटों की बहुएं खन्दे-माटी गई । छः तो अपने २ बरतन मिट्टी से भरकर, उठाकर आ गई। सबसे छोटी को वहीं छोड़ दिया । उसने मन में कहा मुझे मिट्टी का बरतन कौन उठावे । मेरे तो बंबी में साँप भी नहीं है जो आकर मेरी सहायता करे अर्थात पीहर में कोई नहीं है। ऐसा उसे दुःख हुआ । ऐसा सोचते ही एक सर्प देवता आये और उसका दुःख सुनकर उसके बरतन को उसके सिर पर उठवा दिया । मिट्टी की जगह हीरे-पन्ने हो गए और उनके ऊपर मोटा-ताजा बच्चा सोया हुआ हो गया । घर आई और अपनी सास से कहा-सास जी बरतन उतरवाओ । सास ने उतरवाया और देखे तो हीरे मोती जगमगा रहे हैं और सुन्दर सा बालक खेल रहा है । सास ने कहा-बहू यह क्या है ? किसी की चोरी की या अन्यायी की, रास्ते में से लाई या किसी बदमाश से । बहू ने कहा-मैंने इनमें से कोई भी बुरा काम नहीं किया है । मेरी जेठानियाँ मुझे छोड़कर गई थीं। मन में दुःख उठा और विचार किया तो सर्प देवता कर बरतन सिर पर रख गये । यह सब भी उन्हीं की कृपा है। सास तो राजी हो गई । जेठानियां चिढ़ गई । वे भागी-भागी खदे पर गई । नाग देवता से बोलीं पने हमें तो धन दिया नहीं । देवरानी को इतना धन दिया । नाग देवता बोले मैंने तो मिट्टी की परात उठाई  थी । तुम भी भर लो। सबने खूब मिट्टी डाल ली । सबने बरतन उठवा लिये । घर गई । सास ने बरतन उतरवाये देखे तो कीड़े ही कीड़े भरे पड़े हैं और दो सर्प फुकार मार रहे हैं । सास ने कहा-बहु यह क्या ? बहुओं ने कहा- हम वापिस जाती हैं । देवता होकर इतना दगा क्यों किया । वापिस गई । सर्प को बुलवाया और कहादेवता होकर दगा क्यों किया ? सर्प ने बताया कि तुम्हारी देवरानी तो भावना की भूखी थी । तुम लालची हो । मेरे पास धन कहाँ । सबने हाथ जोड़ लिये और गे से अपनी देवरानी से मिलकर चलने को कहा । सबको परात उठवा दी । सब पर दो दो हार रख दिये । घर गई तो हार छिपाकर रख लिये बाकी का धन धा देवरानी को दे दिया । छिपाये हुये हार सर्प हो गये । सर्प देवता से विनती करी कि अपनी माया को समेटो । सर्प देवता बोला कि एक हार देवरानी को दो । सबने हाथ जोड़ कर हां भर ली । हार देवरानी को दे दिये । सब तो पीहर चली गई । छोटी पने घर में बैठी हुई विचार करने लगी कि मेरे तो बंबी में सांप देवता भी नहीं जो पीहर ले जावे । सर्प ने अपनी मां से कहा कि बहिन तो ज याद करती है। मां ने कहा जाकर ले । सर्प गया और उसे ले या । सांपों की माँ उनके लिये रोज दूध ठंडा करती । एक दिन अपनी बेटी से बोली बेटी दूध ठंडा होने पर टाली हिलाना उसने गर्म पर ही टाली हिला दी । साँप ने ठोड़ी टिकाई तो दूध गर्म था। सर्प बोले मां बाई को वापिस भेजो यह तो अचपली है । उसको दहेज देकर उसकी ससुराल भेज दी । जेठानियाँ चिढ़ने लगीं । एक दिन देवरानी के लड़के बुहारी के तार बखेर रहे थे । जेठानियों ने बोल मारा तुम्हारे तो नाने मामे सर्प हैं सोने चाँदी की दे जायेंगे हमारे तो तिनकों की ही है । सांपों ने अपनी मां से कहा और सोने चांदी की बुहारी उनके घर में डाल गये । एक दिन बिरिया बाजरा बखेरने लगे तो कह दिया कि तुम्हारे नाने मामे कोने में लगे सुनते हैं बोरे भर कर डाल जायेंगे और दूसरे दिन ऐसा ही हु । सबने विचार किया कि इसके तो बोल-बोल पर घर भरता है हम तो घाटे में रहेंगी । उस दिन से सबने बोल मारना छोड़ दिया । हे सर्प देवता देवरानी पर खुश हुये वैसे सब पर ही होना ।

 

विवेचन

उपरोक्त कथा के कुछेक तथ्यों का विश्लेषण करने का प्रयास किया जा सकता है। पांच उपप्राण कहे गए हैं – नाग, कृकल, कूर्म, देवदत्त व धनञ्जय। इनमें से नाग प्राण को उपनिषदों आदि में सार्वत्रिक रूप से उद्गार के लिए उत्तरदायी कहा गया है( कूर्म प्राण अक्षि निमीलन के लिए, कृकल भक्षण के लिए, देवदत्त तन्द्रा के लिए, धनञ्जय श्लेष्मा के लिए)। लोकभाषा में क्षुधा की पूर्ण तृप्ति हो जाने के पश्चात् जो डकार आती है, उसे उद्गार कहते हैं। लेकिन विशेष अर्थ समझने के लिए उद्गिरण शब्द को समझना पडेगा। हमारे शरीर में जो ऊर्जा है, नाग प्राण उसका उद्गिरण करता है, उसे ऊपर उठाता या फेंकता है, वैसे ही जैसे दीमक या चूहा बांबी से मिट्टी को । सामान्य रूप से तो ऐसा हो नहीं सकता। नाग प्राण स्थूल प्राण का, ऊर्जा का शोधन करता है, आधुनिक विज्ञान की भाषा में उसकी एण्ट्रांपी, अव्यवस्था में न्यूनता लाता है, लोक की भाषा में उसे धनात्मक, धन वाला बनाता है। तब वह प्राण स्वयं ही ऊपर उठने लगेगा। जब हम उपवास करते हैं तो सिर में दर्द होने लगता है। यह नाग प्राण का ही योगदान है जिसने अशुद्ध शक्ति का शोधन करके उसे सिर तक पहुंचाया है। कथा में इसे मिट्टी खोदना कहा जा रहा है। इस मिट्टी को खोदकर अपने सिर पर रखना है। जो कार्य लोक में बाहर से किया जाता है, उसे आध्यात्मिक स्वरूप देना है। मिट्टी खोदने का कार्य विपश्यना ध्यान में इस प्रकार किया जाता है कि अपने श्वास पर ध्यान दो कि शरीर में वह कहां – कहां स्पर्श कर रहा है इत्यादि। अन्दर की मिट्टी खोदने के हर साधना के अपने – अपने प्रकार हो सकते हैं। प्रेम की साधना में यह मिट्टी विद्युत की सिहरन से भी खोदी जा सकती है। उपवास की स्थिति में जो ऊर्जा सिर में दर्द उत्पन्न करती है, साधना की प्रगति होने पर वही सिर में शीतलता भी ला सकती है। ऐसी मिट्टी को कहा जाएगा कि वह हीरे मोती बन गए हैं। इस प्रकार के  ऊर्जा के रूपांतरण के लिए नाग प्राण को उत्तरदायी माना गया है।

     ऐसा प्रतीत होता है कि सफलता के लिए केवल नाग प्राण से ही काम चलने वाला नहीं है, अपितु नाग, कृकल, कूर्म, देवदत्त व धनंजय पांचो को सिद्ध करना पडेगा। तभी धनञ्जय रूपी धन पर जय प्राप्त हो पाएगी। देवदत्त हमारा भाग्य है।

 

नाग प्राण का वैदिक व पौराणिक स्वरूप

वैदिक साहित्य में नाग शब्द प्रकट नहीं हुआ है, नाक शब्द प्रकट अवश्य  हुआ है। स्वर्ग लोक को नाक कहा जाता है। नाक का शाब्दिक अर्थ है – न – अकः, जहां दुःख नहीं है, आनन्द ही आनन्द है। स्कन्द पुराण काशी खण्ड में कहा गया है कि धन देने वाले  तो घर – घर में मिल जाएंगे, लेकिन नाक अलकापति तो एक ही है। क्या नाक शब्द पुराणों के नाग शब्द का प्रतिनिधित्व करता है, इसे सिद्ध करने के लिए विश्लेषण की आवश्यकता है। कर्मकाण्ड में, नाग प्राण सोमयाग के प्रवर्ग्य कर्म का प्रतिनिधि है। प्रवर्ग्य कर्म इस प्रकार सम्पन्न होता है कि उबलते हुए घृत में पयः का प्रक्षेपण किया जाता है जिससे ऊंची ज्वालाएं निकलती हैं। इसे प्रवर्ग्य कहा जाता है। जब यह क्रिया अभ्यास से पक जाती है तभी सोम की आहुति देना संभव हो पाता है। जैसा कि अन्यत्र उल्लेख किया जा चुका है, एक ब्रह्मौदन है, एक प्रवर्ग्य। ब्रह्मौदन वह ऊर्जा है जो एक बार ऊपर उठने के पश्चात् नीचे नहीं आती। प्रवर्ग्य वह ऊर्जा है जिसे बार – बार उठाया जाता है, लेकिन वह फिर नीचे खिसक जाती है, उसकी एण्ट्रांपी फिर अधिक हो जाती है। यह नाग प्राण का गुण है। इस फिसलने वाली ऊर्जा को अग्नि या गरुड ही ऊपर उठाकर स्तम्भित कर सकते हैं। पुराणों में इस प्रक्रिया को इस प्रकार कहा गया है कि जनमेजय के सर्प सत्र में सर्पों का अग्नि में होम किया जाने लगा। अथवा कि गरुड सांप को खा जाता है। महापुरुषों के मुख के परितः जो आभामण्डल बनाया जाता है, वह प्रवर्ग्य ऊर्जा का ही चित्र रूप है। इस प्रवर्ग्य ऊर्जा को ब्रह्मौदन का रूप देना है जिससे यह कलुषित होकर फिर से नाग प्राण न बन जाए। जब प्रवर्ग्य क्रिया पक जाती है तो फिर अनुमान है कि मुख पर दिखाई देने वाला तेज अग्नि व सोम के मिलने से उत्पन्न ज्योति के रूप में होता है। पौराणिक व वैदिक साहित्य में अग्नीषोम का बहुत महत्त्व है। सोमयाग में सुत्या अह से पूर्व अग्नीषोमीय अह होता है।

     वैदिक साहित्य में जहां नाक शब्द प्रकट हुआ है, कुछ संदर्भों में नाक के पश्चात् स्वः स्तर का उल्लेख है जिससे संकेत मिलता है कि स्वः स्थिति नाक स्तर के पश्चात् की स्थिति है। कुछ संदर्भों में नाक को स्वः के ऊपर का स्तर कहा गया है। स्वर्ग भी स्वः का ही एक रूप है। और स्वर्ग का अवगुण यह है कि जब पुण्य समाप्त हो जाते हैं तो वहां से वापस आना पडता है। अतः यह भी नाग प्राण जैसी स्थिति हो गई। व्यावहारिक रूप में ऐसा कौन सा उपाय हो सकता है जिससे नाग प्राण का उतरना – चढना समाप्त हो और स्थिर पद मिले, यह अन्वेषणीय है।

क्व नाकपृष्ठगमनं पुनरावृत्तिलक्षणम् १६

क्व जपो वासुदेवस्य मुक्तिबीजमनुत्तमम् – पद्म 6.71.16

 

यह कहा जा सकता है कि नाग धीमी गति से साधना में प्रगति का मार्ग है, जबकि अग्नि या गरुड त्वरित गति से साधना में प्रगति का मार्ग है । एक पितृयान मार्ग है तो दूसरा देवयान मार्ग ।  उपनिषद में इसे प्राण और रयि नाम दिया गया है । रयि शब्द से पुराणों में रयिवत्, रैवत, रेवा, रेवती आदि शब्द बने हैं । यही कारण हो सकता है कि गरुड या अग्नि की प्रवृत्ति नाग या सर्प का भक्षण करने की होती है । लेकिन धीमी प्रगति वाली क्रिया को नष्ट नहीं किया जा सकता । इसे ही जनमेजय के सर्पसत्र में आस्तीक द्वारा नागों की रक्षा के रूप में दिखाया गया है(कथा है कि जनमेजय के सर्पसत्र में आस्तीक ने आकर सर्पसत्र को बंद करा दिया था) । धीमी प्रक्रिया वाली साधना का उपयोग ब्रह्म को सुब्रह्म बनाने में किया जा सकता है । इसका अर्थ है कि काम, क्रोध आदि जो सर्प हैं, वह हमारे शरीर में विष फैलाते हैं । क्रोध आने पर रक्त में कुछ विशेष प्रकार के रस मिल जाते हैं जिन्हें विष कहा जा सकता है । लेकिन पुराण कथाओं से संकेत मिलता है कि काम, क्रोध आदि को भी मिटाने की आवश्यकता नहीं है, अपितु उनका सदुपयोग करके सौभरि बनने की, आस्तीक बनने की, डा. फतहसिंह के शब्दों में आस्तिक्य बुद्धि उत्पन्न करने की आवश्यकता है कि जो कुछ हुआ है, वह हमारे कल्याण के लिए ही हुआ है, भवितव्यता ने हमारे कल्याण के लिए ही किया है। क्रोध की, विद्रोह की आवश्यकता नहीं है, अपितु सोच – समझकर आगे का मार्ग निर्धारित करने की आवश्यकता है।

इसके पश्चात् हम नाग पंचमी की लोककथा की व्याख्या के लिए फिर एक प्रयास कर सकते हैं। एक तथ्य तो यह है कि सात बहुओं को भूमि में अलग – अलग स्थानों पर नहीं खोदना है, अपितु एक ही स्थान पर खोदते जाना है। यह कठोर साधना है जिसके 7 स्तर हैं। छह स्तरों तक तो एक स्तर दूसरे स्तर का सहयोग कर रहा है, लेकिन सातवें स्तर पर कोई बाहरी सहयोग मिलने वाला नहीं है। इसकी यात्रा अकेले ही करनी है। और जब तक यह सातवां स्तर सिद्ध न हो जाए, तब तक ब्रह्मोदन की स्थिति, जहां से ऊर्जा पहुंच कर वापस नहीं जाती, प्राप्त नहीं की जा सकती। एक बार ब्रह्मौदन की स्थिति प्राप्त हो जाए तो उसका लाभ पूरे ब्रह्माण्ड को मिलना चाहिए। वैदिक साहित्य में ब्रह्मौदन की स्थिति को नाकसद और ब्रह्माण्ड को लाभ की स्थिति को पंचचूडा नाम दिया गया है। पञ्चचूडा स्थिति में अपने परितः प्रत्येक वस्तु को – जड हो या चेतन – प्रभावित किया जा सकता है। वैष्णव सम्प्रदायों में इस स्थिति को नाम दिया गया है – तुलसी माला बांधना, विष्णु के पद रखना आदि। तुलसी के पति का नाम है शंखचूड। चूड को अतिरिक्त ऊर्जा नाम दिया गया है। संगीत में एक पंचम स्वर है। उससे पहला स्वर मध्यम है। जो मध्यम स्वर है, वह सातवें स्तर की साधना है। जो पंचम स्वर है, वह चूड स्थिति, ब्रह्माण्ड को लाभ पहुंचाने की स्थिति है। कहा गया है कि नारद जी अपनी वीणा पंचम स्वर में बजाते हैं। कोकिल पंचम स्वर में बोलती है। यही पंचमी तिथि हो सकती है कि हमारे व्यक्तित्व के परितः कोई वस्तु अछूती न रहे।  

सर्प व नाग शब्दों में क्या अन्तर है, यह विचारणीय है। हो सकता है कि सर्प केवल तिर्यक् दिशा में सर्पण करते हों जबकि नाग ऊर्ध्व – अधोदिशा में।

गरुड पुराण १.१९.१४ में सर्प विष हरण हेतु मन्त्र कुरु कुले स्वाहा है । कुरु का न्यास कण्ठ में किया जाता है जबकि कुल का न्यास गुल्फ (लोकभाषा में एडी या घुट्टी) में। स्वाहा का पादयुगल में । आज के चिकित्सा विज्ञान में इतना तो ज्ञात है कि हमारे शरीर में जिन नयी कोशिकाओं का जन्म होता है, उनका मूल अस्थियों के अन्दर स्थित मज्जा है । लेकिन मन्त्र कुरु कुले स्वाहा के न्यास से संकेत मिलता है कि कोशिकाओं का जन्म स्थान गुल्फ के अन्दर स्थित मज्जा है जिसे कुल कहा गया है । कुल का पति कुरु है । कुल का नियन्त्रण कुरु द्वारा होता है । यदि कैन्सर रोग में कुल से विकृत कोशिकाओं का जनन हो रहा है, तो इसका अर्थ होगा कि कुरु शक्ति दुर्बल पड गई है । कुल शक्ति कूप में पडी हुई है जिसका उद्धार कुरु द्वारा ही हो सकता है । महाभारत में कुरु कुल का वर्णन है । राजा कुरु अष्टाङ्ग धर्म की कृषि करते हैं । कुरु का दूसरा रूप कुरुक्षेत्र है जो गीता का मूल है। वास्तविक कुरु वह है जहां कोई कार्य करने की आवश्यकता न पडे, विचार करते ही कल्पवृक्ष की भांति वह कार्य सम्पन्न हो जाए। कुरुकुल को उपनिषदों का कृकल कहा जा सकता है जहां इसे भक्षण करने वाला प्राण कहा गया है। कृकल शब्द की व्याख्या अन्यत्र की जा चुकी है, लेकिन इस शब्द की व्याख्या कईं प्रकार से की जा सकती है। कृक का अर्थ होता है ध्वनि की पुनरावृत्ति करना । कृकवाकु मयूर को कहते हैं । वह ध्वनि सुनकर तुरन्त उसकी पुनरावृत्ति करता है । पुराणों में इसे केका शब्द कहा गया है जो मुनियों के आश्रम में मन्त्रों की ध्वनि सुनकर उसकी पुनरावृत्ति करता है ।

     नागों को कद्रू के पुत्र कहा गया है । कद्रू को कर्द्द या कर्दम धातु के आधार पर समझने का प्रयास किया जा सकता है । कर्दम का अर्थ है जो पाप या कार्य कारण की शृङ्खला अग्नि द्वारा जला दी जाती है, वह कर्दम या कीचड बन जाती है ।

 

       पौराणिक साहित्य में नाग शब्द का  हस्ती अर्थों में प्रचुरता से प्रयोग हुआ है । नग पर्वत को कहते हैं ।  वैदिक आधार पर नाग शब्द के अर्थ का अनुमान लगाने के लिए  नाग शब्द को  + अघ, अर्थात् जिसमें अघ, पाप नहीं है, अथवा जो पापों का वर्जन करता है, के रूप में भी सोचा जा सकता है। घ घनत्व को, घनता को कहते हैं । जहां घनता नहीं है, विरलता है, वह अघ है । घ घनत्व को, घनता को कहते हैं । जहां घनता नहीं है, विरलता है, वह अघ है ।

सर्प और वाल शिव पुराण २.१.१२.३४ में नागों द्वारा शिव के प्रवाल निर्मित लिङ्ग की पूजा का उल्लेख है । स्कन्द पुराण में शतरुद्रिय के संदर्भ में नागों द्वारा विद्रुम निर्मित शिवलिङ्ग की पूजा का उल्लेख आता है । पुराणों में सार्वत्रिक रूप से सर्पों का जन्म ब्रह्मा के बालों से कहा गया है । ब्रह्माण्ड पुराण १.२.८.३५ में उल्लेख आता है कि तप के अन्त में ब्रह्मा ने देखा कि उनके तप के फलस्वरूप राक्षस, गुह्यक आदि क्षुधाविष्ट प्रजा की सृष्टि हुई है जो जलों का भक्षण करने को आतुर है। इससे ब्रह्मा को क्रोध उत्पन्न हुआ । इससे उनके केश शीर्ण हो गए । यह शीर्ण हुए बाल बार बार ऊपर उठने का प्रयास करते थे । शिर के बालों के कारण उनका व्याल नाम पडा, अपसर्पण के कारण सर्प, हीनत्व से अहि, पन्नत्व से पन्नग इत्यादि । जो उनका अग्निगर्भ क्रोध था, वह सर्पों के मुख का विष बन गया । इस आख्यान में बाल या वाल शब्द महत्त्वपूर्ण है । सर्पों से सम्बन्धित बहुत सी पौराणिक कथाओं में किसी न किसी प्रकार से बाल का समावेश किया गया है । कद्रू विनता प्रसंग में उच्चैःश्रवा की पूंछ के बाल काले हैं या श्वेत, इसको लेकर पण होता है । डा. फतहसिंह के अनुसार वाल बिखरी हुई ऊर्जा को कहते हैं । यह हो सकता है कि हमारी देह से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में जो रश्मियां निकलती हैं, वह वाल कहलाती हों । हमारे विचार भी वाल की श्रेणी में आएंगे । ब्रह्माण्ड पुराण के आख्यान का कहना है कि इन वालों में इतनी शक्ति नहीं है कि यह ऊर्ध्वमुखी आरोहण कर सकें । यह ऊपर उठते हैं, फिर गिर जाते हैं । इसलिए सर्प कहलाते हैं । यह सर्प का बहुत क्षुद्र रूप होगा । सोमयाग में यज्ञ के सारे सदस्य मिलकर प्राग्वंश से उत्तरवेदी में प्रसर्पण करते हैं । सभी सदस्य एक के पीछे एक खडे हो जाते हैं। कौन किसके पीछे खडा होगा, इसका एक निर्धारित क्रम है । यह सभी सदस्य अपने सिर पर एक चादर को अपने हाथों से पकडे रहते हैं।

गार्गेयपुरम्, कर्नूल में 20 जनवरी – 1 फरवरी 2015 तक आयोजित ज्योति अप्तोर्याम सोमयाग का एक दृश्य(श्री राजशेखर शर्मा द्वारा प्रदत्त चित्र शृंखला से)

 

इसका तात्पर्य यह हुआ कि जब सारी वाल शक्ति को शृङ्खलाबद्ध कर दिया जाए, तब सर्प का निर्माण होता है जो आरोहण करने में समर्थ होता है। इसी प्रसर्पण का एक दूसरा प्रकार भी है जिसमें यजमान सहित यज्ञ के ऋत्विज एक के पीछे एक दूसरे का पल्ला पकड कर खडे होते हैं । इसमें भी ऋत्विजों का एक क्रम होता है । प्रसर्पण करते समय इनकी चाल वक्रित होती है ।

 

          भविष्य पुराण १.३४.२३ तथा गरुड पुराण १.१९.७ में ग्रहों के नागों के साथ तादात्म्य का कथन है । इस कथन के अनुसार अनन्त नाग भास्कर का रूप है, वासुकि सोम का, तक्षक मंगल का, कर्कोटक बुध का, पद्म बृहस्पति का, महापद्म शुक्र का और कुलिक व शंखपाल शनि का । अन्यत्र ग्रहों को सुपर्ण कहा जाता है । अतः यह विचारणीय है कि किस स्थिति में ग्रह नाग रूप हैं, किस स्थिति में सुपर्ण रूप । हो सकता है कि ग्रहों की नीच स्थिति नाग रूप हो और उच्च स्थिति सुपर्ण रूप ।

 

     महाभारत का केन्द्रबिन्दु हस्तिनापुर है जिसका दूसरा नाम नाग/ नागसाह्वया है ।

प्रथम लेखन – 1-8-2015ई.(श्रावण कृष्ण प्रतिपदा, विक्रम संवत् २०७२)  

संदर्भ

न हि वेदोक्तमुत्सृज्य विप्रः सर्वेषु कर्मसु |
देवयानेन नाकस्य पृष्ठमाप्नोति भारत ॥॥ - महाभारत शान्ति 12.5

गौतम उवाच॥

प्राजापत्याः सन्ति लोका महान्तो; नाकस्य पृष्ठे पुष्कला वीतशोकाः |

मनीषिताः सर्वलोकोद्भवानां; तत्र त्वाहं हस्तिनं यातयिष्ये ॥४०॥ महाभारत अनुशासन 102.40

 

अनीतयश्च तद्ग्रामानाराजपुरुषाः क्वचित् ।। गृहेगृहेत्र धनदा नाकएकोऽलकापतिः ।। 4.1.43.३३ ।। - स्कन्द काशी

ययातिरुवाच-

धर्मस्य रक्षकः कायो मातले चात्मनासह

नाकमेष न प्रयाति तन्मे त्वं कारणं वद १ पद्म 2.65.1

क्व नाकपृष्ठगमनं पुनरावृत्तिलक्षणम् १६

क्व जपो वासुदेवस्य मुक्तिबीजमनुत्तमम् – पद्म 6.71.16

पूषा च हस्तिजिह्वा च व्याननागौ प्रभञ्जनौ  ॥८६.००८

विषयो रूपमेवैकमिन्द्रिये पादचक्षुषी  ।८६.००९

शब्दः स्पर्शश्च रूपञ्च त्रय एते गुणाः स्मृताः  ॥८६.००९

अवस्थात्र षुप्तिश्च रुद्रो देवस्तु कारणं  ।८६.०१० अग्नि

 

व्यानो विनामयत्यङ्गं व्यानो व्याधिप्रकोपनः  ।२१४.०१२

प्रतिदानं तथा कण्ठाद्व्यापानाद्व्यान उच्यते  ॥२१४.०१२

उद्गारे नाग इत्युक्तः कूर्मश्चोन्मीलने स्थितः  ।२१४.०१३

कृकरो भक्षणे चैव देवदत्तो विजृम्भिते  ॥२१४.०१३

धनञ्जयः स्थितो घोषे मृतस्यापि न मुञ्चति  ।२१४.०१४ अग्नि

तेजसा वैनतेयस्य पन्नगा इव पातकाः

विद्रवंति च वैशाखस्नानेनोषसि निश्चितम् ६ पद्म 5.93.6

चांदनं च मयो नागाः प्रवालमयमादरात् – शिव 2.1.12.34

नागा विद्रुमलिंगं च नाम लोकत्रयंकरम् – स्कन्द 1.2.13.157

अशान्तेग्नौ तु वरुणः सिषेच शीतलैर्जलैः। सहस्रफणिनं नागं गिरिशोस्मै ददावथ।। तेन बद्धोदरो यस्माद् व्यालबद्धो दरोभवत्। तथापिशैत्यं नापेदे कंठोस्यानलसंयुतः।। अष्टाशीति सहस्राणि मुनयस्तं प्रपेदिरे। अमृता इव दूर्वास्ते प्रत्येकं सैकविंशतिम्।। आयोपयन् मस्तकेस्य ततः शान्तोनलोभवत्।। - गणेश पुराण 1.64.15

पञ्चमीव्रतकं वक्ष्ये आरोग्यस्वर्गमोक्षदं(१)  ।१८०.००१

नभोनभस्याश्विने च कार्त्तिके शुक्लपक्षके  ॥१८०.००१

वासुकिस्तक्षकः पूज्यः कालीयो मणिभद्रकः  ।१८०.००२

ऐरावतो धृतराष्ट्रः कर्कोटकधनञ्जयौ  ॥१८०.००२

एते प्रयच्छन्त्यभयमायुर्विद्यायशः श्रियम् ॥३॥१८०.००३ – अग्नि पुराण 180

एतद्वायुसंसर्गकोपाधिभेदेन रेचकः पाचकः शोषको दाहकः प्लावक इति प्राणमुख्यत्वेन पञ्चधा जठराग्निर्भवति॥ १८॥  क्षारक उद्धारकः(दारकः?) क्षोभको जृम्भको मोहक इति नाग(अपान?)प्राधान्येन पञ्चविधास्ते मनुष्याणां देहगा भक्ष्यभोज्यशोष्यलेह्यपेयात्मकपञ्चविधमन्नं पाचयन्ति॥ १९॥  एता दशवह्निकलाः सर्वज्ञाद्या अन्तर्दशारदेवताः ॥ २०॥– भावनोप.

उद्गारे नाग आख्यातः कूर्म उन्मीलने तथा । कृकरः क्षुत्करो ज्ञेयो देवदत्तो विजृम्भणे ॥ २५॥  न जहाति मृतं वापि सर्वव्यापी धनञ्जयः । - योगचूडामण्युपनिषद

उद्गारादि नागकर्म । निमीलनादि कूर्मकर्म । क्षुत्करणं कृकरकर्म । तन्द्रा देवदत्तकर्म । श्लेष्मादि धनञ्जयकर्म- शाण्डिल्योपनिषद

यः क्षेत्रज्ञमेवास्तमेति भास्वतीमेवाप्येति यो भास्वती- मेवास्तमेति नागमेवाप्येति यो नागमेवास्तमेति विज्ञान- मेवाप्येति यो विज्ञामेवास्तमेत्यानन्दमेवाप्येति – सुबालोपनिषद

अथ यज्ञायज्ञीयम्। स ह स नाक एव स्तोमः। आदित्य एव सः। एष हि न कस्मै चनाकम् उदयति।– जै.ब्रा. 1.313

अथैते नाकसदः। स्वर्गं ह वै लोकं देवा अभ्यारुरुहुः। ते स्वर्गं लोकं गत्वा सार्धम् एवाव्यवसिता आसन्। ते ऽकामयन्त नाके स्वर्गे लोके व्यवस्येमेति। त एतान् नाकसद स्तोमान् अपश्यन्। तान् आहरन्त। तैर् अयजन्त। ततो वै ते नाके स्वर्गे लोके व्यवास्यन्। यन् नाके स्वर्गे लोके व्यवास्यंस् तन् नाकसदां नाकसत्त्वम्। - जै.ब्रा. 2.207

तद् एवैतद् द्वादशाहस्य दशमम् अहर् अभवत्। सो ऽब्रवीन् न वै म इदम् अकम् अभूद् इति। यद् अब्रवीन् न वै  म इदम् अकम् अभूद् इति तन् नाकस्य नाकत्वम्। स एष वाव नाको यद् दशमम् अहर्, एष स्वर्गो लोक, एतद् ब्रध्नस्य विष्टपम्॥3.345॥

अथ हैते प्रजापतिलोका एवात ऊर्ध्वाः। कामो ऽष्टमस्, सुवर् नवमो, नाक एव दशमम् अहः। इदम् एव प्रायणम् अद उदयनम्। - 3.347

VERSE: 3 { 1.3.4.3}
सुवर्गं लोकम्̐ षोडशिनः स्तोत्रेण
देवयानान् एव पथ आरोहत्य् अतिरात्रेण ।
नाकम्̐ रोहति बृहतः स्तोत्रेण  - तै.ब्रा. 1.3.4.3

देवस्याहम्̐ सवितुः प्रसवे बृहस्पतिना वाजजिता वर्षिष्ठं नाकम्̐ रुहेयम् इत्य् आह
सवितृप्रसूत एव ब्रह्मणा वर्षिष्ठं नाकम्̐ रोहति - 1.3.6.1


 

विषूचः शत्रूनपबाधमानौ    अप क्षुधं नुदतामरातिम्    पूर्णा पश्चादुत पूर्णा पुरस्तात्    उन्मध्यतः पौर्णमासी जिगाय    तस्यां देवा अधि संवसन्तः    उत्तमे नाक इह मादयन्ताम्    पृथ्वी सुवर्चा युवतिः सजोषाः    पौर्णमास्युदगाच्छोभमाना    आप्याययन्ती दुरितानि विश्वा    उरुं दुहां यजमानाय यज्ञम्  १२ – तै.ब्रा. 3.1.1.

दिवि नाको नामाग्निः    तस्य विप्रुषो भागधेयम्    अग्नये बृहते नाकायेत्याह    नाकमेवाग्निं भागधेयेन समर्धयति  - तै.ब्रा. 3.2.1.

दिवि नाको नामाग्नी रक्षोहा    एवास्माद्र क्षाँ स्यपाहन्न्  - तै.ब्रा.

 

नाकस्य पृष्ठायाभिषेक्तारम्    ब्रध्नस्य विष्टपाय पात्रनिर्णेगम्  -तै.ब्रा. 3.4.1.

ज्योतिरभूवँ  सुवरगमम्    सुवर्गं लोकं नाकस्य पृष्ठम्    ब्रध्नस्य विष्टपमगमम्    पृथिवी दीक्षा – तै.ब्रा.

 

१.२.२.[१४]

तं श्रपयति । देवस्त्वा सविता श्रपयत्विति न वा एतस्य मनुष्यः श्रपयिता देवो ह्येष तदेनं देव एव सविता श्रपयति वर्षिष्ठेऽधि नाक इति देवत्रो एतदाह यदाह वर्षिष्ठेऽधि नाक इति तमभिमृशति श्रृतं वेदानीति तस्माद्वा अभिमृशति

५.१.२.[६]

पृथिविसदं त्वान्तरिक्षसदं दिविसदं देवसदं नाकसदमुपयामगृहीतो ऽसीन्द्राय त्वा जुष्टं गृह्णाम्येष ते योनिरिन्द्राय त्वा जुष्टतममिति सादयत्येष वै देवसन्नाकसदेष एव देवलोको देवलोकमेवैतेनोज्जयति

५.१.५.[३]

त्रिः सामाभिगायति । त्रिरभिगीयावरोहति देवस्याहं सवितुः सवे सत्यप्रसवसो बृहस्पतेरुत्तमं नाकमरुहमिति यदि ब्राह्मणो यजते ब्रह्म हि बृहस्पतिर्ब्रह्म हि ब्राह्मणः

५.१.५.[४]

अथ यदि राजन्यो यजते । देवस्याहं सवितुः सवे सत्यप्रसवस इन्द्रस्योत्तमं नाकमरुहमिति क्षत्रं हीन्द्रः क्षत्रं राजन्यः

6.3.3.14

तत एनं खनेमेत्येतत्सुप्रतीकमिति सर्वतो वा अग्निः सुप्रतीकः स्वो रुहाणा अधि नाकमुत्तममिति स्वर्गो वै लोको नाकः स्वर्गं लोकं रोहन्तोऽधि नाकमुत्तममित्येतत्तं

6.7.2.4

वि नाकमख्यत्सविता वरेण्य इति स्वर्गो वै लोको नाकस्तमेष उद्यन्नेवानुविपश्यत्यनु प्रयाणमुषसो विराजतीत्युषा वा अग्रे व्युच्छति तस्या एष व्युष्टिं विराजन्ननूदेति

८.४.१.[२४]

नाकः षट्त्रिंश इति । य एव षट्त्रिंश स्तोमस्तं तदुपदधात्यथो संवत्सरो वाव नाकः षट्त्रिंशस्तस्य चतुर्विंशतिरर्धमासा द्वादश मासास्तद्यत्तमाह नाक इति न हि तत्र गताय कस्मै चनाकं भवत्यथो संवत्सरो वाव नाकः संवत्सरः स्वर्गो लोकस्तदेव तद्रूपमुपदधाति

८.५.३.[४]

यद्वेव स्तोमभागा उपदधाति । एतद्वै देवा विराजं चितिं चित्वा समारोहंस्ते ऽब्रुवंश्चेतयध्वमिति चितिमिच्छतेति वाव तदब्रुवंस्ते चेतयमाना नाकमेव स्वर्गं लोकमपश्यंस्तमुपादधत स यः स नाकः स्वर्गो लोक एतास्ता स्तोमभागास्तद्यदेता उपदधाति नाकमेवैतत्स्वर्गं लोकमुपधत्ते

८.६.१.[१]

नाकसद उपदधाति । देवा वै नाकसदोऽत्रैष सर्वोऽग्निः संस्कृतः स एषोऽत्र नाकः स्वर्गो लोकस्तस्मिन्देवा असीदंस्तद्यदेतस्मिन्नाके स्वर्गे लोके देवा असीदंस्तस्माद्देवा नाकसदस्तथैवैतद्यजमानो यदेता उपदधात्येतस्मिन्नेवैतन्नाके स्वर्गे लोके सीदति

 

८.६.१.[२]

यद्वेव नाकसद उपदधाति । एतद्वै देवा एतं नाकं स्वर्गं लोकमपश्यन्नेता स्तोमभागास्तेऽब्रुवन्नुप तज्जानीत यथास्मिन्नाके स्वर्गे लोके सीदामेति ते ऽब्रुवंश्चेतयध्वमिति चितिमिच्छतेति वाव तदब्रुवंस्तदिच्छत यथास्मिन्नाके स्वर्गे लोके सीदामेति

8.6.1.5

वाक्च तौ मनश्च तौ हीदं सर्वं विधारयतस्ते त्वा सर्वे संविदाना नाकस्य पृष्ठे स्वर्गे लोके यजमानं च सादयन्त्विति यथैव यजुस्तथा बन्धुः

८.६.१.[११]

अथ पञ्चचूडा उपदधाति । यज्ञो वै नाकसदो यज्ञ उ एव पञ्चचूडास्तद्य इमे चत्वार ऋत्विजो गृहपतिपञ्चमास्ते नाकसदो होत्राः पञ्चचूडा अतिरिक्तं वै तद्यद्धोत्रा यदु वा अतिरिक्तं चूडः स तद्यत्पञ्चातिरिक्ता तस्मात्पञ्चचूडाः

 

८.६.१.[१२]

यद्वेव नाकसत्पञ्चचूडा उपदधाति । आत्मा वै नाकसदो मिथुनं पञ्चचूडा अर्धमु हैतदात्मनो यन्मिथुनं यदा वै सह मिथुनेनाथ सर्वोऽथ कृत्स्नः कृत्स्नतायै

 

८.६.१.[१३]

यद्वेव नाकसत्पञ्चचूडा उपदधाति । आत्मा वै नाकसदः प्रजा पञ्चचूडा अतिरिक्तं

वै तदात्मनो यत्प्रजा यदु वा अतिरिक्तं चूडः स तद्यत्पञ्चातिरिक्तास्तस्मात्पञ्चचूडाः

 

८.६.१.[१४]

यद्वेव नाकसत्पञ्चचूडा उपदधाति । दिशो वै नाकसदो दिश उ एव पञ्चचूडास्तद्या अमुष्मादादित्यादर्वाच्यः पञ्च दिशस्ता नाकसदो याः पराच्यस्ताः पञ्चचूडा अतिरिक्ता वै ता दिशो या अमुष्मादादित्यात्पराच्यो यदु वा अतिरिक्तं चूडः स तद्यत्पञ्चातिरिक्तास्तस्मात्पञ्चचूडाः

 

८.६.१.[१५]

यद्वेव पञ्चचूडा उपदधाति । एतद्वै देवा अबिभयुर्यद्वै न इमाँल्लोकानुपरिष्टाद्रक्षांसि नाष्ट्रा न हन्युरिति त एतानेषां लोकानामुपरिष्टाद्गोप्तॄनकुर्वत - य एते हेतयश्च प्रहेतयश्च। तथैवैतद्यजमान एतानेषां लोकानामुपरिष्टाद्गोप्तॄन्कुरुते य एते हेतयश्च प्रहेतयश्च।

९.२.३.[२४]

अथाग्निमारोहन्ति । क्रमध्वमग्निना नाकमिति स्वर्गो वै लोको नाकः क्रमध्वमनेनाग्निनैतं स्वर्गं लोकमित्येतदुख्यं हस्तेषु बिभ्रत इत्युख्यं ह्येत एतं हस्तेषु बिभ्रति दिवस्पृष्ठं स्वर्गत्वा मिश्रा देवेभिराध्वमिति दिवस्पृष्ठं स्वर्गं लोकं गत्वा मिश्रा देवेभिराध्वमित्येतत्

९.२.३.[२६]

पृथिव्या अहम् । उदन्तरिक्षमारुहमन्तरिक्षाद्दिवमारुहमिति गार्हपत्याद्ध्याग्नीध्रीयमागच्छन्त्याग्नीध्रीयादाहवनीयं दिवो नाकस्य पृष्ठात्स्वर्ज्योतिरगामहमिति दिवो नाकस्य पृष्ठात्स्वर्गं लोकमगामहमित्येतत्

९.४.४.[३]

स मध्यमं परिधिमुपस्पृश्य । एतद्यजुर्जपत्यग्निं युनज्मि शवसा घृतेनेति बलं वै शवोऽग्निं युनज्मि बलेन च घृतेन चेत्येतद्दिव्यं सुपर्णं वयसा बृहन्तमिति दिव्यो वा एष सुपर्णो वयसो बृहन्धूमेन तेन वयं गमेम ब्रध्नस्य विष्टपं स्वर्गं लोकं रोहन्तोऽधि नाकमुत्तममित्येतत्

सर्वैव द्वितीया सर्वा तृतीया सर्वा चतुर्थ्यथ पञ्चम्यै चितेरसपत्ना नाकसदः पञ्चचूडास्ता ऊर्ध्वा उत्क्रामन्त्य आयंस्ताभ्यः प्रजापतिरबिभेत्सर्वं वा इदमिमाः पराच्योऽत्येष्यन्तीति ता धाता भूत्वा पर्यगच्छत्तासु प्रत्यतिष्ठत्

 

९.५.१.[३७]

स यः स धातासौ स आदित्यः । अथ यत्तद्दिशां परमं क्रान्तमेतत्तद्यस्मिन्नेष एतत्प्रतिष्ठितस्तपति

(.९.२ ) अस्य देवाः प्रदिशि ज्योतिरस्तु सूर्यो अग्निरुत वा हिरण्यम् ।

(.९.२ ) सपत्ना अस्मदधरे भवन्तूत्तमं नाकमधि रोहयेमम् ॥२॥

(.९.४ ) ऐषां यज्ञमुत वर्चो ददेऽहं रायस्पोषमुत चित्तान्यग्ने ।

(.९.४ ) सपत्ना अस्मदधरे भवन्तूत्तमं नाकमधि रोहयेमम् ॥४॥

(.२९.३ ) यो ददाति शितिपादमविं लोकेन संमितम् ।

(.२९.३ ) स नाकमभ्यारोहति यत्र शुल्को न क्रियते अबलेन बलीयसे ॥३॥

(.१४.२ ) क्रमध्वमग्निना नाकमुख्यान् हस्तेषु बिभ्रतः ।

(.१४.२ ) दिवस्पृष्ठं स्वर्गत्वा मिश्रा देवेभिराध्वम् ॥२॥

 

(.१४.३ ) पृष्ठात्पृथिव्या अहमन्तरिक्षमारुहमन्तरिक्षाद्दिवमारुहम् ।

(.१४.३ ) दिवो नाकस्य पृष्ठात्स्वर्ज्योतिरगामहम् ॥३॥

(.१४.६ ) अजमनज्मि पयसा घृतेन दिव्यं सुपर्णं पयसं बृहन्तम् ।

(.१४.६ ) तेन गेष्म सुकृतस्य लोकं स्वरारोहन्तो अभि नाकमुत्तमम् ॥६॥

(.१४.९ ) शृतमजं शृतया प्रोर्णुहि त्वचा सर्वैरङ्गैः संभृतं विश्वरूपम् ।

(.१४.९ ) स उत्तिस्ठेतो अभि नाकमुत्तमं पद्भिश्चतुर्भिः प्रति तिष्ठ दिक्षु ॥९॥

(.६३.३ ) अयस्मये द्रुपदे बेधिष इहाभिहितो मृत्युभिर्ये सहस्रम् ।

(.६३.३ ) यमेन त्वं पितृभिः संविदान उत्तमं नाकमधि रोहयेमम् ॥३॥

(.८४.४ ) अयस्मये द्रुपदे बेधिष इहाभिहितो मृत्युभिर्ये सहस्रम् ।

(.८४.४ ) यमेन त्वं पितृभिः संविदान उत्तमं नाकमधि रोहयेमम् ॥४॥

(.५३.७ ) उद्वयं तमसस्परि रोहन्तो नाकमुत्तमम् ।

(.५३.७ ) देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् ॥७॥

(.७३.६ ) उप द्रव पयसा गोधुगोषमा घर्मे सिञ्च पय उस्रियायाः ।

(.७३.६ ) वि नाकमख्यत्सविता वरेण्योऽनुप्रयाणमुषसो वि राजति ॥६॥

(.८०.१ ) पूर्णा पश्चादुत पूर्णा पुरस्तादुन्मध्यतः पौर्णमासी जिगाय ।

(.८०.१ ) तस्यां देवैः संवसन्तो महित्वा नाकस्य पृष्ठे समिषा मदेम ॥१॥

(.५.१ ) आ नयैतमा रभस्व सुकृतां लोकमपि गच्छतु प्रजानन् ।

(.५.१ ) तीर्त्वा तमांसि बहुधा महान्त्यजो नाकमा क्रमतां तृतीयम् ॥१॥

(.५.३ ) प्र पदोऽव नेनिग्धि दुश्चरितं यच्चचार शुद्धैः शफैरा क्रमतां प्रजानन् ।

(.५.३ ) तीर्त्वा तमांसि बहुधा विपश्यन्न् अजो नाकमा क्रमतां तृतीयम् ॥३॥

(.५.१० ) अजस्त्रिनाके त्रिदिवे त्रिपृष्ठे नाकस्य पृष्ठे ददिवांसं दधाति ।

(.५.१० ) पञ्चौदनो ब्रह्मणे दीयमानो विश्वरूपा धेनुः कामदुघास्येका ॥१०॥ {११}

(.५.१५ ) एतास्त्वाजोप यन्तु धाराः सोम्या देवीर्घृतपृष्ठा मधुश्चुतः ।

(.५.१५ ) स्तभान् पृथिवीमुत द्यां नाकस्य पृष्ठेऽधि सप्तरश्मौ ॥१५॥

(१०.८.१२ ) अनन्तं विततं पुरुत्रानन्तमन्तवच्चा समन्ते ।

(१०.८.१२ ) ते नाकपालश्चरति विचिन्वन् विद्वान् भूतमुत भव्यमस्य ॥१२॥

(१०.१०.११ ) यत्ते क्रुद्धो धनपतिरा क्षीरमहरद्वशे ।

(१०.१०.११ ) इदं तदद्य नाकस्त्रिषु पात्रेषु रक्षति ॥११॥

(११.१.४ ) समिद्धो अग्ने समिधा समिध्यस्व विद्वान् देवान् यज्ञियामेह वक्षः ।

(११.१.४ ) तेभ्यो हविः श्रपयं जातवेद उत्तमं नाकमधि रोहयेमम् ॥४॥

(११.१.७ ) साकं सजातैः पयसा सहैध्युदुब्जैनां महते वीर्याय ।

(११.१.७ ) ऊर्ध्वो नाकस्याधि रोह विष्टपं स्वर्गो लोक इति यं वदन्ति ॥७॥

(११.१.३७ ) येन देवा ज्योतिषा द्यामुदायन् ब्रह्मौदनं पक्त्वा सुकृतस्य लोकम् ।

(११.१.३७ ) तेन गेष्म सुकृतस्य लोकं स्वरारोहन्तो अभि नाकमुत्तमम् ॥३७॥ {}

(१३.२.४६ ) अबोध्यग्निः समिधा जनानां प्रति धेनुमिवायतीमुषासम् ।

(१३.२.४६ ) यह्वा इव प्र वयामुज्जिहानाः प्र भानवः सिस्रते नाकमच्छ ॥४६॥ {११}

(१८.२.४७ ) ये अग्रवः शशमानाः परेयुर्हित्वा द्वेषांस्यनपत्यवन्तः ।

(१८.२.४७ ) ते द्यामुदित्याविदन्त लोकं नाकस्य पृष्ठे अधि दीध्यानाः ॥४७॥

(१८.४.४ ) त्रयः सुपर्णा उपरस्य मायू नाकस्य पृष्ठे अधि विष्टपि श्रिताः ।

(१८.४.४ ) स्वर्गा लोका अमृतेन विष्ठा इषमूर्जं यजमानाय दुह्राम् ॥४॥

(१८.४.१४ ) ईजानश्चितमारुक्षदग्निं नाकस्य पृष्ठाद्दिवमुत्पतिष्यन् ।

(१८.४.१४ ) तस्मै प्र भाति नभसो ज्योतिषीमान्त्स्वर्गः पन्थाः सुकृते देवयानः ॥१४॥

(१९.७.१ ) चित्राणि साकं दिवि रोचनानि सरीसृपाणि भुवने जवानि ।

(१९.७.१ ) तुर्मिशं सुमतिमिच्छमानो अहानि गीर्भिः सपर्यामि नाकम् ॥१॥

 १६ नागबलिः ।

अथ नागबलिः ।। सर्पहतानां दारुमयं मृन्मयं वा पञ्चफणं सर्पं कृत्वा भाद्रपदस्यान्यस्ये वा मासस्य शुक्लपञ्चमीमारभ्य यावत्संवत्सरं प्रतिमासं तस्यामुपोषितो रात्रौ पञ्चामृतैः स्नापयित्वा शुचावासने शुचिः सुरभिगन्धपुष्पधूपदीपैरभ्यर्च्य प्रणमेत् । अनुमासमेकैकमनन्तं वासुकिं शेषं पद्मं कम्बलं कर्कोटकमश्वतरं धृतराष्ट्रं शङ्खपालं कालीयं तक्षकं कपिलमिति पायससर्पिःक्षीरापूपैर्बलिमुपहृत्य जागरित्वा श्वोभूते त्रिवृतान्नेन ब्राह्मणान्भोजयित्वा पूर्णे संवत्सरे पञ्चम्यां च स्नात्वा सौवर्णं सर्पं गां च ब्राह्मणाय दत्त्वाऽन्यांश्च यथेष्टं भोजयित्वा दक्षिणया तोषयित्वा नागान्प्रीतिं वाचयेद् । एष नागबलिः अथोभयोः पक्षयोः पञ्वमीषु संमृष्टायां भुवि पिष्टेन सर्पमुल्लिख्य शुक्लसुरभिगन्धादिभिरभ्यर्च्य क्षीरमोदकान्निवेद्योपस्थाय मुञ्च मुञ्च देवदत्तमिति प्रार्थ्य सह बन्धुभिर्मधुरमश्नीयादेवं संवत्सरान्ते नारायणबलिं चोक्त वत्कृत्वा तत ऊर्ध्वं कर्म कुर्यात् ।। १६ ।।