PURAANIC SUBJECT INDEX

(From Nala to Nyuuha )

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

HOME PAGE


Nala - Nalini( words like  Nala, Nalakuubara, Nalini etc.)

Nava - Naaga ( Nava, Navaneeta / butter, Navami / 9th day, Navaratha, Navaraatra, Nahusha, Naaka, Naaga / serpent  etc.)

Naaga - Naagamati ( Naaga / serpent etc.)

Naagamati - Naabhi  ( Naagara, Naagavati, Naagaveethi, Naataka / play, Naadi / pulse, Naadijangha, Naatha, Naada, Naapita / barber, Naabhaaga, Naabhi / center etc. )

Naama - Naarada (Naama / name, Naarada etc.)

Naarada - Naaraayana (  Naarada - Parvata, Naaraayana etc.)

Naaraayani - Nikshubhaa ( Naaraayani, Naarikela / coconut, Naaree / Nari / lady, Naasatya, Naastika / atheist, Nikumbha, Nikshubhaa  etc.)

Nigada - Nimi  ( Nigama, Nitya-karma / daily ablutions, Nidhaagha, Nidra / sleep, Nidhi / wealth, Nimi etc.)

Nimi - Nirukta ( Nimi, Nimesha, Nimba, Niyati / providence, Niyama / law, Niranjana, Nirukta / etymology etc. )

 Nirodha - Nivritti ( Nirriti, Nirvaana / Nirvana, Nivaatakavacha, Nivritti etc. )

Nivesha - Neeti  (Nishaa / night, Nishaakara, Nishumbha, Nishadha, Nishaada, Neeti / policy etc. )

Neepa - Neelapataakaa (  Neepa, Neeraajana, Neela, Neelakantha etc.)

Neelamaadhava - Nrisimha ( Neelalohita, Nriga, Nritta, Nrisimha etc.)

Nrihara - Nairrita ( Nrisimha, Netra / eye, Nepaala, Nemi / circumference, Neshtaa, Naimishaaranya, Nairrita etc.)

Naila - Nyaaya ( Naivedya, Naishadha, Naukaa / boat, Nyagrodha, Nyaaya etc.)

Nyaasa - Nyuuha ( Nyaasa etc. )

 

 

ESOTERIC ASPECT OF NAARADA/NARADA/NARAD

  None of the characters in puraanas is historical. Accordingly, Naarada is also not a person, but a personification of specific kind of consciousness.

    There are three ways to understand this character. First, on the basis of word 'Naarada' itself, because an important clue is always hidden in the name. Secondly, on the basis of the important story of the origin and development of Naarada described in Bhaagavata puraana and thirdly on the basis of  several stories related to Naarada.

    The derivation of Naarada establishes it as a divine and intetrated consciousness. Now, the question arises how this type of consciousness can be achieved. Bhaagavata puraana shows a very clear path through which one can attain that situation. This path is shown by a symbolic story.

    First of all, a person should possess saatvic nature. This nature produces faith with which one gets the association of wise. This association takes away all the impurities of senses, mind and intellect and the person is harnessed with knowledge. With the help of this knowledge, one can swim properly in the river of action(karma). Every action done ignorantly binds a person, but the same action liberates when done consciously. At last, devotion takes place and a person is fully surrendered in the feet of almighty. These three step namely - knowledge, action and devotion transform the consciousness into intetrated divinity called Naarada.

    In different stories Naarada has three main characteristics. First, he wanders in Triloki(three planes of nature) as well as in Vaikuntha(the chamber of God). This description depicts Naarada a pure and divine consciousness, because a divine consciousness only has the capacity to enter the chamber of God. It also reflects Naarada as a consciousness residing in whole or integrity. Second, Naarada is a great devotee of God. A devotee is one who is devoted to the supreme consciousness. This also means that Naarada is a consciousness of high grade. Third, Naarada reaches to the different       powers or faculties, no matter good or bad, immediately when they are in trouble. Naarada either solves their difficulties or only directs them as required. It also hints Naarada a divine consciousness handling all our powers whenever they lose their balance.

    Thus, we can say that Naarada symbolizes such a divine and integrated consciousness which directs all the powers in the human body and a person having this consciousness is always directed internally, not externally.

नारद का आध्यात्मिक स्वरूप

-         राधा गुप्ता

नारद पौराणिक साहित्य का एक ऐसा प्रसिद्ध पात्र है जो वैकुण्ठ लोक के साथ साथ सम्पूर्ण त्रिलोकी में भी बिना बाधा के विचरण करता है और अनुग्रहशील चेतना से युक्त होने के कारण किसी भी दैवी अथवा आसुरी व्यक्तित्व के समक्ष उस समय तुरन्त उपस्थित हो जाता है जब वह किसी अनिर्णय की स्थिति में हो अथवा चिन्तित या खिन्न हो । भागवत पुराण के प्रारम्भ में ही कथा है कि भागवतकार ने भागवत की रचना से पूर्व एक ही वेद को चार भागों में विभक्त किया था एवं महाभारत जैसे वेदार्थ प्रतिपादक ग्रन्थ की रचना भी की थी परन्तु उस अत्यन्त विशिष्ट कार्य को सम्पन्न करके भी उनके हृदय को सन्तोष प्राप्त नहीं हो रहा था और वे स्वयं को अपूर्ण सा मानकर खिन्नता का अनुभव कर रहे थे । उसी समय नारद जी उनके पास पहुंचे और उन्हें यथोचित दिशा निर्देश के रूप में भगवान् के यश, महिमा एवं लीला का वर्णन करने वाले ग्रन्थ के सृजन हेतु प्रेरित करके पुनः स्वच्छन्द विचरण करने के लिए वहां से चले गए । स्वयं भागवत पुराण में ही तथा सम्पूर्ण पौराणिक साहित्य में कदम कदम पर नारद जी से सम्बन्धित ऐसी सहस्रों कथाएं हैं जो हमें नारद नामक व्यक्तित्व को समझने के लिए प्रेरित करती हैं।

पौराणिक साहित्य का अध्ययन करते समय हमें सर्वप्रथम इस तथ्य को अत्यन्त दृढतापूर्वक अपने हृदय में स्थापित कर लेना चाहिए कि यहां प्रस्तुत किए गए पात्र किसी ऐतिहासिक व्यक्ति को लक्षित नहीं करते, अपितु मनुष्य की ही चेतना की अत्यन्त गूढ भिन्न भिन्न स्थितियों अथवा अवस्थाओं को बताने, समझाने के लिए उन उन स्थितियों को पात्रों के रूप में खडा किया गया है, अर्थात् गुह्य चेतना विशेष का मानवीकरण करके उसे हमें समझाने का प्रयास किया गया है । नारद भी कोई व्यक्ति नही है, अपितु मनुष्य की एक विशिष्ट चेतना का प्रतीक है जिसे नारद नामक विशिष्ट शब्द में अभिहित किया गया है ।

     इस नारद नामक चेतना को तीन आधारों पर समझने का प्रयास किया जा सकता है । प्रथम नारद शब्द की बनावट के आधार पर क्योंकि पौराणिक साहित्य की यह अपनी विशेषता है कि इसमें शब्द के भीतर ही उसके अर्थ को छिपाकर रखने का प्रयास किया गया है । द्वितीय, भागवत पुराण में वर्णित नारद के पूर्व जन्म की कथा के आधार पर तथा तृतीय विभिन्न कथाओं में नारद नामक व्यक्तित्व के पदार्पण के आधार पर ।

१-     सर्वप्रथम नारद शब्द की व्युत्पत्ति के आधार पर इस नारद चेतना को समझने का प्रयास करें ।

नारद शब्द की निरुक्ति दो प्रकार से की जा सकती है । पहली निरुक्ति के अनुसार नारद शब्द ना तथा रद नामक दो शब्दों के मिलने से बना है । ना का अर्थ है नहीं तथा रद(रद् धातु का अर्थ है टुकडे टुकडे करना) का अर्थ है टुकडे टुकडे । अतः नारद शब्द का अर्थ हुआ मनुष्य की एक ऐसी चेतना जो टुकडे टुकडे अर्थात् विभाजित नहीं है, अपितु समग्रता में स्थित है । दूसरी निरुक्ति के अऩुसार नारद शब्द नार तथा द नामक दो शब्दों के योग से बना है । नार का अर्थ है दिव्य प्रकृति ( स्थूल शरीर, मन, बुद्धि, चित्तादि  ) जिसे दिव्य आपः भी कहा जाता है तथा द का अर्थ है देना । अतः नारद का अर्थ हुआ मनुष्य की दिव्य अष्टधा प्रकृति द्वारा प्रदत्त दिव्य चेतना । मनुष्य की अष्टधा प्रकृति जब दिव्य होती है, तब ही समग्रता में स्थित हो पाती है, अदिव्य प्रकृति तो टुकडों टुकडों में बंटी रहती है । इस प्रकार उपर्युक्त वर्णित दोनों ही निरुक्तियों के आधार पर नारद का अर्थ हुआ मनुष्य की वह विशिष्ट चेतना जो समग्रता में स्थित हो ।

समग्र स्थिति को भिन्न भिन्न प्रकार से समझा जा सकता है । कोशों के आधार पर मनुष्य की चेतना अन्नमय , प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, हिरण्यमय तथा आनन्दमय नामक कोशों में क्रियाशील है । यह क्रियाशील चेतना जब दिव्य होकर एकीभूत हो जाती है, तब समग्र कहलाती है । दूसरे प्रकार से मनुष्य के शारीरिक (physical), मानसिक (mental and social), भावनात्मक(emotional) और आध्यात्मिक(spiritual) स्तरों की चेतना का दिव्य होकर एक हो जाना समग्र स्थिति है । एक अन्य प्रकार से उसे प्रकृतिगत दिव्य चेतना की पुरुषगत (आत्मगत) चेतना से एकाकारता भी कह सकते हैं। भागवतकार ने प्रकृतिगत दिव्य चेतना को प्रद्युम्न, अनिरुद्ध तथा संकर्षण एवं पुरुषगत अथवा आत्मगत चेतना को वासुदेव कहा है । इस चतुर्व्यूह रूपी मूर्ति के द्वारा ही यज्ञ पुरुष का यजन किया जा सकता है ( प्रथम स्कन्ध, अध्याय ५, श्लोक ३७-३८)। सार रूप यही है कि मनुष्य की चेतना अनेक स्तरों पर क्रियाशील है । जब तक सभी स्तरों की चेतना दिव्य नहीं बन जाती, तब तक आत्म चेतना के साथ एकाकार नहीं हो पाती । एकाकार हो जाना ही समग्र स्थिति है । शास्त्रीय भाषा में यह समग्र स्थिति योग तथा भक्ति भी कहलाती है । इसीलिए नारद को भगवान् के भक्त के रूप में स्मरण किया गया है ।

2- नारद चेतना को समझने का दूसरा आधार श्रीमद् भागवत के प्रथम स्कन्ध के अध्याय ५ एवं ६ में वर्णित नारद जी का पूर्व चरित्र है । पूर्व चरित्र का अर्थ है नारद चेतना के निर्माण से पहले उसके जन्म तथा साधना(विकास ) की कथा । जन्म तथा साधना की यह कथा प्रतीकात्मक शैली में है । अतः कथा को तथा उसके तात्पर्य को जानना आवश्यक है । सबसे पहले कथा को संक्षिप्त रूप से जान लेना उपयोगी होगा ।

कथा का संक्षिप्त स्वरूप

          नारद जी अपने पूर्व चरित्र का वर्णन करते हुए कहते हैं कि मैं वेदवादी योगी ब्राह्मणों की एक दासी का लडका था । बचपन में ही मां के द्वारा उन योगियों की सेवा में नियुक्त कर दिया गया था । मैं किसी प्रकार की चचलता अथवा खेलकूद आदि नहीं करता था और उनकी आज्ञानुसार उन्हीं की सेवा में लगा रहता था । मैं बोलता भी बहुत कम था । उनकी अनुमति से बरतनों में लगा हुआ जूठन मैं एक बार खा लिया करता था, इससे मेरे सारे पाप धुल गए थे । उनके संग से मेरे मन बुद्धि भी निश्चल तथा निर्मल हो गए थे । अतः उन महात्माओं ने जाते समय कृपा करके मुझे गुह्यतम ज्ञान का उपदेश दिया । मैं अपनी माता का इकलौता पुत्र था, अतः मां के स्नेह बन्धन से बंधकर कुछ समय तक उस ब्राह्मण बस्ती में ही रहा । एक दिन मेरी मां गौ दुहने के लिए रात के समय घर से बाहर निकली । रास्ते में उसके पैर से सांप छू गया, जिसने उस बेचारी को डस लिया । काल की ऐसी ही प्रेरणा थी । इसके बाद मैं उत्तर दिशा की ओर चल पडा । नाना देशों, नगरों, गांवों, पर्वतों, जलाशयों, वनों को पार करता हुआ मैं बहुत थक गया था । थक जाने के कारण मुझे बहुत भूख एवं प्यास लगी थी । वहीं बहती हुई एक नदी में मैंने स्नान, जलपान एवं आचमन किया जिससे मेरी थकावट मिट गई । उस विजन वन में एक पीपल के नीचे आसन लगा कर बैठ गया और महात्माओं से जैसा मैंने सुन रखा था, परमात्मा के उसी स्वरूप का मैं मन ही मन ध्यान करने लगा । भक्तिभाव से भगवान् के चरण कमलों का ध्यान करते हुए हृदय में धीरे धीरे भगवान् प्रकट हो गए, परन्तु उनका वह दर्शन क्षणिक ही रहा । तत्पश्चात् भगवान् ने कहा कि अब तुम्हारी चित्तवृत्ति मुझमें स्थिर हो गई है, इसलिए तुम इस प्राकृत शरीर को छोडकर मेरे पार्षद हो जाओगे । उचित समय आने पर मेरा पांचभौतिक शरीर नष्ट हो गया और मैं ब्रह्मा जी की श्वास के साथ भगवान् के शरीर में प्रविष्ट हो गया । पुनः ब्रह्मा जी के जगने और सृष्टि होने पर मैं मरीचि आदि ऋषियों के साथ नारद रूप में प्रकट हो गया । तभी से मैं वैकुण्ठादि में तथा तीनों लोकों में बिना रोकटोक विचरता रहता हूं ।

कथा के प्रतीकों पर एक दृष्टि

     अब हम कथा के प्रतीकों पर एक दृष्टि डाल लें ।

१- वेदवादी योगी ब्राह्मण सत्पुरुषों अथवा सद्ग्रन्थों के सदुपदेशों का प्रतीक हैं ।

२- दासी शब्द मनुष्य की सात्त्विक प्रकृति का प्रतीक है । जैसे दासी अपने स्वामी के आदेशों का पालन विनम्रतापूर्वक, झुककर करती है, वैसे ही सात्त्विक प्रकृति ही सत्पुरुषों अथवा सद्ग्रन्थों के सदुपदेशों के प्रति विनम्र होती है । राजसिक तथा तामसिक प्रकृति में विनम्रता का भाव नहीं होता ।

३- दासी का लडका सात्त्विक प्रकृति के श्रद्धा नामक विशिष्ट गुण को इंगित करता है । श्रद्धा भाव की सहायता से ही सदुपदेशों को ग्रहण करना सम्भव हो पाता है ।

४- बालक का चंचलता से रहित होना, जितेन्द्रिय होना, कम बोलना यह इंगित करता है कि श्रद्धा भाव से सदुपदेशों का पालन मनुष्य को एकाग्र तथा तर्क कुतर्क से रहित बनाता है ।

बालक द्वारा बरतनों में लगी हुई जूठन एक बार खा लेने का अर्थ है सत्पुरुष अथवा सद्ग्रन्थ जिस ज्ञान का निरूपण करते हैं, वह यद्यपि वास्तविक अनुभवात्मक ज्ञान की जूठन सदृश ही है, फिर भी उसे श्रद्धापूर्वक ग्रहण कर लेना चाहिए ।

६- जूठन खाने से पापों का प्रक्षालन होने का अर्थ है ज्ञान के प्रति ग्रहणशीलता होने पर मनुष्य के भावों विचारों में शुद्धि अवश्य आती है ।

७- ज्ञान प्रदान करके महात्माओँ के चले जाने का अर्थ है सत्पुरुषों अथवा सद्ग्रन्थों का लक्ष्य मनुष्य को ज्ञान प्रदान करने तक ही सीमित है । उससे आगे की कर्म की यात्रा मनुष्य को स्वयं ही करनी है ।

८- बालक का ब्राह्मण बस्ती में रहने का अर्थ है श्रद्धापूर्वक सदुपदेशों पर चिन्तन -मनन करना ।

९-कहानी में कहा गया है कि बालक की मां रात के अंधेरे में गौ दुहने के लिए निकली, परन्तु सांप के ऊपर पैर पड जाने से सांप ने उसे डस लिया और वह मर गई। यहां रात का अंधेरा अज्ञान का प्रतीक है । गौ दुहने का अर्थ है सात्त्विक प्रकृति द्वारा विज्ञानमय कोश की उच्चतर चेतना को प्राप्त करने की इच्छा । सांप का अर्थ है विषय रूपी विष वाला यह संसार । पैर पड जाने से सांप के डसने का अभिप्राय है जैसे सांप केवल पैर पड जाने अर्थात् चोट खाने पर ही डंसता है, अन्यथा नहीं, वैसे ही यह संसार भी मनुष्य को तब तक ही पीडित करता अथवा मारता है जब तक मनुष्य अज्ञान से युक्त रहकर इस संसार में व्यवहार करता है । ज्ञानयुक्त व्यवहार करने वाला अर्थात् अनासक्ति निष्कामता से युक्त होकर अकर्ताभाव से कर्म करने वाला योगी अथवा ज्ञानी मनुष्य तो इस संसार में सुखपूर्वक विहार करता है । यह कथन इंगित करता है कि सात्त्विक प्रकृति अज्ञान से युक्त होने के कारण साधना के दूसरे चरण कर्म अथवा ज्ञानयुक्त आचरण में मनुष्य को नहीं ले जा सकती । साधना का दूसरा चरण ज्ञानयुक्त चेतना से ही आरम्भ होता है ।

१०- नदी में स्नान करने से थकावट का मिटना इंगित करता है कि ज्ञानयुक्त चेतना(अनासक्ति, निष्कामता, अकर्ताभाव से युक्त) जब परमात्म समर्पित भाव से कर्म करती है, तब ही त्रिविध तापों से युक्त इस संसार में तापों से मुक्ति मिल पाती है ।

११- विजन वन में पीपल के नीचे आसन लगाकर बैठ जाना जीव जगत के वास्तविक स्वरूप के प्रति चिन्तन मनन को इंगित करता है ।

१२- परमात्म स्वरूप का क्षणिक दर्शन ज्ञान तथा कर्म के योग से मनुष्य की अपनी ही दृष्टि के परिवर्तन को संकेतित करता है । अज्ञान अवस्था में मनुष्य की जो दृष्टि जगत् रूप से अस्तित्व का दर्शन करती थी, वही दृष्टि अब उसी अस्तित्व का परमात्म स्वरूप से दर्शन करने लगती है ।

 

१३- भगवान् का पार्षद बन जाना मनुष्य की अष्टधा प्रकृति(स्थूल, सूक्ष्म शरीरगत चेतना) का दिव्य हो जाना है । यह दिव्य प्रकृति ही आत्म चैतन्य से सम्बन्ध स्थापित करने की सामर्थ्य से युक्त होती है ।

१४- ब्रह्मा जी की श्वास के साथ भगवान् में प्रविष्ट हो जाना तथा पुनः ब्रह्मा जी की सृष्टि के समय नारद रूप में प्रकट हो जाना चेतना के पूर्ण रूपान्तरण को इंगित करता है । सात्त्विक प्रकृतिगत अज्ञानयुक्त चेतना ही एक न एक दिन दिव्य तथा समग्र होकर नारद चेतना के रूप में प्रकट हो जाती है ।

     प्रस्तुत कथा में नारद चेतना प्राप्त करने के लिए साधना के रूप में ज्ञान, कर्म और भक्ति का बहुत ही सुन्दरता से समन्वय किया गया है । साधना का प्रारम्भ मनुष्य की सात्त्विक प्रकृति से होता है । सर्वप्रथम सात्त्विक प्रकृति ही मनुष्य को सत्पुरुषों अथवा सद्ग्रन्थों के संग की ओर प्रेरित करती है । यह सात्त्विक प्रकृति श्रद्धा नामक एक विशिष्ट गुण से युक्त होती है । इस श्रद्धा की सहायता से मनुष्य भौतिक आकर्षणों से दूर होकर सत्पुरुषों अथवा सद्ग्रन्थों के सदुपदेशों की ओर प्रवृत्त हो जाता है । और तर्क कुतर्क से दूर रहकर उन सदुपदेशों को ग्रहण करने के लिए प्रयत्नशील होता है । यद्यपि ज्ञान का निरूपण करने वाले सभी सद्वचन ज्ञान की जूठन सदृश ही हैं क्योंकि अनुभवात्मक ज्ञान को शबदों में सम्यक् रूप से व्यक्त ही नहीं किया जा सकता । फिर भी जब मनुष्य श्रद्धापूर्वक इस जूठन सदृश ज्ञान को ही हृदयंगम करता है तब उसकी मन बुद्धि की अशुद्धताएं दूर हो जाती हैं, कुभाव समाप्त हो जाते हैं और इस विराट अस्तित्व के प्रति उसकी समझ का भी परिष्कार होता है । सत्पुरुषों अथवा सद्ग्रन्थों का लक्ष्य मनुष्य को गुह्यतम ज्ञान से युक्त करना ही है । इस प्राप्त ज्ञान का आश्रय लेकर कर्म या आचरण के क्षेत्र में उतरना मनुष्य की साधना का दूसरा चरण है । परमात्मा के प्रति समर्पित भाव से किए गए कर्म मनुष्य का संसार ताप से उद्धार करते हैं । साधना के तीसरे चरण में मनुष्य की दृष्टि परिवर्तित हो जाती है । यह विराट जगत् विराट ब्रह्म के रूप में प्रतीत होने लगता है । यही समग्र दृष्टि है, भक्त दृष्टि है । साधना के इन तीनों चरणों को पार करते हुए मनुष्य की प्रकृतिगत चेतना इतनी शुद्ध, दिव्य हो जाती है कि वह आत्म चैतन्य के साथ घुलने मिलने की सामर्थ्य से युक्त हो जाती है । यही नारद चेतना का निर्माण है ।

     ३- नारद चेतना को समझने का तीसरा आधार वे विभिन्न कथाएं हैं जिनमें उनका पदार्पण अकस्मात् होता है और आवश्यक दिशा निर्देश करके वे तुरन्त विदा हो जाते हैं । ये कथाएं कईं प्रकार की हैं । कुछ कथाएं तो ऐसी हैं जहां मन की शुद्ध सात्त्विक शक्तियों के खिन्न होने पर नारद तुरन्त उनके पास उपस्थित होते हैं और समुचित सूचना देकर उनकी खिन्नता को दूर करते हैं । उदाहरण के लिए, भागवत ग्रन्थ में ही अध्याय  में धृतराष्ट्र एवं गान्धारी को न पाकर युधिष्ठिर के चिन्तित होने पर नारद तुरन्त उनकी चिन्ता को दूर करते हैं । कुछ कथाएं ऐसी हैं जहां किसी प्रबल शक्ति के द्वारा किसी प्राकृतिक नियम को भंग होते देख देवताओं के किंकर्तव्यविमूढ होने पर नारद तुरन्त आकर उनका मार्गदर्शन करते हैं । उदाहरण के लिए, बाल हनुमान द्वारा सूर्य को ग्रास बनाने का प्रयत्न करने पर नारद से प्रेरित इन्द्र द्वारा बाल हनुमान पर वज्र का प्रहार । कुछ कथाएं ऐसी हैं जहां नारद आसुरी शक्तियों को केवल सचेत करके चले जाते हैं । उदाहरण के लिए, कंस द्वारा देवकी पुत्रों के वध के लिए प्रयत्नशील होने पर नारद द्वारा समस्त यदुवंशियों की देवरूपता का प्रतिपादन करना । कथाएं सहस्रों हैं, परन्तु समस्त कथाओं का सार एक ही है कि नारद चेतना अनुग्रहशील चेतना है । वह दैवी आसुरी सभी शक्तियों का यथोचित मार्गदर्शन करती है ।

     उपर्युक्त वर्णित तीन आधारों पर नारद नामक पौराणिक व्यक्तित्व का अध्ययन करने पर सरल रूप में निष्कर्ष यह निकलता है कि जब किसी मनुष्य की प्रकृतिगत चेतना(स्थूल सूक्ष्म शरीरगत) दिव्य होकर समग्रता में स्थित हो जाती है, तब वही प्रकृतिगत चेतना नारद कहलाती है । मनुष्य में निहित यह नारद चेतना उस मनुष्य में क्रियाशील समस्त शारीरिक, प्राणिक, मानसिक तथा बौद्धिक शक्तियों का यथायोग्य मार्गदर्शन करती रहती है । ऐसे मनुष्य को किसी बाहरी मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं रहती, अपितु वह अपनी अन्तर्निहित नारद नामक चेतना से सतत् निर्देशित होता रहता है। व्यावहारिक रूप में ऐसा भी कह सकते हैं कि मनुष्य में प्रत्येक स्तर पर जो सहस्रों शक्तियां क्रियाशील हैं, उनमें एक अन्तर्सम्बन्ध तथा सन्तुलन बना हुआ है । किसी एक शक्ति के विचलित अथवा विघटित होने पर यह अन्तर्सम्बन्ध तथा सन्तुलन भी बाधित होता है और मनुष्य अस्वस्थ हो जाता है । नारद चेतना का प्राक्ट्य होने पर शक्तियों का यह अन्तर्सम्बन्ध तथा सन्तुलन बाधित नहीं होता क्योंकि नारद नामक दिव्य चेतना के निरन्तर निर्देशन से कोई भी शक्ति विचलित अथवा ह्रास को प्राप्त नहीं होती । महापुरुषों के स्वतः स्फूर्त होने का कारण यही है ।